देश में महंगाई खासकर लोहे व स्टील की बढी कीमतों पर 'अमर उजाला' के रविवार के इंटरनेट संस्करण में सूर्य कुमार पांडेय का 'लोहे का चना' शीर्षक से शानदार व्यंग्य छ्पा हुआ है। हम उसे यहां साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। मेरी टाइपिंग की सीमाओं की वजह से कहीं-कहीं अशुद्धियां रह गयी हैं, जिसके लिये मैं माफ़ी चाहूंगा।
किसी से लोहा लेना पहले भी आसान नहीं था। अब तो कतई नहीं है। पहले लोग शनिवार को ही लोहा नहीं खरीदते थे। अब तो होल वीक मुश्किल है। किसी हार्डवेयर की दुकान पर जाइए, लोहे का भाव पूछिए। आप की सारी अकड मोम न हो जाये, तो कहियेगा। जब से बाजार में स्टील के भाव बढे हैं, जेब की रिब्ड आयरन जैसी हेकडी सीधी-सपाट सरिया हो गयी है।
मुझे अपने लिये एक पैकेट कील की जरूरत थी। बढी कीमतें सुनीं, तो लहराने लग गया। दुकानदार ने कहा, 'बीजिंग्स में ओलंपिक्स होनेवाले हैं। सारा माल उधर ही सप्लाई हो रहा है। दूसरी दुकान पे गया, तो बताया गया, 'वैट लगने से लोहे की वैल्यू एड हो गई है।' तीसरे बेचू भाई ने लोहे से लोहा काटते हुए समझाया, 'महंगाई की चपेट में सारी चीजें हैं। भला लोहा कैसे अछूता रह सकता है?'
बगल में एक कस्टमर खडा था। लगता था, ताजा-ताजा लोहे की राड से पिटा है। रोते हुए बोला, 'सारा माल तो बिल्डर्स खरीद ले रहे हैं। इतनी फ़ैक्टरी, फ़्लैट्स, मल्टीस्टोरीज बन रही हैं'। उनमें लोहे की ही तो खपत है! दद्दू, हम-आप जैसे आम आदमियों की फ़िकर न ही सरकार को है, न बाजार को।'
हालांकि मैनें लोहे के चने कभी नहीं देखे, मगर लोहे के चने चबाने का अनुभव बरोबर है। एक बार मेरे पांव में लोहे का जंग लगा टुकडा घुस गया था। एटीस का टीका लगवाने के लिये डाक्टर का दरवाजा आधी रात में खुलवाना पडा था। तब से ही मैं इस लोहे का लोहा मानता आया हूं। आज जब कि मार्केट से उच्चतम दाम पर कीलों का पैकेट खरीदकर लौट रहा हूं, मैं सोचता हूं कि ये मेरे घर की दीवारों पर बाद में ठुकेंगी, अभी तो मेरे दिल में ही गड रही हैं। मुझे लकडहारे की वह कहानी याद आ रही है, जिसमें कुएं में गिरी हुइ लोहे की कुल्हाडी के बदले वह सोने-चांदी की कुल्हाडियां लेने को तैयार नहीं हुआ था। मुमकिन है, उस दौर में भी आज की तरह स्टील के भाव चढे रहे होंगे।
एक अदना सी लोहे की कील की चुभन से हलकान मैं सोचता हूं, इन दिनों इस मुल्क की आम पब्लिक भीषण महंगाई से कैसे लोहा ले रही है। आश्चर्य तो यह है कि सरकार लौह्स्तम्भ-सी जडवत किंकर्तव्यविमूढ गडी पडी है। व्यवस्था पर लोहे का भारी ताला लटक रहा है, जिसकी कुंजी गुम है। अब भला चाभी खोजती हुइ यह भकुआई-सी जनता किस-किस लौहपुरुष की जेबों की तलाशियां लेती फ़िरेगी!
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
-
प्रा चीन यूनान के शासक सिकंदर (Alexander) को विश्व विजेता कहा जाता है। लेकिन क्या आप सिकंदर के गुरु को जानते हैं? सिकंदर के गुरु अरस्तु (Ari...
-
भाषा का न सांप्रदायिक आधार होता है, न ही वह शास्त्रीयता के बंधन को मानती है। अपने इस सहज रूप में उसकी संप्रेषणयीता और सौन्दर्य को देखना हो...
-
हमारे गांवों में एक कहावत है, 'जिसकी खेती, उसकी मति।' हालांकि हमारे कृषि वैज्ञानिक व पदाधिकारी शायद ऐसा नहीं सोचते। किसान कोई गलत कृ...
-
आज पहली बार हमारे गांव के मैनेजर बाबू को यह दुनिया अच्छे लोगों और अच्छाइयों से भरी-पूरी लग रही है। जिन पढ़े-लिखे शहरी लोगों को वे जेठ की द...
-
आज के समय में टीवी व रेडियो पर मौसम संबंधी जानकारी मिल जाती है। लेकिन सदियों पहले न टीवी-रेडियो थे, न सरकारी मौसम विभाग। ऐसे समय में महान कि...
सरकार उत्तरोत्तर एक माइनर फैक्टर बनती गयी है मंहगाई नियन्त्रण में।
ReplyDelete