
अब से दसेक साल पहले तक लोग आँख मारकर कहते थे, "इनके शौक़ ज़रा अलग हैं." 'नवाबी शौक़', 'पटरी से उतरी गाड़ी', 'राह से भटका मुसाफ़िर' जैसे जुमलों में तंज़ था लेकिन तिरस्कार या घृणा की जगह एक तरह की स्वीकार्यता भी थी.
हमारे स्कूल में बदनाम मास्टर थे, हमारी गली में मटक-मटकर चलने वाले 'आंटी जी' थे, भारत की राजनीति में कई बड़ी हस्तियाँ थीं जिनकी 'अलग तरह की रंगीन-मिजाज़ी' के क़िस्से मशहूर थे लेकिन धारा 377 का नाम अशोक राव कवि के अलावा ज्यादा लोगों को पता नहीं था.
भारत ऐसा देश है जहाँ अर्धानारीश्वर पूजे जाते हैं, किन्नरों का आशीर्वाद शुभ माना जाता है, बड़े-बड़े इज़्ज़तदार नवाब थे जिनकी वजह से 'नवाबी शौक़' जैसे मुहावरे की उत्पत्ति हुई, वहीं छक्के और हिजड़े दुत्कारे भी जाते हैं.
ये सब अलग-अलग दौर की, अलग-अलग तबक़ों की, अलग-अलग सामाजिक संरचनाओं की बातें हैं लेकिन भारतीय चेतना में विवाह के दायरे में संतानोत्त्पति से जुड़े सर्वस्वीकृत विषमलिंगी सेक्स के इतर एक पूरा इंद्रधनुष है जिसमें सेक्स और मानव देह से जुड़े सभी तरह के रंग रहे हैं, उसकी बराबरी किसी और समाज में नहीं दिखती.
लेकिन नए मिलेनियम में ऐसा कैसे हुआ कि क्वीर, ट्रांसवेस्टाइट, ट्रांससेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, थर्ड सेक्स, ट्रैप्ड इन रॉन्ग बॉडी....न जाने कितने नए विशेषण अचानक हमारे बीच चले आए जिनका सही अर्थ ढूँढ पाना विराट यौन बहुलता वाली भारतीय संस्कृति के लिए बड़ी चुनौती बन गया.
नए मिलेनियम में ऐसा क्या था जिसने भारतीय समाज के भीतर चुपचाप बह रही समलैंगिकता की धारा को सड़कों पर ला दिया, गे प्राइड मार्च सिर्फ़ कुछ वर्ष पहले तक भारत में कल्पनातीत बात थी.
मेरी समझ से सिर्फ़ एक चीज़ नई थी वह है ग्लोबलाइज़ेशन.
'गर्व से कहो हम गे हैं' का नारा 1960 के दशक के अंत में अमरीका के स्टोनवाल पब से शुरू हुए दंगों से जन्मा और दो दशक के भीतर पूंजीवादी पश्चिमी समाज में एक मानवाधिकार आंदोलन के रूप में फैल गया, 1990 आते आते यूरोप और अमरीका में लगभग पूरी राजनीतिक स्वीकार्यता मिली लेकिन समाजिक स्वीकार्यता आज भी बेहद मुश्किल है.
दिल्ली हाइकोर्ट ने सहमति से होने वाले समलैंगिक यौनाचार को क़ानूनन अपराध की श्रेणी से हटा दिया तब जिस तरह का जश्न मना उससे यही लगा कि भारत में यही एक बड़ा मुद्दा था जो हल हो गया है, अब भारत दुनिया के अग्रणी देशों की पांत में खड़ा हो गया है.
निस्संदेह आधुनिक पूंजीवादी पाश्चात्य लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरुप यह न्यायसम्मत फ़ैसला है, जो जश्न मना रहे हैं उनमें सिर्फ़ एलजीटीबी (गे, लेस्बियन, ट्रांससेक्सुअल एंड बाइसेक्सुअल) समुदाय के ही लोग नहीं हैं, मेरे पढ़े-लिखे, विवाहित, बाल-बच्चेदार, फेसबुक वाले, मल्टीनेशनल वाले, शिक्षित-सभ्य सुसंकृत शहरी दोस्त भी हैं.
जश्न मनाने वालों से मुझे कोई शिकायत नहीं बल्कि उन्हें ही मुझसे है कि मैं इसे एक महान क्रांतिकारी घटना के तौर पर देखकर उनकी तरह हर्षित क्यों नहीं हो रहा हूँ.
मेरे दोस्तों, मेरा मानना है कि यह उन चंद सौ लोगों का दबाव था जो भारत को पश्चिमी पैमाने पर एक विकसित लोकतंत्र के तौर पर सेलिब्रेट करना चाहते हैं. जल्दी ही आप देखेंगे कि भारत में 'क्रुएलिटी अगेंस्ट एनिमल' को रोकने के लिए आंदोलन चलेगा, एक कड़ा क़ानून बनेगा और आप फिर जश्न मनाएँगे.
जब मैं छत्तीसगढ़ और झारखंड की लड़कियों की तस्करी, किसानों की आत्महत्या, आदिवासियों और दलितों के शोषण, भूखे बेघर बच्चों की पीड़ा का मातम मनाता हूँ, जब मैं उम्मीद की क्षीण किरण 'नरेगा' को लेकर उत्साहित हो जाता हूँ तब आप मेरे सुख-दुख कहाँ शामिल होते हैं.