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Monday, July 20, 2009

फिर वह दिन याद करें.. चांद के पार चलें..

चांद पर मानव के पहुंचने की ऐतिहासिक घटना की चालीसवीं वर्षगांठ को दुनिया भर में अपने-अपने अंदाज में मनाया जा रहा है. इस मौके पर गूगल ने सोमवार को Moon in Google Earth जारी किया, जहां चंद्रमा से संबंधित चित्रों और जानकारियों का अवलोकन किया जा सकता है. इस संबंध में गूगल के अधिकृत ब्‍लॉग पर पहली महिला प्राइवेट अंतरिक्ष यात्री अनौशेह अंसारी की पोस्‍ट पढ़ने लायक है. उम्‍मीद है उस अविस्‍मरणीय उपलब्धि पर सरिता झा व राम यादव की यह रिपोर्ट भी आपको ज्ञानवर्धक और पठनीय लगेगी जिसे डॉयच वेले से साभार उद्धृत किया जा रहा है :
''1903 में राइट बंधुओं का पहला हवाई जहाज़ उड़ा. 1957 में पहला कृत्रिम उपग्रह स्पुतनिक-1 अंतरिक्ष में पहुंचा. 1961 में यूरी गागारिन पहले अंतरिक्षयात्री बने. 8 वर्ष बाद आदमी चंद्रमा पर भी पहुंचा. चांद पर जाने के 40 साल पूरे.''
वह 20 जुलाई 1969 का दिन था. भारत में सुबह के छह बजे थे. तभी, कोई चार लाख किलोमीटर दूर चंद्रमा पर से एक ऐसी आवाज़ आई, जिसके साथ मानव सभ्यता का एक सबसे पुराना सपना साकार हो गया: "दि ईगल हैज़ लैंडेड" (ईगल चंद्रमा पर उतर गया है). अपने अवतरण यान ईगल के साथ अमेरिका के नील आर्मस्ट्रांग और एडविन एल्ड्रिन चंद्रमा पर उतर गए थे. उनके तीसरे साथी माइकल कॉलिंस परिक्रमा यान कोलंबिया में चंद्रमा की परिक्रमा कर रहे थे. कोई ढाई घंटे बाद नील आर्मस्ट्रांग ने चांद पर अपना पहला क़दम रखा. 40 साल पहले के इस ऐतिहासिक पल को पचास करोड़ लोगों ने दिल थाम कर टेलीविजन पर देखा.

मानवता की लंबी छलांग

अवतरण यान ईगल से निकलकर चांद की सतह पर अपने पैर रखते हुए आर्मस्ट्रांग ने कहा था, "चांद पर मनुष्य का यह एक छोटा-सा क़दम है, लेकिन मानवता के लिए एक बहुत बड़ी छलांग है." नील आर्मस्ट्रांग उस समय 39 वर्ष के थे. मानवता के इतिहास में पहली बार कोई आदमी चांद पर चल-फिर रहा था. यह विचरण दो घंटे से कुछ अधिक समय तक चला था. चंद्रमा की बहुत कम गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण आर्मस्ट्रांग वास्तव में कंगारू की तरह उछल-उछल कर चल रहे थे. वह एक अपूर्व रोमांचक क्षण था, मानो सभी पृथ्वीवासी उनके साथ चंद्रमा की धूलभरी सतह पर कूद रहे थे.

वह तत्कालीन सोवियत संघ और अमेरिका के बीच शीतयुद्ध का भी ज़माना था. दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे थे. 1957 में सोवियत संघ ने, जो अब रूस कहलाता है, अपना पहला यान स्पुतनिक-1 अंतरिक्ष में भेज कर और 1961 में संसार के पहले अंतरिक्ष यात्री यूरी गागारिन को पृथ्वी की कक्षा में पहुंचाकर अमेरिका को नीचा दिखा दिया था.

अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ़ केनेडी ने चांद पर मानव को सबसे पहले भेजने और सुरक्षित वापस लाने का बीड़ा उठाया, "इसलिए नहीं कि यह काम आसान है, बल्कि इसलिए वह बहुत मुश्किल है."

भाग्य का भी साथ रहा

इतना मुश्किल कि यदि भाग्य और भगवान ने साथ नहीं दिया होता, तो आर्मस्ट्रांग और एल्ड्रिन चंद्रमा पर से जीवित नहीं लौट पाए होते. अवतरण यान ईगल जब चंद्रमा की परिक्रमा कर रहे कोलंबिया से अलग होकर नीचे की ओर जा रहा था, तभी लगभग अंतिम क्षम में एल्ड्रिन ने देखा कि वे एक क्रेटर वाले ऐसे गड्ढे में उतरने जा रहे हैं, जहां से लौट नहीं पाएंगे. उन्होंने अवतरण यान का इंजन चालू कर उसे क्रेटर से दूर ले जाने का प्रयास किया. इस में इतना ईंधन जल गया कि सुरक्षित स्थान पर उतरने तक यदि 17 सेंकंड और देर हो जाती, तो यान चंद्रमा से टकरा कर ध्वस्त हो जाता.

इसी तरह चंद्रमा से प्रस्थान के समय अवतरण यान ईगल का इंजन चालू करने के बटन ने जवाब दे दिया. दोनों चंद्रयात्रियों के सामने एक बार फिर मौत का ख़तरा आ खड़ा हुआ. अंतिम क्षण में एल्ड्रिन को ही यह विचार आया कि उन्हें अपने फ़ेल्ट पेन से इंजन चालू करने वाले बटन का काम लेना चाहिये. उन्होंने यही किया और इंजन चालू हो गया.

ऐसी ही कुछ और बातें याद करने पर कहना पड़ता है कि 40 वर्ष पूर्व के दोनों प्रथम चंद्रयात्रियों की पृथ्वी पर सकुशल वापसी किसी चमत्कार से कम नहीं थी.

अब तक 12 चंद्रयात्री


1969 से 1972 के बीच कुल 12 अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री चंद्रमा पर उतरे और सकुशल वापस लौटे. अपोलो-13 की उड़ान केवल इस दृष्टि से सफल रही कि दुर्भाग्‍य और दुर्घटना की कोपदृष्टि के बावजूद उसके तीनों यात्री जैसे-तैसे पृथ्‍वी पर जीवित लौटने में कामयाब रहे. 7 दिसंबर 1972 को अपोलो 17 मिशन के दो अंतरिक्ष यात्रियों का चंद्रमा पर अवतरण और विचरण अब तक की अंतिम समानव चंद्रयात्रा थी.

अपोलो 17 ही एकमात्र ऐसी चंद्रयात्रा थी, जिस में कोई भूवैज्ञानि (जियोलॉजिस्ट) चन्द्रमा पर उतरा था और वहां से सौ किलो से अधिक कंकड़ पत्थर और मिट्टी साथ ले आया था.

वैसे चंद्रमा पर जाकर लौटे सभी 12 अमेरिकी चंद्रयात्री अपने साथ जो कंकड़ पत्थर और मिट्टी लाए थे, उसका कुल वज़न करीब 400 किलो पड़ता है. 80 प्रतिशत नमूने तीन अरब 80 करोड़ वर्ष से भी पुराने हैं. उन्हें परीक्षण या संरक्षण के लिए बाद में अनेक देशों के बीच बांट दिया गया.

पृथ्वी जैसी ही बनावट


चंद्रमा की मिट्टी और चट्टानों में भी वे सारे खनिज पदार्थ मिलते हैं, जो हमारी धरती पर भी पाए जाते हैं. अंतर इतना ही है कि उन पर पानी, हवा या वनस्पतियों का कोई प्रभाव नहीं देखने में आता, क्योंकि ये चीज़ें वहां हैं ही नहीं. वहां की मिट्टी काले-स्लेटी रंग की है. उसमें कांच जैसे महीन कण मिले हुए जो शायद ऊंचे तापमान में सिलिका कणों के पिघल जाने से बने हैं.

चंद्रमा ही हमारी पृथ्वी का एकमात्र उपग्रह है. उसके पास अपना कोई वायुमंडल नहीं है. वह पूरी तरह सूखा हुआ निर्जीव मरुस्थल है. उसकी ऊपरी सतह चेचक के दाग़ की तरह छोटे बड़े क्रेटरों और गड्ढों से भरी हुई है. कोई ज्वालामुखी उद्गार अब नहीं होते. कोई चुंबकीय क्षेत्र भी नहीं है. चुंबकीय दिशासूचक वहां काम नहीं कर सकता. पृथ्वी जैसी कोई सुबह-शाम नहीं होती. गुरुत्वाकर्षण शक्ति पृथ्वी की अपेक्षा छः गुना कम है. जो चीज़ पृथ्वी पर 60 किलो भारी होगी, वह चंद्रमा पर केवल दस किलो भारी रह जाएगी. इसीलिए वहां से मंगल ग्रह या अन्य जगहों के लिए उड़ान करना आसान होगा. लेकिन, तापमान में ज़मीन आसमान का अंतर है. जहां सूरज की धूप हो, यानी दिन हो, वहां तापमान 107 डिग्री सेल्ज़ियस तक चढ़ जाता है, जो भाग अंधेरे में हो, वहां ऋण 153डिग्री तक गिर जाता है. हमरी पृथ्वी पर कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां इतनी भयंकर गर्मी या सर्दी पड़ती हो.

अब मंगल की बारी है


40 वर्ष बाद चंद्रमा पर उतरने की एक बार फिर अच्छी ख़ासी होड़ लगने वाली है. उसे मंगल ग्रह पर पहुंचने के लिए बीच में एक अच्छे पड़ाव के तौर पर देखा जा रहा है, जैसा कि जर्मन अंतरिक्ष अधिकरण डी एल आर में भावी चंद्र उड़ान परियोजना के प्रमुख फ्रीडहेल्म कलाज़न का कहना है, "चंद्रमा के बाद मंगल ग्रह को छोड़कर और किसी ग्रह पर मनुष्य का पहुंचना विवेकसम्मत नहीं लगता. इसलिए सभी चंद्रमा पर जाने और वहां से आगे की उड़ानों का अभ्यास करने और सीखने की सोच रहे हैं."

Monday, July 13, 2009

फिलीपीन्‍स की सड़कों पर चल रही इन बांस की टैक्सियों को तो देखिए !

क्‍या आप ने कभी सोचा है कि बांस से कार या टैक्‍सी भी बन सकती है? नीचे के छायाचित्रों को देखिए। इन टैक्सियों का 90 फीसदी हिस्‍सा बांस का है और ये नारियल से तैयार बायोडीजल पर चलती हैं। इन्‍हें ईको टैक्‍सी (ECO taxis) नाम दिया गया है तथा फिलहाल इनके दो मॉडल तैयार किए गए हैं : ईको 1 और ईको 2 । ईको 1 में 20 आदमी बैठ सकते हैं। एक गैलन बायोडीजल में यह आठ घंटे तक चलती है। ईको 2 भी एक गैलन बायोडीजल में आठ घंटे चलती है, हालांकि इसमें 8 आदमी ही बैठ सकते हैं। वैसे ईको 2 में स्‍टीरियो साउंड सिस्‍टम भी है।

दरअसल ये बांस की टैक्सियां फिलीपीन्‍स के टाबोंटाबोन शहर के मेयर रूस्टिको बाल्‍डेरियन के सोच की उपज हैं, जिन्‍होंने शहरवासियों की जरूरतों को ध्‍यान में रख इन्‍हें तैयार कराया। धान की खेती के लिए जाने जानेवाले इस छोटे-से शहर में लोगों के आवागमन का मुख्‍य साधन मोटरसाइकिलें हैं। भाड़े के वाहनचालक पांच-छह लोगों को बैठाकर मोटरसाइकिलें चलाते हैं, जो असुविधाजनक और खतरनाक दोनों है। आवागमन के साधन के रूप में इन मोटरसाइकिलों के विकल्‍प के तौर पर बांस की टैक्सियों को तैयार किया गया है। इनकी लागत तो कम है ही, ये सुरक्षित और पर्यावरण हितैषी (eco friendly) भी हैं। बांस तेजी से नवीनीकरण होने योग्‍य वस्‍तु है तथा स्‍थानीय तौर पर प्रचुरता में उपलब्‍ध है। बांस काफी लचीला होता है और इस दृष्टि से इसकी मजबूती भी कम नहीं आंकी जा सकती। सबसे महत्‍वपूर्ण बात है कि इन टैक्सियों को स्‍थानीय स्‍तर पर पर स्‍थानीय सामग्री से स्‍थानीय युवकों ने तैयार किया है।







यदि संबंधित खबर को अंग्रेजी में पढ़ना चाहते हों तो इन कडियों पर जाएं : TOTI Eco और Inhabitat.

Tuesday, June 30, 2009

धरती का सर्वाधिक संपूर्ण डिजीटल नक्‍शा प्रकाशित

अमेरिकी अंतरिक्ष संगठन नासा और जापानी अर्थव्‍यवस्‍था, वाणिज्‍य व उद्योग मंत्रालय ने मिलकर पृथ्वी की सतह का अब तक का सबसे संपूर्ण और विहंगम नक्शा तैयार किया है। अपनी तरह के इस पहले डिजीटल टोपोग्राफिक नक्शे के डेटा में क़रीब 13 लाख छवियां हैं, जिनमें अमेरिका की मौत की घाटी से लेकर हिमालय की अथाह ऊंचाइयों तक धरती के करीब सभी दुर्गम कोने शामिल हैं।

धरती की लगभग यह संपूर्ण तस्‍वीर अमेरिका के टेरा (Terra) नामक उपग्रह से जापान के एस्‍टर (ASTER - Advanced Spaceborne Thermal Emission and Reflection Radiometer) नामक शक्तिशाली डिजीटल कैमरा से उतारी गयी है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस अभूतपूर्व नक्शे में पृथ्वी की 99 फीसदी सतह कवर हो गयी है। इसे नाम दिया गया है ग्लोबल डिजीटल इलिवेशन मैप (Global Digital Elevation Map)। यह नक्शा प्रकाशित कर दिया गया है और कोई भी इसे डाउनलोड या इस्तेमाल कर सकता है।

एस्‍टर परियोजना से जुड़े नासा के वैज्ञानिक वुडी टर्नर कहते हैं – ‘’यह दुनिया में उपलब्‍ध अब तक का सबसे संपूर्ण व सुसंगत ग्‍लोबल डिजीटल इलेवेशन डेटा है। आंकड़ों का यह अनूठा भूमंडलीय संग्रह उन उपयोगकर्ताओं व अनुसंधानकर्ताओं के लिए काफी काम का होगा जिन्‍हें धरती के सतह व उठाव संबंधी जानकारियों की जरूरत होती है। परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक माइक अब्राम्स के मुताबिक यह डेटा इंजीनियरिंग, ऊर्जा-दोहन, प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, पर्यावरणीय प्रबंधन, लोक निर्माण उद्यमों, अग्निशमन, भूगर्भ विज्ञान, मनोरंजन और शहर नियोजन जैसे क्षेत्रों में अपनी बेमिसाल भूमिका निभा सकता है।

इससे पहले इस तरह का सबसे संपूर्ण टोपोग्राफिक डेटा नासा के शटल रडार टोपोग्राफी मिशन का था, जिसने पृथ्वी के 80 फ़ीसदी भूभाग का मानचित्र उतारा था। यदि आप इस संबंध में ज्‍यादा जानकारी के इच्‍छुक हैं तो निम्‍नलिखित कडि़यों का अवलोकन कर सकते हैं :

NASA, Japan Release Most Complete Topographic Map of Earth

ASTER Global Digital Elevation Map Announcement

Thursday, June 25, 2009

35 हजार साल पहले भी थी संगीत की परंपरा, तब की बांसुरी मिली !

पुरा पाषाणकालीन मानव द्वारा खेती और पशुपालन आरंभ करने के साक्ष्‍य भले न मिले हों, लेकिन उनके कलाप्रेम के प्रमाण मिलते रहे हैं। उनके बनाए चित्रों के नमूने दुनिया भर में गुफाओं व शैलाश्रयों में मिले हैं। हाल ही में दक्षिण जर्मनी में एक ऐसी महत्‍वपूर्ण खोज हुई है, जिससे उस युग के मानव के संगीत से जुड़ाव की जानकारी मिलती है।

जर्मनी में खोजकर्ताओं ने लगभग 35 हज़ार साल पुरानी बांसुरी खोज निकाली है और कहा जा रहा है कि यह दुनिया का अब तक प्राप्‍त प्राचीनतम संगीत-यंत्र है। प्रस्‍तर उपकरणों से गिद्ध की हड्डी को तराश कर बनायी गयी इस बांसुरी के टुकड़े वर्ष 2008 में दक्षिणी जर्मनी में होल फेल्स की पुरापाषाणकालीन गुफ़ाओं में मिले थे। जर्मनी के तूबिंजेन विश्वविद्यालय के पुरातत्व विज्ञानी निकोलस कोनार्ड ने उन टुकड़ों को असेंबल कर उस पर शोध किया। उनके नेतृत्‍व में उस प्रागैतिहासिक बांसुरी पर हुए शोध के नतीजे हाल ही में नेचर जर्नल में ऑनलाइन प्रकाशित हुए हैं। श्री कोनार्ड के मुताबिक बांसुरी करीब बीस सेंटीमीटर लंबी है और इसमें पांच छेद बनाए गए हैं। कोनार्ड कहते हैं, "स्पष्ट है कि उस समय भी समाज में संगीत का कितना महत्व था।" वहां इस बांसुरी के अलावा हाथी दांत के बने दो बांसुरियों के अवशेष भी मिले हैं। अब तक इस इलाक़े से आठ बांसुरियां मिली हैं। शोध के मुता‍बिक हड्डी से निर्मित यह बांसुरी उस समय का है जब आधुनिक मानव जाति का यूरोप में बसना शुरु हुआ था।

इस संदर्भ में उल्‍लेखनीय है कि दुनिया भर में पुरातात्विक खोजों में पुरा पाषाण युग (Palaeolithic Age) के मानव के जो औजार मिले हैं, वे सामान्‍यत: पत्‍थर, हांथी दांत, हड्डी या सीपियों के बने हैं। पक्षी के हड्डी से बनी यह बांसुरी उस युग के मानव में सर्जनात्‍मक क्षमता और सामुदायिक जीवन की भावना के हो रहे विकास की भी परिचायक है।



(चित्र व खबर के स्रोत : बीबीसी हिन्‍दी, uk.news.yahoo.com तथा नेशनल ज्‍योग्राफिक न्‍यूज)

Tuesday, April 28, 2009

आलू-गाजर की कार और 140 मील की रफ्तार... यह तो वाकई स्‍वादिष्‍ट है!

स्‍वाद वाली चीजों से सड़कों पर दौड़नेवाला वाहन तैयार किया जाए, यह सुनने में विचित्र लगता है। शायद इसीलिए आलू-गाजर से रेस कार बनाए जाने की खबर देखकर पहली बात जो मेरे मन में आयी वह यह कि यह कार है या स्‍वादिष्‍ट भोजन। लेकिन बात इतनी ही नहीं है। यह खबर हमें टिकाऊ विकास (sustainable development) के पर्यावरण-अनुकूल उपायों के प्रति आशावान बनाती है।

इंग्‍लैण्‍ड की वारविक युनिवर्सिटी की वर्ल्‍डफर्स्‍ट टीम ने एक ऐसी ही ईको-फ्रेंडली रेस कार तैयार की है, जो चॉकलेट और वेजिटेबल ऑयल से चलेगी। दुनिया की इस पहली वेजिटेबल कार का नाम ईको एफ 3 (ecoF3) रखा गया है। इसका स्टियरिंग व्‍हील गाजर से बना है, जबकि बॉडी आलू की है। सीट सोयाबीन से बनी है। इंजन भी बायोडीजल है। फलों, साग-सब्जियों व पौधों से निकाले गए वेजिटेबल फाइबर को रेजिन के साथ मिलाकर इस कार के अनेक पार्ट-पुर्जे बनाए गए हैं। जबकि चॉकलेट और अन्‍य पौधा आधारित चीजों से निकाले गए तेल को रिफाइन कर ईंधन और लुब्रिकेन्‍ट तैयार किए गए हैं। यह कार 140-45 मील प्रति घंटे की रफ्तार तक चल सकती है।

इस कार को मई में लांच किए जाने की योजना है। वर्ल्‍डफर्स्‍ट टीम चाहती है कि कार दौड़ का आयोजन करनेवाले अपने नियमों में संशोधन करें और अगले सत्र से गैरपरंपरागत नवीकरण योग्‍य ईंधन से चलनेवाली उनकी इस कार को रेस में शामिल कर लें।

वर्तमान में यह फार्मूला 3 कार, रेस के लिए वैध नहीं है क्‍योंकि चॉकलेट आधारित ईंधन उनकी स्‍वीकृत ईंधन सूची में शामिल नहीं है। जबकि वर्ल्‍डफस्‍ट टीम यह साबित करना चाहती है कि ईको-फ्रेंडली कार का मतलब धीमी रफ्तार वाली उबाऊ कार नहीं है। उसके प्रवक्‍ता का कहना है, ‘हमें उम्‍मीद है कि भविष्‍य में फार्मूला वन कारों में नई सामग्री का उपयोग किया जाएगा।‘