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Sunday, March 20, 2011

फाग चैता गाता हूं, इसलिए जिंदा हूं।

जब देश के अन्‍य भागों में अपने किसान भाइयों की आत्‍महत्‍या की घटनाएं पढ़ता-सुनता हूं तो अक्‍सर सोचता हूं कि कौन-सी ताकत है जो बिहार व उत्‍तरप्रदेश के हम पूरबिया किसानों को मरने नहीं देती। कौन से बुनियादी तत्‍व है, जिनके बूते हम मॉरीशस, फीजी अथवा दिल्‍ली, पंजाब जाकर मजदूरी कर जी लेते हैं, लेकन जान नहीं देते। मुझे लगता है कि हर मुश्किल में जीने का जीवट प्रदान करनेवाले वे मौलिक तत्‍व हमारे लोकपर्व व लोकसंगीत हैं, और संभवत: फागुन उनमें सर्वोपरि है।

फागुन में जिस होलिका का हम दहन करते हैं उसे हम ‘सम्‍मत’ कहते हैं। ऐसा कहने में एकजुटता व आपसी सम्‍मति से अगले संवत् को सकुशल गुजार लेने की प्रचंड आशावादिता का भाव अंतर्निहित होता है। जब हम रंगों में सराबोर होकर फाग गाते हैं तो पिछले सारे गम व कष्‍ट भूल जाते हैं तथा जीवन जीने की नयी उर्जा से लबरेज हो उठते हैं। तो चलिए आज हम लंबे समय से निष्क्रिय पड़े खेती-बाड़ी में भी होली से संबंधित रचनाओं व गीतों की ही बात करते हैं। गौर करने की बात यह है कि होली के विविध रंगों की भांति होली से संबंधित रचनाओं के भी अलग-अलग रंग व मिजाज हैं। हमारे यहां होली से संबंधित गीतों में भक्ति व अध्‍यात्‍म की अविरल धारा मिलेगी तो राष्‍ट्रवाद व देशप्रेम के सोते भी फूटते मिलेंगे। अल्‍हड़ता व मस्‍ती के स्‍वर तो हर जगह सुनाई देंगे।

भारतीय लोकजीवन में रचे-बसे होली से संबंधित ऐसे ही गीतों में सबसे पहले प्रस्‍तुत है, गंगा-जमुनी संस्‍कृति के पुरोधा अमीर खुसरो की एक रचना :

दैया री मोहे भिजोया री शाह निजाम के रंग में।
कपरे रंगने से कुछ न होवत है
या रंग में मैंने तन को डुबोया री।
पिया रंग मैंने तन को डुबोया
जाहि के रंग से शोख रंग सनगी
खूब ही मल मल के धोया री।
पीर निजाम के रंग में भिजोया री।

भक्तिकाल की प्रसिद्ध कवयित्री मीरा बाई ने होली से संबंधित कई भक्ति रचनाएं की हैं, जिनमें कुछ यहां प्रस्‍तुत की जा रही हैं :

मत डारो पिचकारी,
मैं सगरी भिज गई सारी।
जीन डारे सो सनमुख रहायो,
नहीं तो मैं देउंगी गारी।
भर पिचकरी मेरे मुख पर डारी,
भीज गई तन सारी।
लाल गुलाल उडावन लागे,
मैं तो मन में बिचारी।
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर,
चरनकमल बलहारी।

उनकी दूसरी रचना :

होरी खेलन कू आई राधा प्यारी, हाथ लिये पिचकरी।
कितना बरसे कुंवर कन्हैया, कितना बरस राधे प्यारी।
सात बरस के कुंवर कन्हैया, बारा बरस की राधे प्यारी।
अंगली पकड मेरो पोचो पकड्यो, बैयां पकड झक झारी।
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर, तुम जीते हम हारी।

मीरा बाई की एक अन्‍य रचना, जिसे इस लिंक पर आशा भोंसले की आवाज में यूट्यूब पर भी सुना जा सकता है :

फागुन के दिन चार होली खेल मना रे॥
बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे।
बिन सुर राग छतीसूं गावै रोम रोम रणकार रे॥
सील संतोख की केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे॥
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे॥

उनकी निम्‍नलिखित रचना को भी इस लिंक पर यूट्यूब पर सुना जा सकता है :

होरी खेलत हैं गिरधारी।
मुरली चंग बजत डफ न्यारो,
संग जुबती ब्रजनारी।
चंदन केसर छिड़कत मोहन ,
अपने हाथ बिहारी।
भरि भरि मूठ गुलाल लाल संग,
स्यामा प्राण पियारी।
गावत चार धमार राग तहं,
दै दै कल करतारी।
फाग जु खेलत रसिक सांवरो,
बाढ्यौ रस ब्रज भारी।
मीरा कूं प्रभु गिरधर मिलिया,
मोहनलाल बिहारी।

संत कवि सूरदास भी कहां पीछे रहनेवाले हैं :

हरि संग खेलति हैं सब फाग।
इहिं मिस करति प्रगट गोपी: उर अंतर को अनुराग।।
सारी पहिरी सुरंग, कसि कंचुकी, काजर दे दे नैन।
बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढी, सुनि माधो के बैन।।
डफ, बांसुरी, रुंज अरु महुआरि, बाजत ताल मृदंग।
अति आनन्द मनोहर बानि गावत उठति तरंग।।
एक कोध गोविन्द ग्वाल सब, एक कोध ब्रज नारि।
छांडि सकुच सब देतिं परस्पर, अपनी भाई गारि।।
मिली दस पांच अली चली कृष्नहिं, गहि लावतिं अचकाई।
भरि अरगजा अबीर कनक घट, देतिं सीस तैं नाईं।।
छिरकतिं सखि कुमकुम केसरि, भुरकतिं बंदन धूरि।
सोभित हैं तनु सांझ समै घन, आये हैं मनु पूरि।।
दसहूं दिसा भयो परिपूरन, सूर सुरंग प्रमोद।
सुर बिमान कौतुहल भूले, निरखत स्याम बिनोद।।

रसखान तो हैं ही रस की खान :

फागुन लाग्यो जब तें तब तें ब्रजमण्डल में धूम मच्यौ है।
नारि नवेली बचैं नहिं एक बिसेख यहै सबै प्रेम अच्यौ है।।
सांझ सकारे वहि रसखानि सुरंग गुलाल ले खेल रच्यौ है।
कौ सजनी निलजी न भई अब कौन भटु बिहिं मान बच्यौ है।।

गंगा-जमुनी संस्‍कृति के प्रतीक 18वीं-19वीं शताब्दी के शायर नजीर अकबराबादी ने होली पर कई सुंदर रचनाएं लिखी हैं। उनकी एक प्रसिद्ध रचना निम्‍नलिखित है:

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।

हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे,
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे,
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे,
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे,
कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की।

गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो,
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो,
मुंह लाल, गुलाबी आंखें हो और हाथों में पिचकारी हो,
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो,
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।

और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।

ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो,
उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो,
माजून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो,
लड़भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो,
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।


इसे छाया गांगुली ने बहुत सुंदर तरीके से गाया है, जिसे यूट्यूब पर इस लिंक पर सुना जा सकता है।

युगप्रवर्तक साहित्‍यकार भारतेन्‍दु हरिश्‍चंद्र द्वारा होली पर लिखित इन पंक्तियों का स्‍वर गौर करने की अपेक्षा रखता है :

कैसी होरी खिलाई।
आग तन-मन में लगाई॥
पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।
पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥
तबौ नहिं हबस बुझाई।
भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।
टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥
तुम्हें कैसर दोहाई।
कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥
तुम्‍हे कछु लाज न आई।

सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्‍चन की रचना :

यह मिट्टी की चतुराई है,
रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं,
ढाल अलग है ढंग अलग,

आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर
और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के
शासन से मत घबराओ,

आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!

प्रेम चिरंतन मूल जगत का,
वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में
सदा सफलता जीवन की,

जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!


विख्‍यात शास्‍त्रीय गायक पं. छन्‍नूलाल मिश्र का गाया यह प्रसिद्ध फाग न सुना जाए तो होली की चर्चा अधूरी रहेगी :

खेलैं मसाने में होरी दिगंबर, खेलैं मसाने में होरी,
भूत पिसाच बटोरी, दिगंबर खेलैं मसाने में होरी।
लखि सुंदर फागुनी छटा के, मन से रंग-गुलाल हटा के,
चिता-भस्म भरि झोरी, दिगंबर खेले मसाने में होरी।
गोप न गोपी श्याम न राधा, ना कोई रोक ना कौनो बाधा,
ना साजन ना गोरी, दिगंबर खेले मसाने में होरी।
नाचत गावत डमरूधारी, छोड़ै सर्प-गरल पिचकारी,
पीटैं प्रेत थपोरी, दिगंबर खेले मसाने में होरी।
भूतनाथ की मंगल-होरी, देखि सिहाएं बिरिज कै छोरी,
धन-धन नाथ अघोरी, दिगंबर खेलैं मसाने में होरी।

इसे यहां जाकर यूट्यूब पर सुना जा सकता है।

प्रसिद्ध गायिका शोभा गुर्टू द्वारा गाया गया होली से संबंधित यह गीत भी काफी कर्णप्रिय है, जिसे इस लिंक पर यूट्यूब पर सुना जा सकता है :

रंगी सारी गुलाबी चुनरिया रे,
मोहे मारे नज‍रिया संवरिया रे।
जावो जी जावो, करो ना बतिया,
ए जी बाली है मोरी उमरिया रे।
मोहे मारे नजरिया संवरिया रे
रंगी सारी गुलाबी चुनरिया रे
मोहे मारे नज‍रिया संवरिया रे

चलते-चलते आग्रह करूंगा कि महान बांग्‍ला कवि काजी नजरुल इस्‍लाम की रचना ‘ब्रजो गोपी खेले होरी..’ जरूर सुनें। यह यूट्यूब पर मोहम्‍मद रफी और सबिहा महबूब की आवाज में मौजूद है।

(रचनाएं मुख्‍यत: कविता कोश और चित्र विकिपीडिया से लिया गया है।)

Monday, June 29, 2009

तो भारत के विंध्‍य क्षेत्र में हुई जीवन की शुरुआत !

शोधकर्ताओं के एक नए अध्‍ययन से खुलासा हुआ है कि विंध्‍य घाटी में मिले जीवाश्‍म दुनिया में प्राचीनतम हैं। ये धरती के अन्‍य किसी हिस्‍से में पाए गए जीवाश्‍मों से 40 से 60 करोड़ साल पुराने हैं। यदि इन निष्‍पत्तियों पर भरोसा करें तो जाहिर है कि धरती पर जीवन का आरंभ भारत के विंध्‍य क्षेत्र में हुआ।

लाइव हिन्‍दुस्‍तान डॉटकॉम में वाशिंगटन से प्राप्‍त एजेंसी की खबर में कहा गया है –

‘’विंध्य नदीघाटी के जीवाश्‍मों के एक नए अध्ययन के मुताबिक धरती पर जीवन की शुरुआत पहले के अनुमान से 40 करोड़ साल पहले हुई है। कर्टिन तकनीकी विश्वविद्यालय के ब्रिगर रासमुसेन की अगुवाई में अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के एक दल ने भारत के विंध्य घाटी के कुछ नमूने का अध्ययन किया और पाया कि यहां के जीवाश्म 1.6 अरब साल पुराने हैं। यह पहले के यहां पाए गए जीवाश्‍मों से एक अरब साल पुराने है, वहीं धरती के किसी भी हिस्से में पाए जीवाश्मों से ये 40 से 60 करोड़ साल पुराने हैं।

शोधकर्ताओं के मुताबिक उन्‍होंने इस काम के लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन तकनीक का इस्‍तेमाल किया। प्रो़ रासमुसेन ने बताया कि जीवाश्‍म के शुद्ध परीक्षण के लिए सारे प्रयास किए गए। उनका कहना था कि भारतीय प्रयोगशालाओं में पहले हुई जांचों में त्रुटि हो सकती है। उन्‍होंने बताया कि जीवाशम के आयु निर्धारण के लिए उसमें मौजूद पास्‍पोरेट का लेड डेटिंग किया गया। करोड़ों साल पहले जीवाश्‍मीकरण की प्रक्रिया में समुद्र तल पर पास्‍पोरेट कार्बनिक पदार्थों पर जमा होने लगे। उनका कहना था कि यह पद्वति काफी सटीक होती है।‘’

उल्‍लेखनीय है कि विंध्‍य पर्वतमाला क्षेत्र में प्रागैतिहासिक मानव की गतिविधियों के भी पुष्‍ट प्रमाण मिले हैं। इस पर्वतश्रृंखला की तलहटी में मौजूद भीमबेतका के प्राकृतिक शैलाश्रयों में पाषाणयुगीन मानव के बनाए हुए बेहतरीन भित्ति-चित्र मौजूद हैं। इस स्‍थल को यूनेस्‍को ने अपनी विश्‍व धरोहर सूची में शामिल कर रखा है।

ऐसा लगता है कि जीवन की निरंतरता का क्रम इस क्षेत्र मे कभी टूटा ही नहीं। विंध्‍य पर्वतश्रृंखला का ही एक अंग कैमूर पहाड़ी है, जिसके शिखर पर बिहार के कैमूर जिले में मुंडेश्‍वरी मंदिर मौजूद है। उपलब्‍ध साक्ष्‍यों के ताजा अध्‍ययन के मुताबिक इसे भारत का प्राचीनतम हिन्‍दू मंदिर बताया जा रहा है। खास बात यह है कि करीब 2000 साल से इस मंदिर में निरंतर पूजा होती रही है।

विंध्‍य पर्वत की चर्चा भारतीय पौराणिक कथाओं में भी मिलती है। पुराकथाओं में इस क्षेत्र में बहनेवाली गंगा, कर्मनाशा आदि नदियों की भी चर्चा है। शायद ये तथ्‍य भी इस भूभाग में जीवन की प्राचीनता और निरंतरता की ओर ही संकेत करते हैं।

Thursday, June 25, 2009

35 हजार साल पहले भी थी संगीत की परंपरा, तब की बांसुरी मिली !

पुरा पाषाणकालीन मानव द्वारा खेती और पशुपालन आरंभ करने के साक्ष्‍य भले न मिले हों, लेकिन उनके कलाप्रेम के प्रमाण मिलते रहे हैं। उनके बनाए चित्रों के नमूने दुनिया भर में गुफाओं व शैलाश्रयों में मिले हैं। हाल ही में दक्षिण जर्मनी में एक ऐसी महत्‍वपूर्ण खोज हुई है, जिससे उस युग के मानव के संगीत से जुड़ाव की जानकारी मिलती है।

जर्मनी में खोजकर्ताओं ने लगभग 35 हज़ार साल पुरानी बांसुरी खोज निकाली है और कहा जा रहा है कि यह दुनिया का अब तक प्राप्‍त प्राचीनतम संगीत-यंत्र है। प्रस्‍तर उपकरणों से गिद्ध की हड्डी को तराश कर बनायी गयी इस बांसुरी के टुकड़े वर्ष 2008 में दक्षिणी जर्मनी में होल फेल्स की पुरापाषाणकालीन गुफ़ाओं में मिले थे। जर्मनी के तूबिंजेन विश्वविद्यालय के पुरातत्व विज्ञानी निकोलस कोनार्ड ने उन टुकड़ों को असेंबल कर उस पर शोध किया। उनके नेतृत्‍व में उस प्रागैतिहासिक बांसुरी पर हुए शोध के नतीजे हाल ही में नेचर जर्नल में ऑनलाइन प्रकाशित हुए हैं। श्री कोनार्ड के मुताबिक बांसुरी करीब बीस सेंटीमीटर लंबी है और इसमें पांच छेद बनाए गए हैं। कोनार्ड कहते हैं, "स्पष्ट है कि उस समय भी समाज में संगीत का कितना महत्व था।" वहां इस बांसुरी के अलावा हाथी दांत के बने दो बांसुरियों के अवशेष भी मिले हैं। अब तक इस इलाक़े से आठ बांसुरियां मिली हैं। शोध के मुता‍बिक हड्डी से निर्मित यह बांसुरी उस समय का है जब आधुनिक मानव जाति का यूरोप में बसना शुरु हुआ था।

इस संदर्भ में उल्‍लेखनीय है कि दुनिया भर में पुरातात्विक खोजों में पुरा पाषाण युग (Palaeolithic Age) के मानव के जो औजार मिले हैं, वे सामान्‍यत: पत्‍थर, हांथी दांत, हड्डी या सीपियों के बने हैं। पक्षी के हड्डी से बनी यह बांसुरी उस युग के मानव में सर्जनात्‍मक क्षमता और सामुदायिक जीवन की भावना के हो रहे विकास की भी परिचायक है।



(चित्र व खबर के स्रोत : बीबीसी हिन्‍दी, uk.news.yahoo.com तथा नेशनल ज्‍योग्राफिक न्‍यूज)

Tuesday, May 5, 2009

आइए, नजर डालते हैं दुनिया के पहले अंतर्राष्‍ट्रीय डिजिटल पुस्‍तकालय पर!

हमारी खेती-बाड़ी तो चलती ही रहेगी, लेकिन पुस्‍तकों का साथ भी जरूरी है। तो आइए एक नजर डालें विश्‍व स्‍तर के पहले अंतर्राष्‍ट्रीय डिजिटल पुस्‍तकालय पर। दुनिया भर के इंटरनेट प्रयोक्‍ताओं के लिए इस पुस्‍तकालय का औपचारिक उदघाटन गत माह फ्रांस की राजधानी पेरिस में हुआ। विभिन्‍न देशों की सांस्‍कृतिक विरासत को इंटरनेट पर उपलब्‍ध कराने के अंतर्राष्‍ट्रीय साझे प्रयास का यह अच्‍छा उदाहरण है।

पाठक www.wdl.org पर जाकर दुनिया की तमाम दुर्लभ पुस्तकें पढ़ सकते हैं। यह 19 देशों के पुस्तकालयों के सहयोग से साकार हुआ है।

अमेरिकी कांग्रेस के वाशिंगटन स्थित पुस्तकालय और मिश्र के एलेक्जेण्ड्रिया पुस्तकालय ने मिलकर इसे विकसित किया है, और इसे यूनेस्को के पेरिस कार्यालय से लांच किया गया है।

हालांकि यह ऐसा पहला अंतर्राष्ट्रीय प्रयास नहीं है। इंटरनेट सर्च इंजिन गूगल ने 2004 में ऐसा ही प्रोजेक्ट शुरू किया था। इसके अलावा यूरोपीय संघ ने नवंबर, 2008 में अपना डिजिटल पुस्तकालय शुरू किया था।

यूनेस्को के इस नये पुस्तकालय के जरिये उपयोगकर्ताओं को विश्व की सात भाषाओं में दुर्लभ पुस्तकें, मानचित्र, पाण्डुलिपियां और वीडियो मिल सकते है, और दूसरी भाषाओं में भी जानकारी उपलब्ध है।

यूनेस्को के संचार और सूचना महानिदेशक अब्दुल वहीद खान कहते हैं कि इससे विश्व के देशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ाने में मदद मिलेगी।

(चित्र व जानकारी का स्रोत : वॉयस ऑफ अमेरिका)

Wednesday, March 18, 2009

भारत के प्राचीनतम मंदिर ‘मुंडेश्‍वरी’ को देखने एक बार जरूर जाएं!


यदि आपकी पर्यटन व तीर्थाटन में रुचि है तो आपको कैमूर पहाड़ पर मौजूद मुंडेश्‍वरी धाम की यात्रा एक बार अवश्‍य करनी चाहिए। पहाड़ की चढ़ाई, जंगल की सैर, प्राचीन स्‍मारक का भ्रमण और मां भवानी के दर्शन। यह सारे सुख एक साथ मिलते हैं यहां की यात्रा में। शायद यही कारण है कि पहाड़ के ऊपर बने इस इस सुंदर मंदिर में जो एक बार आता है, वह बार-बार आना चाहता है।

बिहार प्रांत के कैमूर जिले के भगवानपुर प्रखंड में मौजूद यह प्राचीन मंदिर पुरातात्विक धरोहर ही नहीं, तीर्थाटन व पर्यटन का जीवंत केन्‍द्र भी है। इसे कब और किसने बनाया दावे के साथ कहना मुश्किल है। लेकिन इसमें दो राय नहीं कि यह देश के सर्वाधिक प्राचीन व सुंदर मंदिरों में एक है।

कैमूर पर्वत की पवरा पहाड़ी पर 608 फीट की उंचाई पर स्थित इस मंदिर से मिले एक शिलालेख से पता चलता है कि 635 ई. में यह निश्चित रूप से विद्यमान था। हाल के शोधों के आधार पर तो अब इसे देश का प्राचीनतम मंदिर माना जाने लगा है। भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी तथा बिहार धार्मिक न्‍यास परिषद के अध्‍यक्ष आचार्य किशोर कुणाल यहां मिले शिलालेख और अन्‍य दस्‍तावेज का हवाला देते हुए कहते हैं कि यह मंदिर 108 ईस्‍वी सन् में मौजूद था और तभी से इसमें लगातार पूजा और बलि का कार्यक्रम चल रहा है।

जानकार लोगों का कहना है कि मंदिर के आसपास मलबों की सफाई के दौरान दो टुकड़ों में खंडित 18 पंक्तियों का एक शिलालेख मिला था। एक टुकड़ा 1892 ईस्‍वी में मिला था, जबकि दूसरा 1902 में। उन दोनों खंडों को आपस में जब जोडा गया तो उसकी लिखावट से पता चला कि उसकी लिपि ब्राह्मी थी। उनके मुताबिक शिलालेख की भाषा गुप्‍तकाल से पूर्व की प्रतीत होती है, क्‍योंकि विख्‍यात वैयाकरण पाणिनी के प्रभाव से गुप्‍तकाल में परिनिष्ठित संस्‍कृत का उपयोग होने लगा था। इससे स्‍पष्‍ट होता है कि मुंडेश्‍वरी मंदिर का निर्माण गुप्‍तकाल से पूर्व हुआ होगा।

जानकार लोग बताते हैं कि शिलालेख में उदयसेन का जिक्र है जो शक संवत 30 में कुषाण शासकों के अधीन क्षत्रप रहा होगा। उनके मुताबिक ईसाई कैलेंडर से मिलान करने पर यह अवधि 108 ईस्‍वी सन् होती है।

शिलालेख में वर्णित तथ्‍यों के आधार पर कुछ लोगों द्वारा अनुमान लगाया जाता है कि यह आरंभ में वैष्‍णव मंदिर रहा होगा जो बाद में शैव मंदिर हो गया तथा उत्‍तर मध्‍ययुग में शाक्‍त विचारधारा के प्रभाव से शक्तिपीठ के रूप में परिणित हो गया।

मंदिर की प्राचीनता का आभास यहां मिले ‘महाराजा दुत्‍तगामनी’ की मुद्रा (seal) से भी होता है, जो बौद्ध साहित्‍य के अनुसार ‘अनुराधापुर वंश’ का था और ईसा पूर्व 101-77 में श्रीलंका का शासक रहा था।

अष्‍टकोणीय योजना में पूरी तरह से प्रस्‍तर-खंडों से निर्मित इस मंदिर की दीवारों पर सुंदर ताखे, अर्धस्‍तंभ और घट-पल्‍लव के अलंकरण बने हैं। दरवाजे के चौखटों पर द्वारपाल और गंगा-यमुना आदि की मूर्तियां उत्‍कीर्ण हैं। मंदिर के भीतर चतुर्मुख शिवलिंग और मुंडेश्‍वरी भवानी की प्रतिमा है। मंदिर का शिखर नष्‍ट हो चुका है और इसकी छत नयी है।

बिहार के पुरातत्व विभाग के पूर्व निदेशक डा. प्रकाश चरण प्रसाद कहते हैं कि इस मंदिर का निर्माण जिस सिद्धांत पर हुआ है उस सिद्धांत का जिक्र अथर्ववेद में मिलता है। भगवान शिव की अष्ट मूर्तियों का जिक्र अथर्ववेद में दर्शाया गया है और उसी प्रकार का शिवलिंग मुंडेश्‍वरी शक्तिपीठ में आज भी देखा जा सकता है। वे कहते हैं कि तीन फुट नौ इंच ऊंचे चतुर्मुख शिवलिंग को चोरों ने काटकर चुरा लिया था। लेकिन बाद में इसे बरामद किया गया और उस शिवलिंग को मंदिर के गर्भगृह में स्थापित कराया गया।

मुंडेश्‍वरी मंदिर की बलि प्रथा का अहिंसक स्‍वरूप इसकी खासियत है। इस शक्तिपीठ में परंपरागत तरीके से बकरे की बलि नहीं होती है। केवल बकरे को मुंडेश्वरी देवी के सामने लाया जाता है और उस पर पुजारी द्वारा अभिमंत्रित चावल का दाना जैसे ही छिड़का जाता है वह अपने आप अचेत हो जाता है। बस यही बलि की पूरी प्रक्रिया है। इसके बाद बकरे को छोड़ दिया जाता है और वह चेतना में आ जाता है। यहां बकरे को काटा नहीं जाता है। इसके साथ-साथ यहां स्थापित चतुर्मुखी शिवलिंग के रंग को सुबह, दोपहर और शाम में परिवर्तित होते हुए आज भी देखा जा सकता है।

यह मंदिर प्राचीन स्‍मारक तथा पुरातात्विक स्‍थल एवं अवशेष अधिनियम, 1958 के अधीन भारतीय पुरातत्‍व सर्वेक्षण द्वारा राष्‍ट्रीय महत्‍व का घोषित है। यहां पहुंचने के लिए पहले ग्रैंडकॉर्ड रेललाइन अथवा ग्रैंडट्रंक रोड (एनएच-2) से कैमूर जिला के मोहनियां (भभुआ रोड) अथवा कुदरा स्‍टेशन तक पहुंचें। वहां से मुंडेश्‍वरी धाम तक सड़क जाती है जो वाहन से महज आधा-पौन घंटे का रास्‍ता है। मंदिर के अंदर पहुंचने के लिए पहाड़ को काटकर शेडयुक्‍त सीढियां और रेलिंगयुक्‍त सड़क बनायी गयी हैं। जो लोग सीढियां नहीं चढ़ना चाहते, वे सड़क मार्ग से कार, जीप या बाइक से पहाड़ के ऊपर मंदिर में पहुंच सकते हैं।

मुंडेश्‍वरी धाम में श्रद्धालुओं का सालों भर आना लगा रहता है, लेकिन नवरात्र के मौके पर वहां विशेष भीड़ रहती है।

Wednesday, August 20, 2008

महाकवि निराला की कविता : चर्खा चला


वेदों का चर्खा चला,
सदियां गुजरीं।
लोग-बाग बसने लगे।
फिर भी चलते रहे।
गुफाओं से घर उठाये।
उंचे से नीचे उतरे।
भेड़ों से गायें रखीं।
जंगल से बाग और उपवन तैयार किये।

खुली जबां बंधने लगी।
वैदिक से संवर दी भाषा संस्‍कृत हुई।
नियम बने, शुद्ध रूप लाये गये,
अथवा जंगली सभ्‍य हुए वेशवास से।
कड़े कोस ऐसे कटे।
खोज हुई, सुख के साधन बढ़े-
जैसे उबटन से साबुन।

वेदों के बाद जाति चार भागों में बंटी,
यही रामराज है।
वाल्‍मीकि ने पहले वेदों की लीक छोड़ी,
छन्‍दों में गीत रचे, मंत्रों को छोड़कर,
मानव को मान दिया,
धरती की प्‍यारी लड़की सीता के गाने गाये।

कली ज्‍योति में खिली
मिट्टी से चढ़ती हुई।
''वर्जिन स्‍वैल'', ''गुड अर्थ'', अब के परिणाम हैं।
कृष्‍ण ने भी जमीं पकड़ी,
इन्‍द्र की पूजा की जगह
गोवर्धन को पुजाया,
मानव को, गायों और बैलों को मान दिया।

हल को बलदेव ने हथियार बनाया,
कन्‍धे पर डाले फिरे।
खेती हरी-भरी हुई।
यहां तक पहुंचते अभी दुनियां को देर है।


(कविता राग-विराग तथा चित्र विकिपीडिया से साभार)