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Sunday, June 1, 2008

लोहे के चने चबाती जनता और जड़वत सरकार

देश में महंगाई खासकर लोहे व स्टील की बढी कीमतों पर 'अमर उजाला' के रविवार के इंटरनेट संस्करण में सूर्य कुमार पांडेय का 'लोहे का चना' शीर्षक से शानदार व्यंग्य छ्पा हुआ है। हम उसे यहां साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। मेरी टाइपिंग की सीमाओं की वजह से कहीं-कहीं अशुद्धियां रह गयी हैं, जिसके लिये मैं माफ़ी चाहूंगा।

किसी से लोहा लेना पहले भी आसान नहीं था। अब तो कतई नहीं है। पहले लोग शनिवार को ही लोहा नहीं खरीदते थे। अब तो होल वीक मुश्किल है। किसी हार्डवेयर की दुकान पर जाइए, लोहे का भाव पूछिए। आप की सारी अकड मोम न हो जाये, तो कहियेगा। जब से बाजार में स्टील के भाव बढे हैं, जेब की रिब्ड आयरन जैसी हेकडी सीधी-सपाट सरिया हो गयी है।

मुझे अपने लिये एक पैकेट कील की जरूरत थी। बढी कीमतें सुनीं, तो लहराने लग गया। दुकानदार ने कहा, 'बीजिंग्स में ओलंपिक्स होनेवाले हैं। सारा माल उधर ही सप्लाई हो रहा है। दूसरी दुकान पे गया, तो बताया गया, 'वैट लगने से लोहे की वैल्यू एड हो गई है।' तीसरे बेचू भाई ने लोहे से लोहा काटते हुए समझाया, 'महंगाई की चपेट में सारी चीजें हैं। भला लोहा कैसे अछूता रह सकता है?'

बगल में एक कस्टमर खडा था। लगता था, ताजा-ताजा लोहे की राड से पिटा है। रोते हुए बोला, 'सारा माल तो बिल्डर्स खरीद ले रहे हैं। इतनी फ़ैक्टरी, फ़्लैट्स, मल्टीस्टोरीज बन रही हैं'। उनमें लोहे की ही तो खपत है! दद्दू, हम-आप जैसे आम आदमियों की फ़िकर न ही सरकार को है, न बाजार को।'

हालांकि मैनें लोहे के चने कभी नहीं देखे, मगर लोहे के चने चबाने का अनुभव बरोबर है। एक बार मेरे पांव में लोहे का जंग लगा टुकडा घुस गया था। एटीस का टीका लगवाने के लिये डाक्टर का दरवाजा आधी रात में खुलवाना पडा था। तब से ही मैं इस लोहे का लोहा मानता आया हूं। आज जब कि मार्केट से उच्चतम दाम पर कीलों का पैकेट खरीदकर लौट रहा हूं, मैं सोचता हूं कि ये मेरे घर की दीवारों पर बाद में ठुकेंगी, अभी तो मेरे दिल में ही गड रही हैं। मुझे लकडहारे की वह कहानी याद आ रही है, जिसमें कुएं में गिरी हुइ लोहे की कुल्हाडी के बदले वह सोने-चांदी की कुल्हाडियां लेने को तैयार नहीं हुआ था। मुमकिन है, उस दौर में भी आज की तरह स्टील के भाव चढे रहे होंगे।

एक अदना सी लोहे की कील की चुभन से हलकान मैं सोचता हूं, इन दिनों इस मुल्क की आम पब्लिक भीषण महंगाई से कैसे लोहा ले रही है। आश्चर्य तो यह है कि सरकार लौह्स्तम्भ-सी जडवत किंकर्तव्यविमूढ गडी पडी है। व्यवस्था पर लोहे का भारी ताला लटक रहा है, जिसकी कुंजी गुम है। अब भला चाभी खोजती हुइ यह भकुआई-सी जनता किस-किस लौहपुरुष की जेबों की तलाशियां लेती फ़िरेगी!

Sunday, May 18, 2008

लोहे की बढ़ी कीमतें हैं महंगाई का रक्तबीज

खच्चर बोझ भी ढोता है और गाली भी सुनता है। हमारे देश में किसानों की स्थिति उस निरीह जानवर से बेहतर नहीं है। पहले से ही आत्महत्या कर रहे किसानों के लिए हाल की महंगाई प्राणलेवा है, इसके बावजूद उन्हें इसका बोझ उठाने को विवश किया जा रहा है। महंगाई रोक पाने में सरकार की नाकामी का मुख्य कारण उसकी नीतिऔर नियत में यह खोट ही है।

केन्द्र सरकार के बयानों व मीडिया में छाई खबरों से यह आभास होता है कि खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ने से महंगाई बढ़ी है। हमारे कई पत्रकार भाइयों के लिए महंगाई का मतलब 'थाली' की महंगाई है। 'महंगी हुई थाली, जेब हो रही खाली'- इस तरह के जुमले उछालना उनका प्रिय शगल है। यहाँ उनका मतलब थाली में परोसे जाने वाले अनाज व सब्जियों से होता है। मारवाड़ी ढाबों व उनकी तर्ज पर चलने वाले होटलों व रेस्तराओं में भी थाली का मतलब यही होता है। यह सही आकलन नहीं है। हालिया महंगाई का सम्बन्ध थाली से ही है। लेकिन यहाँ थाली का मतलब सिर्फ़ थाली है- स्टील निर्मित थाली, उसमें परोसी गई चीजें नहीं।

देश में महंगाई लोहे की कीमत बढ़ने से बढ़ी हैं। कृषि ऋण माफ़ी की घोषणा और छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद बने चुनावी माहौल में लोहे की कीमतों में एकाएक उछाल आया, और यही महंगाई के लिए रक्तबीज का काम कर रहा है। कल-कारखाने, मोटर-वाहन, कंप्यूटर, साइकिल, बर्तन, कृषि उपकरण, चापाकल, स्टोव, सिलेंडर व बनावटी गहनों से लेकर रिक्शा, टमटम और ठेले तक सब लोहे से बनते हैं। भवन निर्माण, सड़क निर्माण, विद्युत संयंत्र, पेयजल आपूर्ति- लोहे के बिना कुछ भी संभव नहीं। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में गंगा के मैदानी इलाकों में कृषि, नगरों तथा जैन व बौद्ध सरीखे नए धार्मिक पंथों के विकास में लोहे की कितनी अहम् भूमिका रही, यह वामपंथी इतिहासकारों की पुस्तकों व एनसीईआरटी की कीताबों में दर्ज है। जिस लोहे ने ढाई हजार साल पहले काशी, कौशाम्बी, राजगृह, वैशाली, चंपा, श्रावस्ती, पाटलिपुत्र जैसे शहरों का उद्भव सम्भव बनाया, वह आधुनिक युग में बाजार की कीमतों को प्रभावित नहीं करेगा?

आश्चर्य है कि इतनी सामान्य बात हमारे विद्वान् अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री व वित्तमंत्री नहीं समझते। हो सकता है वे समझना ही नहीं चाहते हों, उनकी कुछ राजनैतिक मजबूरियां हों।

मर्ज का इलाज किए बिना फल और सब्जी खिलाकर मरीज को चंगा करना मुमकिन नहीं। महंगाई को नियंत्रित करना है तो लोहे की कीमतों को पिछले साल के दिसम्बर माह के स्तर पर ले जाना होगा। दूसरा कोई विकल्प नहीं।

बाजार का खुदरा दूकानदार ग्राहक से कीमत सेंसेक्स के उतार-चढाव देख नहीं, क्रय-मूल्य देख वसूल करता है। लोहे की कीमतें किस कदर बढ़ी हैं, उसका दर्द बाजार में लोहे के सामान खरीदने वालों को ही पता चल रहा है। लोहे का जो सरिया (छड़) दिसम्बर 2007 में 27 रूपए प्रति किलो मिलता था, वह माल 2008 में 52 रूपए की दर से बिक रहा है. मतलब पिछले साल की तुलना में करीब दोगुनी कीमत पर। फैक्टरी-निर्मित अन्य चीजों की कीमतें भी बड़ी चालाकी से बढ़ा दी गयी हैं। सस्ते वाशिंग पाउडर के 10 रूपए के पैकेट में पिछले साल 500 ग्राम माल होता था, अब करीब 350 ग्राम माल ही रह रहा है।

देश में अनाजों व सब्जियों के दाम पर इतनी हाय-तौबा की जा रही है, लेकिन हकीकत यह है की लोहे की महंगाई की तुलना में इनकी कीमतों में बढोतरी नगण्य है। हरी सब्जियां गर्मियों में कम निकलती हैं, इसलिए इस समय उनकी कीमत हर साल अधिक रहती है। फिर आलू जैसी कुछ सब्जियां तो इतनी सस्ती है की किसानों की लागत तक नहीं निकल पा रही है। हमारे यहाँ आज की तारीख में किसानों से ढाई रूपए किलो की दर से आलू खरीदने को भी कोई व्यापारी तैयार नहीं। अधिकांश अनाजें आज भी दिसम्बर 2007 वाली कीमतों पर ही बिक रही हैं।

यदि किसी मंडी में अनाज महंगा है तो वह महंगाई नहीं, जमाखोरी, मुनाफाखोरी व कालाबाजारी के कारन है। मुनाफाखोरी व जमाखोरी को महंगाई नाम दे देना उन आर्थिक अपराधियों का बचाव करना है। सरसों तेल की कीमत जमाखोरी के कारण ही बढ़ी थी, किसानों ने नहीं बढ़ाई थी। और फिर अनाज की कीमतें अधिक हैं, तो सरकार ने किसानों को भी उन अधिक कीमतों का लाभ क्यों नहीं दिया? केन्द्र सरकार इस साल भी किसानों से गेहूँ की खरीद पिछले साल के समर्थन मूल्य 1000 रूपए प्रति क्विंटल की दर से ही कर रही है।

सच तो यह है की महंगाई की सबसे अधिक मार किसानों पर ही पड़ी है। उनके जीवन-यापन का व्यय बढ़ गया, कृषि लागत बढ़ गयी, लेकिन अनाज का समर्थन मूल्य पिछले साल वाला ही रहा। इस वर्ष के आरंभ में कृषि व किसानों के संकट पर खूब आंसू बहाए जा रहे थे। खाद्यान्न संकट का रोना रोया जा रहा था। कहा जा रहा था की देश के किसान अनाज की खेती से विमुख हो रहे हैं। किसानों से हमदर्दी दिखाने में कोई भी राजनैतिक दल पीछे नहीं था। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता सीताराम येचुरी ने जनवरी 2008 में कृषि पर एसोचैम की अध्ययन रिपोर्ट जारी करते हुए गेहूं का समर्थन मूल्य 1250 रूपए और धान का समर्थन मूल्य 1000 रूपए करने की मांग की थी। किसानों की माली हालत सुधारने के लिए उनहोंने उस समय ऐसा जरुरी माना था। ये आंसू कहाँ चले गए? क्या महंगाई ने किसानों की माली हालत सुधार दी? क्या अब उद्योगपति और सेठ-साहूकार अपने जायज-नाजायज मुनाफे में से राजनैतिक पार्टियों के बजाय किसानों को चन्दा देने लगे हैं?

धन्य हैं भारत भाग्य विधाता। समर्थन मूल्य पाई भर भी नहीं बढाया, फिर भी कह रहे हैं कि अनाज मंहगे हैं। लोहे की कीमत डबल हो गई, फिर भी फरमाते हैं कि कीमतें कम हो रही है।