आज हम आपसे हिन्दी के विषय में बातचीत करना चाहते हैं। हो सकता है, हमारे कुछ मित्रों को लगे कि किसान को खेती-बाड़ी की चिंता करनी चाहिए। वह हिन्दी के पचड़े में क्यों पड़ रहा है। लेकिन हमारा मानना है कि हिन्दी के कल्याण के बिना हिन्दुस्तान के आमजन खासकर किसानों का कल्याण संभव नहीं।
राष्ट्र की आजादी के बाद भी यहां की आम जनता आर्थिक रूप से इसलिए गुलाम है, क्योंकि उसकी राष्ट्रभाषा गुलाम है। विशेष रूप से किसानों के लिए तो हिन्दी का मुद्दा बीज, खाद और पानी से भी अधिक महत्वपूर्ण है। किसी फसल के लिए अच्छा बीज व पर्याप्त सिंचाई नहीं मिले तो वह फसल मात्र ही बरबाद होगी, लेकिन राष्ट्रभाषा हिन्दी की पराधीनता भारत के बहुसंख्यक किसानों व उनकी भावी पीढि़यों के संपूर्ण जीवन को ही नष्ट कर रही है।
देश के करीब सत्तर करोड़ किसानों में अधिकांश हिन्दी जुबान बोलते व समझते हैं। लेकिन देश के सत्ता प्रतिष्ठानों की राजकाज की भाषा आज भी अंगरेजी ही है। यह एक ऐसा दुराव है, जो इस भूमंडल पर शायद ही कहीं और देखने को मिले। जनतंत्र में जनता और शासक वर्ग का चरित्र अलग-अलग नहीं होना चाहिए। लेकिन हमारे देश में उनका भाषागत चरित्र भिन्न-भिन्न है। जनता हिन्दी बोलती है, शासन में अंग्रेजी चलती है। इससे सबसे अधिक बुरा प्रभाव किसानों पर पड़ रहा है, क्योंकि वे गांवों में रहते हैं, जहां अंगरेजी भाषा की अच्छी शिक्षा संभव नहीं हो पाती। आजाद होते हुए भी जीवनपर्यन्त उनकी जुबान पर अंगरेजी का ब्रितानी ताला लगा रहता है।
आज के समय में कस्बाई महाविद्यालयों से बीए की डिग्री लेनेवाले किसानपुत्र भी पराये देश की इस भाषा को ठीक से नहीं लिख-बोल पाते। कुपरिणाम यह होता है कि किसान न शासकीय प्रतिष्ठानों तक अपनी बात ठीक से पहुंचा पाते हैं, न ही सत्तातंत्र के इरादों व कार्यक्रमों को भलीभांति समझ पाते हैं। सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होता है कि वे रोजगार के अवसरों से वंचित हो जाते हैं।
हिन्दी आज बाजार की भाषा भले हो, लेकिन वह रोजगार की भाषा नहीं है। किसी भी देश में रोजगार की भाषा वही होती है, जो राजकाज की भाषा होती है। चूंकि हमारे देश में राजकाज की वास्तविक भाषा अंगरेजी है, इसलिए रोजगार की भाषा भी वही है। रोजगार नहीं मिलने से किसान गरीब बने रहते हैं, उनकी खेती भी अर्थाभाव में पिछड़ी रहती है, और आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक विषमता की खाई कभी भी पट नहीं पाती।
जाहिर है यदि भारत के राजकाज की भाषा हिन्दी होती तो देश की बहुसंख्यक किसान आबादी अपनी जुबान पर ताला लगा महसूस नहीं करती। तब देश के किसान सत्ता के साथ बेहतर तरीके से संवाद करते एवं रोजगार के अवसरों में बराबरी के हिस्सेदार होते।
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Wednesday, August 27, 2008
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