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Saturday, November 1, 2008

तब बुद्धदेव कहते, क्‍यों नहीं बनाते सस्‍ते ट्रैक्‍टर !

यह विडंबना ही है कि जिस देश की अधिकांश जनता किसान है, जहां का महान बुद्धिजीवी वर्ग जनवाद की बातें करते नहीं अघाता, वहां कार पर तो खूब बहस होती है लेकिन ट्रैक्‍टर कभी मुद्दा नहीं बनता। एक कार को लेकर बेकार का हाहाकार शीर्षक से 'राष्‍ट्रीय सहारा' में प्रकाशित कृष्‍ण प्रताप सिंह के विवेचन के कुछ अंश यहां इस संदर्भ में प्रस्‍तुत हैं।

भूमंडलीकरण का बाजा बजा रही सरकारें गांवों व गरीबों की ओर से मुंह मोड़कर उन्हें निर्मम बाजार व्यवस्था के हवाले करने पर न तुल जातीं, अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को थोड़ा बहुत समझतीं, किसानों–मजदूरों के हकों का अतिक्रमण रोकने में दिलचस्पी रखतीं और पूंजी को ब्रह्म व मुनाफे को मोक्ष न मानने लगतीं, तो आज किस तरह के सवाल उठाए जा रहे होते?

क्या तब भी अखबारों में ‘बंगाल ने खोया रतन (टाटा)’ जैसे शीर्षक आते और संपादकीय में तर्क दिए जाते कि सिंगुर में भूमि गंवाने वाले किसानों ने उन्हें मिले मुआवजे की राशि से ऐसे दोमंजिला भवन बनवा लिए हैं, जैसे कई पीढ़ियों में न बना पाते?

नहीं, तब निश्चित ही बुद्धदेव भट्टाचार्य टाटा को नहीं, टाटा बुद्धदेव भट्टाचार्य को मनाते दिखाई देते। यानी पूंजी की सत्ता राजनीति की सत्ता से ऊपर नहीं होती। बुद्धदेव कहते कि आप सस्ती कार ही क्यों बनाना चाहते हैं, सस्ती साइकिलें, रिक्शे या ट्रैक्टर क्यों नहीं बनाते? फिर हमसे अपनी शर्तें क्यों मनवाना चाहते हैं? सिंगुर की वह उपजाऊ कृषि भूमि ही क्यों चाहिए, आपको? इसे तो हम किसी भी कीमत पर आपको नहीं दे सकते, क्योंकि बड़े से बड़ा मुआवजा भी किसानों की कृषि भूमि का विकल्प नहीं हो सकता।

इन सवालों के साथ बुद्धदेव तब उन लोगों के साथ खड़े होते, जिनका वे आज विरोध करते दिखाई देते हैं। वे नैनो कार के खतरे गिनाते, उसे अर्थव्यवस्था के भीतरी ढांचे में कर्ज के विस्तार की नयी रणनीति का हिस्सा बताते और कहते कि संतृप्त होते ऊपरी कार बाजार से निकल कर टाटा को निम्न मध्य वर्ग की ‘ऊंची इच्छाओं’ को भुनाने यानी कर्ज लेने व आगे उसकी डेढ़ गुनी कीमत चुकाने की व्यवस्था के हवाले करने की इजाजत हम नहीं देंगे।

उन्हें अर्जुन सेनगुप्ता समिति की वह रपट भी याद आती, जिसमें कहा गया है कि देश की 80 फीसदी मेहनतकश आबादी बीस रूपए रोज से कम कमाती है। उनके साथ उनके लोग भी पूछते कि इस आबादी को आपकी नैनो से क्या सरोकार? टाटा जी, वह आम आदमी हमारे देश में कहां बसता है जिसे पत्नी-बच्चों के साथ भीगते देखकर आप करूणा विगलित हो उठे और उसकी कार–सेवा करने चल पड़े?

वे ऐसा न करते और ममता को मजबूरी में टाटा का स्वाभाविक साथ छोड़कर वही करना पड़ता, जो उन्होंने किया तो वे भी आज इतने अपराध-बोध से पीड़ित और रक्षात्मक नहीं होतीं। तब वे टाटा के सिंगुर से जाने को टाटा और बुद्धदेव का गेमप्लान न बतातीं, कहतीं कि यह उन किसानों के संघर्ष की जीत है, जिन्हें भूमिहीन बना दिया जा रहा था।

तब टाटा की हैसियत यह नहीं होती कि वे ममता या कि मोदी को बैड और गुड एम से संबोधित करते। उनके सामने साफ होता कि यह कृषि प्रधान देश कृषि की कीमत पर उद्योगों का विस्तार पसंद नहीं करता।

अब कुछ अपनी बात : इतने दिनों से ब्‍लॉगजगत से मेरी गैरमौजूदगी पर कुछ मित्र सोचते होंगे कि आखिर यह बंदा कर क्‍या रहा है। कविवर भाई योगेन्‍द्र मौदगिल तो पूछ ही बैठे कि किसी जरूरी कीड़े की तलाश में हो क्या..? ..तो भैया मैं किसी कीड़े की तलाश में नहीं हूं। हमेशा यही करता रहा तो खाऊंगा क्‍या :) दरअसल इतने दिनों से पानी के अभाव में सूख रही अपनी धान की फसल को बचाने में लगा था। अब धान की कटनी-दौनी और रबी फसल के लिए खाद-बीज के इंतजाम में जुटा हूं। वैसे अभी भी खेत की मेड़ पर बैठा अपने मोबाइल फोन पर आपकी पोस्‍टें पढ़ना नहीं भूलता..खेती का काम निपटाते ही शीघ्र ही टिप्‍पणियों में भी दिखने लगूंगा। उम्‍मीद करता हूं कि ब्‍लॉगर मित्र छुट्टी की इस अर्जी को मंजूर करने में कृपणता नहीं दिखाएंगे :)