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Sunday, April 19, 2009

जीन संवर्धित फसल : किसानों के लिए टेंशन लेने का नहीं, देने का !

इस शीर्षक में तल्‍खी है, इस बात से हमें इंकार नहीं। लेकिन जीएम फसलों की वजह से क्षुब्‍ध किसानों को तसल्‍ली देने के लिए इससे बेहतर शब्‍दावली शायद नहीं है। वैसे यह बात गलत भी नहीं है। भारत में जीएम फसलों के प्रति बढ़ते रूझान से अब समय ही ऐसा आ रहा है कि देश के किसान आपके खाने के लिए जहरीला खाद्यान्‍न उपजाएंगे। सृष्टि का चक्र शायद कुछ इसी तरह घूमता है। अब तक उपेक्षा सह रहे किसानों को संभवत: इसी रूप में न्‍याय मिलनेवाला है।

जहां यूरोपीय देशों की सरकारें प्राणियों व पर्यावरण पर जीन संवर्धित फसलों के दुष्‍प्रभाव को लेकर उन पर रोक लगा रही हैं, भारत की सरकारी संस्‍थाएं उनके प्रचार में जुटी हैं। चिंता की बात यह है कि भारत के आम शहरी भी इस मामले में उदासीन बने हुए हैं, मानो उनके लिए यह कोई मुद्दा ही नहीं है। वे सोचते होंगे कि जीएम फसल से उन्‍हें क्‍या मतलब, इसके बारे में किसान जानें, पर्यावरणवादी जानें या सरकार। हालांकि उनकी यह उदासीनता उनके लिए बहुत बड़ा संकट उत्‍पन्‍न करनेवाली है, जिससे बचने का बाद में शायद कोई विकल्‍प न हो। वे यदि उदासीन न रहते तो सरकार पर इस मामले में गंभीर रहने का दबाव पड़ता।

देश में कृषि संबंधी सारी समस्‍याओं का खामियाजा अब तक सिर्फ किसान भुगतते आए हैं, लेकिन जीन संवर्धित फसलों के मामले में ऐसा नहीं होनेवाला। इनका सबसे अधिक नुकसान इन्‍हें उपजानेवालों को नहीं, बल्कि इन्‍हें खानेवालों को उठाना होगा। किसान को तो जीएम फसलों की वजह से पैदावार बढ़ने या कीटनाशकों पर लागत कम आने का शायद फायदा भी हो जाए, लेकिन गैर किसानों को तो सिर्फ क्षति ही क्षति है। किसान तो शायद अपने खाने के लिए थोड़ी मात्रा में परंपरागत फसल उपजा ले, लेकिन गैर किसानों के लिए तो बाजार सिर्फ और सिर्फ जीएम फसलों से ही पटा होगा।

हाल ही में जीन संवर्धित मक्‍के की खेती पर जर्मनी में रोक लगा दी गयी है। मोन 810 (MON810) नामक मोंसैंटो (Monsanto) कंपनी के जिस मक्‍के पर यह कार्रवाई हुई, उसकी खेती पर यूरोपीय संघ के पांच अन्‍य देशों फ्रांस, आस्ट्रिया, हंगरी, ग्रीस और लक्‍जेमबर्ग पर पहले से ही रोक लगी हुई थी। यूरोप में पशु चारे के लिए इस मक्‍के की खेती होती थी। आस्ट्रिया में मोंसैंटो के ही एक अन्‍य जीन संवर्धित मक्‍के मोन 863 (MON863) के आयात पर भी प्रतिबंध लगा हुआ है। जीएम मक्‍के की इस किस्‍म की अमेरिका व कनाडा में खेती होती है।

हालांकि भारत की सरकार और उसकी संस्‍थाएं जीन संवर्धित फसलों के प्रति सहिष्‍णु रवैया अपनाए हुए हैं। भारत में मोंसैंटो के आंशिक स्‍वामित्‍व वाली कंपनी माहीको (Mahyco) के जीन संवर्धित बीटी कपास का बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक उत्‍पादन हो रहा है तथा बीटी बैगन के वाणिज्यिक उत्‍पादन की तैयारी भी अंतिम चरण में है। जिन फसलों से जीव व पर्यावरण को होनेवाली क्षति को देखेते हुए यूरोप में प्रतिबंधित किया जा रहा है, उनके प्रति भारत के रवैये का एक नमूना तमिलनाडु कृषि विश्‍वविद्यालय के अधिकृत बयान में देखा जा सकता है। संस्‍था के रजिस्‍ट्रार ने जीन संवर्धित मक्‍का को परंपरागत मक्‍का की किस्‍मों की तुलना में वरदान मानते हुए कहा है कि यह नुकसानदेह नहीं है। देश में जैव प्रौद्योगिकी का नियमन करनेवाली शीर्ष संस्‍था जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी (GEAC) है जो केन्‍द्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय के अधीन काम करती है। लेकिन वह जीन संवर्धित फसलों से पर्यावरण व मानव स्‍वास्‍थ्‍य को होनेवाली क्षति वाले पहलू पर गंभीरता से विचार करते नहीं जान पड़ती। खुद तत्‍कालीन केन्‍द्रीय स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री अंबुमणि रामदास ने कुछ माह पूर्व जीन संवर्धित फसलों का विरोध करते हुए कहा था कि बीटी बैगन को इसकी सुरक्षा पर बिना पर्याप्‍त शोध किए भारत में लाया गया है।

जाहिर है हमारी सरकारी संस्‍थाएं जीन संवर्धित फसलों के प्रति सहिष्‍णु बनी हुई हैं। बहरहाल हम जर्मन कृषि मंत्री सुश्री इल्‍जे आइगनर को जीएम मक्‍के की खेती पर प्रतिबंध के उनके साहसिक निर्णय के लिए धन्‍यवाद देते हुए यह सोचकर हैरान-परेशान हैं कि हमारे मंत्री इस तरह का फैसला क्‍यों नहीं कर पाते!

Wednesday, April 15, 2009

जीन संवर्धित मक्‍के की खेती पर जर्मनी में लगी रोक


पर्यावरण पर खतरे से चिंतित लोगों को यह जानकर खुशी हो सकती है कि जर्मनी में जीन संवर्धित मक्‍के की खेती पर रोक लगा दी गयी है। यह रोक विख्‍यात अमेरिकी बायोटेक कंपनी मोंसैंटो (Monsanto) के जीन संवर्धित मक्के मोन 810 (MON810) की खेती पर लगायी गयी है। बताया जाता है कि मोन 810 में इस तरह का जीन डाला गया है जो पौधे को नुकसान पहुंचानेवाले कीड़े कॉर्नबोरर को मारने के लिए विष का काम कर सके।

मोन 810 की खेती पर रोक लगानेवाला जर्मनी यूरोपीय संघ का छठा देश है। फ़्रांस, ऑस्ट्रिया, हंगरी, ग्रीस और लक्ज़ेमबर्ग में पहले से ही इसकी खेती पर रोक लगी हुई है। इसके अलावा ऑस्ट्रिया में मोंसैंटो के ही जीन संवर्धित मक्‍का मोन 863 (MON863) के आयात पर भी प्रतिबंध लगा हुआ है। इस फैसले का महत्‍व इसलिए और अधिक बढ़ जाता है क्‍योंकि मोन 810 ऐसी एकमात्र जीन संवर्धित फसल है, जिसकी यूरापीय संघ में वाणिज्यिक तौर पर खेती हो रही है। वहां पर इसकी खेती मुख्‍य रूप से पशु चारे के लिए की जाती है। यूरोपीय संघ में इसकी खेती का दस सालों का लाइसेंस समाप्‍त होनेवाला है और अब उसके नवीकरण की जरूरत पड़ेगी।

जर्मन कृषिमंत्री इल्जे आइगनर ने मोन 810 की खेती पर प्रतिबंध के अपने फ़ैसले की वजह बताते हुए कहा है कि इस बात का संदेह है कि जीन परिवर्तित मक्का दूसरे प्राणियों को नुकसान पहुंचा सकता है। हालांकि उन्‍होंने दावा किया कि उनका फैसला विज्ञान पर आधारित है और इसका अभिप्राय सभी तरह के जीन संवर्धित फसलों पर प्रतिबंध नहीं है। सुश्री आइगनर ने कहा कि जीन अभियांत्रिकी में मनुष्‍य, जानवर, पौधों व पर्यावरण की सुरक्षा की संपूर्ण गारंटी समावेशित होना जरूरी है।

मोंसैंटो कंपनी द्वारा तैयार किए गए इन जीन परिवर्तित (gnentically engineered) मक्‍के की किस्‍मों के बारे में पर्यावरणवादियों का कहना है कि ये पर्यावरण, मिट्टी, मानव स्‍वास्‍थ्‍य व वन्‍य प्राणियों के लिए नुकसानदेह हैं। उनका कहना है कि इनकी वजह से अन्‍य फसलें भी प्रदूषित हो जाएंगी, जिससे पर्यावरण व मानव स्‍वास्‍थ्‍य के लिए खतरा उत्‍पन्‍न हो जाएगा। कुछ रिपोर्टों में कहा गया है कि चूहों पर किए गए परीक्षणों में इस मक्‍का के खाने से उनकी रक्‍त-सरंचना में परिवर्तन, जनन क्षमता में ह्रास और लीवर व किडनी जैसे आंतरिक अंगों को क्षति पहुंचने की बात सामने आयी है। कहा जा रहा है कि मोंसैंटो के जीएम मक्‍के की इन किस्‍मों में डाले गए जीन की वजह से जो कीटनाशी विष तैयार होता है, वह मिट्टी में रिसकर केंचुआ जैसे मृदा स्‍वास्‍थ्‍य के लिए उपयोगी जीवों को हानि पहुंचाता है। इसके अतिरिक्‍त उसकी वजह से तितली, मकड़ी, चींटी आदि वन्‍य जीवों को भी नुकसान होता है।

ग्रीनपीस जैसे कई पर्यावरणवादी संगठन जीन परिवर्धित मक्‍के की इन किस्‍मों की खेती और इनके आयात पर प्रतिबंध की अरसे से यूरोप में मांग करते रहे हैं।