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Wednesday, August 6, 2008

किसान महाकवि घाघ और उनकी कविताएं

आज के समय में टीवी व रेडियो पर मौसम संबंधी जानकारी मिल जाती है। लेकिन सदियों पहले न टीवी-रेडियो थे, न सरकारी मौसम विभाग। ऐसे समय में महान किसान कवि घाघ व भड्डरी की कहावतें खेतिहर समाज का पीढि़यों से पथप्रदर्शन करते आयी हैं। बिहार व उत्‍तरप्रदेश के गांवों में ये कहावतें आज भी काफी लोकप्रिय हैं। जहां वैज्ञानिकों के मौसम संबंधी अनुमान भी गलत हो जाते हैं, ग्रामीणों की धारणा है कि घाघ की कहावतें प्राय: सत्‍य साबित होती हैं।

घाघ और भड्डरी के जीवन के बारे में प्रामाणिक तौर पर बहुत ज्ञात नहीं है। उनके द्वारा रचित साहित्‍य का ज्ञान भी ग्रामीणों ने किसी पुस्‍तक में पढ़ कर नहीं बल्कि परंपरा से अर्जित किया है। कहावतों में बहुत जगह 'कहै घाघ सुनु भड्डरी', 'कहै घाघ सुन घाघिनी' जैसे उल्‍लेख आए हैं। इस आधार पर आम तौर पर माना जाता है कि भड्डरी घाघ कवि की पत्‍नी थीं। हालांकि अनेक लोग घाघ व भड्डरी को पति-पत्‍नी न मानकर एक ही व्‍यक्ति अथवा दो भिन्‍न-भिन्‍न व्‍यक्ति मानते हैं।

घाघ और भड्डरी की कहावतें नामक पुस्‍तक में देवनारायण द्विवेदी लिखते हैं, ''कुछ लोगों का मत है कि घाघ का जन्म संवत् 1753 में कानपुर जिले में हुआ था। मिश्रबंधु ने इन्हें कान्यकुब्ज ब्राह्मण माना है, पर यह बात केवल कल्पना-प्रसूत है। यह कब तक जीवित रहे, इसका ठीक-ठाक पता नहीं चलता।''

यहां हम प्रस्‍तुत कर रहे हैं महाकवि घाघ की कुछ कहावतें व उनका अर्थ :

सावन मास बहे पुरवइया।
बछवा बेच लेहु धेनु गइया।।


अर्थात् यदि सावन महीने में पुरवैया हवा बह रही हो तो अकाल पड़ने की संभावना है। किसानों को चाहिए कि वे अपने बैल बेच कर गाय खरीद लें, कुछ दही-मट्ठा तो मिलेगा।

शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय।
तो यों भाखै भड्डरी, बिन बरसे ना जाए।।


अर्थात् यदि शुक्रवार के बादल शनिवार को छाए रह जाएं, तो भड्डरी कहते हैं कि वह बादल बिना पानी बरसे नहीं जाएगा।

रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय।
कहै घाघ सुन घाघिनी, स्वान भात नहीं खाय।।

अर्थात् यदि रोहिणी पूरा बरस जाए, मृगशिरा में तपन रहे और आर्द्रा में साधारण वर्षा हो जाए तो धान की पैदावार इतनी अच्छी होगी कि कुत्ते भी भात खाने से ऊब जाएंगे और नहीं खाएंगे।

उत्रा उत्तर दै गयी, हस्त गयो मुख मोरि।
भली विचारी चित्तरा, परजा लेइ बहोरि।।

अर्थात् उत्तरा और हथिया नक्षत्र में यदि पानी न भी बरसे और चित्रा में पानी बरस जाए तो उपज ठीक ठाक ही होती है।

पुरुवा रोपे पूर किसान।
आधा खखड़ी आधा धान।।


अर्थात् पूर्वा नक्षत्र में धान रोपने पर आधा धान और आधा खखड़ी (कटकर-पइया) पैदा होता है।

आद्रा में जौ बोवै साठी।
दु:खै मारि निकारै लाठी।।


अर्थात् जो किसान आद्रा नक्षत्र में धान बोता है वह दु:ख को लाठी मारकर भगा देता है।

दरअसल कृषक कवि घाघ ने अपने अनुभवों से जो निष्‍कर्ष निकाले हैं, वे किसी भी मायने में आधुनिक मौसम विज्ञान की निष्‍पत्तियों से कम उपयोगी नहीं हैं।

Saturday, July 12, 2008

धरती के रंग, किसान के संग

वर्षा ऋतु भारत के गांवों में सुख और दु:ख दोनों का संदेशा लाती है। कई गांव बाढ़ में बह जाते हैं, कई का सड़क संपर्क भंग हो जाता है। भारतीय गांवों में आदमी और मवेशी पर बीमारियों का प्रकोप बरसात में कुछ ज्‍यादा ही होता है। इन सबके बावजूद यदि किसानों को किसी ऋतु का सबसे अधिक इंतजार रहता है तो वह वर्षा ही है। यही वह मौसम है, जब धरती तो हरी-भरी हो ही जाती है, किसानों के मन में भी हरियाली छा जाती है। धरती पर चांदी से चमकते पानी का अनंत विस्‍तार, पौधों की हरी-हरी बाढ़, रंग-बिरंगे बादलों से पटा आकाश – यह सब इसी मौसम में देखने को मिलता है। किसानों के मन में नयी फसल बोने की उमंग धरती का अप्रतिम सौन्‍दर्य देख कई गुना बढ़ जाती है।
वर्षा ऋतु में धरती के इन रंगों को अपने कैमरे में संजोने की कोशिश की, तो सोचा खेती किसानी की व्‍यस्‍तता के बीच इस बार इन चित्रों से ही पोस्‍ट का काम चला लिया जाये। शायद ब्‍लॉगर मित्रों को पसंद आये, या हो सकता है न भी आये।