Showing posts with label भारत. Show all posts
Showing posts with label भारत. Show all posts

Wednesday, September 22, 2010

इस जीएम आलू में होगा साठ फीसदी ज्‍यादा प्रोटीन

उत्‍तरप्रदेश के एक गांव में आलू चुनते ग्रामीण (फोटो रायटर से साभार)
भारतीय वैज्ञानिकों ने आलू की ऐसी जीन संवर्धित प्रजाति को विकसित करने में कामयाबी हासिल की है, जिसमें साठ प्रतिशत अधिक प्रोटीन होगा। खास बात यह भी है कि इस प्रजाति में सेहत के लिए फायदेमंद समझे जानेवाले अमीनो एसिड, लाइसिन, टायरोसिन व सल्‍फर भी अधिक मात्रा में हैं, जो आम तौर पर आलू में बहुत सीमित होते हैं।

इस खोज को अंजाम देनेवाले नेशनल इंस्‍टीट्यूट फॉर प्‍लांट जीनोम रिसर्च की शोध टीम की प्रमुख शुभ्रा चक्रवर्ती का कहना है कि विकासशील और विकसित देशों में आलू मुख्य भोजन में शुमार है और इस खोज से काफी अधिक संख्या में लोगों को फायदा होगा। इससे आलू से बने पकवानों को स्वाद और सेहत दोनों के लिए फायदेमंद बनाया जा सकेगा। इसके अलावा वह इस खोज को जैव इंजीनियरिंग के लिए भी फायदेमंद मानती हैं। उनका कहना है कि इससे अगली पीढ़ी की उन्नत प्रजातियों को खोजने के लिए वैज्ञानिक प्रेरित होंगे।

विज्ञान पत्रिका "प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल अकेडमी ऑफ सांइस" में प्रकाशित शोध रिपोर्ट में दावा किया गया है कि आलू की अन्य किस्मों के बेहतरीन गुणों से भरपूर इस किस्‍म को लोग हाथों-हाथ लेंगे। रिपोर्ट के अनुसार इस प्रजाति में संवर्धित गुणसूत्रों वाली आलू की सबसे प्रचलित प्रजाति अमरनाथ के गुणसूत्रों को भी मिलाया गया है।

रिपोर्ट के अनुसार दो साल तक चले इस शोध में आलू की सात किस्मों में संवर्धित गुणसूत्र वाले जीन "अमरंथ एल्बुमिन 1 (AmA1)" को मिलाने के बाद नयी प्रजाति को तैयार किया गया है। प्रयोग में पाया गया कि इस जीन के मिश्रण से सातों किस्मों में प्रोटीन की मात्रा 35 से 60 प्रतिशत तक बढ़ गयी। इसके अलावा इसकी पैदावार भी अन्य किस्मों की तुलना में प्रति हेक्टेएर 15 से 20 प्रतिशत तक ज्यादा है।

इसके उपयोग से होनेवाले नुकसान के परीक्षण में भी यह प्रजाति पास हो गयी। चूहों और खरगोशों पर किए गए परीक्षण में पाया गया कि इसके खाने से एलर्जी या किसी अन्य तरह का जहरीला असर नहीं हुआ है। रिपोर्ट में इस किस्म को हर लिहाज से फायदेमंद बताते हुए व्यापक पैमाने पर इसे पसंद किए जाने का विश्वास व्यक्त किया गया है। हालांकि अभी इसे उपयोग के लिए बाजार में उतारे जाने से पहले पर्यावरण मंत्रालय की जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी से हरी झंडी मिलना बाकी है।

मूल खबर को हिन्‍दी में यहां और अंगरेजी में यहां पढ़ा जा सकता है।

Wednesday, July 8, 2009

आर्ट ऑफ लिविंग, श्री श्री रविशंकर और बाबा रामदेव : अंतरजाल पर योग चर्चा

वॉयस ऑफ अमेरिका की एक खबर में बताया गया है कि रविशंकर के योग से कुछ पूर्व अमेरिकी सैनिकों को काफी फायदा पहुंचा है।
''शिकागो में रविवार को सैकड़ों लोगों के बीच वियतनाम मे लड़ चुके कुछ पूर्व अमेरिकी सैनिकों ने बताया की आर्ट ऑफ़ लिविंग की योग तकनीक से उन्हें तनाव दूर करने में कितना फायदा हुआ। सैनिकों के ये बयान रिकॉर्ड किए थे जिम लार्सन ने जो कि पूर्व सैनिकों के लिए खास तौर से तैयार किए गए कार्यक्रम के प्रमुख हैं। जिम ने इन सैनिकों को एक हफ्ते की ट्रेनिंग दी थी। श्री श्री रविशंकर मानते हैं कि पूर्व सैनिकों के लिए लड़ाई के मैदान का तनाव दूर करने में उनकी तकनीक काफी कारगर है।''
योग विद्या को हाल के दिनों में भारत और विश्‍व में जो लोकप्रियता मिली है, वह अब नई बात नहीं है। लेकिन यह खबर पढ़ने के बाद इंटरनेट पर योग संबंधी जानकारियों के लिंक खंगालने की इच्‍छा हुई। थोड़ी तलाश के बाद श्री श्री रविशंकर और बाबा रामदेव से संबंधित योग संबंधी कुछ काम के लिंक मिले, जिन्‍हें संभवत: आप भी पसंद करें।

http://www.artoflivingyoga.org/hn/ पर योग की परिभाषा देते हुए कहा गया है :
शरीर, मन और आत्मा की तारतम्यता ही योग है।
योग शब्द संस्कृत के यूज् से आया है जिसका अर्थ है मिलन (संघ)
• ग्रंथों के साथ स्वयं को मिलाना (ग्रंथों के साथ आत्मसात)
• व्यक्तिगत चेतना को सार्वभौमिक चेतना से मिलाना।
योग शरीर के लिए केवल एक प्रकार का व्यायाम ही नहीं है, यह एक प्राचीन प्रज्ञता है, जो कि स्वास्थ्य, ख़ुशी ओर शांतिपूर्ण जीवन का ढंग है जो अंतत स्वयं से मिलाता है।
हर मानव में खुश रहने की एक सहज इच्छा होती है। प्राचीन काल में ऋषि मुनि जीवन की खोज में जांच करते करते उस चैतन्य अवस्था में जाने में सक्षम हुए और उन्हें स्वास्थ्य, ख़ुशी ओर जीवन के रहस्यों के बारे मालूम हुआ।
इस ठिकाने के साथ अच्‍छी बात यह है कि यह हिन्‍दी में भी है। इसी से जुड़ी एक साइट है http://www.ayurvedic-cooking.com/ जिसमें आहार संबंधी जानकारियां हैं। बाबा रामदेव से संबंधित साइट http://www.baba-ramdev.info/ हालांकि अंग्रेजी में है, लेकिन इसमें आसन और ध्‍यान संबंधी काफी ज्ञानवर्धक बातें हैं।

Wednesday, January 7, 2009

सरकारी नीतियों ने करायी बासमती चावल की फजीहत


भारत सरकार की नीतियों ने हमारे बासमती चावल (Basmati Rice) का यह हाल कर दिया है कि अंतरराष्‍ट्रीय बाजार में इसके खरीदार नहीं मिल रहे हैं। अपने स्‍वाद और खुशबू के लिए दुनिया भर में विख्‍यात इस चावल की यह दशा भारत सरकार द्वारा इसके निर्यात पर शुल्‍क लगाए जाने की वजह से हुई है।

निर्यात शुल्‍क के चलते पाकिस्तानी बासमती के मुकाबले भारतीय बासमती की कीमत 400 डॉलर प्रति टन ज्यादा हो गयी है। इस कारण खरीदार पाकिस्तानी बासमती को तरजीह दे रहे हैं और पिछले कुछ महीनों में भारतीय बासमती चावल को बाजार के एक बड़े हिस्से से हाथ धोना पड़ा है।

मालूम हो कि घरेलू बाजार में चावल की उपलब्‍धता सुनिश्चित करने की खातिर केन्‍द्र सरकार ने अप्रैल 2008 में बासमती पर निर्यात शुल्क लगा दिया था, लेकिन इसे हटाने पर वित्त मंत्रालय ने अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया है। निर्यातकों की बार-बार मांग के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय ने वित्त मंत्रालय से मामले को देखने को कहा है।

करीब 5000 करोड़ रुपए के भारतीय बासमती चावल का खरीदार तलाश रहे इसके निर्यातकों की परेशानी का आलम यह है कि उन्‍हें 8000 रुपए प्रति टन के शुल्क के अलावा 1200 डॉलर प्रति टन के न्यूनतम निर्यात मूल्य से भी पार पाना पड़ता है। इन वजहों से पश्चिम एशिया और यूरोप के परंपरागत बाजारों में सिर्फ दस फीसदी भारतीय बासमती का निर्यात ही हो रहा है। कारोबारी अमूमन बासमती किसानों से उनकी फसल खरीदने का करार अक्टूबर-दिसंबर के बीच करते हैं। इस बीच पाकिस्तान की मुद्रा में काफी गिरावट आयी और वहां का बासमती चावल भारत के मुकाबले 400-500 डॉलर प्रति टन सस्ता पड़ने लगा। निर्यातकों का का कहना है कि पाकिस्तानी बासमती के मुकाबले 100-150 डॉलर प्रति टन प्रीमियम का बोझ तो वह सह सकते हैं, लेकिन मौजूदा 400-500 डॉलर प्रति टन प्रीमियम का बोझ उठाना उनके लिए मुमकिन नहीं।

गौरतलब है कि पाकिस्तान में इस बार बासमती की बंपर फसल हुई है और वहां की मुद्रा भी काफी कमजोर हुई है। एक डॉलर के बदले पाकिस्तानी मुद्रा का भाव 82 रुपए है। इसके अलावा, पाकिस्तान भारतीय बासमती के बाजार को हासिल करने के लिए हर संभव कोशिश भी कर रहा है।

उल्‍लेखनीय है कि विश्व में बासमती चावल के बाजार में भारत का हिस्सा 53 फीसदी है। दुनिया के 130 देशों में भारत के बासमती चावल का निर्यात होता रहा है। सऊदी अरब, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात, अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, यमन, कनाडा, ईरान, जर्मनी, ओमान, दक्षिण अफ्रीका, फ्रांस सीरिया, बेल्जियम और आस्ट्रेलिया आदि हमारे देश के बासमती चावल के कुछ प्रमुख आयातक देश हैं। वर्ष 2006-07 के दौरान चीन को भी प्रायोगिक तौर पर 54 टन बासमती चावल का निर्यात किया गया था।

भारत की आधिकारिक कृषि उत्पाद निर्यात संस्था 'कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ निर्यात विकास प्राधिकरण' (एपीईडीए) के अधिकारियों की मानें तो भारतीय बासमती को गुणवत्ता, स्वाद और सुगंध तीनों ही स्तरों पर व्‍यापारिक प्रतिद्वन्‍दी पाकिस्‍तान की अपेक्षा वरीयता दी जाती है। हालांकि अंतरराष्‍ट्रीय बाजार में कीमतों में भारी अंतर ने सारा गुड़ गोबर कर दिया है।

Sunday, January 4, 2009

आत्‍महत्‍या कर रहे किसान की कविता


किसान और आत्‍महत्‍या
रचनाकार-हरीशचन्‍द्र पाण्‍डे

उन्हें धर्मगुरुओं ने बताया था प्रवचनों में
आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
तब भी उन्होंने आत्महत्या की

क्या नर्क से भी बदतर हो गई थी उनकी खेती

वे क्यों करते आत्महत्या
जीवन उनके लिए उसी तरह काम्य था
जिस तरह मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
लोकाचार उनमें सदानीरा नदियों की तरह
प्रवहमान थे
उन्हीं के हलों के फाल से संस्कृति की लकीरें
खिंची चली आई थीं
उनका आत्म तो कपास की तरह उजार था
वे क्यों करते आत्महत्या

वे तो आत्मा को ही शरीर पर वसन की तरह
बरतते थे
वे कड़ें थे फुनगियाँ नहीं
अन्नदाता थे, बिचौलिये नहीं
उनके नंगे पैरों के तलुवों को धरती अपनी संरक्षित
ऊर्जा से थपथपाती थी
उनके खेतों के नाक-नक्श उनके बच्चों की तरह थे

वो पितरों का ऋण तारने के लिए
भाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गए
वो आरुणि के शरीर को ही मेंड़ बना लेते थे
मिट्टी का
जीवन-द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए

कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना
और दुर्नीति को नीति।

(रचना कविता कोश से और फोटो बीबीसी हिन्‍दी से साभार)

Thursday, August 14, 2008

पुस्‍तक अंश : स्‍वतंत्रता दिवस पर विशेष

विख्‍यात इतिहासकार सुमित सरकार की पुस्‍तक 'आधुनिक भारत' का एक अंश

पंद्रह अगस्‍त

अंतत: भारतीय प्रायद्वीप को स्‍वतंत्रता मिल ही गयी और स्‍वतंत्रता-सेनानियों के सुनहरे सपनों की तुलना में अनेक लोगों को यह तुच्‍छ ही प्रतीत हुई होगी। कारण कि अनेक वर्षों तक भारत में मुसलमानों और पाकिस्‍तान में हिन्‍दुओं के लिए स्‍वतंत्रता का अर्थ रहा – अचानक भड़क उठनेवाली हिंसा और रोजगार तथा आर्थिक अवसरों की तंगी के बीच या अपनी पीढि़यों पुरानी जड़ों से उखड़कर शरणार्थियों के रेले में सम्मिलित हो जाने के बीच चयन करना। यह बहुआयामी मानव-त्रासदी बलराज साहनी की अंतिम फिल्‍म 'गरम हवा' में बड़े ही हृदयस्‍पर्शी ढंग से चित्रित हुई है।

एक अन्‍य स्‍तर पर जो पूर्णत: असंबद्ध नहीं है, वे आर्थिक एवं सामाजिक विषमताएं अभी भी बनी रहीं, जिन्‍होंने साम्राज्‍यवाद-विरोधी जन-आंदोलन को ठोस आधार प्रदान किया था क्‍योंकि शहरों और गांवों में विशेषाधिकार-संपन्‍न समूह राजनीतिक स्‍वंत्रता की प्राप्ति का संबंध उग्र सामाजिक परिवर्तनों से तोड़ने में सफल रहे थे। अंग्रेज तो चले गए थे किन्‍तु पीछे छोड़ गए थे अपनी नौकरशाही और पुलिस जिनमें स्‍वतंत्रता के बाद भी विशेष अंतर नहीं आया था और जो उतने ही (कभी-कभी तो और भी अधिक) दमनकारी हो सकते थे।

अपने जीवन के अंतिम महीनों में महात्‍मा गांधी के अकेलेपन और व्‍यथा के कारण केवल सांप्रदायिक दंगे ही नहीं थे। अपनी हत्‍या से कुछ ही पहले उन्‍होंने चेतावनी दी थी कि देश को अपने ''सात लाख गांवों के लिए सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजादी पानी अभी बाकी है'', ''कि कांग्रेस ने 'राटन बरो' बना लिए हैं जो भ्रष्‍टाचार की ओर जाते हैं, ये वे संस्‍थाएं हैं जो नाममात्र के लिए ही लोकप्रिय और जनतांत्रिक हैं।'' इस कारण उन्‍होंने सलाह दी थी कि राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस को भंग कर दिया जाना चाहिए और उसके स्‍थान पर एक लोकसेवक संघ की स्‍थापना की जानी चाहिए जिसमें सच्‍चे अर्थों में समर्पित, आत्‍मबलिदानी, रचनात्‍मक ग्राम-कार्य करनेवाले लोग हों।

फिर भी करोड़ों लोग जो समस्‍त भारतीय प्रायद्वीप में खुशियां मना रहे थे, अर्धरात्रि को भारत की 'नियति के साथ भेंट' पर नेहरू का भाषण सुनकर रोमांचित हो रहे थे और जिन्‍होंने उस समय बालक रहे व्‍यक्ति के लिए भी 15 अगस्‍त को एक अविस्‍मरणीय अनुभव बना दिया था, वे पूर्णरूपेण भ्रांति के शिकार नहीं थे। 1948-51 में कम्‍युनिस्‍टों ने अपनी कीमत पर ही जाना कि 'ये आजादी झूठी है' के नारे में दम नहीं था। भारत की स्‍वाधीनता उपनिवेशवाद के विघटन की एक ऐसी प्रक्रिया का आरंभ थी जिसे, कम से कम जहां तक राजनीतिक स्‍वाधीनता का प्रश्‍न है, रोकना कठिन सिद्ध हुआ।

('आधुनिक भारत' के पहले छात्र संस्‍करण 1992 के पृष्‍ठ 504-505 से साभार)

Friday, June 20, 2008

किसान से बीज पर 2885 फीसदी मुनाफा, यह तो सीधे लूट है।

हमारा धान 7 रु. 45 पैसे में हमसे लिया जाये और वैसा ही धान हमें 215 रु. में बीज के नाम पर दिया जाये, तो इसे आप क्‍या कहेंगे? कोई भी कंपनी कारोबार मुनाफा के लिए ही करती है, लेकिन क्‍या यह मुनाफा 2885 फीसदी होना चाहिए? यह तो लूट की खुली छूट है। सरासर ठगी है, धोखाधड़ी। हम कैसे मानें कि इस देश में किसानों का भला सोचनेवाली कोई सरकार है?

दरअसल निजी कंपनियां बीज के नाम पर किसानों लूट रही हैं, और सरकार आंखें मुंदे हुए है। यही नहीं, बहुधा ऐसा देखा जाता है कि ये कंपनियां सरकारी संसाधनों का इस्‍तेमाल भी करती हैं। हद तो यह है कि सरकारी कर्मचारी व जनप्रतिनिधि इनकी मदद में खड़े रहते हैं। सरकारी संसाधनों का इस्‍तेमाल ये कंपनियां इस उद्देश्‍य से करती हैं कि लोग इन्‍हें सरकारी कार्यक्रम का हिस्‍सा समझें। अशिक्षित या अल्‍पशिक्षित किसान इन्‍हें वैसा समझ भी लेते हैं और खुशी-खुशी बोरे भर अनाज की कमाई दो-चार मुट्ठी बीज के लिए गवां देते हैं। एक अंधी आशावादिता उनकी कंगाली को और बढ़ा देती है। निराशा से घिरे वे धरतीपुत्र लॉटरी का टिकट समझ कर महंगा बीज खरीदते हैं कि शायद इतनी फसल हो कि उनके सारे दुख दूर हो जायें। लेकिन वैसा कुछ नहीं होता। कभी-कभी तो महंगे बीज से होनेवाली पैदावार उनके घर के बीज से भी कम होती है।

जब भी बीज बोने का सीजन आता है, हमारे खेतिहर इलाकों में तथाकथित उन्‍नत बीज बेचनेवाली कंपनियों व संस्‍थाओं के एजेंटों की चहलकदमी बढ़ जाती है। इनमें से कुछ लोग सरकारी मशीनरी के सहयोग से किसान प्रशिक्ष्‍ाण शिविरों का आयोजन भी करते हैं। हालांकि वह केवल स्‍वांग होता है, उनका असली उद्देश्‍य बीज बेचना होता है। कितना चोखा धंधा है? 7 रु. 45 पैसे में मिलनेवाला एक किलो धान बेच रहे हैं दो सौ ढाई सौ रुपये में। क्‍या कोई कमाएगा ? पांच किलो भी बेच दिये तो हजार रुपये धरे हैं। उधर किसान चार बोरा धान लेकर जाये तब शायद इतने पैसे मिलें।

केन्‍द्र और राज्‍य की सरकारों के बीज निगम हैं, राष्‍ट्रीय बीज नीति भी है। लेकिन सब जहां के तहां हैं। खेती-बाड़ी की समस्‍याएं प्रशासनिक अधिकारियों के लिए के लिए कभी प्राथमिकता नहीं बन पातीं। रोम के जलने और नीरो के चैन से बंशी बजानेवाली स्थिति ही हमेशा रहती है। चालू खरीफ वर्ष 2008 में बीज विस्‍तार कार्यक्रम के तहत बिहार सरकार ने बिहार राज्‍य बीज निगम के धान बीज किसानों के बीच उपलब्‍ध कराने पर काफी जोर दिया। तब भी बेहतर बीज का झांसा देकर निजी कं‍पनियों के एजेंट किसानों की जेबें कतरने में कामयाब रहे।

यह तो हमारा अपने इलाके का अनुभव है। शायद विदर्भ की स्‍ि‍थति और अधिक खराब है। मशहूर पत्रकार पी. साईंनाथ कहते हैं कि विदर्भ क्षेत्र में 1994 में स्थानीय स्तर पर एक किलो कपास के बीज की कीमत 7 रुपये किलो होती थी। लेकिन आज उसी इलाके में मोनसेंटों द्वारा एक किलो कपास का बीज 1800 रुपये किलो बेचा जा रहा है। यह अंधेरनगरी नहीं तो क्‍या है?

किसान की उपज की कीमतों को नियंत्रित करने के तमाम उपाय हों और उसकी कृषि लागत कम करने का कोई प्रयास न हो, यह ठीक नहीं। किसान अभाव में रहेगा तो खेती भी उन्‍नत नहीं हो सकेगी। आज की तारीख में बीज, खाद, बिजली, डीजल कोई भी चीज किसान को सस्‍ती व वाजिब कीमतों पर नहीं मिल रही हैं। ये चीजें महंगी तो हैं ही, अक्‍सर किसानों को खाद व डीजल कालाबाजार में खरीदना होता है। आखिर कितना बोझ सहेगा भारत का किसान?

Saturday, May 31, 2008

अब कौन सा छू-मंतर कर देंगे वित्तमंत्री जी?


क्या सचमुच सरकार गरीबी मिटा रही है? वह शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, पेयजल आदि पर जो खर्च कर रही उसका लाभ सही में लक्षित लोगों को मिल रहा है? यदि गरीबी सबसे अधिक प्रदूषण फैलाती है तो उस गरीबी का जिम्मेवार कौन है? ये सवाल मैं तहलका में प्रकाशित वित्तमंत्री पी चिदंबरम की शोमा चौधरी व शांतनु गुहा रे के साथ बातचीत के सन्दर्भ में कर रहा हूँ, जिसपर अभय तिवारी जी ने अपने चिट्ठे में शानदार लेख लिखा है।

सच तो यह यह है कि वित्तमंत्री ने इस बातचीत में कई बातें ऐसी कही हैं, जो कांग्रेस की घोषित नीतियों व कार्यक्रम तथा बापू की गाँव सम्बन्धी अवधारणा के विरूद्ध है। गांव, गरीब, कृषि व किसान के प्रति सरकार की सोच तो ये बातें जाहिर कर ही देती हैं।

पी चिदंबरम का दावा है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल व स्वच्छता पर जितनी राशि इस समय खर्च हो रही है, उतनी भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुई। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या सही में इसका फायदा उनलोगों तक पंहुच रहा है, जिन तक पहुंचना चाहिए। शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल व स्वच्छता की मौजूदा स्थिति क्या है, समाचारपत्रों में रोज छपता है और हर कोई उससे दो-चार होता रहता है।

श्री चिदंबरम कहते हैं, "गरीबी प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक है। गरीब सबसे गंदी दुनिया में रहते हैं। उनकी दुनिया में सफाई, पेयजल, आवास, हवा...जैसी चीजें नारकीय अवस्था में होती हैं। हर चीज प्रदूषणयुक्त होती है। इसलिए मैंने कहा कि सबसे ज्यादा प्रदूषण गरीबी फैलाती है। ये हमारा अधिकार और कर्तव्य है कि पहले गरीबी को हटाया जाए। इस प्रक्रिया में हम उन चिंताओं के प्रति संवेदनशील रहेंगे जो दूसरे देशों द्वारा व्यक्त की गई हैं।" इससे तो यही लगता है कि उनकी नजर में गरीबों और कीडे-मकोडों में कोई अन्तर नहीं। हम भी मान लेते हैं उनकी बात। लेकिन इस गरीबी के लिए जिम्मेवार कौन है। आजादी के बाद अधिकांश समय तो इस देश में कांग्रेस पार्टी की सरकार ही रही है। फिर हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी और वित्तमंत्री जी कोई पहली बार तो देश के मंत्री बने नही हैं। क्या किया इतने दिनों तक। इतने दिनों तक गरीबी नहीं हटा सके तो अब कौन सा छू-मंतर कर देंगे?

हमारे इलाके में मुसहर जाती सबसे गरीब मानी जाती है। सरकार ने स्वच्छता अभियान के तहत उनके उपयोग के लिए जो शौचालय बनवाये हैं, उसका नमूना इस फोटो में देखा जा सकता है। हमारी सरकार में बैठे लोग कर लेंगे वैसे शौचालय में शौच? अब ये गरीब खुले में शौच करते हैं तो उसके लिए कौन दोषी है? सरकार ने हमारा ही पैसा हमारे नाम पर खर्च तो कर दिया लेकिन लाभ तो हमें नहीं मिला।

वित्तमंत्री का कहना है कि गरीबी इस देश में ५००० सालों से है। यह बात ऐतिहासिकता से परे है। जब हम गरीब ही थे तो वास्को दी गामा को क्या पड़ी थी भारत का जलमार्ग खोजने की? वित्तमंत्री जी हमारी विरासत को तो गाली मत दो। आपको हमारे जन-गन-मन पर गर्व न हो, हमें तो है। क्या हो गया है इस कांग्रेस पार्टी को? एक तरफ़ वह स्वर्गीय राजीव गाँधी के पंचायती राज के सपने को पूरा करने की बात करती है, दूसरी तरफ़ उसकी सरकार के मंत्री गांवों को मिटाने की बात करते हैं। वित्तमंत्री जी कहते हैं कि गरीबी-मुक्त भारत को लेकर उनका जो विचार है, उसमें तकरीबन ८५ फीसदी लोग शहरों में रहेंगे।

भाई हमें तो ये विरोधाभास समझ में नही आ रहा। किसी को आ रहा तो बताये, मेहरबानी होगी।