की-पैड की एक क्लीक पर मौजूद होगा आपकी जिंदगी का नक्शा। आपके डॉक्टर को एक मिनट में पता चल जाएगा आपका मर्ज, और पल भर में वो आपको बता देंगे कि भविष्य में आपको क्या बीमारी हो सकती है। जो बीमारी आपको बीस साल बाद होने वाली है उसके लिए अभी से तैयार होगी दवा। जी नहीं ये कोई चमत्कार नहीं, ये विज्ञान है। भारत उन चुनिंदा देशों में शामिल हो गया है जिन्होनें मानव जीनोम को डीकोड कर लिया है। और अब वो दिन दूर नहीं जब जीनोम का नक्शा आपकी बीमारी के जंजाल को कम कर देगा।
शरीर का सारा राज जीन में छुपा है। जीन के भंडार को जीनोम कहते हैं। जैसे पानी का एक अणु हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को मिलाकर बनता है। उसका फॉर्मूला होता है एचटूओ। ठीक वैसे ही हमारा जीनोम 31 लाख अलग अलग फॉर्मूलों से बना है। सोचिए आपके शरीर में एक साथ 31 लाख अलग अलग फॉर्मूले। इन्हीं फॉर्मूलों में छुपा है सारा राज।
दुनिया के कई विकसित देशो ने ये राज समझा। लेकिन अब भारत भी छठां ऐसा देश बन चुका है जिसके पास है पूरे इंसानी जीनोम का नक्शा। यानि पूरे 31 लाख फॉर्मूले की जानकारी।
दरअसल वैज्ञानिकों ने अपना प्रयोग शुरू किया झारखंड के 52 साल के एक शख्स पर। वक्त बीतता रहा और इस शख्स के शरीर के सारे राज खुलते गए। जैसे ही सारे राज खुले एक दुखद सच सामने आया। वैज्ञानिकों के मुताबिक इस इंसान के जीनोम को डीकोड करने पर ये पता चला कि इसे कैंसर होने का खतरा है।
वैज्ञानिकों ने इस इंसान का भविष्य बता दिया। ये बता दिया कि आने वाले दिनों में इस शख्स को कैंसर होने वाला है। यकीन मानिए ये कोई चमत्कार नहीं था। सबकुछ वैज्ञानिक तथ्य पर आधारित था। इस शख्स के जीनोम ऐसी भविष्यवाणी कर रहे थे। साफ है किसी भी इंसान के जीनोम को डिकोड करके उसे ये बताया जा सकता है कि आने वाले दिनों में वो किस तरह की बीमारी का शिकार होगा। सोचिए जब मर्ज पहले से ही पता हो तो इलाज कितना आसान हो जाएगा। पहले से ही उस खास शख्स के लिए दवाई भी तैयार करके रखी जा सकती है।
दरअसल मानव जीनोम प्रोजेक्ट चिकित्सा विज्ञान में क्रांति ला सकता है। अगर हर नागरिक के जीन्स की मैपिंग कर ली गई तो डॉक्टरों के पास अपने मरीज़ों का पूरा डेटाबेस होगा। फोन करने के बाद आप डॉक्टर के पास पहुंचें उससे पहले ही डॉक्टर आपकी मर्ज की पहचान कर चुका होगा।
मालूम हो कि भारतीय वैज्ञानिकों ने ये करिश्मा सिर्फ साढ़े 13 लाख की खर्च पर 9 हफ्तों में कर दिखाया है। जबकि पहला ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट पूरा करने में 6 देशों को हज़ारों करोड़ों रुपए खर्च करने पड़े थे और प्रोजेक्ट पूरा होने में 13 साल का वक्त लगा था। वैसे भारतीय वैज्ञानिकों ने पिछले साल पूरे देश का जीन प्रोफाइल तैयार करने का प्रोजेक्ट भी पूरा कर लिया है। ये प्रोफाइल भी हैरान करने वाली है। अगर आप कश्मीर के रहने वाले है तो आपको बाकी देशवासियों के मुकाबले एचआईवी एड्स होने का खतरा कम है।
जीन का कमाल ये है कि उसने उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के लोगों को मलेरिया से लड़ने की क्षमता दे दी है। यानि उनका शरीर इस बीमारी से बेहतर तरीके से लड़ सकता है।
भारतीय वैज्ञानिकों ने न सिर्फ एक इंसान के जीनोम का पूरा खाका तैयार कर लिया बल्कि उन्होंने पूरे देश का जीन प्रोफाइल भी तैयार कर लिया है। जानते हैं इससे फाय़दा क्या होगा। हम आसानी से ये जान लेगें कि आखिर किस इलाके के लोगों पर कौन सी बीमारी से कितना खतरा है। कौन सी बीमारी उन्हें जल्द हो सकती है। जाहिर है अलग अलग इलाकों के लोगों के लिए एक ही दवाई कारगर नहीं हो सकती है। हो सकता है जो दवाई जम्मू कश्मीर के लोगों पर असर कर रही हो वो दवाई राजस्थान के लोगों पर बेअसर साबित हो। वैज्ञानिकों के मुताबिक वो अब ये भी जानते हैं कि अस्थमा की एक दवा राजस्थान के लोगों पर कम असर करती है। लेकिन तमिलनाडू के लोगों पर इसका खासा असर होता है।
देश भर का जीन मैप तैयार करने के लिए वैज्ञानिकों ने देश को भाषा के आधार पर चार भागों में बांटा। नीला- यानी यूरोपीय भारतीय जिन्हे आर्य भी कहते हैं। भूरा- यानी द्रवि़ड़, हरा- यानी आस्ट्रेलेशियाई और पीला- यानी तिब्बती बर्मन। इस आधार पर शोध के लिए देश भर के अलग अलग 55 जनसंख्या समुदायों को चुना गया। वैज्ञानिकों ने सभी जनसंख्याओं की जीनों को पढ़ा, परखा और उनके राज खोल कर रख दिए।
वैज्ञानिकों के मुताबिक जेनेटिक मैप का इस्तेमाल सरकारी योजनाओं को असरदार तरीके से लागू करने के लिए भी किया जा सकता है। सरकार के पास पहले से ये जानकारी होगी कि किन योजनाओं का फायदा किन इलाकों के लोगों को होगा। विज्ञान के चमत्कार को अभिशाप बनते देर नहीं लगती। यही वजह है कि जीनोम प्रोजेक्ट पर कई सवाल खड़े होते रहे हैं। सवाल ये कि कहीं इंसान भगवान बनने की कोशिश तो नहीं कर रहा। क्या प्रकृति के साथ छेड़छाड़ मानवता के लिए खतरा तो पैदा नहीं कर रही। जेनेटिक मैपिंग के तमाम फायदों के बावजूद जेनेटिक हैकिंग और जेनेटिक क्राइम के खतरों को भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता।
क्रेग वेंटर जो कि सेलेरा जीनोमिक्स कंपनी के मालिक हैं। इससे पहले वो अमेरिका के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑप हेल्थ के वैज्ञानिक रह चुके हैं। 1998 में क्रेग वेंटर ने अपने प्राइवेट लैब में जीन सीक्वेंसिंग शुरू की। वो हर हाल में सरकारी संस्थाओं से पहले मानव जीनोम का राज़ जानना चाहता था।
प्रोजेक्ट पूरा होते ही क्रेग वेंटर ने मानव जीनोम की प्रापर्टीज को पटेंट करवाने के लिए आवेदन दिया। इसका मतलब ये था कि क्रेग मानव जीनोम पर एकाधिकार हासिल करना चाहता था। इसको लेकर अमेरिका में बवाल मच गया। और महीनों के हंगामें के बाद आखिरकार तत्कालिक अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को संसद में ये बयान देना पड़ा कि मानव जीनोम को पेटेंट नहीं करवाया जा सकता।
कई बार ये सवाल खड़े हो चुके हैं कि जेनेटिक इंजीनियरिंग प्रकृति के साथ छेड़छाड़ है और इसकी इजाज़त नहीं दी जानी चाहिए। सवाल ये है कि विज्ञान के नाम पर कहीं हम भगवान बनने की कोशिश तो नहीं कर रहे। जेनेटिक मैपिंग का इस्तेमाल डिज़ाईनर बेबी पैदा करने के लिए भी किया जा सकता है। यानी हम ऐसे बच्चे पैदा करने की कोशिश में जुट जाएं जिसमें कोई कमी न हो। ये लालच खतरनाक प्रतिस्पर्धा को जन्म दे सकता है। यही वजह है कि भारत में भी पहले जेनेटिक मैपिंग की खबर ने धार्मिक नेताओं के बीच बहस छेड़ दी है।
वहीं कई विशेषज्ञ ये भी मानते हैं कि 21 वीं सदी विज्ञान के साथ साथ हाईटेक क्राइम की भी सदी है। ऐसे में किसी भी टेक्नॉलजी के आतंकवादियों तक पहुंचने में देर नहीं लगती। इसलिए हमें ह्यूमन जीनोम के मामले में बेहद सतर्क रहना चाहिए। अगर इस विज्ञान का तोड़ आतंकवादियों ने निकाल लिया तो पूरी मानवता के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।
(आलेख आईबीएन खबर और ग्राफिक्स जोश 18 से साभार)
Thursday, December 10, 2009
Monday, December 7, 2009
अंतरिक्ष के जौ की ‘स्पेस बीयर’, जापान में मची धूम, सिर्फ खुशकिस्मतों को मिलेगी
शराब के शौकीन लोगों के लिए यकीनन यह एक रोचक खबर है। वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष में जौ उपजाकर बीयर तैयार की है और इसका नाम 'स्पेस बार्ली' रखा है। जापान में इन दिनों इसकी धूम मची है, और अंतरिक्ष में उपजाए गए जौ से बने होने के कारण इसे ‘स्पेस बीयर’ कहा जा रहा है।
गौरतलब है कि इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (आईएसएस) पर रूसी लैबोरेटरी में पहली बार जौ उपजाया गया है। पांच माह तक चले इस मिशन में रशियन एकेडेमी ऑफ साइंस, जापान की ओकायामा यूनिवर्सिटी और शराब तैयार करने वाली कंपनी सपोरो बेवरीज शामिल रहे। बताते चलें कि अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में जौ गेहूं, चना, मटर आदि जैसी खाद्य फसलों को उपजाने की एक योजना के तहत जौ उपजाया गया। योजना के तहत भविष्य में अंतरिक्ष में आलू की खेती भी की जा सकती है।
सपोरो ब्रेवरीज लिमिटेड के अधिकारियों ने सोमवार को बताया कि 'स्पेस बीयर' के 250 बोतलों के स्पेशल एडिशन की जबर्दस्त मांग है। कंपनी का कहना है कि यह बीयर उस जौ से बनेगा, जिसका बीज अंतरिक्ष के स्पेस स्टेशन की रूसी प्रयोगशाला में पांच महीने तक रहा।
कंपनी के प्रवक्ता यूकी हत्तोरी ने कहा कि हमें कल तक 2000 लोगों से आर्डर मिल गए थे। इसके दाम को देखते हुए हमें लगता है लोगों की इस बीयर में बेहद रूचि है। स्पेस बीयर के एक बोतल की कीमत 20 डालर के लगभग है।
सपोरो ब्रेवरीज लिमिटेड ने कहा कि इस बीयर का आर्डर वह क्रिसमस तक लेगी और फिर लकी ड्रा के द्वारा खुशकिस्मत विजेता और ग्राहकों का चयन किया जाएगा। बीयर की बिक्री से मिले पैसों को शोधकार्यो के लिए दान दे दिया जाएगा।
गौरतलब है कि इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (आईएसएस) पर रूसी लैबोरेटरी में पहली बार जौ उपजाया गया है। पांच माह तक चले इस मिशन में रशियन एकेडेमी ऑफ साइंस, जापान की ओकायामा यूनिवर्सिटी और शराब तैयार करने वाली कंपनी सपोरो बेवरीज शामिल रहे। बताते चलें कि अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में जौ गेहूं, चना, मटर आदि जैसी खाद्य फसलों को उपजाने की एक योजना के तहत जौ उपजाया गया। योजना के तहत भविष्य में अंतरिक्ष में आलू की खेती भी की जा सकती है।
सपोरो ब्रेवरीज लिमिटेड के अधिकारियों ने सोमवार को बताया कि 'स्पेस बीयर' के 250 बोतलों के स्पेशल एडिशन की जबर्दस्त मांग है। कंपनी का कहना है कि यह बीयर उस जौ से बनेगा, जिसका बीज अंतरिक्ष के स्पेस स्टेशन की रूसी प्रयोगशाला में पांच महीने तक रहा।
कंपनी के प्रवक्ता यूकी हत्तोरी ने कहा कि हमें कल तक 2000 लोगों से आर्डर मिल गए थे। इसके दाम को देखते हुए हमें लगता है लोगों की इस बीयर में बेहद रूचि है। स्पेस बीयर के एक बोतल की कीमत 20 डालर के लगभग है।
सपोरो ब्रेवरीज लिमिटेड ने कहा कि इस बीयर का आर्डर वह क्रिसमस तक लेगी और फिर लकी ड्रा के द्वारा खुशकिस्मत विजेता और ग्राहकों का चयन किया जाएगा। बीयर की बिक्री से मिले पैसों को शोधकार्यो के लिए दान दे दिया जाएगा।
Sunday, December 6, 2009
आलू-टमाटर मांसाहारी, खान-पान पर संकट भारी
निकट भविष्य में आचार-विचार के पुराने मानदंडों से काम नहीं चलनेवाला। आनेवाले वर्षों में शाकाहार-मांसाहार के बीच की रेखा भी उतनी स्पष्ट नहीं रहेगी, जितनी अब तक रहते आयी है। यह बात प्रयोगशाला में कृत्रिम मांस से संबंधित पिछले आलेख में कही गयी थी। उन शब्दों के लिखे जाने के एक सप्ताह के अंदर ही यह खबर दुनिया भर में सुर्खियों में रही है कि ब्रिटिश वनस्पति विज्ञानियों ने नए शोध में यह निष्कर्ष निकाला है कि आलू व टमाटर मांसाहारी हैं, क्योंकि ये पौधे कीड़ों को मारकर अपने लिए खाद बनाते हैं।
रॉयल बॉटेनिकल गार्डन, कियू और लंदन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने बताया है कि दोनों सब्जियों के पौधों के तनों में मौजूद बालों में एक चिपचिपा पदार्थ बहता रहता है। यह पदार्थ आसपास उड़ने वाले कीट-पतंगों को तने से चिपका देता है। कुछ दिन बाद कीटों के बेजान शरीर सूखकर जमीन में गिर जाते हैं। तब पौधों की जड़ें कीटों के शरीर के पोषक तत्वों को सोख लेती हैं। शोधकर्ता मार्क चेज ने बताया, ‘टमाटर और आलू की फसल कटने के बाद भी पौधों में बाल साफ नजर आते हैं। ये नियमित तौर पर कीड़ों को पकड़कर मार देते हैं।’
जीव विज्ञान के पितामह चार्ल्स डार्विन की दूसरी जन्म शताब्दी मना रहे वैज्ञानिक नए-नए शोध कर रहे हैं। इसी क्रम में ये नतीजे भी सामने आए हैं। इस शोध से जुड़े डा. माइक फे के अनुसार अब तक हम मानते थे कि पेड़-पौधों की करीब 650 प्रजातियां मांसाहारी हैं, जो कीट-पतंगों और जीवों का रक्त चूस कर पोषण पाती हैं लेकिन इस श्रेणी में 325 और पेड़-पौधे जुड़ गए हैं।
नए शोध में जिन पौधों को मांसाहारी बताया गया है, उनमें आलू और टमाटर के साथ तंबाकू भी शामिल है। हालांकि ये मुख्य रूप से कीट-पतंगों पर निर्भर नहीं होते, लेकिन पोषण पाने के लिए इनका शिकार करते हैं।
इससे पहले यह माना जाता था कि बंजर स्थानों व जंगलों में पाए जाने वाले पौधे ही पोषक तत्वों की प्रतिपूर्ति के लिए कीड़ों को मारते हैं। लेकिन नए शोध से ज्ञात हुआ है कि घरेलू किचन गार्डन में लगे पौधों में भी यह हिंसक आचरण मौजूद रहा है।
रॉयल बॉटेनिकल गार्डन, कियू और लंदन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने बताया है कि दोनों सब्जियों के पौधों के तनों में मौजूद बालों में एक चिपचिपा पदार्थ बहता रहता है। यह पदार्थ आसपास उड़ने वाले कीट-पतंगों को तने से चिपका देता है। कुछ दिन बाद कीटों के बेजान शरीर सूखकर जमीन में गिर जाते हैं। तब पौधों की जड़ें कीटों के शरीर के पोषक तत्वों को सोख लेती हैं। शोधकर्ता मार्क चेज ने बताया, ‘टमाटर और आलू की फसल कटने के बाद भी पौधों में बाल साफ नजर आते हैं। ये नियमित तौर पर कीड़ों को पकड़कर मार देते हैं।’
जीव विज्ञान के पितामह चार्ल्स डार्विन की दूसरी जन्म शताब्दी मना रहे वैज्ञानिक नए-नए शोध कर रहे हैं। इसी क्रम में ये नतीजे भी सामने आए हैं। इस शोध से जुड़े डा. माइक फे के अनुसार अब तक हम मानते थे कि पेड़-पौधों की करीब 650 प्रजातियां मांसाहारी हैं, जो कीट-पतंगों और जीवों का रक्त चूस कर पोषण पाती हैं लेकिन इस श्रेणी में 325 और पेड़-पौधे जुड़ गए हैं।
नए शोध में जिन पौधों को मांसाहारी बताया गया है, उनमें आलू और टमाटर के साथ तंबाकू भी शामिल है। हालांकि ये मुख्य रूप से कीट-पतंगों पर निर्भर नहीं होते, लेकिन पोषण पाने के लिए इनका शिकार करते हैं।
इससे पहले यह माना जाता था कि बंजर स्थानों व जंगलों में पाए जाने वाले पौधे ही पोषक तत्वों की प्रतिपूर्ति के लिए कीड़ों को मारते हैं। लेकिन नए शोध से ज्ञात हुआ है कि घरेलू किचन गार्डन में लगे पौधों में भी यह हिंसक आचरण मौजूद रहा है।
Friday, December 4, 2009
सिकंदर व ह्वेनसांग ने गर्मियों में चखा... लेकिन आप सर्दियों में भी ले सकेंगे स्वाद !
आम यानी मेग्नीफेरा इंडिका का रसदार फल। फलों का राजा। भारत का राष्ट्रीय फल। महाकवि कालीदास ने इसकी प्रशंसा में गीत लिखे। यूनान के प्रतापी शासक सिकंदर व चीनी धर्मयात्री ह्वेनसांग जैसों ने इसका स्वाद चखा। मुगल बादशाह अकबर ने दरभंगा में इसके एक लाख पौधे लगाए, जिसे अब लाखी बाग के नाम से जाना जाता है। हाल-फिलहाल की खबर यह है कि ग्रीष्म ऋतु के इस फल का स्वाद अब सर्दियों में भी लिया जा सकेगा। पश्चिम बंगाल के किसान अब आम की ऐसी किस्मों को लगा रहे हैं, जिनमें जाड़े में भी फल लगेंगे।
आम की उपज के लिए विख्यात मालदा जिले के अधिकारियों के हवाले से दी गयी खबर में बताया गया है कि प. बंगाल के हूगली जिले के आदिसप्तग्राम व बंदेल के किसानों ने पिछली सर्दियों में अच्छी उपज प्राप्त की थी। उसके बाद अब मालदा जिले में भी बारामासिया, दोफला, तोफला, वस्तारा व चाइना वस्तारा आदि जैसी किस्मों को बढ़ावा दिया जा रहा है। आम की इन किस्मों में जून-जुलाई में मंजर लगते हैं और सर्दियों में फल पक कर तैयार हो जाते हैं। अधिकारियों के मुताबिक इन प्रभेदों में किसान खासी दिलचस्पी दिखा रहे हैं। प्रशासन द्वारा इनके मुफ्त पौधे भी कुछ नर्सरियों में उपलब्ध कराए जा रहे हैं।
संस्कृतियों के प्रतीक हैं फल
कुछ लोगों का कहना है कि फल भी अलग-अलग संस्कृतियों के प्रतीक हैं। सभी फलों का अपना-अपना सामाजिक व सांस्कृतिक संदर्भ है। पश्चिमी देशों में सेब, अरब जगत में अंगूर और भारतीय उपमाहद्वीप में आम – ये सभी अलग-अलग संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सेब को आदम के जन्नत से निकाले जाने से जोड़ कर देखा जाता है और बहुधा इसे काम का प्रतीक माना जाता है। अंगूर उमर खय्याम की नज्मों में ढल कर अब औरत, शराब और गीत की निशानी माना जाने लगा है। जबकि आम को समृद्धि, सौभाग्य व वैभव का प्रतीक माना जाता है और शायद इसीलिए फलों का राजा भी कहा जाता है।
आम का तो कहना ही क्या
भारत में ग्रीष्म ऋतु का आगमन होने के साथ ही आम का इंतजार आरंभ हो जाता है। भारत का सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन आम के बिना अधूरा है। आम की टहनी, पल्लव और फल के बिना भारत के पारंपरिक अनुष्ठान पूर्ण नहीं हो सकते। इसीलिए भारत के गांवों में आम से जुड़े अनेक लोगगीत भी गाए जाते हैं। आम का फल अपने सभी रूपों में लोगों को काफी भाता है। चाहे टिकोरा हो, कच्चा आम हो या पका फल, सभी का अलग-अलग स्वाद है। आम का इस्तेमाल पना व गुरमा बनाने में, अचार में, मुरब्बे में और जैम बनाने में किया जाता है। अमचूर यानी आम की खटाई का चटपटापन तो कोई भूल ही नहीं सकता। गांवों में बच्चे आम के अमोला का बाजा बनाकर मुंह से बजाते हैं।
भारत में विभिन्न आकारों, मापों और रंगों के आम की 100 से अधिक किस्में पायी जाती हैं। आम की मुख्य किस्मों में लंगड़ा, दशहरी, मलदहिया, अलफांसो और चौसा तो सब जानते ही हैं, कई नवाबों और राजाओं के नामों पर भी इसका नामकरण हुआ। मसलन कृष्ण भोग, शम्सुल अस्मर, ख़ासा, प्रिंस, तैमूर लंग, आबे हयात, इमामुद्दीन ख़ान आदि।
उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र का सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह फल भारत में अनंत काल से उगाया जाता रहा है। पका आम बहुत स्वास्थ्यवर्धक, पोषक, शक्तिवर्धक और चरबी बढ़ाने वाला होता है। आम का मुख्य घटक शर्करा है, जो विभिन्न फलों में 11 से 20 प्रतिशत तक विद्यमान रहती है। आम विटामिन ए, सी तथा डी का एक समृद्ध स्रोत है।
आम की उपज के लिए विख्यात मालदा जिले के अधिकारियों के हवाले से दी गयी खबर में बताया गया है कि प. बंगाल के हूगली जिले के आदिसप्तग्राम व बंदेल के किसानों ने पिछली सर्दियों में अच्छी उपज प्राप्त की थी। उसके बाद अब मालदा जिले में भी बारामासिया, दोफला, तोफला, वस्तारा व चाइना वस्तारा आदि जैसी किस्मों को बढ़ावा दिया जा रहा है। आम की इन किस्मों में जून-जुलाई में मंजर लगते हैं और सर्दियों में फल पक कर तैयार हो जाते हैं। अधिकारियों के मुताबिक इन प्रभेदों में किसान खासी दिलचस्पी दिखा रहे हैं। प्रशासन द्वारा इनके मुफ्त पौधे भी कुछ नर्सरियों में उपलब्ध कराए जा रहे हैं।
संस्कृतियों के प्रतीक हैं फल
कुछ लोगों का कहना है कि फल भी अलग-अलग संस्कृतियों के प्रतीक हैं। सभी फलों का अपना-अपना सामाजिक व सांस्कृतिक संदर्भ है। पश्चिमी देशों में सेब, अरब जगत में अंगूर और भारतीय उपमाहद्वीप में आम – ये सभी अलग-अलग संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सेब को आदम के जन्नत से निकाले जाने से जोड़ कर देखा जाता है और बहुधा इसे काम का प्रतीक माना जाता है। अंगूर उमर खय्याम की नज्मों में ढल कर अब औरत, शराब और गीत की निशानी माना जाने लगा है। जबकि आम को समृद्धि, सौभाग्य व वैभव का प्रतीक माना जाता है और शायद इसीलिए फलों का राजा भी कहा जाता है।
आम का तो कहना ही क्या
भारत में ग्रीष्म ऋतु का आगमन होने के साथ ही आम का इंतजार आरंभ हो जाता है। भारत का सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन आम के बिना अधूरा है। आम की टहनी, पल्लव और फल के बिना भारत के पारंपरिक अनुष्ठान पूर्ण नहीं हो सकते। इसीलिए भारत के गांवों में आम से जुड़े अनेक लोगगीत भी गाए जाते हैं। आम का फल अपने सभी रूपों में लोगों को काफी भाता है। चाहे टिकोरा हो, कच्चा आम हो या पका फल, सभी का अलग-अलग स्वाद है। आम का इस्तेमाल पना व गुरमा बनाने में, अचार में, मुरब्बे में और जैम बनाने में किया जाता है। अमचूर यानी आम की खटाई का चटपटापन तो कोई भूल ही नहीं सकता। गांवों में बच्चे आम के अमोला का बाजा बनाकर मुंह से बजाते हैं।
भारत में विभिन्न आकारों, मापों और रंगों के आम की 100 से अधिक किस्में पायी जाती हैं। आम की मुख्य किस्मों में लंगड़ा, दशहरी, मलदहिया, अलफांसो और चौसा तो सब जानते ही हैं, कई नवाबों और राजाओं के नामों पर भी इसका नामकरण हुआ। मसलन कृष्ण भोग, शम्सुल अस्मर, ख़ासा, प्रिंस, तैमूर लंग, आबे हयात, इमामुद्दीन ख़ान आदि।
उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र का सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह फल भारत में अनंत काल से उगाया जाता रहा है। पका आम बहुत स्वास्थ्यवर्धक, पोषक, शक्तिवर्धक और चरबी बढ़ाने वाला होता है। आम का मुख्य घटक शर्करा है, जो विभिन्न फलों में 11 से 20 प्रतिशत तक विद्यमान रहती है। आम विटामिन ए, सी तथा डी का एक समृद्ध स्रोत है।
Thursday, December 3, 2009
भोपाल गैस हादसा : कुछ शब्द, कुछ चित्र
2-3 दिसंबर 1984 की काली रात को हुआ भोपाल गैस कांड एक ऐसा सबक है, जिसे हमें हमेशा याद रखना चाहिए। इसलिए नहीं कि यह विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना है, बल्कि यह न भूलने के लिए कि विकास के पहिए पर मुनाफे की भूख हावी हुई तो विनाश के सिवाय कुछ भी हासिल नहीं होगा। यह सबक यह न भूलने के लिए भी याद रखना जरूरी है कि भारत की सरकार इस लायक नहीं है कि देशवासी अपने जीवन और स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए उस पर भरोसा कर सकें। घटना की 25-वीं बरसी पर जब देश भर में उस भयानक मंजर को याद किया जा रहा है, हरेक चित्र और हरेक शब्द दिल दहलानेवाले हैं। उनमें से हम कुछेक को यहां सहेजने की कोशिश कर रहे हैं ताकि हमारी संवेदनाएं जिंदा रहें...
क्या हुआ था उस रात भोपाल में
25 साल पहले 2 और 3 दिसम्बर की रात। दिन भर की थकान के बाद भोपाल शहर सोया हुआ है। आधी रात के बाद शहर से 5 किलोमीटर दूर अमेरिका की यूनियन कार्बाइड कंपनी के प्लांट का स्टोरेज टैंक दबाव को नहीं झेल पाता और फट जाता है।
प्लांट से ज़हरीली गैस का रिसाव शुरू होता है। मिथाइल आइसोसायनाएट गैस फैक्ट्री से होते हुए 9 लाख की आबादी वाले भोपाल शहर पर अपना कहर बरपाना शुरू करती है। सैकडों लोग तो सीधे नींद के आगोश से मौत के आगोश में समा जाते हैं। लोग हड़बड़ा कर नींद से उठते हैं तो उन्हें सांस लेने में दिक्कत और आंखों में जलन महसूस होने लगती है।
पूरे शहर में हड़कंप मच जाता है लोग सुरक्षित स्थान और साफ़ हवा की तलाश में भागने लगते हैं। लेकिन जहरीली गैस के फैलने की रफ्तार ज्यादा तेज साबित होती है। इंसान ही नहीं बल्कि परिंदे और जानवर भी काल का ग्रास बन जाते हैं।
सुबह होने पर इस हादसे की भीषणता का एहसास होता है जब कई स्थानों पर लोगों की लाशें बिखरी नजर आती हैं। शहर के मुर्दाघर भर जाते हैं पर लाशों की संख्या बढ़ती चली जाती है। भोपाल के अस्पताल भी इतने बड़े पैमाने पर हुए इस हादसे से निपटने को तैयार नहीं दिखते।
गैस के रिसाव के कुछ ही घंटों के भीतर 3,500 लोगों की मौत हो गई थी। इसके बाद के हफ़्तों में मृतकों का आंकड़ा बढ़ कर 15 हज़ार से ज्यादा हो गया। हालांकि कई ग़ैर सरकारी संगठन इस त्रासदी में मारे गए लोगों की संख्या 25 हजार से ज्यादा बताते हैं।
भोपाल गैस त्रासदी को अब तक की सबसे बुरी औद्योगिक दुर्घटनाओं में माना जाता है। माना जाता है कि 5 लाख से ज्यादा लोगों पर इस हादसे के स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभाव पड़े और हादसे के सालों बाद पैदा हुए बच्चे कई बीमारियों से ग्रस्त नज़र आते हैं। यूनियन कार्बाइड प्लांट से 30 से 40 टन के बीच जहरीली गैस का रिसाव हुआ था।
भोपाल गैस त्रासदी से सबसे ज्यादा प्रभावित ग़रीब परिवारों के लोग थे जो झुग्गियों में रहते थे। इस हादसे में जिंदा बचे लोग तो उस रात को शायद कभी नहीं भूल पाएंगे लेकिन हादसे के बाद पैदा हुई पीढ़ी भी उस रात को याद कर सिहर उठती है।
तस्वीर जो हादसे की प्रतीक बन गयी
विख्यात फोटोग्राफर रघु राय की खिंची यह तस्वीर आपके आंखों के सामने से जरूर गुजरी होगी। यह तस्वीर भोपाल गैस त्रासदी की एक तरह से प्रतीक बन गयी। भोले-से चेहरे और खुली आंखों वाले इस बच्चे की तस्वीर उन्होंने तब ली थी जब उसके शव पर मिट्टी डाली जा रही थी। यदि यह बच्च जिंदा होता तो आज 30 साल का सुंदर नौजवान होता। हादसे में इसी तरह अनगिनत मासूम जानें गयी थीं। यदि आपके अंदर साहस हो तो उस विभीषिका को बयां करनेवाली कुछ और तस्वीरें यहां यहां देख सकते हैं।
ऐश कर रहा कसूरवार, निर्दोष आज भी मर रहे
भोपाल की त्रासदी आज भी थमी नहीं है। उस समय सौभाग्य से शरीर में कम गैस जाने के कारण जो बचे रह गए थे, वे आज तिल-तिल कर मरने का दुर्भाग्य झेल रहे हैं। जहरीली गैस से उनके हृदय व फेफड़े क्षतिग्रस्त हो गए, जिसके लिए आज तक न तो यूनियन कार्बाइड ने दवा बतायी और न ही भारत सरकार ने शोध करके गैस पीडि़तों को राहत पहुंचाने के लिए कोई काम किया। इतनी बड़ी त्रासदी के कसूरवार को कोई सजा तक नहीं हुई। यूनियन कार्बाइड कंपनी के प्रमुख वॉरेन एंडरसन को इस हादसे के तत्काल बाद गिरफ़्तार कर लिया गया था लेकिन तुरंत जमानत भी दे दिया गया और उसके बाद ही एंडरसन ने देश छोड़ दिया और तब से वह कानून की पहुंच से दूर अमेरिका में ऐशो-आराम की जिंदगी गुजार रहे हैं। एंडरसन पर आरोप है कि उन्होंने ख़र्च में कटौती के लिए सुरक्षा मानकों के साथ समझौता किया। एंडरसन पर लोगों की मौत का ज़िम्मेदार होने का भी आरोप है। अब यूनियन कार्बाइड को एक दूसरी अमरीकी कम्पनी डाऊ केमिकल्स खरीद चुकी है और वह पूरे मामले से पल्ला झाड़ रही है।
किसी को तो सजा मिले, सो फरियादी ही चढ़ा फांसी
अंधेर नगरी में किसी को तो सजा काटनी है, सो पीडि़तों की लड़ाई लड़ रहा एक पीडि़त खुद चढ़ गया फांसी। भोपाल गैस त्रासदी का दंश झेल चुके और पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करने वाले 34 वर्षीय सुनील कुमार की लाश भोपाल में उनके घर में पंखे से लटकी हुई मिली। उस समय उन्होंने अपना पसंदीदा टी-शर्ट पहना था, जिस पर लिखा था, ‘और भोपाल नहीं।’ सुनील ने जहां फांसी लगाई, वहां एक नोट भी मिला, जिसमें लिखा था, ‘मैं मानसिक बीमारी के कारण खु़दकुशी नहीं कर रहा हूं, बल्कि पूरे होशोहवास में ऐसा कर रहा हूं।‘
(सूचनाओं व चित्रों के स्रोत : बीबीसी हिन्दी, डॉयचवेले, ग्रीनपीस)
क्या हुआ था उस रात भोपाल में
25 साल पहले 2 और 3 दिसम्बर की रात। दिन भर की थकान के बाद भोपाल शहर सोया हुआ है। आधी रात के बाद शहर से 5 किलोमीटर दूर अमेरिका की यूनियन कार्बाइड कंपनी के प्लांट का स्टोरेज टैंक दबाव को नहीं झेल पाता और फट जाता है।
प्लांट से ज़हरीली गैस का रिसाव शुरू होता है। मिथाइल आइसोसायनाएट गैस फैक्ट्री से होते हुए 9 लाख की आबादी वाले भोपाल शहर पर अपना कहर बरपाना शुरू करती है। सैकडों लोग तो सीधे नींद के आगोश से मौत के आगोश में समा जाते हैं। लोग हड़बड़ा कर नींद से उठते हैं तो उन्हें सांस लेने में दिक्कत और आंखों में जलन महसूस होने लगती है।
पूरे शहर में हड़कंप मच जाता है लोग सुरक्षित स्थान और साफ़ हवा की तलाश में भागने लगते हैं। लेकिन जहरीली गैस के फैलने की रफ्तार ज्यादा तेज साबित होती है। इंसान ही नहीं बल्कि परिंदे और जानवर भी काल का ग्रास बन जाते हैं।
सुबह होने पर इस हादसे की भीषणता का एहसास होता है जब कई स्थानों पर लोगों की लाशें बिखरी नजर आती हैं। शहर के मुर्दाघर भर जाते हैं पर लाशों की संख्या बढ़ती चली जाती है। भोपाल के अस्पताल भी इतने बड़े पैमाने पर हुए इस हादसे से निपटने को तैयार नहीं दिखते।
गैस के रिसाव के कुछ ही घंटों के भीतर 3,500 लोगों की मौत हो गई थी। इसके बाद के हफ़्तों में मृतकों का आंकड़ा बढ़ कर 15 हज़ार से ज्यादा हो गया। हालांकि कई ग़ैर सरकारी संगठन इस त्रासदी में मारे गए लोगों की संख्या 25 हजार से ज्यादा बताते हैं।
भोपाल गैस त्रासदी को अब तक की सबसे बुरी औद्योगिक दुर्घटनाओं में माना जाता है। माना जाता है कि 5 लाख से ज्यादा लोगों पर इस हादसे के स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभाव पड़े और हादसे के सालों बाद पैदा हुए बच्चे कई बीमारियों से ग्रस्त नज़र आते हैं। यूनियन कार्बाइड प्लांट से 30 से 40 टन के बीच जहरीली गैस का रिसाव हुआ था।
भोपाल गैस त्रासदी से सबसे ज्यादा प्रभावित ग़रीब परिवारों के लोग थे जो झुग्गियों में रहते थे। इस हादसे में जिंदा बचे लोग तो उस रात को शायद कभी नहीं भूल पाएंगे लेकिन हादसे के बाद पैदा हुई पीढ़ी भी उस रात को याद कर सिहर उठती है।
तस्वीर जो हादसे की प्रतीक बन गयी
विख्यात फोटोग्राफर रघु राय की खिंची यह तस्वीर आपके आंखों के सामने से जरूर गुजरी होगी। यह तस्वीर भोपाल गैस त्रासदी की एक तरह से प्रतीक बन गयी। भोले-से चेहरे और खुली आंखों वाले इस बच्चे की तस्वीर उन्होंने तब ली थी जब उसके शव पर मिट्टी डाली जा रही थी। यदि यह बच्च जिंदा होता तो आज 30 साल का सुंदर नौजवान होता। हादसे में इसी तरह अनगिनत मासूम जानें गयी थीं। यदि आपके अंदर साहस हो तो उस विभीषिका को बयां करनेवाली कुछ और तस्वीरें यहां यहां देख सकते हैं।
ऐश कर रहा कसूरवार, निर्दोष आज भी मर रहे
भोपाल की त्रासदी आज भी थमी नहीं है। उस समय सौभाग्य से शरीर में कम गैस जाने के कारण जो बचे रह गए थे, वे आज तिल-तिल कर मरने का दुर्भाग्य झेल रहे हैं। जहरीली गैस से उनके हृदय व फेफड़े क्षतिग्रस्त हो गए, जिसके लिए आज तक न तो यूनियन कार्बाइड ने दवा बतायी और न ही भारत सरकार ने शोध करके गैस पीडि़तों को राहत पहुंचाने के लिए कोई काम किया। इतनी बड़ी त्रासदी के कसूरवार को कोई सजा तक नहीं हुई। यूनियन कार्बाइड कंपनी के प्रमुख वॉरेन एंडरसन को इस हादसे के तत्काल बाद गिरफ़्तार कर लिया गया था लेकिन तुरंत जमानत भी दे दिया गया और उसके बाद ही एंडरसन ने देश छोड़ दिया और तब से वह कानून की पहुंच से दूर अमेरिका में ऐशो-आराम की जिंदगी गुजार रहे हैं। एंडरसन पर आरोप है कि उन्होंने ख़र्च में कटौती के लिए सुरक्षा मानकों के साथ समझौता किया। एंडरसन पर लोगों की मौत का ज़िम्मेदार होने का भी आरोप है। अब यूनियन कार्बाइड को एक दूसरी अमरीकी कम्पनी डाऊ केमिकल्स खरीद चुकी है और वह पूरे मामले से पल्ला झाड़ रही है।
किसी को तो सजा मिले, सो फरियादी ही चढ़ा फांसी
अंधेर नगरी में किसी को तो सजा काटनी है, सो पीडि़तों की लड़ाई लड़ रहा एक पीडि़त खुद चढ़ गया फांसी। भोपाल गैस त्रासदी का दंश झेल चुके और पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करने वाले 34 वर्षीय सुनील कुमार की लाश भोपाल में उनके घर में पंखे से लटकी हुई मिली। उस समय उन्होंने अपना पसंदीदा टी-शर्ट पहना था, जिस पर लिखा था, ‘और भोपाल नहीं।’ सुनील ने जहां फांसी लगाई, वहां एक नोट भी मिला, जिसमें लिखा था, ‘मैं मानसिक बीमारी के कारण खु़दकुशी नहीं कर रहा हूं, बल्कि पूरे होशोहवास में ऐसा कर रहा हूं।‘
(सूचनाओं व चित्रों के स्रोत : बीबीसी हिन्दी, डॉयचवेले, ग्रीनपीस)
Monday, November 30, 2009
स्विस सेब जिस पर फिदा हैं मिशेल ओबामा व जेनिफर लोपेज
लगभग विलुप्त हो रही प्रजाति का साधारण-सा दिखनेवाला यह खट्टा सेब इन दिनों खूब चर्चा में है। दावा किया जा रहा है कि इस ‘सुपर एप्पल’ के सत्व से चमड़े की झुर्रियां मिटती हैं, मानव कोशिकाओं की जीवन-अवधि लंबी होती है और झड़े हुए बाल फिर से उग सकते हैं। यही कारण है कि इसके प्रशंसकों में मिशेल ओबामा, हेलेन मिरेन और जेनिफर लोपेज जैसे बड़े नाम भी शामिल हैं।
स्विटजरलैंड के दूरस्थ हिस्से में गिनती के रह गए एक पेड़ पर उगने वाला उटविलर स्पैटलौबर (Uttwiler Spatlauber) नामक यह दुर्लभ सेब दूसरी अन्य प्रजातियों की तुलना में अधिक (लगभग चार महीने) समय तक टिकाउ रहता है। पर इसके कसैले स्वाद के कारण इसकी मांग नहीं रही और इसके वृक्षों की संख्या इस कदर घटती गयी कि स्विटजरलैंड में अब मात्र 20 पेड़ रह गए हैं। हालांकि मीडिया में अब इसे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पत्नी और अमेरिका की प्रथम महिला मिशेल ओबामा के जवां रूप-रंग का राज बताया जा रहा है।
फैशन मैगजीन 'वोग' में मिशेल ओबामा द्वारा इस सेव की स्टेम कोशिकाओं के सत्व से बने 215 पौंड वजन के बराबर सीरम को खरीदे जाने की बात कही गयी है। कहा जा रहा है कि सीरम और क्रीम में इस्तेमाल की जा रहीं इस सेब की स्टेम कोशिकाएं मानव चमड़ी की स्टेम कोशिकाओं को उत्तेजित करती हैं और इस तरह चमड़ी पर जल्द झुर्रियां नहीं आतीं।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक सौंदर्य प्रसाधनों की दुनिया में इस सेब को उम्र रोकने के क्षेत्र में एक उत्साहजनक सफलता माना गया है तथा अमेरिका, यूरोप व एशिया की तकरीबन 100 सौंदर्य कंपनियों ने इसका इस्तेमाल शुरू किया है।
फोटो व मूल खबर के स्रोत : टेलीग्राफ व डेलीमेल
स्विटजरलैंड के दूरस्थ हिस्से में गिनती के रह गए एक पेड़ पर उगने वाला उटविलर स्पैटलौबर (Uttwiler Spatlauber) नामक यह दुर्लभ सेब दूसरी अन्य प्रजातियों की तुलना में अधिक (लगभग चार महीने) समय तक टिकाउ रहता है। पर इसके कसैले स्वाद के कारण इसकी मांग नहीं रही और इसके वृक्षों की संख्या इस कदर घटती गयी कि स्विटजरलैंड में अब मात्र 20 पेड़ रह गए हैं। हालांकि मीडिया में अब इसे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पत्नी और अमेरिका की प्रथम महिला मिशेल ओबामा के जवां रूप-रंग का राज बताया जा रहा है।
फैशन मैगजीन 'वोग' में मिशेल ओबामा द्वारा इस सेव की स्टेम कोशिकाओं के सत्व से बने 215 पौंड वजन के बराबर सीरम को खरीदे जाने की बात कही गयी है। कहा जा रहा है कि सीरम और क्रीम में इस्तेमाल की जा रहीं इस सेब की स्टेम कोशिकाएं मानव चमड़ी की स्टेम कोशिकाओं को उत्तेजित करती हैं और इस तरह चमड़ी पर जल्द झुर्रियां नहीं आतीं।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक सौंदर्य प्रसाधनों की दुनिया में इस सेब को उम्र रोकने के क्षेत्र में एक उत्साहजनक सफलता माना गया है तथा अमेरिका, यूरोप व एशिया की तकरीबन 100 सौंदर्य कंपनियों ने इसका इस्तेमाल शुरू किया है।
फोटो व मूल खबर के स्रोत : टेलीग्राफ व डेलीमेल
जीएम बैगन व चावल ही क्यों, अब तैयार रहिए खाने को कृत्रिम मांस
हमने एक आलेख में कहा था कि अब दाने-दाने पर लिखा होगा बनानेवाले का नाम। चीन में जीन संवर्धित चावल और भरत में जीन संवर्धित सब्जियों को मिल रही मंजूरी के बाद लगता है कि वह समय बहुत करीब आ गया है। लेकिन बात इतनी ही नहीं है। कुछेक वर्षों में अब कृत्रिम रूप से बना मांस भी खाने को मिलेगा। वैज्ञानिकों द्वारा दुनिया में पहली बार प्रयोगशाला में कृत्रिम तरीके से मांस तैयार करने में कामायाबी हासिल की गयी है।
यह कारनामा नीदरलैंड्स के शोधकर्ताओं ने कर दिखाया है। हालांकि यह अभी सूअर के गीले मांस की तरह है और वैज्ञानिक इसके मांसपेशी ऊत्तक में इस आशा में सुधार के उपाय में लगे हैं कि लोग किसी दिन इसे खाना चाहेंगे। वैसे अभी किसी ने इसे चखा नहीं है, लेकिन माना जा रहा है कि पांच साल के अंदर कृत्रिम मांस की बिक्री होने लगेगी।
डच सरकार द्वारा समर्थित इस परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक बताते हैं कि इस प्रक्रिया में एक जानवर से मांस लेकर लाखों पशुओं के बराबर मांस तैयार किया जा सकता है। उनका कहना है कि यह उत्पाद पर्यावरण के लिए अच्छा रहेगा तथा इससे जानवरों की पीड़ा कम होगी। उनका कहना है कि प्रयोगशाला में मांस का उत्पादन होने का यह फायदा भी है कि इससे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा। पशुओं के अधिकार के लिए संघर्ष करनेवाले संगठन पेटा (PETA - People for Ethical Treatment of Animals) ने भी इस मामले में कहा है कि यदि मांस मृत जानवरों का नहीं है तो उन्हें कोई नैत्तिक आपत्ति नहीं।
बहरहाल हमारे लिए तो सबसे महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया आपकी है, इस संबंध में आप क्या कहेंगे ? वैसे एक बात तो तय है कि निकट भविष्य में आचार-विचार के पुराने मानदंडों से काम नहीं चलनेवाला। आनेवाले वर्षों में शाकाहार-मांसाहार के बीच की रेखा भी उतनी स्पष्ट नहीं रहेगी, जितनी अब तक रहते आयी है।
यह कारनामा नीदरलैंड्स के शोधकर्ताओं ने कर दिखाया है। हालांकि यह अभी सूअर के गीले मांस की तरह है और वैज्ञानिक इसके मांसपेशी ऊत्तक में इस आशा में सुधार के उपाय में लगे हैं कि लोग किसी दिन इसे खाना चाहेंगे। वैसे अभी किसी ने इसे चखा नहीं है, लेकिन माना जा रहा है कि पांच साल के अंदर कृत्रिम मांस की बिक्री होने लगेगी।
डच सरकार द्वारा समर्थित इस परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक बताते हैं कि इस प्रक्रिया में एक जानवर से मांस लेकर लाखों पशुओं के बराबर मांस तैयार किया जा सकता है। उनका कहना है कि यह उत्पाद पर्यावरण के लिए अच्छा रहेगा तथा इससे जानवरों की पीड़ा कम होगी। उनका कहना है कि प्रयोगशाला में मांस का उत्पादन होने का यह फायदा भी है कि इससे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा। पशुओं के अधिकार के लिए संघर्ष करनेवाले संगठन पेटा (PETA - People for Ethical Treatment of Animals) ने भी इस मामले में कहा है कि यदि मांस मृत जानवरों का नहीं है तो उन्हें कोई नैत्तिक आपत्ति नहीं।
बहरहाल हमारे लिए तो सबसे महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया आपकी है, इस संबंध में आप क्या कहेंगे ? वैसे एक बात तो तय है कि निकट भविष्य में आचार-विचार के पुराने मानदंडों से काम नहीं चलनेवाला। आनेवाले वर्षों में शाकाहार-मांसाहार के बीच की रेखा भी उतनी स्पष्ट नहीं रहेगी, जितनी अब तक रहते आयी है।
Sunday, November 29, 2009
मेंथा यानी पिपरमिंट : यूपी ने अकेले पछाड़ दिया चीन को
ताकत, शोहरत और बाजार में सस्ते उत्पादों के दम पर चीन की चौधराहट का डंका भले ही दुनिया भर में रहा हो, लेकिन एक मामले में भारत क्या वह उत्तर प्रदेश के सामने ही घुटने टेक चुका है। मेंथा ऑयल के उत्पादन में दशकों तक ग्लोबल मार्केट में धाक रखने वाला चीन आज भारत के सामने बौना साबित हो चुका है। अकेले यूपी में पूरे देश का 92 फीसदी मेंथा का उत्पादन होता है। विश्व के कुल निर्यात मार्केट में इसकी 86 फीसदी हिस्सेदारी है।
खाने पीने की चीजों में होने वाले ठंडेपन का अहसास असल में मेंथा यानी पिपरमिंट की देन है। इस ठंडे में यूपी के किसानों का फंडा लगा हुआ है। कम लागत और दो फसलों के बीच मेंथा पैदा करने की कला के दम पर कभी मेंथा का चीन से आयात करने वाले भारत ने उसे पीछे छोड़ दिया है। भारत आज इसके उत्पादन में दुनिया का सिरमौर बन गया है।
कन्नौज स्थित प्रतिष्ठित संस्थान एफएफडीसी (फ्रेगनेंस एंड फ्लेवर डेवलमेंट सेंटर) के डिप्टी डायरेक्टर शक्ति विनय शुक्ला ने बताया कि मेंथा की खेती की शुरुआत भारत में 70 के दशक के बाद ही शुरू हुई। 1954 में जापान से इसके सात पौधे लाकर लगाए गए थे। तब जापान ही इसका सबसे बड़ा उत्पादक देश था। बाद के दशकों में चीन ने इस मामले में सभी को पीछे छोड़ दिया। 1980 तक भारत चीन से ही अपनी जरूरत का मेंथा ऑयल आयात करता रहा। जापान से लाए गए पौधों पर लंबे समय तक शोध किया गया। सबसे पहले एच-77 के नाम से मेंथा की हाइब्रिड नस्ल तैयार की गई। बाद में गोमती, हिमालया बाजार में आई। 1998 में मेंथा की कोसी नस्ल तैयार हुई। इसके बाद से ही देश ने मेंथा उत्पादन में बढ़त बनाना शुरू कर दिया।
विश्व में 22 हजार टन मेंथा ऑयल का उत्पादन होता है। इसमें 19 हजार टन तेल अकेले भारत में निकाला जाता है। इसका भी 90 फीसदी हिस्सा यूपी में पैदा होता है। देश के कुल 1 लाख 60 हजार हेक्टेयर में मेंथा की खेती होती है। इसमें भी 95 फीसदी रकबा अकेले यूपी में है। यूपी के बाराबंकी, सीतापुर, बलरामपुर, लखनऊ, बदायूं, रामपुर और बरेली में इसकी खेती होती है।
एसेंसियल ऑयल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष शैलेंद्र जैन ने बताया कि दशकों तक मेंथा बाजार पर काबिज रहे चीन का वर्चस्व खत्म हो गया है। यह सब यूपी की दम पर ही हुआ है। शक्ति शुक्ला के मुताबिक वायदा बाजार में आज मेंथा की धूम है। कन्नौज स्थित एफएफडीसी सेंटर में मेंथा ऑयल शुद्धता की जाच को हर रोज दर्जनों नमूने देशभर से आते हैं।
दैनिक जागरण से साभार
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खाने पीने की चीजों में होने वाले ठंडेपन का अहसास असल में मेंथा यानी पिपरमिंट की देन है। इस ठंडे में यूपी के किसानों का फंडा लगा हुआ है। कम लागत और दो फसलों के बीच मेंथा पैदा करने की कला के दम पर कभी मेंथा का चीन से आयात करने वाले भारत ने उसे पीछे छोड़ दिया है। भारत आज इसके उत्पादन में दुनिया का सिरमौर बन गया है।
कन्नौज स्थित प्रतिष्ठित संस्थान एफएफडीसी (फ्रेगनेंस एंड फ्लेवर डेवलमेंट सेंटर) के डिप्टी डायरेक्टर शक्ति विनय शुक्ला ने बताया कि मेंथा की खेती की शुरुआत भारत में 70 के दशक के बाद ही शुरू हुई। 1954 में जापान से इसके सात पौधे लाकर लगाए गए थे। तब जापान ही इसका सबसे बड़ा उत्पादक देश था। बाद के दशकों में चीन ने इस मामले में सभी को पीछे छोड़ दिया। 1980 तक भारत चीन से ही अपनी जरूरत का मेंथा ऑयल आयात करता रहा। जापान से लाए गए पौधों पर लंबे समय तक शोध किया गया। सबसे पहले एच-77 के नाम से मेंथा की हाइब्रिड नस्ल तैयार की गई। बाद में गोमती, हिमालया बाजार में आई। 1998 में मेंथा की कोसी नस्ल तैयार हुई। इसके बाद से ही देश ने मेंथा उत्पादन में बढ़त बनाना शुरू कर दिया।
विश्व में 22 हजार टन मेंथा ऑयल का उत्पादन होता है। इसमें 19 हजार टन तेल अकेले भारत में निकाला जाता है। इसका भी 90 फीसदी हिस्सा यूपी में पैदा होता है। देश के कुल 1 लाख 60 हजार हेक्टेयर में मेंथा की खेती होती है। इसमें भी 95 फीसदी रकबा अकेले यूपी में है। यूपी के बाराबंकी, सीतापुर, बलरामपुर, लखनऊ, बदायूं, रामपुर और बरेली में इसकी खेती होती है।
एसेंसियल ऑयल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष शैलेंद्र जैन ने बताया कि दशकों तक मेंथा बाजार पर काबिज रहे चीन का वर्चस्व खत्म हो गया है। यह सब यूपी की दम पर ही हुआ है। शक्ति शुक्ला के मुताबिक वायदा बाजार में आज मेंथा की धूम है। कन्नौज स्थित एफएफडीसी सेंटर में मेंथा ऑयल शुद्धता की जाच को हर रोज दर्जनों नमूने देशभर से आते हैं।
दैनिक जागरण से साभार
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Saturday, November 28, 2009
दो हजार वैज्ञानिकों ने मेक्सिको में किया जीएम मक्के का विरोध
लैटिन अमरीकी देश मेक्सिको में जेनेटिकली मॉडीफाइड (जीएम) मक्के की खेती ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है। एक ओर वहां की सरकार इसकी परीक्षण खेती की अनुमति दे चुकी है, वहीं दूसरी ओर वहां के हजारों वैज्ञानिक इसके विरोध में उठ खड़े हुए हैं। करीब दो हजार से भी अधिक वैज्ञानिकों ने सरकार को याचिका देकर डो एग्री साइंसेज और मोनसेंटो द्वारा की जा रही जेनेटिकली मॉडीफाइड (जीएम) मक्के की प्रायोगिक खेती पर रोक लगाने की मांग की है। ये वैज्ञानिक देश के उत्तरी क्षेत्र में जीएम मक्के की खेती होने से चिंतित हैं तथा इनका कहना है कि प्राकृतिक मक्के की किस्मों को पराजीनों (transgenes) के प्रदूषण से बचाए रखने लायक सामर्थ्य व संसाधन मेक्सिको के पास नहीं है।
गौरतलब है कि मक्के की उत्पत्ति मेक्सिको से ही मानी जाती है और वहां यह आहार का मुख्य स्रोत है। बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियां जीन संवर्धित मक्का को उस देश में मंजूरी दिलाने के लिए लंबे समय से प्रयत्नरत रही हैं, लेकिन पिछले ग्यारह वर्षों से सरकार ने वहां जीएम मक्के की खेती पर रोक लगा रखी थी। हालांकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आखिरकार सफलता मिल ही गयी और पिछले माह वहां की सरकार ने डो एग्री साइंसेज और मोनसेंटो नामक कंपनियों को देश के उत्तरी क्षेत्र में करीब 13 हेक्टेयर भूमि के दो दर्जन प्लाटों में पराजीनी मक्के की परीक्षण खेती करने की अनुमति दे दी।
इस संबध में सरकारी अधिकारियों का कहना है कि जीन संवर्धित मक्के से प्राकृतिक किस्मों में जीनों के प्रवाह को रोकने के लिए उपयुक्त उपाय किए जा रहे हैं। उनका कहना है कि अभी सिर्फ प्रायोगिक खेती की जा रही है, जिसका उद्देश्य यह देखना है कि इन परिस्थितियों में जीन संवर्धित पौधे कितने कारगर हैं। वे कहते हैं, ‘’आधा हेक्टेयर से भी छोटे प्लॉट होंगे, प्राकृतिक मक्के से इतर समय में बीज डाले जाएंगे और देसी मक्के पर उसके असर के बारे में किसानों से सर्वेक्षण होगा।‘’
हालांकि परीक्षण खेती का विरोध कर रहे वैज्ञानिक इन तर्कों से आश्वस्त नहीं हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले के आनुवांशिकीविद मोंटगोमरी स्लाटकिन कहते हैं, ‘’देसी फसल को पराजीन-प्रदूषण से बचाने का कोई उपाय नहीं है।‘’ मेक्सिको के प्रमुख जीवविज्ञानी जोस सारुखन केरमेज कहते हैं, ‘’यदि मेक्सिको पराजीनी मक्के की प्रायोगिक खेती करता है तो यह आदर्श स्थितियों व समुचित निगरानी में होना चाहिए। लेकिन हमारे पास दोनों में से कोई चीज नहीं।‘’
फोटो नेचर से साभार
गौरतलब है कि मक्के की उत्पत्ति मेक्सिको से ही मानी जाती है और वहां यह आहार का मुख्य स्रोत है। बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियां जीन संवर्धित मक्का को उस देश में मंजूरी दिलाने के लिए लंबे समय से प्रयत्नरत रही हैं, लेकिन पिछले ग्यारह वर्षों से सरकार ने वहां जीएम मक्के की खेती पर रोक लगा रखी थी। हालांकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आखिरकार सफलता मिल ही गयी और पिछले माह वहां की सरकार ने डो एग्री साइंसेज और मोनसेंटो नामक कंपनियों को देश के उत्तरी क्षेत्र में करीब 13 हेक्टेयर भूमि के दो दर्जन प्लाटों में पराजीनी मक्के की परीक्षण खेती करने की अनुमति दे दी।
इस संबध में सरकारी अधिकारियों का कहना है कि जीन संवर्धित मक्के से प्राकृतिक किस्मों में जीनों के प्रवाह को रोकने के लिए उपयुक्त उपाय किए जा रहे हैं। उनका कहना है कि अभी सिर्फ प्रायोगिक खेती की जा रही है, जिसका उद्देश्य यह देखना है कि इन परिस्थितियों में जीन संवर्धित पौधे कितने कारगर हैं। वे कहते हैं, ‘’आधा हेक्टेयर से भी छोटे प्लॉट होंगे, प्राकृतिक मक्के से इतर समय में बीज डाले जाएंगे और देसी मक्के पर उसके असर के बारे में किसानों से सर्वेक्षण होगा।‘’
हालांकि परीक्षण खेती का विरोध कर रहे वैज्ञानिक इन तर्कों से आश्वस्त नहीं हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले के आनुवांशिकीविद मोंटगोमरी स्लाटकिन कहते हैं, ‘’देसी फसल को पराजीन-प्रदूषण से बचाने का कोई उपाय नहीं है।‘’ मेक्सिको के प्रमुख जीवविज्ञानी जोस सारुखन केरमेज कहते हैं, ‘’यदि मेक्सिको पराजीनी मक्के की प्रायोगिक खेती करता है तो यह आदर्श स्थितियों व समुचित निगरानी में होना चाहिए। लेकिन हमारे पास दोनों में से कोई चीज नहीं।‘’
फोटो नेचर से साभार
Friday, November 27, 2009
चीन में जीएम चावल को मंजूरी, दो-तीन सालों में होने लगेगी वाणिज्यिक खेती
कृषि से संबंधित एक बड़ी खबर यह है कि चीन ने अपने यहां स्थानीय तौर पर विकसित किए गए आनुवांशिक रूप से संवर्धित (Genetically Modified Rice) चावल को मंजूरी दे दी है। चीन के वैज्ञानिकों के हवाले से यह खबर देते हुए रायटर समाचार एजेंसी ने कहा है कि वहां के कृषि मंत्रालय की बायोसेफ्टी कमेटी ने आनुवांशिक रूप से संवर्धित कीट-प्रतिरोधी बीटी चावल को बायोसेफ्टी प्रमाणमत्र जारी कर दिए हैं और इसी के साथ उस देश में अगले दो से तीन सालों में इसकी बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक खेती का मार्ग प्रशस्त हो गया है। चूंकि चीन दुनिया में चावल का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता है, इसलिए इस खबर का खासा महत्व है और पर्यावरण समर्थक संगठनों में इसको लेकर चिंता व्याप्त है।
गौरतलब है कि स्थानीय स्तर पर विकसित किए गए बीटी-63 (Bt-63) नामक कीट-प्रतिरोधी जीन संवर्धित चावल की श्रृंखला को मंजूरी अभी वहां के कृषि मंत्रालय की बायोसेफ्टी कमेटी ने दी है। इसका मतलब है कि चीन के कृषि मंत्रालय से अनुमोदन अभी बाकी है। लेकिन जिस तरह से जीएम फसलों की ओर चीन का झुकाव बढ़ रहा है, माना जा सकता है कि यह अनुमोदन भी देर-सबेर मिल ही जाएगा। माना जा रहा है कि पंजीकरण और प्रायोगिक उत्पादन जैसी प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद ही वाणिज्यिक उत्पादन शुरू होगा, लेकिन अनुमान जताया जा रहा है कि अगले दो-तीन सालों में ये औपचारिकताएं पूरी हो जाएंगी। चीन ने पिछले सप्ताह जीन संवर्धित फाइटेस (GM phytase) नामक जानवरों को खिलाए जानेवाले अनाज (Corn) को भी बायोसेफ्टी मंजूरी दी है।
इस बीच पर्यावरण समर्थक संगठन ग्रीनपीस ने चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि चीन में जीएम चावल को मंजूरी अभी पूर्ण नहीं है और यह उतना आसान भी नहीं है। संगठन ने कहा है कि दुनिया की बीस फीसदी से भी अधिक आबादी को खतरनाक जेनेटिक प्रयोग से बचाने के लिए चीन के कृषि मंत्रालय से उसके द्वारा अनुरोध किया जा रहा है। विदित हो कि हर साल करीब 59.5 मिलियन टन चावल उपजानेवाला चीन दुनिया का सबसे बड़ा चावल उत्पादक है। इसमें से अधिकांश चावल की घरेलु स्तर पर ही खपत हो जाती है, लेकिन कुछ निर्यात भी होता है।
पर्यावरण संगठनों का कहना है कि जीई फूड से चीन में स्वास्थ्य, पर्यावरण व खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से क्षति होगी तथा उसके निर्यात पर बुरा असर पड़ सकता है। ग्रीनपीस के चीन में मौजूद एक कार्यकर्ता के शब्दों में जीई चावल के वाणिज्यिकरण से चीन की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी, क्योंकि इस तरह के चावल का अधिकांश पेटेन्ट मोंसैंटो जैसी विदेशी कंपनियों के नियंत्रण में है।
फोटो ग्रीनपीस से सभार
गौरतलब है कि स्थानीय स्तर पर विकसित किए गए बीटी-63 (Bt-63) नामक कीट-प्रतिरोधी जीन संवर्धित चावल की श्रृंखला को मंजूरी अभी वहां के कृषि मंत्रालय की बायोसेफ्टी कमेटी ने दी है। इसका मतलब है कि चीन के कृषि मंत्रालय से अनुमोदन अभी बाकी है। लेकिन जिस तरह से जीएम फसलों की ओर चीन का झुकाव बढ़ रहा है, माना जा सकता है कि यह अनुमोदन भी देर-सबेर मिल ही जाएगा। माना जा रहा है कि पंजीकरण और प्रायोगिक उत्पादन जैसी प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद ही वाणिज्यिक उत्पादन शुरू होगा, लेकिन अनुमान जताया जा रहा है कि अगले दो-तीन सालों में ये औपचारिकताएं पूरी हो जाएंगी। चीन ने पिछले सप्ताह जीन संवर्धित फाइटेस (GM phytase) नामक जानवरों को खिलाए जानेवाले अनाज (Corn) को भी बायोसेफ्टी मंजूरी दी है।
इस बीच पर्यावरण समर्थक संगठन ग्रीनपीस ने चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि चीन में जीएम चावल को मंजूरी अभी पूर्ण नहीं है और यह उतना आसान भी नहीं है। संगठन ने कहा है कि दुनिया की बीस फीसदी से भी अधिक आबादी को खतरनाक जेनेटिक प्रयोग से बचाने के लिए चीन के कृषि मंत्रालय से उसके द्वारा अनुरोध किया जा रहा है। विदित हो कि हर साल करीब 59.5 मिलियन टन चावल उपजानेवाला चीन दुनिया का सबसे बड़ा चावल उत्पादक है। इसमें से अधिकांश चावल की घरेलु स्तर पर ही खपत हो जाती है, लेकिन कुछ निर्यात भी होता है।
पर्यावरण संगठनों का कहना है कि जीई फूड से चीन में स्वास्थ्य, पर्यावरण व खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से क्षति होगी तथा उसके निर्यात पर बुरा असर पड़ सकता है। ग्रीनपीस के चीन में मौजूद एक कार्यकर्ता के शब्दों में जीई चावल के वाणिज्यिकरण से चीन की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी, क्योंकि इस तरह के चावल का अधिकांश पेटेन्ट मोंसैंटो जैसी विदेशी कंपनियों के नियंत्रण में है।
फोटो ग्रीनपीस से सभार
Thursday, November 26, 2009
जज आप, ऐडवोकेट भी आप, बीटी बैगन का रास्ता साफ
क्या आप ने किसी केस में जज को ही पैरवी करते देखा है ? यदि ऐसा ही हो तो क्या फैसला होगा आसानी से समझा जा सकता है। भारत में जेनेटिकली मोडिफाईड बैगन के मामले में यही बात देखने को मिल रही है। जीएम बैगन की खेती के बारे में जिस केन्द्र सरकार को निर्णय लेना है, वही उस तरह की फसलों की पैरवी कर रही है। केन्द्र सरकार एक तरफ कह रही है कि बीटी बैगन के बारे में अंतिम निर्णय लेने से पहले सभी पक्षों से परामर्श किया जाएगा, वहीं दूसरी ओर उसके संबंधित मंत्री ट्रांसजेनिक फसलों के पक्ष में चल रही मुहिम में शामिल नजर आ रहे हैं।
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने हाल ही में सार्वजनिक रूप से बीटी बैगन का समर्थन करते हुए एक लिखित प्रश्नोत्तर में लोकसभा को बताया है कि बीटी बैगन का विकास अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप किया गया है तथा इसके पर्यावरण संबंधी खतरे का अध्ययन करनेवाले विशेषज्ञों की समिति ने इसमें कोई खराबी नहीं पायी है। इसलिए इसकी खेती से देश की जैव विविधता को नुकसान होने की आशंका नहीं है। उधर केन्द्रीय कृषि एवं उपभोक्ता मामलों के राज्य मंत्री के वी थामस तो यहां तक कह रहे हैं कि जीएम फसलों से क्रांति आ सकती है। वे कहते हैं कि आनुवांशिक रूप से संशोधित (जीएम) फसलों से मानवता का कल्याण हो सकता है। जीएम फसलों के समर्थन में श्री थामस के लगातार आ रहे वक्तव्य आप यहां, यहां, यहां, और यहां देख सकते हैं।
जब कृषि, उपभोक्ता व पर्यावरण जैसे विभागों के मंत्री ही बीटी बैगन के पक्ष में इतनी जोरदार दलीलें दे रहे हों तो माना जाना चाहिए कि भारत में उसकी वाणिज्यिक खेती को मंजूरी अब औपचारिकता भर रह गयी है। कभी-कभी तो यह संदेह भी होने लगता है कि कहीं पहले ही पूरा मामला फिक्स तो नहीं कर लिया गया है।
गौरतलब है कि केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की राष्ट्रीय खाद्य नियामक संस्था जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी पहले ही किसान संगठनों के कड़े विरोध के बावजूद बीटी बैगन को अंतिम मंजूरी दे चुकी है। कमेटी के कुछ सदस्यों ने इसका विरोध किया था। कमेटी के सदस्य और जाने-माने वैज्ञानिक पीएम भार्गव ने मॉलिक्यूलर प्रकृति का मुद्दा उठाया, लेकिन अन्य सदस्यों ने उसे खारिज कर दिया। अब यह मामला केन्द्र सरकार के पास है तथा सरकार के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की स्वीकृति के बाद बीटी बैगन के बीज को बाजार में उतारा जा सकेगा।
बीटी बैगन का विकास महाराष्ट्र हाईब्रिड सीड कंपनी (माहिको) ने किया है जो मोनसैंटो की पार्टनर है। बीटी शब्द का प्रयोग बैसिलस थ्युरिंगियेंसिस (Bacillus thuringiensis) के लिए किया जाता है। बैसिलस थ्युरिंगियेंसिस मिट्टी में प्राकृतिक रूप से पाया जानेवाला बैक्टीरिया है जो जहरीला प्रोटीन पैदा करता है। वैज्ञानिकों ने इस जहरीला प्रोटीन के लिए जिम्मेवार जीनों की पहचान की और उन्हें जेनेटिक इंजीनियरिंग तकनीक के जरिए अलग कर फसलों की जीन संरचना में डालकर बीटी फसलें तैयार कीं। बीटी कपास, बीटी मक्का और बीटी बैगन जैसी फसलों के बीजों का निर्माण इसी तरीके से हुआ है। माहिको द्वारा तैयार बीटी बैगन में क्राई1एसी (cry1Ac) नामक बीटी जीन डाला गया है, जिसकी वजह से बननेवाले जहरीले प्रोटीन को खाकर कीड़े मर जाएंगे। हालांकि पर्यावरणवादियों का कहना है कि इस तरह की जीनों से तैयार जीएम फसलें मिट्टी, मानव स्वास्थ्य व वन्य प्राणियों के लिए नुकसानदेह हैं। उनका कहना है कि इनकी वजह से अन्य फसलें भी प्रदूषित हो जाएंगी, जिससे पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने हाल ही में सार्वजनिक रूप से बीटी बैगन का समर्थन करते हुए एक लिखित प्रश्नोत्तर में लोकसभा को बताया है कि बीटी बैगन का विकास अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप किया गया है तथा इसके पर्यावरण संबंधी खतरे का अध्ययन करनेवाले विशेषज्ञों की समिति ने इसमें कोई खराबी नहीं पायी है। इसलिए इसकी खेती से देश की जैव विविधता को नुकसान होने की आशंका नहीं है। उधर केन्द्रीय कृषि एवं उपभोक्ता मामलों के राज्य मंत्री के वी थामस तो यहां तक कह रहे हैं कि जीएम फसलों से क्रांति आ सकती है। वे कहते हैं कि आनुवांशिक रूप से संशोधित (जीएम) फसलों से मानवता का कल्याण हो सकता है। जीएम फसलों के समर्थन में श्री थामस के लगातार आ रहे वक्तव्य आप यहां, यहां, यहां, और यहां देख सकते हैं।
जब कृषि, उपभोक्ता व पर्यावरण जैसे विभागों के मंत्री ही बीटी बैगन के पक्ष में इतनी जोरदार दलीलें दे रहे हों तो माना जाना चाहिए कि भारत में उसकी वाणिज्यिक खेती को मंजूरी अब औपचारिकता भर रह गयी है। कभी-कभी तो यह संदेह भी होने लगता है कि कहीं पहले ही पूरा मामला फिक्स तो नहीं कर लिया गया है।
गौरतलब है कि केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की राष्ट्रीय खाद्य नियामक संस्था जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी पहले ही किसान संगठनों के कड़े विरोध के बावजूद बीटी बैगन को अंतिम मंजूरी दे चुकी है। कमेटी के कुछ सदस्यों ने इसका विरोध किया था। कमेटी के सदस्य और जाने-माने वैज्ञानिक पीएम भार्गव ने मॉलिक्यूलर प्रकृति का मुद्दा उठाया, लेकिन अन्य सदस्यों ने उसे खारिज कर दिया। अब यह मामला केन्द्र सरकार के पास है तथा सरकार के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की स्वीकृति के बाद बीटी बैगन के बीज को बाजार में उतारा जा सकेगा।
बीटी बैगन का विकास महाराष्ट्र हाईब्रिड सीड कंपनी (माहिको) ने किया है जो मोनसैंटो की पार्टनर है। बीटी शब्द का प्रयोग बैसिलस थ्युरिंगियेंसिस (Bacillus thuringiensis) के लिए किया जाता है। बैसिलस थ्युरिंगियेंसिस मिट्टी में प्राकृतिक रूप से पाया जानेवाला बैक्टीरिया है जो जहरीला प्रोटीन पैदा करता है। वैज्ञानिकों ने इस जहरीला प्रोटीन के लिए जिम्मेवार जीनों की पहचान की और उन्हें जेनेटिक इंजीनियरिंग तकनीक के जरिए अलग कर फसलों की जीन संरचना में डालकर बीटी फसलें तैयार कीं। बीटी कपास, बीटी मक्का और बीटी बैगन जैसी फसलों के बीजों का निर्माण इसी तरीके से हुआ है। माहिको द्वारा तैयार बीटी बैगन में क्राई1एसी (cry1Ac) नामक बीटी जीन डाला गया है, जिसकी वजह से बननेवाले जहरीले प्रोटीन को खाकर कीड़े मर जाएंगे। हालांकि पर्यावरणवादियों का कहना है कि इस तरह की जीनों से तैयार जीएम फसलें मिट्टी, मानव स्वास्थ्य व वन्य प्राणियों के लिए नुकसानदेह हैं। उनका कहना है कि इनकी वजह से अन्य फसलें भी प्रदूषित हो जाएंगी, जिससे पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।
Tuesday, November 24, 2009
चाय तो रोज पीते होंगे... कभी चर्चा भी की है...
दुनिया में पानी के बाद यदि कोई चीज सबसे अधिक पी जानेवाली है तो वह संभवत: चाय ही है। सुबह-सुबह चाय न मिले तो दिन का जायका ही नहीं बनता। आप रोज ही कई कप चाय पी जाते होंगे और चाय की प्यालियां पकड़े कई तरह की चर्चा करते होंगे। लेकिन क्या आप ने कभी चाय की चर्चा की है…। की है तो अच्छा है, नहीं की है तो हम हैं ना। तो हम ले चलते हैं आपको इंटरनेट पर मौजूद चाय की जायकेदार दुनिया में।
सफर की शुरुआत में चलते हैं धान के देश में, जहां जी.के. अवधिया जी बता रहे हैं, ‘’चाय के पेड़ की उम्र लगभग सौ वर्ष होती है किन्तु अधिक उम्र के चाय पेड़ों की पत्तियों के स्वाद में कड़ुआपन आ जाने के कारण प्रायः चाय बागानों में पचास साठ वर्ष बाद ही पुराने पेड़ों को उखाड़ कर नये पेड़ लगा दिये जाते हैं। चाय के पेड़ों की कटिंग करके उसकी ऊंचाई को नहीं बढ़ने दिया जाता ताकि पत्तियों को सुविधापूर्वक तोड़ा जा सके। यदि कटिंग न किया जावे तो चाय के पेड़ भी बहुत ऊंचाई तक बढ़ सकते हैं।‘’ अवधिया जी को चाय के पेड़ के विषय में उक्त जानकारी उनके जलपाईगुड़ी प्रवास के दौरान वहां के लोगों से मिली थी।
नवभारत टाइम्स में बताया गया है, ‘’मोटे तौर पर चाय दो तरह की होती है : प्रोसेस्ड या सीटीसी (कट, टीयर ऐंड कर्ल) और ग्रीन टी (नैचरल टी)।
सीटीसी टी (आम चाय) : यह विभिन्न ब्रैंड्स के तहत बिकने वाली दानेदार चाय होती है, जो आमतौर पर घर, रेस्तरां और होटेल आदि में इस्तेमाल की जाती है। इसमें पत्तों को तोड़कर कर्ल किया जाता है। फिर सुखाकर दानों का रूप दिया जाता है। इस प्रक्रिया में कुछ बदलाव आते हैं। इससे चाय में टेस्ट और महक बढ़ जाती है। लेकिन यह ग्रीन टी जितनी नैचरल नहीं बचती और न ही उतनी फायदेमंद।
ग्रीन टी: इसे प्रोसेस्ड नहीं किया जाता। यह चाय के पौधे के ऊपर के कच्चे पत्ते से बनती है। सीधे पत्तों को तोड़कर भी चाय बना सकते हैं। इसमें एंटी-ऑक्सिडेंट सबसे ज्यादा होते हैं। ग्रीन टी काफी फायदेमंद होती है, खासकर अगर बिना दूध और चीनी पी जाए। इसमें कैलरी भी नहीं होतीं। इसी ग्रीन टी से हर्बल व ऑर्गेनिक आदि चाय तैयार की जाती है। ऑर्गेनिक इंडिया, ट्विनिंग्स इंडिया, लिप्टन कुछ जाने-माने नाम हैं, जो ग्रीन टी मुहैया कराते हैं।‘’
अखबार में चाय के फायदे भी बताए गए हैं :
- चाय में कैफीन और टैनिन होते हैं, जो स्टीमुलेटर होते हैं। इनसे शरीर में फुर्ती का अहसास होता है।
- चाय में मौजूद एल-थियेनाइन नामक अमीनो-एसिड दिमाग को ज्यादा अलर्ट लेकिन शांत रखता है।
- चाय में एंटीजन होते हैं, जो इसे एंटी-बैक्टीरियल क्षमता प्रदान करते हैं।
- इसमें मौजूद एंटी-ऑक्सिडेंट तत्व शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और कई बीमारियों से बचाव करते हैं।
- एंटी-एजिंग गुणों की वजह से चाय बुढ़ापे की रफ्तार को कम करती है और शरीर को उम्र के साथ होनेवाले नुकसान को कम करती है।
- चाय में फ्लोराइड होता है, जो हड्डियों को मजबूत करता है और दांतों में कीड़ा लगने से रोकता है।
चाय से नुकसान भी कम नहीं :
- दिन भर में तीन कप से ज्यादा पीने से एसिडिटी हो सकती है।
- आयरन एब्जॉर्ब करने की शरीर की क्षमता को कम कर देती है।
- कैफीन होने के कारण चाय पीने की लत लग सकती है।
- ज्यादा पीने से खुश्की आ सकती है।
- पाचन में दिक्कत हो सकती है।
- दांतों पर दाग आ सकते हैं लेकिन कॉफी से ज्यादा दाग आते हैं।
- देर रात पीने से नींद न आने की समस्या हो सकती है।
बीबीसी हिन्दी डॉटकाम पर ममता गुप्ता और महबूब खान बता रहे हैं कि चाय की खेती कब, कहां और कैसे आरंभ हुई। वे लिखते हैं, ‘’ सबसे पहले सन् 1815 में कुछ अंग्रेज यात्रियों का ध्यान असम में उगने वाली चाय की झाड़ियों पर गया जिससे स्थानीय कबाइली लोग एक पेय बनाकर पीते थे। भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड बैंटिक ने 1834 में चाय की परंपरा भारत में शुरू करने और उसका उत्पादन करने की संभावना तलाश करने के लिए एक समिति का गठन किया। इसके बाद 1835 में असम में चाय के बाग़ लगाए गए। ........कहते हैं कि एक दिन चीन के सम्राट शैन नुंग के सामने रखे गर्म पानी के प्याले में, कुछ सूखी पत्तियां आकर गिरीं जिनसे पानी में रंग आया और जब उन्होंने उसकी चुस्की ली तो उन्हें उसका स्वाद बहुत पसंद आया। बस यहीं से शुरू होता है चाय का सफर। ये बात ईसा से 2737 साल पहले की है। सन् 350 में चाय पीने की परंपरा का पहला उल्लेख मिलता है। सन् 1610 में डच व्यापारी चीन से चाय यूरोप ले गए और धीरे-धीरे ये समूची दुनिया का प्रिय पेय बन गया।‘’
अभिव्यक्ति की विज्ञान वार्ता में डॉ. गुरुदयाल प्रदीप बताते हैं कि दार्जिलिंग की चाय विश्वप्रसिद्व क्यों है : ‘’दक्षिण-पूर्व एशिया की उपजाऊ दोमट मिट्टी वाली पहाड़ियों पर, जहा पर्याप्त पानी बरसता है और ठंडी हवा बहती है, इस सदाबहार पौधे की विभिन्न प्रजातियां स्वाभाविक रूप से पनपती हैं। सब से पहले चाय के पौधे के बीज को नर्सरी में उगाया जाता है। इन बीजों से उत्पन्न पौधे जब 6 से 18 माह के बीच की उम्र प्राप्त कर लेते हैं तो इन्हें चाय के बाग़ानों में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। समय-समय पर इन की छंटाई की जाती है जिस से इन की ऊंचाई लगभग एक मीटर तक बनी रहे और इन में नई-नई पत्तियां आती रहें। कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों पर उगने वाले पौधों की पत्तियां लगभग ढाई साल में ही परिपक्व हो जाती हैं तो ऊंची पहाड़ियों पर उगने वाली प्रजाति की पत्तियां लगभग पांच साल में परिपक्व होती हैं। सब से अच्छी चाय उन पौधों से पाप्त होती है जो 1000 से 2000 मीटर की ऊंचाई वाली पहाड़ियों पर उगती हैं। ठंडी हवा में पनपने वाले इन पौधों की बाढ़ धीमी तो होती है परंतु इन से प्राप्त चाय का ज़ायक़ा बेहतर होता है। दार्जिलिंग की चाय संभवत: इसीलिए विश्व-प्रसिद्ध है।‘’
डॉ. प्रदीप चाय में मौजूद 'एंटी ऑक्सीडेंट’ का काम करनेवाले रसायनों के बखान के क्रम में ऑक्सिडेशन की प्रक्रिया तथा इन से होने वाली हानि को भी समझाते हैं : ‘’दरअसल, सभी जीवित कोशिकाओं में तरह-तरह की ऑक्सिडेशन प्रतिक्रियाए होती रहती हैं जिन में एलेक्ट्रॉन्स का स्थानांतरण एक रसायन से दूसरे ऑक्सिडाइज़िंग रसायन तक होता रहता है, जिस के फलस्वरूप H2O2, HOCl जैसी क्रियाशील रसायनों के अतिरिक्त 'फ्री रेडिकल्स' यथा –OH, O2- आदि रसायनों का निर्माण होता है। ये रसायन 'लिपिड-पर-ऑक्सीडेशन' की प्रकिया द्वारा कोशिका को हानि पहुँचाते हैं या फिर ऐसे रसायनों के संश्लेषण में सहायक होते हैं जो डी-एन-ए से जुडकर उन्हें 'ऑंन्कोजीन्स म्युटेन्ट' में परिवर्तित कर कैंसर की संभावना को बढ़ा सकते हैं। माइटोकांड्रिया में तो ऐसी प्रतिक्रियाएं लगातार चलती रहती हैं अत: इन से उत्पन्न क्रियाशील ऑक्सीजनयुक्त रसायनों को नष्ट करते रहना अति आवश्यक है। एंटी ऑक्सिडेंट इस कार्य को बड़ी दक्षता के साथ करते रहते हैं और कोशिकाओं को तरह-तरह की हानि से बचाते रहते हैं।‘’
विकिपीडिया पर भी चाय से संबंधित कई तरह के उपयोगी आंकड़े और जानकारियां दी गयी हैं। यहां उद्वृत है दुनिया के चाय उत्पादक क्षेत्रों से संबंधित एक चार्ट :
निशांत के हिन्दीजेन ब्लॉग पर चाय का कारोबार करनेवाली विश्वप्रसिद्व लिप्टन कम्पनी के संस्थापक सर थॉमस जोंस्टन लिप्टन की चर्चा करते हुए बताया गया है कि किस तरह धुन के उस पक्के उद्यमी ने एक दुर्घटना का भी लाभ उठा लिया और उसका कारोबार दुनिया भर में चमक उठा।
‘चाय’ और ‘Tea’ शब्द आए कहां से यदि आप यह जानना चाहते हैं, तो इंटरनेट पर यह जानकारी भी मौजूद है: ''The word for tea in most of mainland China (and also in Japan) is 'cha'. (Hence its frequency in names of Japanese teas: Sencha, Hojicha, etc.) But the word for tea in Fujian province is 'te' (pronounced approximately 'tay'). As luck would have it, the first mass marketers of tea in the West were the Dutch, whose contacts were in Fujian. They adopted this name, and handed it on to most other European countries. The two exceptions are Russia and Portugal, who had independent trade links to China. The Portuguese call it 'cha', the Russians 'chai'. Other areas (such as Turkey, South Asia and the Arab countries) have some version of 'chai' or 'shai'.
'Tay' was the pronunciation when the word first entered English, and it still is in Scotland and Ireland. For unknown reasons, at some time in the early eighteenth century the English changed their pronunciation to 'tee'. Virtually every other European language, however, retains the original pronunciation of 'tay'.''
इंटरनेट की इस चाय-चर्चा में ब्लॉगर सुनीता शानू का उल्लेख भी लाजिमी है। शानू जी का चाय का कारोबार है, और उनके शब्दों में चाय के साथ-साथ कुछ कविताएं भी हो जाएं तो क्या कहने...
इसी के साथ आपका यह किसान दोस्त विदा चाहता है। आशा है यह चर्चा आपको पसंद आयी होगी।
चाय बागान का चित्र सुलेखा डॉटकाम से साभार
सफर की शुरुआत में चलते हैं धान के देश में, जहां जी.के. अवधिया जी बता रहे हैं, ‘’चाय के पेड़ की उम्र लगभग सौ वर्ष होती है किन्तु अधिक उम्र के चाय पेड़ों की पत्तियों के स्वाद में कड़ुआपन आ जाने के कारण प्रायः चाय बागानों में पचास साठ वर्ष बाद ही पुराने पेड़ों को उखाड़ कर नये पेड़ लगा दिये जाते हैं। चाय के पेड़ों की कटिंग करके उसकी ऊंचाई को नहीं बढ़ने दिया जाता ताकि पत्तियों को सुविधापूर्वक तोड़ा जा सके। यदि कटिंग न किया जावे तो चाय के पेड़ भी बहुत ऊंचाई तक बढ़ सकते हैं।‘’ अवधिया जी को चाय के पेड़ के विषय में उक्त जानकारी उनके जलपाईगुड़ी प्रवास के दौरान वहां के लोगों से मिली थी।
नवभारत टाइम्स में बताया गया है, ‘’मोटे तौर पर चाय दो तरह की होती है : प्रोसेस्ड या सीटीसी (कट, टीयर ऐंड कर्ल) और ग्रीन टी (नैचरल टी)।
सीटीसी टी (आम चाय) : यह विभिन्न ब्रैंड्स के तहत बिकने वाली दानेदार चाय होती है, जो आमतौर पर घर, रेस्तरां और होटेल आदि में इस्तेमाल की जाती है। इसमें पत्तों को तोड़कर कर्ल किया जाता है। फिर सुखाकर दानों का रूप दिया जाता है। इस प्रक्रिया में कुछ बदलाव आते हैं। इससे चाय में टेस्ट और महक बढ़ जाती है। लेकिन यह ग्रीन टी जितनी नैचरल नहीं बचती और न ही उतनी फायदेमंद।
ग्रीन टी: इसे प्रोसेस्ड नहीं किया जाता। यह चाय के पौधे के ऊपर के कच्चे पत्ते से बनती है। सीधे पत्तों को तोड़कर भी चाय बना सकते हैं। इसमें एंटी-ऑक्सिडेंट सबसे ज्यादा होते हैं। ग्रीन टी काफी फायदेमंद होती है, खासकर अगर बिना दूध और चीनी पी जाए। इसमें कैलरी भी नहीं होतीं। इसी ग्रीन टी से हर्बल व ऑर्गेनिक आदि चाय तैयार की जाती है। ऑर्गेनिक इंडिया, ट्विनिंग्स इंडिया, लिप्टन कुछ जाने-माने नाम हैं, जो ग्रीन टी मुहैया कराते हैं।‘’
अखबार में चाय के फायदे भी बताए गए हैं :
- चाय में कैफीन और टैनिन होते हैं, जो स्टीमुलेटर होते हैं। इनसे शरीर में फुर्ती का अहसास होता है।
- चाय में मौजूद एल-थियेनाइन नामक अमीनो-एसिड दिमाग को ज्यादा अलर्ट लेकिन शांत रखता है।
- चाय में एंटीजन होते हैं, जो इसे एंटी-बैक्टीरियल क्षमता प्रदान करते हैं।
- इसमें मौजूद एंटी-ऑक्सिडेंट तत्व शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और कई बीमारियों से बचाव करते हैं।
- एंटी-एजिंग गुणों की वजह से चाय बुढ़ापे की रफ्तार को कम करती है और शरीर को उम्र के साथ होनेवाले नुकसान को कम करती है।
- चाय में फ्लोराइड होता है, जो हड्डियों को मजबूत करता है और दांतों में कीड़ा लगने से रोकता है।
चाय से नुकसान भी कम नहीं :
- दिन भर में तीन कप से ज्यादा पीने से एसिडिटी हो सकती है।
- आयरन एब्जॉर्ब करने की शरीर की क्षमता को कम कर देती है।
- कैफीन होने के कारण चाय पीने की लत लग सकती है।
- ज्यादा पीने से खुश्की आ सकती है।
- पाचन में दिक्कत हो सकती है।
- दांतों पर दाग आ सकते हैं लेकिन कॉफी से ज्यादा दाग आते हैं।
- देर रात पीने से नींद न आने की समस्या हो सकती है।
बीबीसी हिन्दी डॉटकाम पर ममता गुप्ता और महबूब खान बता रहे हैं कि चाय की खेती कब, कहां और कैसे आरंभ हुई। वे लिखते हैं, ‘’ सबसे पहले सन् 1815 में कुछ अंग्रेज यात्रियों का ध्यान असम में उगने वाली चाय की झाड़ियों पर गया जिससे स्थानीय कबाइली लोग एक पेय बनाकर पीते थे। भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड बैंटिक ने 1834 में चाय की परंपरा भारत में शुरू करने और उसका उत्पादन करने की संभावना तलाश करने के लिए एक समिति का गठन किया। इसके बाद 1835 में असम में चाय के बाग़ लगाए गए। ........कहते हैं कि एक दिन चीन के सम्राट शैन नुंग के सामने रखे गर्म पानी के प्याले में, कुछ सूखी पत्तियां आकर गिरीं जिनसे पानी में रंग आया और जब उन्होंने उसकी चुस्की ली तो उन्हें उसका स्वाद बहुत पसंद आया। बस यहीं से शुरू होता है चाय का सफर। ये बात ईसा से 2737 साल पहले की है। सन् 350 में चाय पीने की परंपरा का पहला उल्लेख मिलता है। सन् 1610 में डच व्यापारी चीन से चाय यूरोप ले गए और धीरे-धीरे ये समूची दुनिया का प्रिय पेय बन गया।‘’
अभिव्यक्ति की विज्ञान वार्ता में डॉ. गुरुदयाल प्रदीप बताते हैं कि दार्जिलिंग की चाय विश्वप्रसिद्व क्यों है : ‘’दक्षिण-पूर्व एशिया की उपजाऊ दोमट मिट्टी वाली पहाड़ियों पर, जहा पर्याप्त पानी बरसता है और ठंडी हवा बहती है, इस सदाबहार पौधे की विभिन्न प्रजातियां स्वाभाविक रूप से पनपती हैं। सब से पहले चाय के पौधे के बीज को नर्सरी में उगाया जाता है। इन बीजों से उत्पन्न पौधे जब 6 से 18 माह के बीच की उम्र प्राप्त कर लेते हैं तो इन्हें चाय के बाग़ानों में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। समय-समय पर इन की छंटाई की जाती है जिस से इन की ऊंचाई लगभग एक मीटर तक बनी रहे और इन में नई-नई पत्तियां आती रहें। कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों पर उगने वाले पौधों की पत्तियां लगभग ढाई साल में ही परिपक्व हो जाती हैं तो ऊंची पहाड़ियों पर उगने वाली प्रजाति की पत्तियां लगभग पांच साल में परिपक्व होती हैं। सब से अच्छी चाय उन पौधों से पाप्त होती है जो 1000 से 2000 मीटर की ऊंचाई वाली पहाड़ियों पर उगती हैं। ठंडी हवा में पनपने वाले इन पौधों की बाढ़ धीमी तो होती है परंतु इन से प्राप्त चाय का ज़ायक़ा बेहतर होता है। दार्जिलिंग की चाय संभवत: इसीलिए विश्व-प्रसिद्ध है।‘’
डॉ. प्रदीप चाय में मौजूद 'एंटी ऑक्सीडेंट’ का काम करनेवाले रसायनों के बखान के क्रम में ऑक्सिडेशन की प्रक्रिया तथा इन से होने वाली हानि को भी समझाते हैं : ‘’दरअसल, सभी जीवित कोशिकाओं में तरह-तरह की ऑक्सिडेशन प्रतिक्रियाए होती रहती हैं जिन में एलेक्ट्रॉन्स का स्थानांतरण एक रसायन से दूसरे ऑक्सिडाइज़िंग रसायन तक होता रहता है, जिस के फलस्वरूप H2O2, HOCl जैसी क्रियाशील रसायनों के अतिरिक्त 'फ्री रेडिकल्स' यथा –OH, O2- आदि रसायनों का निर्माण होता है। ये रसायन 'लिपिड-पर-ऑक्सीडेशन' की प्रकिया द्वारा कोशिका को हानि पहुँचाते हैं या फिर ऐसे रसायनों के संश्लेषण में सहायक होते हैं जो डी-एन-ए से जुडकर उन्हें 'ऑंन्कोजीन्स म्युटेन्ट' में परिवर्तित कर कैंसर की संभावना को बढ़ा सकते हैं। माइटोकांड्रिया में तो ऐसी प्रतिक्रियाएं लगातार चलती रहती हैं अत: इन से उत्पन्न क्रियाशील ऑक्सीजनयुक्त रसायनों को नष्ट करते रहना अति आवश्यक है। एंटी ऑक्सिडेंट इस कार्य को बड़ी दक्षता के साथ करते रहते हैं और कोशिकाओं को तरह-तरह की हानि से बचाते रहते हैं।‘’
विकिपीडिया पर भी चाय से संबंधित कई तरह के उपयोगी आंकड़े और जानकारियां दी गयी हैं। यहां उद्वृत है दुनिया के चाय उत्पादक क्षेत्रों से संबंधित एक चार्ट :
निशांत के हिन्दीजेन ब्लॉग पर चाय का कारोबार करनेवाली विश्वप्रसिद्व लिप्टन कम्पनी के संस्थापक सर थॉमस जोंस्टन लिप्टन की चर्चा करते हुए बताया गया है कि किस तरह धुन के उस पक्के उद्यमी ने एक दुर्घटना का भी लाभ उठा लिया और उसका कारोबार दुनिया भर में चमक उठा।
‘चाय’ और ‘Tea’ शब्द आए कहां से यदि आप यह जानना चाहते हैं, तो इंटरनेट पर यह जानकारी भी मौजूद है: ''The word for tea in most of mainland China (and also in Japan) is 'cha'. (Hence its frequency in names of Japanese teas: Sencha, Hojicha, etc.) But the word for tea in Fujian province is 'te' (pronounced approximately 'tay'). As luck would have it, the first mass marketers of tea in the West were the Dutch, whose contacts were in Fujian. They adopted this name, and handed it on to most other European countries. The two exceptions are Russia and Portugal, who had independent trade links to China. The Portuguese call it 'cha', the Russians 'chai'. Other areas (such as Turkey, South Asia and the Arab countries) have some version of 'chai' or 'shai'.
'Tay' was the pronunciation when the word first entered English, and it still is in Scotland and Ireland. For unknown reasons, at some time in the early eighteenth century the English changed their pronunciation to 'tee'. Virtually every other European language, however, retains the original pronunciation of 'tay'.''
इंटरनेट की इस चाय-चर्चा में ब्लॉगर सुनीता शानू का उल्लेख भी लाजिमी है। शानू जी का चाय का कारोबार है, और उनके शब्दों में चाय के साथ-साथ कुछ कविताएं भी हो जाएं तो क्या कहने...
इसी के साथ आपका यह किसान दोस्त विदा चाहता है। आशा है यह चर्चा आपको पसंद आयी होगी।
चाय बागान का चित्र सुलेखा डॉटकाम से साभार
Monday, November 23, 2009
बकरी के बच्चों को दूध पिलाती है गाय
पशुवत व्यवहार निंदनीय होता है, लेकिन कभी-कभी पशु भी अनुकरणीय व्यवहार करते देखे जाते हैं। ऐसा ही दुर्लभ दृश्य उड़ीसा के जगतसिंहपुर के गांव में देखने को मिल रहा है। वहां एक गाय और बकरी के दो बच्चों के बीच परस्पर प्रेम और लगाव दर्शनीय बना हुआ है। गांव की एक गाय पिछले दो महीने से बकरी के दो बच्चों को अपना दूध पिला रही है।
गाय और बकरी के बच्चों के इस अनोखे रिश्ते को देखने के लिए हजारों लोग भुवनेश्वर से 80 किलोमीटर दूर स्थित कुलातरातांग गांव पहुंच रहे हैं। मांगुली भोई की गाय हर दिन करीब डेढ़ घंटे तक नन्हीं बकरियों को दूध पिलाती है। भोई गाय और बकरियों का मालिक है।
भोई का कहना है कि तीन महीने पहले एक बकरी ने चार बच्चों को जन्म दिया था। बकरी ने कमजोरी के कारण पर्याप्त दूध न बन पाने की वजह से एक महीने बाद दो बच्चों को दूध पिलाना बंद कर दिया था। उसने कहा कि हम यह देखकर चकित रह गए कि बकरी के जिन दो बच्चों को उनकी मां ने दूध पिलाना बंद कर दिया था उन्हें गाय दूध पिला रही थी।
गांव के प्रमुख हरेकृष्ण बिस्वाल का कहना है कि यह एक दुर्लभ दृश्य है। पास के गांवों से हजारों लोग बकरियों और गाय के बीच के अनूठे प्रेम और स्नेह को देखने के लिए आ रहे हैं।
मूल खबर के लिए देखें: IBN Khabar
गाय और बकरी के बच्चों के इस अनोखे रिश्ते को देखने के लिए हजारों लोग भुवनेश्वर से 80 किलोमीटर दूर स्थित कुलातरातांग गांव पहुंच रहे हैं। मांगुली भोई की गाय हर दिन करीब डेढ़ घंटे तक नन्हीं बकरियों को दूध पिलाती है। भोई गाय और बकरियों का मालिक है।
भोई का कहना है कि तीन महीने पहले एक बकरी ने चार बच्चों को जन्म दिया था। बकरी ने कमजोरी के कारण पर्याप्त दूध न बन पाने की वजह से एक महीने बाद दो बच्चों को दूध पिलाना बंद कर दिया था। उसने कहा कि हम यह देखकर चकित रह गए कि बकरी के जिन दो बच्चों को उनकी मां ने दूध पिलाना बंद कर दिया था उन्हें गाय दूध पिला रही थी।
गांव के प्रमुख हरेकृष्ण बिस्वाल का कहना है कि यह एक दुर्लभ दृश्य है। पास के गांवों से हजारों लोग बकरियों और गाय के बीच के अनूठे प्रेम और स्नेह को देखने के लिए आ रहे हैं।
मूल खबर के लिए देखें: IBN Khabar
Sunday, November 15, 2009
चार महीने तक ताजा बना रहेगा यह सेब
‘’एक सेब रोज खाएं, डॉक्टर को दूर भगाएं।’’ इस लोकप्रिय कहावत पर भरोसा करनेवाले लोगों के लिए अच्छी खबर है। आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों ने सेव की ऐसी किस्म का विकास किया है, जो लंबे समय तक ताजा रह सकेगा। खास बात यह है कि यह किस्म जैव संवर्धित (Genetically Modified) न होकर परंपरागत तरीके से तैयार है।
आस्ट्रेलिया के क्वीन्सलैंड प्रांत की सरकार के संबंधित विभागीय शोधकर्ताओं के मुताबिक यह विश्व का सर्वश्रेष्ठ सेव है तथा वे पिछले 20 वर्षों से इसे तैयार करने में जुटे हुए थे। गाढ़े लाल रंग के इस सेब को आरएस 103-130 नाम दिया गया है। यदि इसे फलों की टोकरी में रखा जाए तो 14 दिनों तक ताजा रहेगा। जबकि फ्रीज में रखने पर यह 4 महीनों तक खराब नहीं होगा। वैज्ञानिकों के मुताबिक इसमें ब्लैक स्पॉट प्रतिरोधी एशियाटिक सेव की मेलुस फ्लोरिबुंडा नामक किस्म के जीन को डाले जाने के चलते रोग प्रतिरोधी क्षमता आयी है। उनका दावा है कि इस सेव का स्वाद भी बहुत अच्छा है।
क्वीन्सलैंड सरकार ने उम्मीद जतायी है कि अगले साल तक यह सेव बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध होगा। वह इसके वितरण के लिए वाणिज्यिक आपूर्ति साझेदार की तलाश में भी है।
(फोटो Telegraph.co.uk से साभार)
आस्ट्रेलिया के क्वीन्सलैंड प्रांत की सरकार के संबंधित विभागीय शोधकर्ताओं के मुताबिक यह विश्व का सर्वश्रेष्ठ सेव है तथा वे पिछले 20 वर्षों से इसे तैयार करने में जुटे हुए थे। गाढ़े लाल रंग के इस सेब को आरएस 103-130 नाम दिया गया है। यदि इसे फलों की टोकरी में रखा जाए तो 14 दिनों तक ताजा रहेगा। जबकि फ्रीज में रखने पर यह 4 महीनों तक खराब नहीं होगा। वैज्ञानिकों के मुताबिक इसमें ब्लैक स्पॉट प्रतिरोधी एशियाटिक सेव की मेलुस फ्लोरिबुंडा नामक किस्म के जीन को डाले जाने के चलते रोग प्रतिरोधी क्षमता आयी है। उनका दावा है कि इस सेव का स्वाद भी बहुत अच्छा है।
क्वीन्सलैंड सरकार ने उम्मीद जतायी है कि अगले साल तक यह सेव बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध होगा। वह इसके वितरण के लिए वाणिज्यिक आपूर्ति साझेदार की तलाश में भी है।
(फोटो Telegraph.co.uk से साभार)
Thursday, November 5, 2009
तो अब चलें ब्लॉगर डैशबोर्ड से गूगल डैशबोर्ड की ओर..
अब समय आ गया है कि हम ब्लॉगर डैशबोर्ड की जगह सीधे गूगल डैशबोर्ड पर जाकर ब्लागरी या अन्य संबंधित काम करें। जी हां, गूगल ने नित नए उत्पाद और सेवाएं मुहैया कराने की अपनी कोशिशों को विस्तार देते हुए अब गूगल डैशबोर्ड लांच किया है, जो निश्चित तौर पर इंटरनेट प्रयोक्ताओं के लिए उपयोगी प्लेटफार्म साबित होगा। इसके जरिए अब हमें एक ही जगह अपने गूगल खाते से जुड़ी सारी जानकारियां दिख जाएंगी और उनके लिंक भी उपलब्ध होंगे। कोई भी गूगल खाताधारक एक ही जगह से गूगल से जुड़े उन तमाम उत्पादों व सेवाओं के बारे में जानकारी व संपर्क रख पाएगा, जिनका वह इस्तेमाल कर रहा है।
गूगल के अधिकृत ब्लॉग पर Transparency, choice and control — now complete with a Dashboard! शीर्षक से लिखे गए आलेख में कहा गया है :
गूगल के अधिकृत ब्लॉग पर Transparency, choice and control — now complete with a Dashboard! शीर्षक से लिखे गए आलेख में कहा गया है :
In an effort to provide you with greater transparency and control over their own data, we've built the Google Dashboard. Designed to be simple and useful, the Dashboard summarizes data for each product that you use (when signed in to your account) and provides you direct links to control your personal settings. Today, the Dashboard covers more than 20 products and services, including Gmail, Calendar, Docs, Web History, Orkut, YouTube, Picasa, Talk, Reader, Alerts, Latitude and many more. The scale and level of detail of the Dashboard is unprecedented, and we're delighted to be the first Internet company to offer this.गूगल को हमारा धन्यवाद, और चलिए चलें अब अपने नए गंतव्य की ओर: www.google.com/dashboard
Tuesday, November 3, 2009
तब बाढ़ में भी नहीं डूबेंगे धान के पौधे !
तेज बरसात की वजह से चावल के पौधे पानी में बिलकुल डूब जाते हैं। अब जापानी वैज्ञानिकों ने ऐसे जीनों का पता लगाया है जिनके जरिए चावल के पौधे का विकास इस तेजी से बढ़ाया जा सकता है कि वह पानी में डूबे ही नहीं।
भारत में चावल उगाने वाले किसान जहां बरसात के लिए तरसते हैं, वहीं उससे बहुत डरते भी हैं। उनके मन में कई सवाल होते हैं, क्या बरसात ठीक वक्त पर आएगी, ज़्यादा तेज और लंबी तो नहीं होगी, कितनी बार फसल बरसात की वजह से खराब हो जाती है और हज़ारों किसानों के लिए भारत में ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और दूसरे एशियाई देशों में भी गुजारा करना मुश्किल हो जाता है।
अक्सर यह देखा गया है कि तेज बरसात की वजह से चावल के पौधे पानी में बिलकुल डूब जाते हैं। खेतों मे बढ़ता हुआ जलस्तर चावल के पौधों के लिए सामान्यत: अच्छा ही रहता है, लेकिन यह ज़रूरी है कि पौधे के उपरी हिस्से हवा के संपर्क में बने रहें। हालांकि मानसूनी इलाकों में बरसात और बाढ की वजह से चावल के खेतों में पानी इतना ज्यादा भर जाता है कि धान के पौधे बिल्कुल डूब जाते हैं तथा इससे वे सड़ने लगते हैं और मर भी जाते हैं।
गौरतलब है कि गहरे पानी में उगनेवाले चावल की प्रजाति को जलजमाव से कोई समस्या नहीं होती। पानी के साथ-साथ उसके तने वाले डंठल भी बढ़ते जाते हैं। जापान के नागोया विश्वविद्यालय के मोतोयुकी अशिकारी कहते हैं:
फोटो नेचर पत्रिका से साभार (बांग्लादेश में गहरे पानी में उगनेवाला धान)
आलेख रेडियो डॉयचवेले पर प्रकाशित प्रिया एसेलबोर्न और राम यादव की रिपोर्ट पर आधारित
भारत में चावल उगाने वाले किसान जहां बरसात के लिए तरसते हैं, वहीं उससे बहुत डरते भी हैं। उनके मन में कई सवाल होते हैं, क्या बरसात ठीक वक्त पर आएगी, ज़्यादा तेज और लंबी तो नहीं होगी, कितनी बार फसल बरसात की वजह से खराब हो जाती है और हज़ारों किसानों के लिए भारत में ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और दूसरे एशियाई देशों में भी गुजारा करना मुश्किल हो जाता है।
अक्सर यह देखा गया है कि तेज बरसात की वजह से चावल के पौधे पानी में बिलकुल डूब जाते हैं। खेतों मे बढ़ता हुआ जलस्तर चावल के पौधों के लिए सामान्यत: अच्छा ही रहता है, लेकिन यह ज़रूरी है कि पौधे के उपरी हिस्से हवा के संपर्क में बने रहें। हालांकि मानसूनी इलाकों में बरसात और बाढ की वजह से चावल के खेतों में पानी इतना ज्यादा भर जाता है कि धान के पौधे बिल्कुल डूब जाते हैं तथा इससे वे सड़ने लगते हैं और मर भी जाते हैं।
गौरतलब है कि गहरे पानी में उगनेवाले चावल की प्रजाति को जलजमाव से कोई समस्या नहीं होती। पानी के साथ-साथ उसके तने वाले डंठल भी बढ़ते जाते हैं। जापान के नागोया विश्वविद्यालय के मोतोयुकी अशिकारी कहते हैं:
गहरे पानी में उगने वाले चावल के पौधे, पानी की गहराई से ऊपर बने रहने के लिए, एक मीटर तक बढ़ सकते हैं। वे हवा के संपर्क में बने रहने के लिए ऐसा करते है। वे अंदर से खोखले होते हैं, लेकिन उसके जरिए पौधा पानी की सतह से उपर पहुंच सकता है और ऑक्सीजन पा सकता है। यह कुछ ऐसा ही है कि जब आप गोताखोरी कर रहे होते हैं, तो पानी से ऊपर निकली एक नली से सांस लेते हैं।बरसात के समय ऐसे चावल के तने 25 सेंटीमीटर प्रतिदिन की एक अनोखी गति से बढ़ सकते हैं। अशिकारी और उनकी टीम ने इस प्रक्रिया को समझने के लिए इस चावल के जीनों से यह समझने की कोशिश की कि चावल बरसात के वक्त अपने विकास को किस तरह नियंत्रित करता है। अध्ययनों से अब तक जितना पता चला है वह यह है कि एक गैसीय विकास-हॉर्मोन एथीलिन इसके लिए जिम्मेदार है, जैसाकि नीदरलैंड के उएतरेश्त विश्वविद्यालय के रेंस वोएसेनेक बताते हैं:
जब पौधा पूरी तरह पानी में डूब जाता है तब यह गैस ठीक तरह से मुक्त नहीं हो पाती। यू कहें कि वह पौधे में ही कैद हो जाती है। यानी पौधे में एथिलिन की मत्रा बढ़ने लगती है। यह पौधे के लिए संकेत है कि वह पानी में डूब रहा है और उसे कुछ करना है।जापानी विशेषज्ञों ने पता लगाने की कोशिश की कि कौन से जीन इस स्थिति में सक्रिय होते हैं। उन्होने ऐसे जीन पाए जिनको वे गोताखोरी में इस्तेमाल होनेवाली नली के अनुरूप स्नोर्कल जीन कहते हैं। ये जीन तभी सक्रिय होते हैं जब पौधे के तने में एथिलिन की मात्रा बढ़ने लगती है। वे पौधे के विकास को तेज करने वाले दूसरे तत्वों का उत्पादन शुरू कर देते हैं। मोतोयुकी अशिकारी कहते हैं:
हमने क्रॉमोसोम 1,3 और 12 पर यह तथाकथित नलिका जीन पाए। उन्हें यदि सामान्य चावल के पौधों में भी मिलाया जा सके, तो बरसात के वक्त सामान्य चावल के पौधे भी वही करेंगे जो गहरे पानी में उगने वाला चावल करता है। मुझे पूरा विश्वास है कि हम चावल की हर प्रजाति को गहरे पानी में उगने वाले चावल की प्रजाति बना सकते हैं।यानी इन जीनों की मदद से चावल की उस फसल को बचाया जा सकता है जो पानी की अधिकता के प्रति बहुत संवेदनशील है। जहां अक्सर बाढ आती है वहां के किसानों की इस बड़ी समस्या का समाधान हो सकता है। एक और समस्या भी दूर हो सकती है - गहरे पानी में उगने वाला चावल बहुत ही कम फसल देता है, प्रति हेक्टेयर सिर्फ एक टन जो उपजाऊ क़िस्मों की तुलना में सिर्फ 20 फीसदी के बराबर है। नीदरलैंड के विशेषज्ञ रेंस वोएसेनेक बहुत ही आशावादी हैं:
विकास के लिए जिम्मेदार इन जीनों के बारे में पता चल जाने के बाद अब हम चावल की अलग-अलग प्रजातियों के बीच प्रकृतिक संवर्धन के जरिए, यानी वर्णसंकर के जरिए भी इन जीनों को उनके पौधे में डाल सकते हैं। इसके लिए किसी जीन तकनीक जरूरत ही नहीं हैं।जापान के विशेषज्ञों ने यह काम शुरू कर भी दिया है। उनके अध्ययनों से एक बार फिर पता चलता है कि पौधों के संवर्धन के लिए उनके जीनों में असामान्य गुणों की तालाश कितनी जरूरी है।
फोटो नेचर पत्रिका से साभार (बांग्लादेश में गहरे पानी में उगनेवाला धान)
आलेख रेडियो डॉयचवेले पर प्रकाशित प्रिया एसेलबोर्न और राम यादव की रिपोर्ट पर आधारित
Sunday, November 1, 2009
अब बिना सिंचाई होगी गेहूं की खेती
देश में खेती का बहुत बडा रकबा असिंचित है या फिर यहां सिंचाई के पर्याप्त साधन नहीं है। ऎसे क्षेत्रों के किसानों के लिए जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय (जबलपुर) के वैज्ञानिकों ने गेहूं का ऎसा बीज तैयार किया है, जिसके उपयोग से बिना सिंचाई के भी 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की पैदावार ली जा सकती है। कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ.आर.एस. शुक्ला ने बताया कि करीब तीन साल की मेहनत के बाद जे डब्ल्यू 3211 किस्म के शरबती गेहूं का बीज ईजाद करने में सफलता प्राप्त की गयी है।
कम पानी में भी अधिक उत्पादन
डॉ. शुक्ला ने बताया कि यह बीज कम पानी से भी अच्छा उत्पादन देने की क्षमता रखता है। इस बीज से एक पानी से प्रति हेक्टेयर करीब 25 से 30 क्विंटल तक उत्पादन हो सकता है। इसी प्रकार यदि दो पानी की व्यवस्था हो तो प्रति हेक्टेयर करीब 35 से 40 क्विंटल तक गेहूं की पैदावार ली जा सकती है। जिन क्षेत्रों में सिंचाई के साधन उपलब्ध नहीं है उनमें किसान पहले की नमी को बचा कर अच्छी पैदावार ले सकते हैं। इसकी फसल को तैयार होने में करीब 118 से 125 दिन लगते हैं। मध्यप्रदेश के अलावा इस बीज की मांग महाराष्ट्र व आस-पास के क्षेत्रों से अघिक हो रही है।
मौसम परिवर्तन का प्रभाव नहीं
डॉ. शुक्ला ने बताया कि मौसम में आए उतार-चढ़ाव या तापमान बढ़ने से गेहूं की फसल प्रभावित हो जाती है, लेकिन अन्य की तुलना में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता अघिक होने कारण जे डब्ल्यू 3211 गेहूं की फसल पर मौसम परिवर्तन का कोई असर नहीं पड़ता है। इसके दाने चमकदार होते हैं व इसमें 10 से 12 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा होती है। इसके पौधे की लम्बाई 85 से 90 सेंटीमीटर तक होती है।
(आलेख : योगेश श्रीवास्तव, साभार : पत्रिका डॉटकाम)
कम पानी में भी अधिक उत्पादन
डॉ. शुक्ला ने बताया कि यह बीज कम पानी से भी अच्छा उत्पादन देने की क्षमता रखता है। इस बीज से एक पानी से प्रति हेक्टेयर करीब 25 से 30 क्विंटल तक उत्पादन हो सकता है। इसी प्रकार यदि दो पानी की व्यवस्था हो तो प्रति हेक्टेयर करीब 35 से 40 क्विंटल तक गेहूं की पैदावार ली जा सकती है। जिन क्षेत्रों में सिंचाई के साधन उपलब्ध नहीं है उनमें किसान पहले की नमी को बचा कर अच्छी पैदावार ले सकते हैं। इसकी फसल को तैयार होने में करीब 118 से 125 दिन लगते हैं। मध्यप्रदेश के अलावा इस बीज की मांग महाराष्ट्र व आस-पास के क्षेत्रों से अघिक हो रही है।
मौसम परिवर्तन का प्रभाव नहीं
डॉ. शुक्ला ने बताया कि मौसम में आए उतार-चढ़ाव या तापमान बढ़ने से गेहूं की फसल प्रभावित हो जाती है, लेकिन अन्य की तुलना में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता अघिक होने कारण जे डब्ल्यू 3211 गेहूं की फसल पर मौसम परिवर्तन का कोई असर नहीं पड़ता है। इसके दाने चमकदार होते हैं व इसमें 10 से 12 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा होती है। इसके पौधे की लम्बाई 85 से 90 सेंटीमीटर तक होती है।
(आलेख : योगेश श्रीवास्तव, साभार : पत्रिका डॉटकाम)
Saturday, September 5, 2009
ब्रोकोली खाइए, ब्रोकोली उगाइए... अब वैज्ञानिक भी बता रहे इसके गुण
ब्रोकोली हृदय के लिए फायदेमंद है, यह बात बहुत पहले से कही जाती रही है। लेकिन अब ब्रिटिश वैज्ञानिक यह भी बता रहे हैं कि ब्रोकोली किस तरह फायदेमंद है। लंदन स्थित इंपीरियल कॉलेज के शोधकर्ताओं को ब्रोकोली व अन्य हरी पत्तेदार सब्जियों में एक ऐसे रसायन के साक्ष्य मिले हैं जो धमनियों में रुकावट के खिलाफ शरीर के प्राकृतिक सुरक्षातंत्र को मजबूत बनाता है।
उल्लेखनीय है कि हृदयाघात सहित हृदय संबंधी अधिकतर बीमारियां धमनियों में चर्बी की वजह से होनेवाली रुकावट के चलते ही होती हैं। ब्रिटिश हर्ट फाउंडेशन की आर्थिक सहायता से चूहों पर किए गए अध्ययन में इन शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि ब्रोकोली में सल्फोराफेन नामक रसायन प्राकृतिक रूप से पाया जाता है, जो एनआरएफ2 नामक रक्षक प्रोटीन को सक्रिय करता है। एनआरएफ2 प्रोटीन उन धमनियों में ज्यादा सक्रिय नहीं होता जो बीमारी के लिए संवेदनशील होती हैं।
शोध दल के मुखिया डॉक्टर पॉल ईवान्स कहते हैं, "हमने पाया है कि धमनियों की शाखाओं और मोड़ों वाले क्षेत्रों में एनआरएफ़2 नामक रसायन ज्यादा सक्रिय नहीं होता है। इससे स्पष्ट होता है कि इसीलिए ये क्षेत्र बीमारी के लिए ज्यादा संवेदनशील होते हैं, यानी वहां से दिल की बीमारी जन्म ले सकती है।‘’ वे कहते हैं, " सल्फोराफेन नामक प्राकृतिक रसायन के जरिए अगर इलाज किया जाए तो यह ज्यादा ख़तरे वाले क्षेत्रों में एनआरएफ़2 नामक प्रोटीन को सक्रिय करके सूजन को कम कर देता है।" उन्हीं के शब्दों में, "सल्फोराफेन नामक रसायन ब्रोकोली में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है। इसलिए हमारा अगला कदम इस बिंदु पर अध्ययन करना होगा कि क्या क्या सिर्फ ब्रोकोली और इस परिवार की अन्य सब्जियों - बंदगोभी और पत्तागोभी को खाने भर से ही इस तरह के रक्षात्मक लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं।"
दरअसल माना जाता है कि हरे रंग व गोभी के आकार की ब्रोकोली देखने में जितनी सुंदर है, उतनी ही सेहत के लिए गुणकारी। इसके कैंसर में भी लाभदायक होने की बात सामने आती रही है। कृषि विशेषज्ञ बताते हैं कि ब्रोकोली की खेती के लिए ठंडी और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। यदि दिन अपेक्षाकृत छोटे हों, तो फूल की बढोत्तरी अधिक होती है। फूल तैयार होने के समय तापमान अधिक होने से फूल छितरे, पत्तेदार और पीले रंग के हो जाते है। जाहिर है कि उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में जाड़े के दिनों में इस सब्जी की खेती सुगमतापूर्वक की जा सकती है।
हो सकता है आप भी इस गुणकारी सब्जी को अपने अहाते के अंदर उगाना चाहें। उस स्थिति में इस लिंक पर आप को जरूरी जानकारियां मिल जाएंगी।
उल्लेखनीय है कि हृदयाघात सहित हृदय संबंधी अधिकतर बीमारियां धमनियों में चर्बी की वजह से होनेवाली रुकावट के चलते ही होती हैं। ब्रिटिश हर्ट फाउंडेशन की आर्थिक सहायता से चूहों पर किए गए अध्ययन में इन शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि ब्रोकोली में सल्फोराफेन नामक रसायन प्राकृतिक रूप से पाया जाता है, जो एनआरएफ2 नामक रक्षक प्रोटीन को सक्रिय करता है। एनआरएफ2 प्रोटीन उन धमनियों में ज्यादा सक्रिय नहीं होता जो बीमारी के लिए संवेदनशील होती हैं।
शोध दल के मुखिया डॉक्टर पॉल ईवान्स कहते हैं, "हमने पाया है कि धमनियों की शाखाओं और मोड़ों वाले क्षेत्रों में एनआरएफ़2 नामक रसायन ज्यादा सक्रिय नहीं होता है। इससे स्पष्ट होता है कि इसीलिए ये क्षेत्र बीमारी के लिए ज्यादा संवेदनशील होते हैं, यानी वहां से दिल की बीमारी जन्म ले सकती है।‘’ वे कहते हैं, " सल्फोराफेन नामक प्राकृतिक रसायन के जरिए अगर इलाज किया जाए तो यह ज्यादा ख़तरे वाले क्षेत्रों में एनआरएफ़2 नामक प्रोटीन को सक्रिय करके सूजन को कम कर देता है।" उन्हीं के शब्दों में, "सल्फोराफेन नामक रसायन ब्रोकोली में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है। इसलिए हमारा अगला कदम इस बिंदु पर अध्ययन करना होगा कि क्या क्या सिर्फ ब्रोकोली और इस परिवार की अन्य सब्जियों - बंदगोभी और पत्तागोभी को खाने भर से ही इस तरह के रक्षात्मक लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं।"
दरअसल माना जाता है कि हरे रंग व गोभी के आकार की ब्रोकोली देखने में जितनी सुंदर है, उतनी ही सेहत के लिए गुणकारी। इसके कैंसर में भी लाभदायक होने की बात सामने आती रही है। कृषि विशेषज्ञ बताते हैं कि ब्रोकोली की खेती के लिए ठंडी और आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। यदि दिन अपेक्षाकृत छोटे हों, तो फूल की बढोत्तरी अधिक होती है। फूल तैयार होने के समय तापमान अधिक होने से फूल छितरे, पत्तेदार और पीले रंग के हो जाते है। जाहिर है कि उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में जाड़े के दिनों में इस सब्जी की खेती सुगमतापूर्वक की जा सकती है।
हो सकता है आप भी इस गुणकारी सब्जी को अपने अहाते के अंदर उगाना चाहें। उस स्थिति में इस लिंक पर आप को जरूरी जानकारियां मिल जाएंगी।
Thursday, September 3, 2009
पेप्सी के कैन में मेढक, अमेरिकी प्रशासन की रिपोर्ट में कहा गया
अमेरिका के फ्लोरिडा प्रांत स्थित ओरमोंड बीच में रहनेवाला फ्रेड डीनेग्री हमेशा की तरह गत 23 जुलाई को पेप्सी कैन खोलकर पीने लगा तो उसे स्वाद कुछ अजीब-सा लगा। जब फ्रेड और उसकी पत्नी एमी डीनेग्री ने कैन के अंदर पड़ी चीज को देखा तो वे दंग रह गए। अंदर किसी जीव का अवशेष था जो इतना खराब हो चुका था कि पहचान में आना मुश्किल था। दंपति ने कैमरा से उसके फोटो लिए और अमेरिका के फुड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन को खबर की। एफडीए की जांच रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है कि पेप्सी कैन में पड़ा जीव-अवशेष मेढक था। पूरी खबर यहां जाकर पढ़ी जा सकती है, लेकिन आगे से इस बात का ध्यान तो रखना ही होगा कि चमकनेवाली चीज सोना ही नहीं होती।
Tuesday, September 1, 2009
नए युग का नूतन मुहावरा : राष्ट्रपति से पंगा, बंदरों को पड़ा महंगा
‘बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद’ जैसे सदियों से चले आ रहे मुहावरे सुनते-सुनते जो लोग बोर हो गए होंगे, वे अब एक नए मुहावरे का लुत्फ उठा सकते हैं : ‘राष्ट्रपति से पंगा, बदरों को पड़ा महंगा।‘ आधुनिक युग के इस नूतन मुहावरे के साथ एक प्लस प्वाइंट यह है कि यह ठोस सच्चाइयों पर अधारित है।
अफ्रीकी देश जांबिया में बीते जून माह में एक बंदर ने राष्ट्रपति रूपिया बांदा पर उस समय पेशाब कर दिया, जब वे संवाददाता सम्मेलन में पत्रकारों को संबोधित कर रहे थे। उस समय तो राष्ट्रपति महोदय ने हलके-फुलके मजाक के जरिए अपनी झेंप मिटा ली। मसलन उन्होंने मज़ाक में कहा कि वो बंदरों को नेता प्रतिपक्ष को भेंट कर देंगे। उन्होंने यह भी कहा कि शायद ये घटना उनके लिए कोई खुशखबरी लेकर आए।
लेकिन बंदरों को राष्ट्रपति से पंगा लेने की सजा तो मिलनी ही थी। आखिर बंदर की यह औकात कि वह राष्ट्रपति पर पेशाब कर डाले, वह भी संवाददाताओं के सामने। लिहाजा राष्ट्रपति महोदय ने घटना के फौरन बाद बंदरों को राजधानी लुसाका से बाहर निकाल कर पार्कलैंड ले जाने का निर्देश दिया। अब तक राष्ट्रपति निवास से करीब 200 बंदरों को खदेड़ा जा चुका है। इनमें से करीब 61 बंदरों को पकड़कर वहां के एक वनस्पति उद्यान में ले जाया गया है।
अब आप सोच रहे होंगे कि इस मामले में हमें कौन-सी गुड़ की डली मिल गयी है। भाई, इस महंगाई के जमाने में गुड़ की डली तो मंत्रियों-संतरियों को मुबारक, हम जैसी आम प्रजा तो छोटी-छोटी बातों में ही खुश हो जाती है। तो हम खुश है कि हमें एक नया मुहावरा मिल गया। मुहावरों के वार भले इंसान पर होते हों, लेकिन वे गढ़े जाते हैं अक्सर जानवरों पर ही। वैसे भी राष्ट्राध्यक्षों पर जूते-चप्पलों से दिन-प्रतिदिन हो रहे वार और उसके प्रतिकार को लेकर एक नए संदर्भों वाले मुहावरे की कमी शिद्दत से महसूस की जा रही थी। वैसे आप के पास इन नए संदर्भों वाला कोई बेहतर मुहावरा हो तो उसे बताना नहीं भूलिएगा :)
अफ्रीकी देश जांबिया में बीते जून माह में एक बंदर ने राष्ट्रपति रूपिया बांदा पर उस समय पेशाब कर दिया, जब वे संवाददाता सम्मेलन में पत्रकारों को संबोधित कर रहे थे। उस समय तो राष्ट्रपति महोदय ने हलके-फुलके मजाक के जरिए अपनी झेंप मिटा ली। मसलन उन्होंने मज़ाक में कहा कि वो बंदरों को नेता प्रतिपक्ष को भेंट कर देंगे। उन्होंने यह भी कहा कि शायद ये घटना उनके लिए कोई खुशखबरी लेकर आए।
लेकिन बंदरों को राष्ट्रपति से पंगा लेने की सजा तो मिलनी ही थी। आखिर बंदर की यह औकात कि वह राष्ट्रपति पर पेशाब कर डाले, वह भी संवाददाताओं के सामने। लिहाजा राष्ट्रपति महोदय ने घटना के फौरन बाद बंदरों को राजधानी लुसाका से बाहर निकाल कर पार्कलैंड ले जाने का निर्देश दिया। अब तक राष्ट्रपति निवास से करीब 200 बंदरों को खदेड़ा जा चुका है। इनमें से करीब 61 बंदरों को पकड़कर वहां के एक वनस्पति उद्यान में ले जाया गया है।
अब आप सोच रहे होंगे कि इस मामले में हमें कौन-सी गुड़ की डली मिल गयी है। भाई, इस महंगाई के जमाने में गुड़ की डली तो मंत्रियों-संतरियों को मुबारक, हम जैसी आम प्रजा तो छोटी-छोटी बातों में ही खुश हो जाती है। तो हम खुश है कि हमें एक नया मुहावरा मिल गया। मुहावरों के वार भले इंसान पर होते हों, लेकिन वे गढ़े जाते हैं अक्सर जानवरों पर ही। वैसे भी राष्ट्राध्यक्षों पर जूते-चप्पलों से दिन-प्रतिदिन हो रहे वार और उसके प्रतिकार को लेकर एक नए संदर्भों वाले मुहावरे की कमी शिद्दत से महसूस की जा रही थी। वैसे आप के पास इन नए संदर्भों वाला कोई बेहतर मुहावरा हो तो उसे बताना नहीं भूलिएगा :)
Friday, August 21, 2009
मैं विश्व स्वास्थ्य संगठन के खिलाफ हूं, आप कहां खड़े हैं ?
विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि होमियोपैथी कारगर इलाज पद्धति नहीं है। उसने कहा है कि टीबी और मलेरिया जैसी बीमारियों के लिए होमियोपैथी के इलाज पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। मानव स्वास्थ्य संबंधी इस शीर्ष अंतर्राष्ट्रीय संगठन ने अपने इस नजरिए का इजहार 'वॉयस ऑफ़ यंग साइंस नेटवर्क' नामक संगठन से जुड़े शोधकर्ताओं की आपत्तियों के जवाब में किया है।
गौरतलब है कि होमियोपैथी के बारे में अंग्रेज़ी चिकित्सा का इस्तेमाल करने वाले डॉक्टर पहले से ही आपत्तियां जताते रहे हैं। 'वॉयस ऑफ़ यंग साइंस नेटवर्क' के ब्रितानी और अफ़्रीकी शोधकर्ताओं ने इस साल जून महीने में विश्व स्वास्थ्य संगठन को पत्र लिखकर कहा था, "हम विश्व स्वास्थ्य संगठन से मांग करते हैं कि वह टीबी, बच्चों के अतिसार, इंफ़्लुऐन्ज़ा, मलेरिया और ऐचआईवी के लिए होमियोपैथी के इलाज के प्रोत्साहन की भर्त्सना करे।" उनका कहना था कि उनके जो साथी विश्व के देहाती और ग़रीब लोगों के साथ काम करते हैं, वे उन तक बड़ी मुश्किल से चिकित्सा सहायता पहुँचा पाते हैं। ऐसे में जब प्रभावी इलाज की जगह होमियोपैथी आ जाती है तो अनेक लोगों की जान चली जाती है। उनके मुताबिक होमियोपैथी इन बीमारियों का इलाज नहीं कर सकती। 'वॉयस ऑफ़ यंग साइंस नेटवर्क' के सदस्य और सेंट ऐन्ड्रयू विश्वविद्यालय में जैव आण्विक विज्ञान के शोधकर्ता डॉक्टर रॉबर्ट हेगन के शब्दों में - "हम चाहते हैं कि दुनिया भर की सरकारें ऐसी ख़तरनाक बीमारियों के उपचार के लिए होमियोपैथिक इलाज के ख़तरों को समझें।" डॉक्टरों ने यह शिकायत भी की कि बच्चों में अतिसार के इलाज के लिए होमियोपैथी के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा रहा है। रॉयल लिवरपूल यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल में छूत की बीमारियों के विशेषज्ञ डॉक्टर निक बीचिंग कहते हैं, "मलेरिया, ऐचआईवी और टीबी जैसे संक्रमणों से भारी संख्या में लोग मरते हैं लेकिन इनका कई तरह से इलाज किया जा सकता है। जबकि ऐसे कोई तटस्थ प्रमाण नहीं हैं कि होमियोपैथी इन संक्रमणों में कारगर सिद्ध होती है। इसलिए स्वास्थ्यकर्मियों द्वारा ऐसी जानलेवा बीमारियों के इलाज के लिए होमियोपैथी का प्रचार करना बहुत ग़ैर ज़िम्मेदारी का काम है।"
इस तरह की दलीलों का जवाब देते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी माना है कि होमियोपैथी प्रभावी नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के स्टॉप टीबी विभाग की निदेशक डॉक्टर मारियो रेविग्लियॉं ने कहा, "टीबी के इलाज के लिए हमारे निर्देश और इंटरनेशनल स्टैंडर्स ऑफ़ ट्यूबरकोलॉसिस केयर - दोनों ही होमियोपैथी के इस्तेमाल की सिफ़ारिश नहीं करते।" विश्व स्वास्थ्य संगठन के बाल और किशोर स्वास्थ्य और विकास के एक प्रवक्ता ने कहा, "हमें अभी तक ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं कि अतिसार जैसी बीमारियों में होमियोपैथी के इलाज से कोई लाभ होता है।" उन्होने कहा, "होमियोपैथी निर्जलन की रोकथाम और इलाज पर ध्यान केंद्रित नहीं करती, जो कि अतिसार के उपचार के वैज्ञानिक आधार और हमारी सिफ़ारिश के बिल्कुल विपरीत है।"
होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति का जनक जर्मन फिजिशियन फ्रेडरिक सैमुएल हैनिमैन (10 अप्रैल, 1755 ई.-2 जुलाई, 1843 ई.) को माना जाता है। उनके द्वारा विकसित लॉ ऑफ सिमिलर्स को होमियोपैथ का आधारभूत सिद्धांत माना जाता है। भारत में होमियोपैथी चिकित्सा का आरंभ 19वीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक से (बंगाल से) हो गया था। आजादी के बाद 1952 में भारत सरकार ने होमियोपैथिक एडवाइजरी कमेटी का गठन किया, जिसकी सिफारिशों के आधार पर 1973 में ऐक्ट बनाकर इस चिकित्सा पद्धति को मान्यता प्रदान की गयी। होमियोपैथी में रिसर्च के लिए 1978 में स्वतंत्र सेंट्रल काउंसिल की स्थापना की गयी।
होमियोपैथी को बढ़ावा देने के लिए निश्चित तौर पर इसी तरह की कोशिशें अन्य देशों में भी हुई होंगी और शायद अधिकांश लोगों का मानना होगा कि इस चिकित्सा पद्धति से काफी लाभ हो रहा है। उल्लेखनीय है कि पूरी दुनिया भर में प्रचलित एलोपैथी, आयुर्वेद, यूनानी आदि जैसी इलाज की कई पद्धतियों के बीच होमियोपैथी तेजी से लोकप्रिय हो रही है। माना जाता है कि होमियोपैथिक दवाइयां रोग को जड़ से समाप्त कर देती हैं। खास बात यह है कि एलोपैथी आदि में जहां कभी-कभी दवा के साइड इफेक्ट या सूट न करने का खतरा होता है, वहीं होमियोपैथी में ऐसा कुछ नहीं होता। अपने देश में कुछ दिनों पूर्व जारी एक अध्ययन रिपोर्ट में एसोसिएटेड चेंबर्स ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री (एसोचेम) ने होमियोपैथी को बड़ी तेजी से लोकप्रिय होती चिकित्सा पद्धति बताया था। इसका कारण बताते हुए एसोचेम के प्रेसिडेंट वेणुगोपाल एन. धूत ने कहा, यह श्वांस संबंधी बीमारियों, आर्थराइटिस, डायबिटीज, थायरॉयड और अन्य तमाम गंभीर मानी जानी वाली बीमारियों की प्रभावी इलाज पद्धति है, और वह भी बिना किसी साइड इफेक्ट के।
होमियोपैथी के खिलाफ दी जा रही दलीलों के संदर्भ में सोसाइटी ऑफ़ होमियोपैथ्स की मुख्य कार्यकारी पाओला रॉस का कहना है, "ये होमियोपैथी के बारे में दुष्प्रचार करने की एक और नाकाम कोशिश है। होमियोपैथी के इलाज़ के बारे में अब बहुत ही पुख़्ता सबूत सामने आ रहे हैं जो बढ़ते जा रहे हैं। इसमें बच्चों में अतिसार इत्यादी भी शामिल है।" मुझे सोसाइटी ऑफ होमियोपैथ्स की बात सही लग रही है। वैसे भी चिकित्सा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में किसी भी एकाधिकारवादी तानाशाहीपूर्ण फतवे को उचित नहीं ठहराया जा सकता। इस मामले में मैं विश्व स्वास्थ्य संगठन के खिलाफ और होमियोपैथी के साथ हूं। आप क्या सोचते हैं?
गौरतलब है कि होमियोपैथी के बारे में अंग्रेज़ी चिकित्सा का इस्तेमाल करने वाले डॉक्टर पहले से ही आपत्तियां जताते रहे हैं। 'वॉयस ऑफ़ यंग साइंस नेटवर्क' के ब्रितानी और अफ़्रीकी शोधकर्ताओं ने इस साल जून महीने में विश्व स्वास्थ्य संगठन को पत्र लिखकर कहा था, "हम विश्व स्वास्थ्य संगठन से मांग करते हैं कि वह टीबी, बच्चों के अतिसार, इंफ़्लुऐन्ज़ा, मलेरिया और ऐचआईवी के लिए होमियोपैथी के इलाज के प्रोत्साहन की भर्त्सना करे।" उनका कहना था कि उनके जो साथी विश्व के देहाती और ग़रीब लोगों के साथ काम करते हैं, वे उन तक बड़ी मुश्किल से चिकित्सा सहायता पहुँचा पाते हैं। ऐसे में जब प्रभावी इलाज की जगह होमियोपैथी आ जाती है तो अनेक लोगों की जान चली जाती है। उनके मुताबिक होमियोपैथी इन बीमारियों का इलाज नहीं कर सकती। 'वॉयस ऑफ़ यंग साइंस नेटवर्क' के सदस्य और सेंट ऐन्ड्रयू विश्वविद्यालय में जैव आण्विक विज्ञान के शोधकर्ता डॉक्टर रॉबर्ट हेगन के शब्दों में - "हम चाहते हैं कि दुनिया भर की सरकारें ऐसी ख़तरनाक बीमारियों के उपचार के लिए होमियोपैथिक इलाज के ख़तरों को समझें।" डॉक्टरों ने यह शिकायत भी की कि बच्चों में अतिसार के इलाज के लिए होमियोपैथी के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा रहा है। रॉयल लिवरपूल यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल में छूत की बीमारियों के विशेषज्ञ डॉक्टर निक बीचिंग कहते हैं, "मलेरिया, ऐचआईवी और टीबी जैसे संक्रमणों से भारी संख्या में लोग मरते हैं लेकिन इनका कई तरह से इलाज किया जा सकता है। जबकि ऐसे कोई तटस्थ प्रमाण नहीं हैं कि होमियोपैथी इन संक्रमणों में कारगर सिद्ध होती है। इसलिए स्वास्थ्यकर्मियों द्वारा ऐसी जानलेवा बीमारियों के इलाज के लिए होमियोपैथी का प्रचार करना बहुत ग़ैर ज़िम्मेदारी का काम है।"
इस तरह की दलीलों का जवाब देते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी माना है कि होमियोपैथी प्रभावी नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के स्टॉप टीबी विभाग की निदेशक डॉक्टर मारियो रेविग्लियॉं ने कहा, "टीबी के इलाज के लिए हमारे निर्देश और इंटरनेशनल स्टैंडर्स ऑफ़ ट्यूबरकोलॉसिस केयर - दोनों ही होमियोपैथी के इस्तेमाल की सिफ़ारिश नहीं करते।" विश्व स्वास्थ्य संगठन के बाल और किशोर स्वास्थ्य और विकास के एक प्रवक्ता ने कहा, "हमें अभी तक ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं कि अतिसार जैसी बीमारियों में होमियोपैथी के इलाज से कोई लाभ होता है।" उन्होने कहा, "होमियोपैथी निर्जलन की रोकथाम और इलाज पर ध्यान केंद्रित नहीं करती, जो कि अतिसार के उपचार के वैज्ञानिक आधार और हमारी सिफ़ारिश के बिल्कुल विपरीत है।"
होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति का जनक जर्मन फिजिशियन फ्रेडरिक सैमुएल हैनिमैन (10 अप्रैल, 1755 ई.-2 जुलाई, 1843 ई.) को माना जाता है। उनके द्वारा विकसित लॉ ऑफ सिमिलर्स को होमियोपैथ का आधारभूत सिद्धांत माना जाता है। भारत में होमियोपैथी चिकित्सा का आरंभ 19वीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक से (बंगाल से) हो गया था। आजादी के बाद 1952 में भारत सरकार ने होमियोपैथिक एडवाइजरी कमेटी का गठन किया, जिसकी सिफारिशों के आधार पर 1973 में ऐक्ट बनाकर इस चिकित्सा पद्धति को मान्यता प्रदान की गयी। होमियोपैथी में रिसर्च के लिए 1978 में स्वतंत्र सेंट्रल काउंसिल की स्थापना की गयी।
होमियोपैथी को बढ़ावा देने के लिए निश्चित तौर पर इसी तरह की कोशिशें अन्य देशों में भी हुई होंगी और शायद अधिकांश लोगों का मानना होगा कि इस चिकित्सा पद्धति से काफी लाभ हो रहा है। उल्लेखनीय है कि पूरी दुनिया भर में प्रचलित एलोपैथी, आयुर्वेद, यूनानी आदि जैसी इलाज की कई पद्धतियों के बीच होमियोपैथी तेजी से लोकप्रिय हो रही है। माना जाता है कि होमियोपैथिक दवाइयां रोग को जड़ से समाप्त कर देती हैं। खास बात यह है कि एलोपैथी आदि में जहां कभी-कभी दवा के साइड इफेक्ट या सूट न करने का खतरा होता है, वहीं होमियोपैथी में ऐसा कुछ नहीं होता। अपने देश में कुछ दिनों पूर्व जारी एक अध्ययन रिपोर्ट में एसोसिएटेड चेंबर्स ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री (एसोचेम) ने होमियोपैथी को बड़ी तेजी से लोकप्रिय होती चिकित्सा पद्धति बताया था। इसका कारण बताते हुए एसोचेम के प्रेसिडेंट वेणुगोपाल एन. धूत ने कहा, यह श्वांस संबंधी बीमारियों, आर्थराइटिस, डायबिटीज, थायरॉयड और अन्य तमाम गंभीर मानी जानी वाली बीमारियों की प्रभावी इलाज पद्धति है, और वह भी बिना किसी साइड इफेक्ट के।
होमियोपैथी के खिलाफ दी जा रही दलीलों के संदर्भ में सोसाइटी ऑफ़ होमियोपैथ्स की मुख्य कार्यकारी पाओला रॉस का कहना है, "ये होमियोपैथी के बारे में दुष्प्रचार करने की एक और नाकाम कोशिश है। होमियोपैथी के इलाज़ के बारे में अब बहुत ही पुख़्ता सबूत सामने आ रहे हैं जो बढ़ते जा रहे हैं। इसमें बच्चों में अतिसार इत्यादी भी शामिल है।" मुझे सोसाइटी ऑफ होमियोपैथ्स की बात सही लग रही है। वैसे भी चिकित्सा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में किसी भी एकाधिकारवादी तानाशाहीपूर्ण फतवे को उचित नहीं ठहराया जा सकता। इस मामले में मैं विश्व स्वास्थ्य संगठन के खिलाफ और होमियोपैथी के साथ हूं। आप क्या सोचते हैं?
Wednesday, August 19, 2009
सम्मान उस क्रांति का जो शौचालयों के जरिए आयी!
भारत में अनेक बड़े राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक व आर्थिक परिवर्तनों का सूत्रपात बिहार से हुआ है। लेकिन मौजूदा बिहार में वैसे नवाचारों की कल्पना नहीं की जाती। इसलिए बिहारी मिट्टी से जन्मा कोई शख्स शौचालय जैसी तुच्छ चीज के जरिए संभावनाओं का सूर्योदय करा डाले तो बात गौर करने की जरूर है। जी हां, हम बात कर रहे हैं बिन्देश्वर पाठक की, जिन्होंने भारत में सुलभ शौचालय के जरिए एक ऐसी क्रांति लायी, जिसने बहुतों की जिंदगी बदल दी। उनके बनाए सुलभ शौचालयों में जहां भंगियों को रोजगार मिला और सिर पर मैला ढोने के अमानवीय यंत्रणा से उन्हें मुक्ति मिली, वहीं ये शौचालय स्वच्छता के साथ गैर पारंपरिक उर्जा उत्पादन के भी स्रोत बने।
इन दिनों स्टॉकहोम में विश्व जल सप्ताह मनाया जा रहा है, जहां भारत के बिन्देश्वर पाठक को विश्व जल पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है। निश्चित तौर पर यह सम्मान उस क्रांति का भी है, जो शौचालयों के जरिए आयी। बिन्देश्वर पाठक को भारत में शौचालय क्रांति का जनक माना जाता है। उनकी यह टिप्पणी सोचने लायक ही है, ‘’टॉयलेट सोचने की जगह है। हम वहां बैठ सकते हैं और अपने सवालों के जवाब सोच सकते हैं। बैठते हुए हम नीचे की ओर देखते हैं, सोचने के लिए यह सबसे अच्छी पॉज़िशन है। टॉयलेटों में कितनी समस्याओं के समाधान मिल जाते हैं।"
बिन्देश्वर पाठक का जन्म 1943 में बिहार में हुआ था। उन्होंने पटना विश्वद्यालय से 1964 में समाजशास्त्र में ग्रेजुएशन किया। अपने काम की शुरुआत उन्होंने 1970 में की और फिर उनके संगठन ने सस्ते और सुलभ शौचालय बनाना शुरू किया। आज सुलभ इंटरनैशनल के सौजन्य से 12 लाख घरों में रह रहे लोग स्वच्छ जीवन का आनंद ले रहे हैं और 7 हज़ार से ज्यादा सार्वजनिक शौचालयों के जरिए चलते-फिरते लोगों की परेशानी भी दूर की जा सकी है। नई दिल्ली में एक ख़ास टॉयलेट संग्रहालय भी खोला गया है। इसमें पाठक का बनाया पहला शौचालय भी देखा जा सकता है।
बिन्देश्वर पाठक कहते हैं, "जो टॉयलेट मैंने सबसे पहले बनाया था, वह मेरे लिए सबसे दिलचस्प है। क्योंकि मैंने इससे पहले फ़्लश वाले टॉयलेट का इस्तेमाल नहीं किया था। जब मैं गांव में रहता था, तब हम खेतों में जाते थे। और फिर शहर में साधारण लैट्रीन में। जब मैंने पहली बार सुलभ टॉयलेट बनाया और उसे खुद इस्तेमाल किया, तो मुझे बड़ी ख़ुशी हुई।"
उनके संगठन ने न केवल दस्त जैसी बीमारियों की रोकथाम करने में मदद की है, बल्कि सामाजिक रूप से मैला ढोने के लिए मजबूर कई लोगों की ज़िंदगियों को बदल डाला। विश्व जल सप्ताह की निर्देशक सीसीलिया मार्टिनसेन का कहना है कि बिंदेश्वर पाठक की वजह से मानवीय मल को किस तरह संभाला जा सकता है, यह सवाल विश्व एजेंडे में शामिल हुआ।
इन दिनों स्टॉकहोम में विश्व जल सप्ताह मनाया जा रहा है, जहां भारत के बिन्देश्वर पाठक को विश्व जल पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है। निश्चित तौर पर यह सम्मान उस क्रांति का भी है, जो शौचालयों के जरिए आयी। बिन्देश्वर पाठक को भारत में शौचालय क्रांति का जनक माना जाता है। उनकी यह टिप्पणी सोचने लायक ही है, ‘’टॉयलेट सोचने की जगह है। हम वहां बैठ सकते हैं और अपने सवालों के जवाब सोच सकते हैं। बैठते हुए हम नीचे की ओर देखते हैं, सोचने के लिए यह सबसे अच्छी पॉज़िशन है। टॉयलेटों में कितनी समस्याओं के समाधान मिल जाते हैं।"
बिन्देश्वर पाठक का जन्म 1943 में बिहार में हुआ था। उन्होंने पटना विश्वद्यालय से 1964 में समाजशास्त्र में ग्रेजुएशन किया। अपने काम की शुरुआत उन्होंने 1970 में की और फिर उनके संगठन ने सस्ते और सुलभ शौचालय बनाना शुरू किया। आज सुलभ इंटरनैशनल के सौजन्य से 12 लाख घरों में रह रहे लोग स्वच्छ जीवन का आनंद ले रहे हैं और 7 हज़ार से ज्यादा सार्वजनिक शौचालयों के जरिए चलते-फिरते लोगों की परेशानी भी दूर की जा सकी है। नई दिल्ली में एक ख़ास टॉयलेट संग्रहालय भी खोला गया है। इसमें पाठक का बनाया पहला शौचालय भी देखा जा सकता है।
बिन्देश्वर पाठक कहते हैं, "जो टॉयलेट मैंने सबसे पहले बनाया था, वह मेरे लिए सबसे दिलचस्प है। क्योंकि मैंने इससे पहले फ़्लश वाले टॉयलेट का इस्तेमाल नहीं किया था। जब मैं गांव में रहता था, तब हम खेतों में जाते थे। और फिर शहर में साधारण लैट्रीन में। जब मैंने पहली बार सुलभ टॉयलेट बनाया और उसे खुद इस्तेमाल किया, तो मुझे बड़ी ख़ुशी हुई।"
उनके संगठन ने न केवल दस्त जैसी बीमारियों की रोकथाम करने में मदद की है, बल्कि सामाजिक रूप से मैला ढोने के लिए मजबूर कई लोगों की ज़िंदगियों को बदल डाला। विश्व जल सप्ताह की निर्देशक सीसीलिया मार्टिनसेन का कहना है कि बिंदेश्वर पाठक की वजह से मानवीय मल को किस तरह संभाला जा सकता है, यह सवाल विश्व एजेंडे में शामिल हुआ।
Monday, August 17, 2009
रेडियो डॉयचे वेले हिंदी सेवा के 45 साल : पत्रकारों के अनुभव की कहानी, उनकी ही जुबानी
हमारे गांवों में बिजली की चमक कभी-कभी ही कौंधती है। इसलिए प्रसारण माध्यमों में ग्रामीणों की आज भी सबसे अधिक निर्भरता रेडियो पर ही है। हिन्दी में खबरों के लिए रेडियो पर बीबीसी की तरह सुपरिचित नाम रेडियो डॉयचे वेले का भी है। इस 15 अगस्त को उसकी हिंदी सेवा को शुरू हुए पैंतालीस साल हो गए हैं। राइन नदी पर बसे कार्निवाल के शहर कोलोन से 15 अगस्त के ही दिन 1964 में इसके हिंदी कार्यक्रमों का प्रसारण शुरू हुआ था। इससे जुड़े पत्रकार इस मौके पर बता रहे हैं इसके सफरनामा और अपने अनुभवों को।
45 साल पहले शॉर्टवेव रेडियो डॉयचे वेले की ख़बरों को सुनने का एकमात्र माध्यम हुआ करता था। लेकिन आज बग़ैर किसी परेशानी के घर बैठे कंप्यूटर पर जब मर्ज़ी चाहे कार्यक्रम सुने जा सकते हैं। इससे जुड़ी पत्रकार मानसी गोपालकृष्णन इस तकनीकी प्रगति को रेखांकित करते हुए कहती हैं, ‘’ इस बात से तो शायद ही कोई इंकार करेगा कि पिछले पांच वर्षों में इंटरनेट और मोबाइल ने हमारी जिंदगी को पूरी तरह बदल दिया है। और यह बात डॉयचे वेले की हिंदी सेवा के लिए भी सही है।‘’
डॉयचे वेले की हिंदी सेवा के लिए नई दिल्ली से इसके पहले डेली रिपोर्टर कुलदीप कुमार अपने अनुभव बताते हैं, ‘’ 2004 के लोकसभा चुनाव के दौरान मैं लखनऊ से अमेठी जा रहा था। रास्ते में क़स्बा पड़ता है – मुसाफिरखाना। वहां एक केमिस्ट की दूकान देखकर मैंने टैक्सी रुकवाई और केमिस्ट से कहा कि टेप रिकार्डर का हेड साफ़ करने के लिए कार्बन टेट्रा क्लोराइड चाहिए। उसने कहा कि यह काम तो वह स्पिरिट से ही कर देगा बिना पैसा लिए। टेप रिकार्डर देखकर उसने पूछा कि क्या मैं रेडियो पत्रकार हूं? मेरे हां कहने पर उसने संस्था का नाम पूछा। जब मैंने कहा डॉयचे वेले तो उसने तुंरत सवाल किया - तो क्या आप कुलदीप कुमार हैं? मुझे भौंचक्का होते देख उसने बताया कि हर शाम वह रोज़ डॉयचे वेले का हिन्दी प्रसारण सुनता है।
आमजन का भरोसा और उससे मिलनेवाला स्नेह और अपनापन पत्रकारों की सबसे बड़ी पूंजी होती है। जो पत्रकार इस पूंजी की अहमियत समझते हैं, उनके लिए यह पेशा मिशन से कम नहीं। तो आइए देखते हैं इन पैंतालीस वर्षों में आए बदलावों को किस तरह आंकते हैं डॉयचे वेले हिन्दी सेवा से जुड़े पत्रकार। पत्रकारिता के मिशन के उनके अनुभवों की कहानी उनकी ही जुबानी।
45 साल पहले शॉर्टवेव रेडियो डॉयचे वेले की ख़बरों को सुनने का एकमात्र माध्यम हुआ करता था। लेकिन आज बग़ैर किसी परेशानी के घर बैठे कंप्यूटर पर जब मर्ज़ी चाहे कार्यक्रम सुने जा सकते हैं। इससे जुड़ी पत्रकार मानसी गोपालकृष्णन इस तकनीकी प्रगति को रेखांकित करते हुए कहती हैं, ‘’ इस बात से तो शायद ही कोई इंकार करेगा कि पिछले पांच वर्षों में इंटरनेट और मोबाइल ने हमारी जिंदगी को पूरी तरह बदल दिया है। और यह बात डॉयचे वेले की हिंदी सेवा के लिए भी सही है।‘’
डॉयचे वेले की हिंदी सेवा के लिए नई दिल्ली से इसके पहले डेली रिपोर्टर कुलदीप कुमार अपने अनुभव बताते हैं, ‘’ 2004 के लोकसभा चुनाव के दौरान मैं लखनऊ से अमेठी जा रहा था। रास्ते में क़स्बा पड़ता है – मुसाफिरखाना। वहां एक केमिस्ट की दूकान देखकर मैंने टैक्सी रुकवाई और केमिस्ट से कहा कि टेप रिकार्डर का हेड साफ़ करने के लिए कार्बन टेट्रा क्लोराइड चाहिए। उसने कहा कि यह काम तो वह स्पिरिट से ही कर देगा बिना पैसा लिए। टेप रिकार्डर देखकर उसने पूछा कि क्या मैं रेडियो पत्रकार हूं? मेरे हां कहने पर उसने संस्था का नाम पूछा। जब मैंने कहा डॉयचे वेले तो उसने तुंरत सवाल किया - तो क्या आप कुलदीप कुमार हैं? मुझे भौंचक्का होते देख उसने बताया कि हर शाम वह रोज़ डॉयचे वेले का हिन्दी प्रसारण सुनता है।
आमजन का भरोसा और उससे मिलनेवाला स्नेह और अपनापन पत्रकारों की सबसे बड़ी पूंजी होती है। जो पत्रकार इस पूंजी की अहमियत समझते हैं, उनके लिए यह पेशा मिशन से कम नहीं। तो आइए देखते हैं इन पैंतालीस वर्षों में आए बदलावों को किस तरह आंकते हैं डॉयचे वेले हिन्दी सेवा से जुड़े पत्रकार। पत्रकारिता के मिशन के उनके अनुभवों की कहानी उनकी ही जुबानी।
Sunday, August 16, 2009
केरल के कोडिन्ही गांव के जुड़वां बच्चों को तो आपने देखा ही होगा !
एक बच्चे को देखकर ही तबियत खुश हो जाती है, जुड़वां बच्चे हों तो क्या कहने। लेकिन यदि जुड़वां बच्चों की गोद में भी जुड़वां बच्चे ही बैठे हों, तब तो मुर्दे आदमी में भी जान आ जाएगी। केरल के कोडिन्ही गांव के बारे में आपने पहले जरूर पढ़ा-सुना होगा... जी हां, वही जुड़वां लोगों का गांव। अब इसे ट्विन टाउन भी कहा जाने लगा है। दो हजार लोगों की आबादीवाला यह गांव चिकित्सकों व शोधकर्ताओं के लिए रहस्य तथा दुनिया भर में मीडिया के लिए खबर बना हुआ है। गांव में 250 जोड़े जुड़वां बच्चों का निबंधन हो चुका है, जबकि समझा जाता है कि उनकी वास्तविक संख्या इससे भी अधिक है।
जुड़वां बच्चों के होने के फायदे भी हैं और नुकसान भी, लेकिन हम यहां उसकी तह में नहीं जाना चाहते। हम तो कटोरे पर कटोरा की तरह एक दूसरे की गोद में बैठे इन जुड़वां बच्चों के चित्र देखकर खुश हैं, और आपके साथ इस खुशी को बांटना चाहते हैं। कोडिन्ही गांव के जुड़वां बच्चों की कुछ और तस्वीरें आप यहां जाकर भी देख सकते हैं।
जुड़वां बच्चों के होने के फायदे भी हैं और नुकसान भी, लेकिन हम यहां उसकी तह में नहीं जाना चाहते। हम तो कटोरे पर कटोरा की तरह एक दूसरे की गोद में बैठे इन जुड़वां बच्चों के चित्र देखकर खुश हैं, और आपके साथ इस खुशी को बांटना चाहते हैं। कोडिन्ही गांव के जुड़वां बच्चों की कुछ और तस्वीरें आप यहां जाकर भी देख सकते हैं।
Tuesday, August 11, 2009
अब आप ही बताएं ... मैं चीन की निंदा करूं या धन्यवाद दूं!
भारतीय कृषि के बारे में कहा जाता है कि वह मानसून के साथ जुआ है। यह दुर्भाग्य है कि आजादी के छह दशकों बाद भी इसकी इस दु:स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। सच तो यह है कि आजाद भारत के भाग्य विधाताओं ने भारतीय किसानों को मानसून के साथ जुआ खेलने की स्थिति में भी नहीं छोड़ा। पहले हमारे गांवों में ताल, पोखर, आहर जैसे वर्षा जल संचयन साधनों की भरमार थी, जिनकी बदौलत हमारी खेती मानसून की बेरूखी से टक्कर ले सकती थी। आज वे सभी समाप्तप्राय हैं। पर्यावरण के शत्रु बन चुके अतिक्रमणकारियों ने पुआल और मिट्टी से पाटकर उन्हें खेत बना डाला अथवा उनकी जमीन पर मकान बना डाले। हमारी सरकार वर्षा जल संचयन के उन प्राकृतिक स्रोतों की हिफाजत में पूरी तरह विफल रही।
बिहार के जिस कैमूर जिले में मैं रहता हूं, वह भीषण सूखे की चपेट में है। जीवन को प्रवाहमान रखने के लिए हम किसानों के सामने मानसून के साथ जुआ खेलने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। लेकिन यह जुआ खेलते भी तो किस बूते। हमारे गांव के आहर-तालाब अतिक्रमणकारियों के लालच और सरकार की बेरूखी की भेंट चढ़ चुके हैं। नहर में पानी का टोटा पड़ा हुआ है। बिजली सिर्फ दर्शन भर के लिए आती है। डीजल पर अनुदान जैसी राहत की सरकारी घोषणाएं सिर्फ कागजों पर हैं। इस मुश्किल समय में यदि हमारे इलाके के किसान मानसून के साथ जुआ खेलने में समर्थ हो पाए हैं तो चाइनीज डीजल इंजन पंपिंग सेटों के बूते। सरकार जिन स्वदेशी डीजल इंजन पंपिंग सेटों की खरीद पर अनुदान देती है, वे भारी और महंगे होते हैं और एक घंटे में एक लीटर डीजल खा जाते हैं। जबकि चाइनीज डीजल इंजन पंपिंग सेट अपेक्षाकृत सस्ते हैं और हल्के भी। इतने हल्के कि दो आदमी आसानी से इन्हें कहीं भी लेकर जा सकते हैं। सबसे बड़ी बात है कि ये आधे लीटर डीजल में ही एक घंटे चल जाते हैं। बगल के चित्र में जिस डीजल इंजन पंपिंग सेट के जरिए किसान सूखे खेतों तक पानी पहुंचाने का उद्यम कर रहे हैं, वह चाइनीज ही है।
इंटरनेट पर मैं खबर पढ़ रहा हूं कि चीन की दवा कंपनियों ने ''मेड इन इंडिया'' के लेबल के साथ नकली दवाइयां बनाकर उन्हें अफ़्रीकी देश नाइजीरिया भेजा। दो महीने पहले नाइजीरिया में ऐसी नकली दवाओं की एक बड़ी खेप पकड़ी गयी थी। कहा जा रहा है कि खुद चीनी अधिकारियों ने भी मान लिया है (कि चीनी कंपिनयां इस कांड में शामिल थीं)। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि चीन की निंदा करूं या उसे धन्यवाद दूं। आखिर यह भी तो सच है कि हमारे इलाके के असंख्य किसान चीन निर्मित डीजल इंजन पंपिंग सेटों की ताकत पर ही तो मानसून के साथ जुआ खेलने में समर्थ हो पाए हैं।
बिहार के जिस कैमूर जिले में मैं रहता हूं, वह भीषण सूखे की चपेट में है। जीवन को प्रवाहमान रखने के लिए हम किसानों के सामने मानसून के साथ जुआ खेलने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। लेकिन यह जुआ खेलते भी तो किस बूते। हमारे गांव के आहर-तालाब अतिक्रमणकारियों के लालच और सरकार की बेरूखी की भेंट चढ़ चुके हैं। नहर में पानी का टोटा पड़ा हुआ है। बिजली सिर्फ दर्शन भर के लिए आती है। डीजल पर अनुदान जैसी राहत की सरकारी घोषणाएं सिर्फ कागजों पर हैं। इस मुश्किल समय में यदि हमारे इलाके के किसान मानसून के साथ जुआ खेलने में समर्थ हो पाए हैं तो चाइनीज डीजल इंजन पंपिंग सेटों के बूते। सरकार जिन स्वदेशी डीजल इंजन पंपिंग सेटों की खरीद पर अनुदान देती है, वे भारी और महंगे होते हैं और एक घंटे में एक लीटर डीजल खा जाते हैं। जबकि चाइनीज डीजल इंजन पंपिंग सेट अपेक्षाकृत सस्ते हैं और हल्के भी। इतने हल्के कि दो आदमी आसानी से इन्हें कहीं भी लेकर जा सकते हैं। सबसे बड़ी बात है कि ये आधे लीटर डीजल में ही एक घंटे चल जाते हैं। बगल के चित्र में जिस डीजल इंजन पंपिंग सेट के जरिए किसान सूखे खेतों तक पानी पहुंचाने का उद्यम कर रहे हैं, वह चाइनीज ही है।
इंटरनेट पर मैं खबर पढ़ रहा हूं कि चीन की दवा कंपनियों ने ''मेड इन इंडिया'' के लेबल के साथ नकली दवाइयां बनाकर उन्हें अफ़्रीकी देश नाइजीरिया भेजा। दो महीने पहले नाइजीरिया में ऐसी नकली दवाओं की एक बड़ी खेप पकड़ी गयी थी। कहा जा रहा है कि खुद चीनी अधिकारियों ने भी मान लिया है (कि चीनी कंपिनयां इस कांड में शामिल थीं)। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि चीन की निंदा करूं या उसे धन्यवाद दूं। आखिर यह भी तो सच है कि हमारे इलाके के असंख्य किसान चीन निर्मित डीजल इंजन पंपिंग सेटों की ताकत पर ही तो मानसून के साथ जुआ खेलने में समर्थ हो पाए हैं।
Friday, July 24, 2009
मात्र 23 साल की उम्र में रच डाला ज्योतिष का सबसे वैज्ञानिक ग्रंथ... इतने महान थे आर्यभट।
प्राचीन भारत के महान खगोलविद व गणितज्ञ आर्यभट के बारे में काफी कुछ कहा जाता है और लिखा जाता है, लेकिन सच्चाई यह है कि उनके बारे में प्रामाणिक तौर पर बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। उनके व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक जीवन के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं मिलती। हम यह भी नहीं जानते कि वे कहां के रहनेवाले थे और उनका जन्म किस जगह पर हुआ था। यहां प्रस्तुत उनकी प्रतिमा का फोटो विकिपीडिया से उद्धृत है। यह प्रतिमा पुणे में है, लेकिन चूंकि आर्यभट की वेश-भूषा के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है, इसलिए यह प्रतिरूप कलाकार की परिकल्पना की ही उत्पत्ति है।
आर्यभट के बारे में हमारी जानकारी का एकमात्र आधार उनकी अमर कृति आर्यभटीय है, जिसके बारे में कहा जाता है कि ज्योतिष पर प्राचीन भारत की सर्वाधिक वैज्ञानिक पुस्तक है। आर्यभटीय आर्यभट का एकमात्र उपलब्ध ग्रंथ है। उन्होंने अन्य ग्रंथों की रचना भी की होगी, पर वे वर्तमान में नहीं मिलते। आर्यभटीय के एक श्लोक में आर्यभट जानकारी देते हैं कि उन्होंने इस पुस्तक की रचना कुसुमपुर में की है और उस समय उनकी आयु 23 साल की थी। वे लिखते हैं : ‘’कलियुग के 3600 वर्ष बीत चुके हैं और मेरी आयु 23 साल की है, जबकि मैं यह ग्रंथ लिख रहा हूं।‘’
भारतीय ज्योतिष की परंपरा के अनुसार कलियुग का आरंभ ईसा पूर्व 3101 में हुआ था। इस हिसाब से 499 ईस्वी में आर्यभटीय की रचना हुई। अत: आर्यभट का जन्म 476 में होने की बात कही जाती है।
बिहार की मौजूदा राजधानी पटना को प्राचीनकाल में पाटलीपुत्र, पुष्पपुर और कुसुमपुर भी कहा जाता था। इसी आधार पर माना जाता है कि आर्यभट का कुसुमपुर आधुनिक पटना ही है। लेकिन इस मत से सभी सहमत नहीं हैं। आर्यभट के ग्रंथ का दक्षिण भारत में अधिक प्रचार रहा है और मलयालम लिपि में इस ग्रंथ की हस्तलिखित प्रतियां मिली हैं। इस आधार पर आर्यभट के कर्नाटक या केरल का निवासी होने की संभावना भी जताई जाती है।
प्राचीन भारत के खगोलविदों में आर्यभट के विचार सर्वाधिक वैज्ञानिक व क्रांतिकारी थे। प्राचीन काल में पृथ्वी को स्थिर माना जाता था। किंतु आर्यभट ने कहा कि पृथ्वी गोल है और यह अपने अक्ष पर घूमती है, यानी इसकी दैनंदिन गति है। इस सत्य वचन को कहनेवाले आर्यभट भारत के एकमात्र ज्योतिषी थे। हालांकि आर्यभट ने यह नहीं कहा था कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है।
आर्यभट ग्रहणों के असली कारण जानते थे। उन्होंने स्पष्ट तौर पर लिखा है, ‘’ चंद्र जब सूर्य को ढक लेता है और इसकी छाया पृथ्वी पर पड़ती है तो सूर्यग्रहण होता है। इसी प्रकार पृथ्वी की छाया जब चंद्र को ढक लेती है तो चंद्रग्रहण होता है।‘’
वस्तुत: आर्यभट ने भारत में गणित-ज्योतिष के अध्ययन की एक स्वस्थ परंपरा को जन्म दिया था। उनकी रचना आर्यभटीय भारतीय विज्ञान की ऐसी महान कृति है जो यह साबित करती है कि उस समय हमारा देश गणित-ज्योतिष के क्षेत्र में किसी भी अन्य देश से पीछे नहीं था। आर्यभट ने आधुनिक त्रिकोणमिति और बीजगणित की कई विधियों की खोज की थी। इस महान खगोलशास्त्री के नाम पर ही भारत द्वारा प्रक्षेपित पहले कृत्रिम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट रखा गया था। 360 किलो का यह उपग्रह अप्रैल 1975 में छोड़ा गया था।
ध्यान रखने की बात है कि भारत में आर्यभट नाम के एक दूसरे ज्योतिषी भी हुए हैं, परंतु वे पहले आर्यभट जैसे प्रसिद्ध नहीं हैं। दूसरे आर्यभट का काल ईसा की दसवीं सदी माना जाता है तथा आर्यसिद्धांत नामक उनका एक ग्रंथ भी मिलता है।
आर्यभट के बारे में हमारी जानकारी का एकमात्र आधार उनकी अमर कृति आर्यभटीय है, जिसके बारे में कहा जाता है कि ज्योतिष पर प्राचीन भारत की सर्वाधिक वैज्ञानिक पुस्तक है। आर्यभटीय आर्यभट का एकमात्र उपलब्ध ग्रंथ है। उन्होंने अन्य ग्रंथों की रचना भी की होगी, पर वे वर्तमान में नहीं मिलते। आर्यभटीय के एक श्लोक में आर्यभट जानकारी देते हैं कि उन्होंने इस पुस्तक की रचना कुसुमपुर में की है और उस समय उनकी आयु 23 साल की थी। वे लिखते हैं : ‘’कलियुग के 3600 वर्ष बीत चुके हैं और मेरी आयु 23 साल की है, जबकि मैं यह ग्रंथ लिख रहा हूं।‘’
भारतीय ज्योतिष की परंपरा के अनुसार कलियुग का आरंभ ईसा पूर्व 3101 में हुआ था। इस हिसाब से 499 ईस्वी में आर्यभटीय की रचना हुई। अत: आर्यभट का जन्म 476 में होने की बात कही जाती है।
बिहार की मौजूदा राजधानी पटना को प्राचीनकाल में पाटलीपुत्र, पुष्पपुर और कुसुमपुर भी कहा जाता था। इसी आधार पर माना जाता है कि आर्यभट का कुसुमपुर आधुनिक पटना ही है। लेकिन इस मत से सभी सहमत नहीं हैं। आर्यभट के ग्रंथ का दक्षिण भारत में अधिक प्रचार रहा है और मलयालम लिपि में इस ग्रंथ की हस्तलिखित प्रतियां मिली हैं। इस आधार पर आर्यभट के कर्नाटक या केरल का निवासी होने की संभावना भी जताई जाती है।
प्राचीन भारत के खगोलविदों में आर्यभट के विचार सर्वाधिक वैज्ञानिक व क्रांतिकारी थे। प्राचीन काल में पृथ्वी को स्थिर माना जाता था। किंतु आर्यभट ने कहा कि पृथ्वी गोल है और यह अपने अक्ष पर घूमती है, यानी इसकी दैनंदिन गति है। इस सत्य वचन को कहनेवाले आर्यभट भारत के एकमात्र ज्योतिषी थे। हालांकि आर्यभट ने यह नहीं कहा था कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है।
आर्यभट ग्रहणों के असली कारण जानते थे। उन्होंने स्पष्ट तौर पर लिखा है, ‘’ चंद्र जब सूर्य को ढक लेता है और इसकी छाया पृथ्वी पर पड़ती है तो सूर्यग्रहण होता है। इसी प्रकार पृथ्वी की छाया जब चंद्र को ढक लेती है तो चंद्रग्रहण होता है।‘’
वस्तुत: आर्यभट ने भारत में गणित-ज्योतिष के अध्ययन की एक स्वस्थ परंपरा को जन्म दिया था। उनकी रचना आर्यभटीय भारतीय विज्ञान की ऐसी महान कृति है जो यह साबित करती है कि उस समय हमारा देश गणित-ज्योतिष के क्षेत्र में किसी भी अन्य देश से पीछे नहीं था। आर्यभट ने आधुनिक त्रिकोणमिति और बीजगणित की कई विधियों की खोज की थी। इस महान खगोलशास्त्री के नाम पर ही भारत द्वारा प्रक्षेपित पहले कृत्रिम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट रखा गया था। 360 किलो का यह उपग्रह अप्रैल 1975 में छोड़ा गया था।
ध्यान रखने की बात है कि भारत में आर्यभट नाम के एक दूसरे ज्योतिषी भी हुए हैं, परंतु वे पहले आर्यभट जैसे प्रसिद्ध नहीं हैं। दूसरे आर्यभट का काल ईसा की दसवीं सदी माना जाता है तथा आर्यसिद्धांत नामक उनका एक ग्रंथ भी मिलता है।
आर्यभट की वेधशाला और दो रुपए में परिवार की खुशी खरीदते लोग!
‘’खट्टा-मिट्ठा चूस, दो रुपए में बाल-बच्चा खुश।‘’ दोनों हथेलियों में सस्ते लेमनचूस के छोटे-छोटे पैकेट लिए इन्हीं लफ्जों के साथ सुरीले अंदाज में अपने सामान का विज्ञापन करता दुर्बल-सा आदमी। और, डिब्बे की भीड़-भाड़ में खड़े होने की जगह के लिए संघर्ष कर रहे मटमैले कपड़े पहने दबे-कुचले लोग जो दो रुपए में बच्चों की खुशी खरीदकर खुद भी खुश दिख रहे हैं। पटना-गया लाइन के तरेगना और छोटे-बड़े अन्य स्टेशनों व हाल्टों की मेरे लिए अभी तक पहचान यही थी। यह कयास लगाना काफी रोचक है कि क्या भविष्य में भी मैं उस जगह को इन्हीं बिम्बों के जरिए पहचानूंगा!
बिहार के तरेगना गांव को इतनी अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि सैकड़ों सालों में पहले कभी नहीं मिली होगी। राजधानी पटना से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस छोटे-से गांव में 22 जुलाई की सुबह हुए 21-वीं सदी के सबसे लंबे सूर्यग्रहण को सबसे अधिक समय तक देखा जाना था। अंतरिक्षवैज्ञानिकों का कहना था कि तरेगना सूर्यग्रहण के 'सेंट्रल लाइन' पर स्थित है, और इसलिए यहां ग्रहण को साफ और अधिक समय तक देखने-परखने में आसानी होगी। हालांकि आकाश में बादलों के घिर आने के चलते वहां दुनिया भर से इकट्ठा हुए हजारों लोगों को निराशा ही हाथ लगी। इनमें आम लोगों के अलावा अमेरिकी अंतरिक्ष संगठन नासा सहित देश-विदेश से आए वैज्ञानिक, खगोलविद, छात्र और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी शामिल थे। इसके बावजूद लोग दिन में रात जैसा अंधेरा देखकर उत्साहित थे और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तरेगना में खगोलीय अध्ययन के लिए एक केंद्र की स्थापना करने की घोषणा की। अब देखना है कि वे अपनी घोषणा कितनी जल्द और किस सीमा तक पूरी करते हैं।
माना जाता है कि तरेगना में प्राचीन भारत के प्रसिद्ध गणितज्ञ व खगोलविद आर्यभट (476 ईस्वी) तारों का अध्ययन किया करते थे। बताया जाता है कि तरेगना के पूर्व में 70 फुट की एक मीनार थी। इसी मीनार पर आर्यभट की वेधशाला (ऑब्जर्वेटरी) थी जहां बैठकर वह अपने शिष्यों के साथ ग्रहों की चाल का अध्ययन किया करते थे। तारे गिनने के चलते ही इस जगह का नाम तरेगना पड़ा। ऐसा माना जाता है कि इस जगह का संस्कृत नामाकरण तारक-गणना कालांतर में तरेगना कहा जाने लगा।
उपर दिया गया चित्र, तरेगना गांव के उसी स्थल का है, जहां आर्यभट की वेधशाला होने की बात कही जाती है। हालांकि अब उस जगह पर निजी मकान है।
उल्लेखनीय है कि पटना के समीप ही एक अन्य जगह है जिसका नाम खगौल है। अक्सर कहा जाता है कि यह जगह भी प्राचीन काल में खगोलीय अनुसंधान का केन्द्र था और इसीलिए उसका नाम खगौल पड़ा।
इन जनश्रुतियों में सच्चाई कितनी है, यह कहना मुश्किल है। लेकिन यह तो निश्चित जान पड़ता है कि बिहार की मौजूदा राजधानी पटना का इलाका आर्यभट का कर्मस्थल रहा था। अपनी एकमात्र उपलब पुस्तक आर्यभटीय के एक श्लोक में वे कहते हैं कि उन्होंने इस पुस्तक की रचना कुसुमपुर में की। इतिहासकारों की मान्यता है कि आधुनिक पटना को ही प्राचीनकाल में पाटलीपुत्र, कुसुमपुर और पुष्पपुर भी कहा जाता था।
(फोटो बीबीसी हिन्दी से साभार)
बिहार के तरेगना गांव को इतनी अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि सैकड़ों सालों में पहले कभी नहीं मिली होगी। राजधानी पटना से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस छोटे-से गांव में 22 जुलाई की सुबह हुए 21-वीं सदी के सबसे लंबे सूर्यग्रहण को सबसे अधिक समय तक देखा जाना था। अंतरिक्षवैज्ञानिकों का कहना था कि तरेगना सूर्यग्रहण के 'सेंट्रल लाइन' पर स्थित है, और इसलिए यहां ग्रहण को साफ और अधिक समय तक देखने-परखने में आसानी होगी। हालांकि आकाश में बादलों के घिर आने के चलते वहां दुनिया भर से इकट्ठा हुए हजारों लोगों को निराशा ही हाथ लगी। इनमें आम लोगों के अलावा अमेरिकी अंतरिक्ष संगठन नासा सहित देश-विदेश से आए वैज्ञानिक, खगोलविद, छात्र और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी शामिल थे। इसके बावजूद लोग दिन में रात जैसा अंधेरा देखकर उत्साहित थे और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तरेगना में खगोलीय अध्ययन के लिए एक केंद्र की स्थापना करने की घोषणा की। अब देखना है कि वे अपनी घोषणा कितनी जल्द और किस सीमा तक पूरी करते हैं।
माना जाता है कि तरेगना में प्राचीन भारत के प्रसिद्ध गणितज्ञ व खगोलविद आर्यभट (476 ईस्वी) तारों का अध्ययन किया करते थे। बताया जाता है कि तरेगना के पूर्व में 70 फुट की एक मीनार थी। इसी मीनार पर आर्यभट की वेधशाला (ऑब्जर्वेटरी) थी जहां बैठकर वह अपने शिष्यों के साथ ग्रहों की चाल का अध्ययन किया करते थे। तारे गिनने के चलते ही इस जगह का नाम तरेगना पड़ा। ऐसा माना जाता है कि इस जगह का संस्कृत नामाकरण तारक-गणना कालांतर में तरेगना कहा जाने लगा।
उपर दिया गया चित्र, तरेगना गांव के उसी स्थल का है, जहां आर्यभट की वेधशाला होने की बात कही जाती है। हालांकि अब उस जगह पर निजी मकान है।
उल्लेखनीय है कि पटना के समीप ही एक अन्य जगह है जिसका नाम खगौल है। अक्सर कहा जाता है कि यह जगह भी प्राचीन काल में खगोलीय अनुसंधान का केन्द्र था और इसीलिए उसका नाम खगौल पड़ा।
इन जनश्रुतियों में सच्चाई कितनी है, यह कहना मुश्किल है। लेकिन यह तो निश्चित जान पड़ता है कि बिहार की मौजूदा राजधानी पटना का इलाका आर्यभट का कर्मस्थल रहा था। अपनी एकमात्र उपलब पुस्तक आर्यभटीय के एक श्लोक में वे कहते हैं कि उन्होंने इस पुस्तक की रचना कुसुमपुर में की। इतिहासकारों की मान्यता है कि आधुनिक पटना को ही प्राचीनकाल में पाटलीपुत्र, कुसुमपुर और पुष्पपुर भी कहा जाता था।
(फोटो बीबीसी हिन्दी से साभार)
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