Wednesday, October 18, 2023

साहित्य क्या है .. कागज के नोट पर अंकित मूल्य साहित्य क्यों नहीं है?


विद्यालय या महाविद्यालय में हममें से लगभग सभी ने साहित्य पढ़ा होगा। लेकिन साहित्य है क्या, इसका जवाब देने में हमें सोचना पड़ जाता है। इसलिए यहां पर हम संक्षेप में जानने की कोशिश करते हैं कि साहित्य का क्या मतलब है।

साहित्य शब्द संस्कृत के वाङ्मय, अंग्रेजी के लिटरेचर और उर्दू के अदब का समानार्थी है। प्राचीन भारतीय चिंतन परंपरा में साहित्य के अर्थ में काव्य शब्द का प्रयोग हुआ है। काव्य के लिए साहित्य शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सातवीं सदी में भर्तृहरि ने किया है। साहित्य शब्द की उत्पत्ति सहित शब्द से मानी जाती है। काव्यशास्त्र के प्राचीनतम ग्रन्थों में शामिल अपनी रचना काव्यालंकार में आचार्य भामह ने लिखा- शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्। अर्थात काव्य वह है जिसमें शब्द और अर्थ का सहभाव हो। सहित शब्द की व्याख्या 'स' जोड़ 'हित के रूप में भी की जाती है। अर्थात जिससे हित होता हो, रचनाकार का भी और रचना को पढ़ने या श्रवण करनेवाले का भी। इस तरह से साहित्य में लोकमंगल के भाव का भी समावेश है। अब सवाल उठता है कि तो हम मुद्रा के रूप में इस्तेमाल होने वाले कागज के नोट पर अंकित उसके मूल्य को भी साहित्य कहेंगे? उसमें भी शब्द और अर्थ का सहभाव है और लोगों का हित होता है। निश्चय ही हम उसे साहित्य नहीं कह सकते, क्योंकि आचार्यों ने साहित्य के कुछ अन्य लक्षण भी बताए हैं। साहित्यदर्पण: के रचयिता आचार्य विश्वनाथ ने कहा- वाक्यं रसात्मकं काव्यम्। अर्थात रसात्मक वाक्य को काव्य कहते हैं। आचार्य मम्मट ने लिखा- तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि। अर्थात दोषरहित गुणसहित एवं यथासंभव अलंकारयुक्त शब्दार्थ काव्य है। पंडितराज जगन्नाथ ने कहा- रमणीयार्थप्रतिपादक: शब्द: काव्यम्। अर्थात रमणीय अर्थ का प्रतिपादक शब्द काव्य है।

संस्कृत आचार्यों के बाद मध्यकाल के कवियों ने भी काव्य लक्षण पर विचार किया है, लेकिन उनकी बातों में संस्कृत आचार्यों की पुनरावृत्ति ही हुई है। उदाहरण के तौर पर मध्यकालीन कवि चिंतामणि ने कविकुल-कल्पतरु में कहा- सगुन अलंकारन सहित, दोष रहित जो होई। शब्द अर्थ वारौ कवित्त, विवुध कहत सब कोई। अर्थात कविता वह है जो गुणों से युक्त हो, अलंकारों से विभूषित हो और दोषरहित हो, जिसमें शब्द और अर्थ का सामंजस्य हो वही काव्य है।

आधुनिक युग में कई साहित्यकारों ने भी साहित्य के लक्षणों पर प्रकाश डाला है। प्रगतिवादी धारा से जुड़े लेखकों ने साहित्य को सामाजिक यथार्थ से जोड़कर परिभाषित किया। कहा गया कि साहित्य समाज का दर्पण है। मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य को 'जीवन की आलोचना' कहा। कई आधुनिक साहित्यकारों का मत संस्कृत आचार्यों से मेल खाता है। डॉ नगेंद्र के अनुसार- रमणीय अनुभूति, उक्ति वैचित्र्य और छंद इन तीनों का समन्वित रूप ही कविता है। अज्ञेय ने कहा- कविता सबसे पहले शब्द है और अंत में भी वही बात रह जाती है कि कविता शब्द है।

इस तरह से हमने देखा कि विभिन्न युगों में भिन्न-भिन्न विद्वानों ने साहित्य को परिभाषित किया है। इस बात पर लगभग सभी सहमत हैं कि साहित्य में शब्द और अर्थ का सामंजस्य होना जरूरी है।

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