यह विडंबना ही है कि जिस देश की अधिकांश जनता किसान है, जहां का महान बुद्धिजीवी वर्ग जनवाद की बातें करते नहीं अघाता, वहां कार पर तो खूब बहस होती है लेकिन ट्रैक्टर कभी मुद्दा नहीं बनता। एक कार को लेकर बेकार का हाहाकार शीर्षक से 'राष्ट्रीय सहारा' में प्रकाशित कृष्ण प्रताप सिंह के विवेचन के कुछ अंश यहां इस संदर्भ में प्रस्तुत हैं।
भूमंडलीकरण का बाजा बजा रही सरकारें गांवों व गरीबों की ओर से मुंह मोड़कर उन्हें निर्मम बाजार व्यवस्था के हवाले करने पर न तुल जातीं, अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को थोड़ा बहुत समझतीं, किसानों–मजदूरों के हकों का अतिक्रमण रोकने में दिलचस्पी रखतीं और पूंजी को ब्रह्म व मुनाफे को मोक्ष न मानने लगतीं, तो आज किस तरह के सवाल उठाए जा रहे होते?
क्या तब भी अखबारों में ‘बंगाल ने खोया रतन (टाटा)’ जैसे शीर्षक आते और संपादकीय में तर्क दिए जाते कि सिंगुर में भूमि गंवाने वाले किसानों ने उन्हें मिले मुआवजे की राशि से ऐसे दोमंजिला भवन बनवा लिए हैं, जैसे कई पीढ़ियों में न बना पाते?
नहीं, तब निश्चित ही बुद्धदेव भट्टाचार्य टाटा को नहीं, टाटा बुद्धदेव भट्टाचार्य को मनाते दिखाई देते। यानी पूंजी की सत्ता राजनीति की सत्ता से ऊपर नहीं होती। बुद्धदेव कहते कि आप सस्ती कार ही क्यों बनाना चाहते हैं, सस्ती साइकिलें, रिक्शे या ट्रैक्टर क्यों नहीं बनाते? फिर हमसे अपनी शर्तें क्यों मनवाना चाहते हैं? सिंगुर की वह उपजाऊ कृषि भूमि ही क्यों चाहिए, आपको? इसे तो हम किसी भी कीमत पर आपको नहीं दे सकते, क्योंकि बड़े से बड़ा मुआवजा भी किसानों की कृषि भूमि का विकल्प नहीं हो सकता।
इन सवालों के साथ बुद्धदेव तब उन लोगों के साथ खड़े होते, जिनका वे आज विरोध करते दिखाई देते हैं। वे नैनो कार के खतरे गिनाते, उसे अर्थव्यवस्था के भीतरी ढांचे में कर्ज के विस्तार की नयी रणनीति का हिस्सा बताते और कहते कि संतृप्त होते ऊपरी कार बाजार से निकल कर टाटा को निम्न मध्य वर्ग की ‘ऊंची इच्छाओं’ को भुनाने यानी कर्ज लेने व आगे उसकी डेढ़ गुनी कीमत चुकाने की व्यवस्था के हवाले करने की इजाजत हम नहीं देंगे।
उन्हें अर्जुन सेनगुप्ता समिति की वह रपट भी याद आती, जिसमें कहा गया है कि देश की 80 फीसदी मेहनतकश आबादी बीस रूपए रोज से कम कमाती है। उनके साथ उनके लोग भी पूछते कि इस आबादी को आपकी नैनो से क्या सरोकार? टाटा जी, वह आम आदमी हमारे देश में कहां बसता है जिसे पत्नी-बच्चों के साथ भीगते देखकर आप करूणा विगलित हो उठे और उसकी कार–सेवा करने चल पड़े?
वे ऐसा न करते और ममता को मजबूरी में टाटा का स्वाभाविक साथ छोड़कर वही करना पड़ता, जो उन्होंने किया तो वे भी आज इतने अपराध-बोध से पीड़ित और रक्षात्मक नहीं होतीं। तब वे टाटा के सिंगुर से जाने को टाटा और बुद्धदेव का गेमप्लान न बतातीं, कहतीं कि यह उन किसानों के संघर्ष की जीत है, जिन्हें भूमिहीन बना दिया जा रहा था।
तब टाटा की हैसियत यह नहीं होती कि वे ममता या कि मोदी को बैड और गुड एम से संबोधित करते। उनके सामने साफ होता कि यह कृषि प्रधान देश कृषि की कीमत पर उद्योगों का विस्तार पसंद नहीं करता।
अब कुछ अपनी बात : इतने दिनों से ब्लॉगजगत से मेरी गैरमौजूदगी पर कुछ मित्र सोचते होंगे कि आखिर यह बंदा कर क्या रहा है। कविवर भाई योगेन्द्र मौदगिल तो पूछ ही बैठे कि किसी जरूरी कीड़े की तलाश में हो क्या..? ..तो भैया मैं किसी कीड़े की तलाश में नहीं हूं। हमेशा यही करता रहा तो खाऊंगा क्या :) दरअसल इतने दिनों से पानी के अभाव में सूख रही अपनी धान की फसल को बचाने में लगा था। अब धान की कटनी-दौनी और रबी फसल के लिए खाद-बीज के इंतजाम में जुटा हूं। वैसे अभी भी खेत की मेड़ पर बैठा अपने मोबाइल फोन पर आपकी पोस्टें पढ़ना नहीं भूलता..खेती का काम निपटाते ही शीघ्र ही टिप्पणियों में भी दिखने लगूंगा। उम्मीद करता हूं कि ब्लॉगर मित्र छुट्टी की इस अर्जी को मंजूर करने में कृपणता नहीं दिखाएंगे :)
सटीक विचार
ReplyDeleteमैं इस विषय में किसी अथारिटी से नहीं कह सकता; पर वह पूंजीपति मूर्ख होगा जो जबरदस्त मार्केट के होने पर भी उस दिशा में पहल न करे।
ReplyDeleteअगर (और यह महत्वपूर्ण अगर है) ट्रैक्टर का बाजार राष्ट्र और विदेश के स्तर पर बहुत व्यापक है तो किसी न किसी को पहल करनी ही होगी बनाने में - वाणिज्यिक अवसर कौन न भुनायेगा?
छोटी जोत, लेबर इण्टेन्सिव खेती का माहौल और ग्रामीण इन्फ़्रास्ट्रक्चर की तंगी; यह सब एड्रेस होना चाहिये।
आपकी पोस्ट ने सोचने की एक अलग दिशा दी है। धन्यवाद।
आधुनिक अनुसंधान की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि बहुसंख्यक जनता को लाभ देने वाली तकनीक पर बहुत कम विचार होता है। टैकों के जितने संस्करण निकले, उतने हलों के क्यो नहीं या सायकिलों के क्यों नहीं। बेचारी बैलगाड़ी में आजतक ब्रेक की व्यवस्था नहीं है । कितने ही बैल ब्रेक के अभाव के कारण अपनी जान गवाँ चुके।
ReplyDeleteबाबू अनुनाद सही बातें कह रहे हैं..
ReplyDeleteबात चाहे कार की हो या ट्रेक्टर की हो , कोई भी इन्डस्ट्रियलिस्ट पहले अपना मुनाफा और भविष्य देखेगा उसके बाद आगे कदम बढाएगा ! जाहिर सी बात है की बैलगाडी को ब्रेक अति आवश्यकता होने के बावजूद भी इस पर नही सोचा गया ! उनको मालुम था की बैलगाडी सिनारियो से बाहर हो जायेगी ! और ऐसा ही हो भी रहा है ! तो ऐसी चीजो पर वो क्यूँ इनवेस्टमेंट करने लगे ?
ReplyDeleteभाई अशोक जी आपकी इतने दिनों बाद यह पोस्ट देख कर आनंद आ गया ! आपकी छुट्टी मंजूर कर दी है ! आप तो बढिया धान की फसल उगा कर और काटकर लौटना ! भाई पहले पेट में कुछ डालने का इंतजाम कीजियेगा तभी तो हम ब्लागरी करेंगे ना ! :) भूखे भजन ना होहिं गोपाला ! बहुत बहुत धन्यवाद और शुभकामनाएं !
उद्योगपतियों के कहने का अपना ढंग होता है मैने ये देखा...मैने वह देखा तब जाकर मैने यह बनाने की सोची...लेकिन उन्हें दिखता वही है जो वह देखना चाहते हैं। अच्छी पोस्ट।
ReplyDeleteअच्छी बात।
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट लिखने के कारण छुट्टी मंजूर!
ReplyDeleteअशोक पाण्डेय जी नमस्कार, सब से पहले तो भगवान से यही प्राथाण करता हुं की आप की धान की फ़सल ठीक ठाक हो जाये, ओर आप की छुट्टी भी मंजुर सब ने कर ली है,कई बार मै यही सोचता हूं कि भारत मै भी किस्स्नो के पास ट्रेकटर वा ओर मशीने जो खेती बाडी के काम आ सके क्यो नही है??? शायद इस लिये की लोगो के पास छोटी छोटी जमीने है, इस लिये भी वह खेती बाडी का सब समान खरीद भी लेगे तो .....
ReplyDeleteयहां जर्मन मै जमीन का बटंबारा कभी भी नही होता, एक एक किसान के पास कई किलो मीटर तक जमीन ही जमीन है, ओर कई सेकडो गाय,सुअर, ओर मुर्गिया होती है, ओर एक किसान के पास तीन चार ट्रेकटर, ओर कई अलग अलग मशीने होती है, यहां मकान का बटंबारा हो सकता है लेकिन जमीन(खेती बाडी की) का बटंबारा कभी नही हुआ, अगर ऎसा भारत मै हो जाये तो भी किसानो के लिये अच्छा होगा, ओर किसान फ़िर बदी से बडी मशीने भी खारीद सकता है.क्योकि बटंबारे से जमीन के कई टुकडे हो जाते है
धन्यवाद
लेख के लिए बधाई. टाटा तो ठहरे व्यापारी, उन्होंने कभी किसान-मजदूर का नाम लेकर सत्ता नहीं हथियाई - मगर जो रहनुमा गरीब, मजलूम मजदूर किसान का नाम लेकर करोड़पति बन रहे हैं उनकी नज़र में किसान की कोई जगह तो होनी ही चाहिए. ट्रैक्टर तो मुद्दा बनना भी नहीं चाहिए. अति-सूक्ष्म होती जा रही जोतों वाले देश में छोटे और सस्ते पॉवर टिलर आदि पर ज़्यादा काम होना चाहिए. ट्रैक्टर व कम्बाइन आदि या तो बड़े किसानों के इए हैं या फ़िर निर्यात के लिए. महिंद्रा वालों ने पहले अपने ट्रैक्टर निर्यात भी किए थे मगर बाद में किसी कारण यह बहुत दिन नहीं चला.
ReplyDeleteपाण्डेय जी
ReplyDeleteहमने तो आपकी छुट्टी फोन पर ही मंजूर कर ली थी
अपनत्व से भरी उस फोनकाल की गर्माहट अभी भी महसूस रहा हूं
मुझे तो ब्लाबर मंडली पारिवारिक सी लगती हैं
कईं दिन कोई नज़र नहीं आता तो बड़ा अटपटा सा लगता है
खैर
यह पोस्ट भी पूर्व की भांति सटीक एवं सामयिक है
शेष शुभ
शायद ट्रैक्टर का इस्तेमाल करने वालो की संख्या में उतरोत्तर कमी और कार वालों की संख्या में वृद्धि दिखती है उद्योगपतियों को. और जमीनी हकीकत तो वैसे भी उद्योगपतियों को कहाँ होती है... उन्हें तो यही लगता है की नैनो जैसी कार का मार्केट बहुत बड़ा है क्योंकि किसान से लेकर कार चलाने वाले सब खरीदेंगे !
ReplyDeleteअशोक भाई, आपकी राय मेँ भारत मेँ निर्मित कौन सा ट्रेक्टर सबसे अच्छा है ?
ReplyDeleteआप फसल से जुडी हर बात पर पोस्ट लिखियेगा -
मैँने तो कभी नजदीक से,
खेती बाडी क्या होती है उसे देखा ही नही !
- हाँ यहाँ ( America ) बडे बडे फार्म अवश्य देखे हैँ जो मशीनोँ से चलाये जाते हैँ --
बहुत सोचनेवाली पोस्ट लिखी है आपने
स स्नेह,
- लावण्या
अपने काम निपटाइए। वे जरूरी हैं। खाली समय मिले, तो फिर अपने हाल चाल जरूर बताइएगा।
ReplyDeletebahut sari rai di ja chuki hai.meri rai me to nano aur trctr ko compare karna sahi nahi.nano ki apni jaroorat hai, trctr ki apni.
ReplyDeleteआपने बहुत सही कहा/आपकी इस पोस्ट ने सोचने की एक अलग दिशा दी है। धन्यवाद।
ReplyDeleteapane poori samajh ke sath bahut achchha blog banaya.
ReplyDelete"वहां कार पर तो खूब बहस होती है लेकिन ट्रैक्टर कभी मुद्दा नहीं बनता।"
ReplyDeleteइसलिये कि अधिकतर के मनों में देशप्रेम जैसी चीज नहीं है.
यदि ट्रेक्टर सस्ते हो जाये, और यदि उन पर सबसिडी भी हो जाये, तो देश की काया पलट जाये.
Very Interesting Idea Shared by You. Thank You For Sharing.
ReplyDeleteप्यार की बात