Friday, November 21, 2008
खड़ी बोली हिन्दी के पहले कवि अमीर खुसरो
भाषा का न सांप्रदायिक आधार होता है, न ही वह शास्त्रीयता के बंधन को मानती है। अपने इस सहज रूप में उसकी संप्रेषणयीता और सौन्दर्य को देखना हो तो अमीर खुसरो की हिन्दी रचनाओं से बेहतर शायद ही कुछ हो।
अपने युग की महानतम शख्सियत अमीर खुसरो को खड़ी बोली हिन्दी का पहला कवि माना जाता है। इस भाषा का इस नाम (हिन्दवी) से उल्लेख सबसे पहले उन्हीं की रचनाओं में मिलता है। हालांकि वे फारसी के भी अपने समय के सबसे बड़े भारतीय कवि थे, लेकिन उनकी लोकप्रियता का मूल आधार उनकी हिन्दी रचनाएं ही हैं। उन्होंने स्वयं कहा है- ‘’मैं तूती-ए-हिन्द हूं। अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो। मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूंगा।’’ एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है, ‘’तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब (अर्थात् मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूं, हिन्दवी में जवाब देता हूं।)’’
खुसरो जैसी बेमिसाल व बहुरंगी प्रतिभाएं इतिहास में कम ही होती हैं। वे मानवतावादी कवि, कलाकार, संगीतज्ञ, सूफी संत व सैनिक भी थे। उनके धार्मिक गुरु महान सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया थे, जिनके पास वे अपने पिता के साथ आठ साल की आयु में गए और तभी से उनके मुरीद हो गए। अमीर खुसरो को दिल्ली सल्तनत का राज्याश्रय हासिल था। अपनी दीर्घ जीवन-अवधि में उन्होंने गुलाम वंश, खिलजी वंश से लेकर तुगलक वंश तक 11 सुल्तानों के सत्ता-संघर्ष के खूनी खेल को करीब से देखा था। लेकिन राजनीति का हिस्सा बनने के बजाए वे निर्लिप्त भाव से साहित्य सृजन व सूफी संगीत साधना में लीन रहे। अक्सर कव्वाली व गजल की परंपरा की शुरुआत अमीर खुसरो से ही मानी जाती है। उनकी रचना ‘जब यार देखा नैन भर..’ को अनेक विद्वान हिन्दी की पहली गजल मानते हैं। उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत की खयाल गायकी के ईजाद का श्रेय भी उन्हें दिया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने ध्रुपद गायन में फारसी लय व ताल को जोड़कर खयाल पैदा किया था। कहते हैं कि उन्होंने पखावज (मृदंग) को दो हिस्सों में बांटकर ‘तबला’ नाम के एक नए साज का ईजाद किया।
माना जाता है कि मध्य एशिया के तुर्कों के लाचीन कबीले के सरदार सैफुद्दीन महमूद के पुत्र अमीर खुसरो का जन्म ईस्वी सन् 1253 में उत्तर प्रदेश के एटा जिले में पटियाली नामक गांव में गंगा किनारे हुआ था। लाचीन कबीले के तुर्क चंगेज खां के आक्रमणों से पीड़ित होकर बलवन (1266 -1286 ई.) के राज्यकाल में शरणार्थी के रूप में भारत में आ बसे थे। खुसरो की मां दौलत नाज़ एक भारतीय मुलसलमान महिला थीं। वे बलबन के युद्धमंत्री अमीर एमादुल्मुल्क की पुत्री थीं, जो राजनीतिक दवाब के कारण हिन्दू से नए-नए मुसलमान बने थे। इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बावजूद इनके घर में सारे रीति-रिवाज हिन्दुओं के थे। इस मिले जुले घराने एवं दो परम्पराओं के मेल का असर बालक खुसरो पर पड़ा। आठ वर्ष की अवस्था में खुसरो के पिता का देहान्त हो गया। किशोरावस्था में उन्होंने कविता लिखना प्रारम्भ किया और बीस वर्ष के होते होते वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए।
खुसरो के पिता ने इनका नाम ‘अबुल हसन’ रखा था। ‘ख़ुसरो’ इनका उपनाम था। किन्तु आगे चलकर उपनाम ही इतना प्रसिद्ध हुआ कि लोग इनका यथार्थ नाम भूल गए। ‘अमीर खुसरो’ में ‘अमीर’ शब्द का भी अपना अलग इतिहास है। यह भी इनके नाम का मूल अंश नहीं है। जलालुद्दीन फीरोज ख़िलजी ने इनकी कविता से प्रसन्न हो इन्हें ‘अमीर’ का ख़िताब दिया और तब से ये ‘मलिक्कुशोअरा अमीर ख़ुसरो ’ कहे जाने लगे। उनके द्वारा रचित फारसी मसनवी ‘नुह सिपहर’ पर खुश होकर सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने एक हाथी के बराबर सोना तौलकर उन्हें दिया था। ‘नुह सिपहर’ में हिन्दुस्तान के रीति-रिवाजों, संस्कृति, प्रकृति, पशु-पक्षी व लोगों की तारीफ की गयी है।
अमीर खुसरो की 99 पुस्तकों का उल्लेख मिलता है, किन्तु 22 ही अब उपलब्ध हैं। हिन्दी में खुसरो की तीन रचनाएं मानी जाती हैं, किन्तु इन तीनों में केवल एक ‘खालिकबारी’ ही उपलब्ध है, जो कविता के रूप में हिन्दवी-फारसी शब्दकोश है। इसके अतिरिक्त खुसरो की फुटकर रचनाएं भी संकलित हैं, जिनमें पहेलियां, मुकरियां, गीत, निस्बतें, अनमेलियां आदि हैं। ये सामग्री भी लिखित में कम उपलब्ध थीं, वाचक रूप में इधर-उधर फैली थीं, जिसे नागरी प्रचारिणी सभा ने ‘खुसरो की हिन्दी कविता’ नामक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया था।
(फोटो http://tdil.mit.gov.in/coilnet/ignca/amir0001.htm से साभार)
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मैं आपसे सहमत हूं।
ReplyDeleteअमीर खुसरो के नाम से हम लोग अपनी तुक बन्दियां करते रहते हैं। यह खुसरो की लोकप्रियता का प्रमाण है। कल एक बैठक में मैं और मेरे मित्र बोर हो रहे थे। मित्र खुसरो को ले आये -
ReplyDeleteअफसर बोले अंग्रेजी
लोग सुने हरसाय
चल खुसरो घर आपने
बैरन भई सभाय!
पांडेय जी। बहुत नई जानकरी दी है। मै अब तक मानता था कि पहल हिदीं गजल कबीर ने लिखी है। आपने मेरी जानकारी बढ़ाई। साधुवाद
ReplyDeleteअशोक मधुप
मैं नहीं समझ पाता कि हिन्दी लेखन सर्वत्र 'हिन्दू वर्चस्व' क्यों तलाश करता है. आचार्य शुक्ल ने त्रिवेणी में लिख दिया कि 'कुतुबन ने मुसलमान होते हुए भी मनुष्यता का परिचय दिया' गोया मुसलामानों में मनुष्यता होती ही नहीं. आप लिखते हैं "इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बावजूद इनके [खुसरो] घर में सारे रीति-रिवाज हिन्दुओं के थे." क्षमा कीजियेगा यह रीति-रिवाज हिन्दुओं के नहीं उत्तरी भारत के थे. हिन्दुओं के रीति-रिवाज भी सम्पूर्ण देश में एक जैसे नहीं हैं. हो भी नहीं सकते.मनुष्य जहाँ रहता है वहाँ के रीति-रिवाज भी अपनाता है. स्वयं आपके रीति-रिवाज भी दक्षिणी भारत के हिन्दुओं से भिन्न होंगे.
ReplyDeleteखुसरो खड़ी बोली के नहीं, हिन्दवी के कवि थे. वह हिन्दवी जो ब्रज या अवधी जैसे विभाजनों से मुक्त थी और उर्दू लिपि में लिखी जाती थी. नागरी लिपिकाप्रयोग करने वाले लेखक इस भाषा को "भाखा' कहते थे. "संसकिरत है कूप जल, भाखा बहता नीर" या "का भाखा का संसकिरत प्रेम चाहिए सांच". खुसरो ने भारत की जिन बारह भाषाओं का उल्लेख मसनवी नुह्सेपहर में किया है उनमें एक भाषा है "देहलवी" हिन्दवी ने देहलवी का जब प्रभाव ग्रहण किया तो पहले रेख्ता और फिर उर्दू कहलाई. "खड़ी बोली" जैसी किसी भाषा का कोई उल्लेख किसी रचनाकार ने कभी नहीं किया. वैसे भी रचनाएं भाषा में होती हैं बोली में नहीं. हिन्दी के भाषा विद देहलवी की गणना भाषा के विकास में जान-बूझ कर नहीं करते. अन्यथा खड़ी बोली के स्थान पर वे देहलवी का प्रयोग आसानी से कर सकते थे. भारतेंदु युग में पहली बार खड़ी बोली शब्द का प्रयोग हुआ.भारतेंदु जी ने एजुकेशनल कमीशन के समक्ष एविडेंस में कहा था "सेकेण्ड ब्रांच आफ खड़ी बोली इज हिन्दी, फर्स्ट इस उर्दू.....दोज़ हू विश्ड टू बी लूक्ड अपान एज फैशनेबिल आर पोलाईट टू पब्लिक मीटिंग्स स्पोक उर्दू" [ हरिश्चंद्र समग्र 1054-1060].
पांडे जी आज आपने बहुत ही अनोखी और उपयोगी जानकारी दी ! बहुत शुभकामनाएं !
ReplyDeleteसुनने में तो यह भी आता है कि वीणा से सितार भी अमीर खुसरो ने ही बनाया था.
ReplyDeleteआपने खुसरो साहब के बारे में बड़ी जोरदार जानकारी दी ! सूना है अमीर खुसरो साहब निजामुद्दीन ओलिया साहब के मुरीद थे ?
ReplyDeleteउनका दिया नाम हिन्दवी हमें बेहद पसंद रहा है हम अपनी भाषा को हिन्दुस्तानी या हिन्दवी बोला करते हैं जिसके पीछे हमारा आशय देश के इस हिस्से में बोली जाने वाली उस भाषा से है जिसमें हिन्दी-उर्दू, अवधी-ब्रज जैसे भेद नही हैं जो शब्द अच्छा लगा उसे ढाल लिया अपनी भाषा में
ReplyDeleteअमीर खुसरो औलिया के मुरीद थे और उनके इंतकाल के बाद उन्होंने कहा था
गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केश,
चल खुसरो घर आपने, सांझ भई चहु देश
लगभग छः महीने में ही खुसरो का भी इंतकाल हो गया
बहुत बढ़िया जानकारी रही आमिर खुसरो के बार में... आभार !
ReplyDeleteसब से पहले तो आप को नमस्कार बहुत दिनो बाद आये, ओर आज का लेख भी बहुत ही अच्छा लगा, ओर मै भी आप की बात से सहम्त हूं, क्योकि मुझे इस बारे कुछ नही पता.
ReplyDeleteधन्यवाद
आपने अमीर खुसरो पर
ReplyDeleteसार्थक जानकारी दी है.
उनका योगदान सचमुच
अविस्मरनीय है.
===============
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
आपने स विस्तार लिखा है
ReplyDeleteजिससे अमीर खुसरो जी की
प्रतिभा के सामने
नमन करने को मन करता है
- लावण्या
@भाई युग-विमर्श जी, आप तो तानाशाह की तरह बात कर रहे हैं। आप एक तरफ कह रहे हैं ‘’यह रीति-रिवाज हिन्दुओं के नहीं उत्तरी भारत के थे।‘’ दूसरी तरफ आप हिन्दवी को उर्दू करार देते हुए खुसरो को उर्दू का कवि करार देने पर तुले हुए हैं। उदारता और संकीर्णता का यह मेल कैसे निभेगा ! ‘हिन्दुओं के रीति-रिवाज’ कहने पर बिदक रहे हैं और हिन्दी-उर्दू का बखेड़ा खड़ा करने में आपके मन को संतुष्टि मिलती है !
ReplyDeleteआप कह रहे हैं कि खुसरो खड़ी बोली के नहीं, हिन्दवी के कवि थे, वह हिन्दवी जो उर्दू लिपि में लिखी जाती थी। भैया, जब यह बात थी तो खुसरो ने हिन्दवी शब्द का इस्तेमाल करने के बजाए सीधे क्यों नहीं कह दिया कि हम उर्दू के कवि हैं !
आप कह रहे हैं कि रचनाएं भाषा में होती हैं, बोली में नहीं। तो बोली में रचित सामग्री को आप रचना नहीं मानेंगे ! यदि बोलियों में रचनाएं नहीं होती तो कोई भी बोली भाषा के स्तर को प्राप्त नहीं कर पाती।
अच्छा लेख। यदि उनकी कुछ मुकरियां आदि दी जातीं तो लेख और रोचक बन पाता। बधाई।
ReplyDeletebahut hi achhi jankari rahi amir khusro ji par.saath unko kuch rachana hoti char chand lag jate.
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति के लिये बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteअच्छी जानकारी
ReplyDeleteऔर तमाम टिप्पणीयों ने मिलकर चर्चा और जानदार बना दी है...
खेती-बाड़ी में खुसरो को पढ़कर अच्छा लगा। वैसे मैं आपसे खेती-बाड़ी से जुड़ी एक जानकारी चाहती थी। गन्ना किसानों के बारे में। पश्चिम उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान पैसे के मामले में कमतर नहीं, गन्ने को लेकर हमेशा खींचतान मची रहती है, ऐसे में गन्ना किसानों के हालात की ज़मीनी हक़ीकत क्या है?
ReplyDeleteपांडे जी आज आपने बहुत ही अनोखी और उपयोगी जानकारी दी !
ReplyDeletekhusro par jankari se adhik maja bhasha vido ke comment pad kar aaya...badhai
ReplyDeleteअमीर खुसरो के बारे में इतनी गहरी जानकारी देने का शुक्रिया।
ReplyDeleteमहोदय आपने एक बहुत अच्छी एतिहासिक जानकारी उपलब्ध कराकर हिन्दी प्रेमी बहुत पाठको को लाभान्वित किया है इस हेतु बधाई स्वीकारें / आपने अमीर खुसरों की रुबाइयों से भी लाभान्वित करवायें जो की हिन्दी साहित्य की अमूल धरोहर है / आपको याद होगा की श्री हरिवंश राय बच्चन जी ने इनकी रुबाइयों का कवित्त रूप में अनुवाद किया है / खुसरों जी ने कहा था की हमने अच्छा काम किया उसके बदले हमको स्वर्ग मिला यह तो हमारी मजदूरी हुई तेरा क्या अहसान हुवा उसी को हरिवंश राय बच्चन जी ने इस रूप में लिखा की मलिन माटी सा निर्मित देह आख़िर क्यों न करती पाप / तू हमको क्षमा कर क्यों की गलती तेरी ही है क्योंकि मलिन मिटटी से तुने हमें बनाया है तू हमें क्षमा कर हम तुझे करेगे माफ़ /
ReplyDeleteमेरे अपने ब्लॉग पर आज संयम पर एवं श्री हनुमान सिंह गुर्जर की रचना जो मुनि तरुण सागर जी के स्वास्थ्य कामना हेतु लिखी है पड़ने का कष्ट करें /
आमिर खुसरो पर क्या बढ़िया जानकारी दी है.खुसरो के बिना क्या हिन्दी क्या उर्दू....... तोसे नैना मिलाये के ....सुन लीजिये तो मज़ा आ जाता है......अच्छी जानकारी देने का
ReplyDeleteअच्छी जानकारी
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वाकई एक शानदार हस्ती से रूबरू करवाया आपने ........दारा- शिकोह भी इसका दूसरा उदारहन है
ReplyDeletekheti badi par aapane bahut dhyan diya hai isase mahatvpurn bat kuchh nahin hai.
ReplyDeleteअच्छी जानकारी
ReplyDeleteभारतीय संस्कृति सनातन है जो हमेशा बनी रहेगी पर कई बार एक ऐसा समय आता है जब पश्चिमी हवा हमारे संस्कृतियों की महत्वता युवा पीढ़ियों के सामने से कम करने की कोशिश करती हैं और आज हमारे आस पास वह समय आ गया है जब पश्चिमी हवा आंधियों का रूप लेकर धीरे-धीरे हमारी युवा पीढ़ियों की तरफ बढ़ रही है और हमारी युवा पीढ़ी इसे सिर्फ हवा समझ कर इसका आनंद ले रही है..read more...हमारी विरासत
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