उत्तरप्रदेश के एक गांव में आलू चुनते ग्रामीण (फोटो रायटर से साभार) |
इस खोज को अंजाम देनेवाले नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर प्लांट जीनोम रिसर्च की शोध टीम की प्रमुख शुभ्रा चक्रवर्ती का कहना है कि विकासशील और विकसित देशों में आलू मुख्य भोजन में शुमार है और इस खोज से काफी अधिक संख्या में लोगों को फायदा होगा। इससे आलू से बने पकवानों को स्वाद और सेहत दोनों के लिए फायदेमंद बनाया जा सकेगा। इसके अलावा वह इस खोज को जैव इंजीनियरिंग के लिए भी फायदेमंद मानती हैं। उनका कहना है कि इससे अगली पीढ़ी की उन्नत प्रजातियों को खोजने के लिए वैज्ञानिक प्रेरित होंगे।
विज्ञान पत्रिका "प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल अकेडमी ऑफ सांइस" में प्रकाशित शोध रिपोर्ट में दावा किया गया है कि आलू की अन्य किस्मों के बेहतरीन गुणों से भरपूर इस किस्म को लोग हाथों-हाथ लेंगे। रिपोर्ट के अनुसार इस प्रजाति में संवर्धित गुणसूत्रों वाली आलू की सबसे प्रचलित प्रजाति अमरनाथ के गुणसूत्रों को भी मिलाया गया है।
रिपोर्ट के अनुसार दो साल तक चले इस शोध में आलू की सात किस्मों में संवर्धित गुणसूत्र वाले जीन "अमरंथ एल्बुमिन 1 (AmA1)" को मिलाने के बाद नयी प्रजाति को तैयार किया गया है। प्रयोग में पाया गया कि इस जीन के मिश्रण से सातों किस्मों में प्रोटीन की मात्रा 35 से 60 प्रतिशत तक बढ़ गयी। इसके अलावा इसकी पैदावार भी अन्य किस्मों की तुलना में प्रति हेक्टेएर 15 से 20 प्रतिशत तक ज्यादा है।
इसके उपयोग से होनेवाले नुकसान के परीक्षण में भी यह प्रजाति पास हो गयी। चूहों और खरगोशों पर किए गए परीक्षण में पाया गया कि इसके खाने से एलर्जी या किसी अन्य तरह का जहरीला असर नहीं हुआ है। रिपोर्ट में इस किस्म को हर लिहाज से फायदेमंद बताते हुए व्यापक पैमाने पर इसे पसंद किए जाने का विश्वास व्यक्त किया गया है। हालांकि अभी इसे उपयोग के लिए बाजार में उतारे जाने से पहले पर्यावरण मंत्रालय की जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी से हरी झंडी मिलना बाकी है।
मूल खबर को हिन्दी में यहां और अंगरेजी में यहां पढ़ा जा सकता है।
आलू से मेरा सम्ब्न्ध बहुत गहरा है . कभी उगाता था आज सहज कर रखता हूं एक कोल्ड स्टोर है मेरा . आलू किसान की दुर्दशा देखी नही जाती . पिछली बार आलू जब महंगा हो गया तब अखबारो ने दुनिया सर पर उठा ली आज किसान ४०० रु. किंवन्टल बेच रहा है और व्यापारी १० रु किलो कोई पुरसा हाल नही .
ReplyDeleteयह जी एम आलू का बीज ही इतना मंहगा होगा कि किसानो को लगाना महन्गा पडेगा .
उत्साहवर्धक।
ReplyDeleteधीरू भाई, जिस संगठन ने इस जीएम आलू का विकास किया है, वह भारत सरकार के जैवप्रौद्योगिकी विभाग का है। इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि बीज की कीमत वाजिब होगी।
ReplyDeleteअगर हम जीएम् आलू स्वीकार कर लेते हैं तो बीटी बैंगन और मोनसेंटो से सभी फलों सब्जियों और अनाजों के बीज का रास्ता अपने आप खुल जाएगा. इसमें सबसे पहले गाज किसानों पर ही गिरेगी. लोग षड़यंत्र समझ नहीं रहे हैं, बिना समझे ही वाहवाही किये जा रहे हैं.
ReplyDeleteजीएम् खाद्यान्न पर बहुत ही सीमित शोध हुए हैं, स्वतंत्र शोध इन्हें कई लाइलाज बीमारियों में उछाल का कारण मानते हैं. जापान, यूरोप के कई देशों में इनपर पूर्ण प्रतिबन्ध है. शायद वे हमसे अधिक जागरुक हैं.
http://articles.mercola.com/sites/articles/archive/2003/07/02/gm-crops-part-six.aspx
हां अमेरिका, कनाडा में इन्ही कंपनियों का राज है. भारत में मीडिया और योजनाकार सस्ते में बिकाऊ हैं.
जो जीएम् अनाज से परहेज बरतना चाहते है, कम से कम उनके लिए इसकी लेबलिंग की व्यवस्था हो. जैसे शाकाहारी और मांसाहारी (हरी बिंदी) खाद्य पदार्थों में होती है. क्या मोनसेंटो कारगिल जैसी कम्पनियाँ ऐसा होने देंगी?
भारत में ही कई स्थानों पर किसानों ने प्राकृतिक विधियों से लगभग दोगुनी तिगुनी फसल पैदा करके दिखाई है. पर पता नहीं क्यों इन विधियों का प्रचार प्रसार नहीं किया जाता?
ReplyDelete@ab inconvinenti - मित्र, आपकी चिंता जायज है। मैं खुद यह बात मानते आया हूं कि बीजों के मामले में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चली तो वे मुनाफे के लालच में धरती का पर्यावरण और समूचा जीवन ही तबाह कर डालेंगी। और, बीजों में बीटी जीन डालना तो उनको जहरीला बनाने की तरह है। इस ब्लॉग पर इन विचारों को स्वर दे रहे अनेक आलेख मिलेंगे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि जैव प्रौद्योगिकी जैसी विज्ञान की महत्वपूर्ण शाखा को ही नकार दें। बीटी कपास, बीटी बैगन या बीटी मक्के के विरोध का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि हम हर तरह के आनुवांशिक संवर्धन को काला झंडा दिखाने लगें।
ReplyDeleteपरमाणु प्रौद्योगिकी भी कम खतरनाक नहीं है, लेकिन उसका इस्तेमाल, शोध और विकास हो रहा है कि नहीं? यदि उसका सदुपयोग हो तो हितकारी है, दुरुपयोग हो तो विनाशकारी। जीन प्रौद्योगिकी के साथ भी यही बात है। इसमें शोध व विकास सरकार व सामज के नियंत्रण में हो तो हितकर ही साबित होगा।
यहां जिस जीएम आलू की बात हो रही है, उसका विकास भारत सरकार की एक संस्था के स्वदेशी वैज्ञानिकों ने किया है। और, यह हमारे लिए गर्व व संतोष की बात है। यह हमें इस बात का भरोसा भी दिलाता है कि अधिक उत्पादन वाले बीजों के लिए हमें मोनसेंटो, बायर व कारगिल जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भर नहीं रहना है।
दोस्त, विरोध करने के लिए विरोध नहीं होना चाहिए। मोनसैंटो व कारगिल का विरोध करते-करते हम अपने कृषि वैज्ञानिकों का ही विरोध करने लगें, यह उचित नहीं है। कम-से-कम मैं तो नहीं ही करूंगा। मैं एक किसान हूं, पेशेवर सामाजिक कार्यकर्ता नहीं। मुझे अच्छे व सस्ते बीज चाहिए, और मुझे अपने कृषि वैज्ञानिकों पूरा भरोसा है।
उत्साहवर्धक होने के साथ ही ज्ञानवर्धक भी है ये लेख.
ReplyDeleteबहुत उत्साह जनक जानकारी मिली, आभार.
ReplyDeleteरामराम.
विदेशों में जिस चीज का बहिष्कार हो रहा है. हम उसे हाथोंहाथ ले रहे हैं..... पूरी तरह परीक्षणोपरान्त ही किसी भी बीज को उतारना उचित होगा...
ReplyDeleteअपने कृषि वैज्ञानिकों पूरा भरोसा है
ReplyDeletehummmm...........
यह कहिये की आपको बीज सुरक्षित हैं या नहीं इससे मतलब नहीं है. आपको केवल सस्ते बीज और अच्छी उपज से सरोकार है. बढ़िया.
मुझे अपने कृषि वैज्ञानिकों पर बिलकुल भरोसा नहीं है.
सारी सरकार, सारा सिस्टम बिका हुआ है, सारे सरकारी विभाग बिके हुए हैं, योजनाकार बिकाऊ हैं, कृषि मंत्रालय तो सबसे निकृष्ट है (जीएम् के नाम पर डेढ़ लाख को ख़ुदकुशी पर मजबूर कर दिया, कितनो को बर्बाद कर दिया, जीएम् कपास के नाम पर कितने लुभावने सपने दिखाए गए थे) पर आज के ज़माने में मात्र दस पंद्रह हज़ार पाने वाले सरकारी वैज्ञानिक पूरी तरह ईमानदार हैं. उनके अफसर ईमानदार हैं, फंड मंजूर वाले ईमानदार हैं. यह तो चमत्कार है!
अगर सुरक्षित है तो कड़े वैज्ञानिक परिक्षण, ट्रायल एवं प्रमाणिक शोध से साबित करें. क्यों नहीं करते, परिक्षण और खुली बहस के नाम से घबराते क्यों हैं? जीएम् को लेबल क्यों नहीं करना चाहते? नहीं खाना किसी को जीएम्, क्यों जानकारी छिपाई जा रही है?
मैं अपने खेत में जीएम् फसल बोता हूँ तो परागण से आसपास की फसलें जीएम जीन से दूषित हो जाती है. इसे रोक पाना असंभव है. पेटेंट कानून के अनुसार जिसके पास बीज का पेटेंट है वह मेरे पडोसी किसानों पर हर्जाने का दावा कर सकता है. क्योंकि उन्होंने बिना मुफ्त में उनके पेटेंटेड जीन का 'इस्तेमाल' किया. अमेरिका में कितने ही किसान इस तरह बर्बाद कर दिए गए. और जिस भूमि पर एक बार जीएम फसल उग गई वह परंपरागत किस्मों के लिए बेकार हो जाती है. मानव स्वस्थ पर असर के बारे में गंभीर और अनुत्तरित सवाल अपनी जगह हैं ही.
http://articles.mercola.com/sites/articles/archive/2003/07/02/gm-crops-part-six.aspx
अगर हम जीएम् आलू स्वीकार कर लेते हैं तो बीटी बैंगन और मोनसेंटो से सभी फलों सब्जियों और अनाजों के बीज का रास्ता अपने आप खुल जाएगा. कारण... जब स्वदेशी जीएम को मंजूरी दे रहे हैं तो कम्पनियों पर रोक लगाने का क्या तर्क और औचित्य रह जाता है?
ReplyDeleteलेकिन यह भस्मासुरी आलू पूरी तरह आदमीं की आँतों के लिए निरापद ही होगा ,क्या यह शत प्रतिशत विश्वास के साथ कहा जा सकता है ?
ReplyDeleteऐब असहज की बातों में दम है !
जीएम् आलू अजी जिसे कीडे नही खाते , ओर खते ही मर जाते है वो हमारे लिये केसे अच्छॆ होंगे? पता नही घुस खा खा अक्र हमारे अधिकारी ओर नेता देश ओर देश बासियो को क्यो नरक मै धकेलना चाहते है, अमेरिका ही इस जी एम बिमारी की जड है, ओर वहां भी लोग इसे नही खाते, युरोप मे तो यह सख्त मना है, ओर हमारे देश मै इस के गुण्गाण किये जा रहे है. धन्य है मेरा देश
ReplyDeleteखबर तो उत्साहवर्धक है. आगे देखते हैं !
ReplyDelete@ab inconvinenti, आपके अधिकांश सवालों का जवाब पहलेवाली टिप्पणी में दिया जा चुका है।
ReplyDeleteकिसानों व पर्यावरण को बरबादी से बचाने के लिए ही तो जरूरी है कि जीन संवर्धित बीजों का विकास सरकार के नियंत्रण में हो।
लेकिन आप फिर कहेंगे कि सारा सिस्टम बिका हुआ है, सरकार बिकी हुई है, वैज्ञानिक भ्रष्ट और निकम्मे हैं :) जब सब बिके हुए ही हैं तो आप वैज्ञानिक परीक्षण, बहस और लेबलिंग की बात कैसे कर रहे हैं? कौन करेगा-कराएगा इन्हें.. बिके हुए लोग??
किसी भी देश या काल में सिस्टम खरा सोना नहीं होता। इसी सिस्टम में विकास करना है और गुंजाइश बनानी है कि न्यूनतम विनाश हो।
@ डॉ. अरविन्द मिश्रा, इस आलू में टर्मिनेटर जीन तो है नहीं, फिर यह भस्मासुरी कैसे हो गया?
ReplyDelete@ राज भाटिया - भैया, क्या आप चाहेंगे कि अपने देश में जेनेटिक इंजीनियरिंग के अध्ययन व शोध पर विराम लग जाए? यदि हमारे वैज्ञानिक परमाणु उर्जा के क्षेत्र में अनुसंधान जारी नहीं रखते तो आज हम कितने पिछड़े व कमजोर होते?
ReplyDeleteदुनिया भर में जीन संवर्धित बीजों का कारोबार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ में है। अपने मुनाफे के लिए वे ही गलत काम करती हैं। मसलन, वे बीजों में टर्मीनेटर जीन डाल देती हैं, जिससे कि एक बीज का दुबारा इस्तेमाल नहीं हो सके। यही नहीं, इन दिनों उनके द्वारा अधिकांश जीएम फसलों को कीटों से सुरक्षित रखने के लिए बीजों में बीटी जीन डाला जा रहा है, जो जहरीला होने के कारण मानव स्वास्थ्य के लिए भी नुकसानदेह हो सकता है। इन हालातों में यह अच्छी बात है कि उन पर निर्भर रहने के बजाय हमारे देश के वैज्ञानिक अपनी जरूरतों व प्राथमिकताओं के मुताबिक खुद नए तरह के बीजों का विकास करें। बहुराष्ट्रीय कंपिनयों के जीएम बीजों का दायरा दुनिया में जितनी तेजी से बढ़ रहा है, अपने देश व समाज के हित को सुरक्षित रखने का यही सबसे अच्छा तरीका है कि हम विज्ञान के इस क्षेत्र में भी अपने पैरों पर खड़ा रहें, जैसा कि हमने परमाणु उर्जा, रक्षा अनुसंधान व सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में किया है।
आप जीएम आलू खाकर कीड़ों के मर जानेवाली जो बात कह रहे हैं, वह बीटी जीन की वजह से होता है। बीटी मतलब बैसिलस थ्युरिंगियेंसिस (Bacillus thuringiensis)। यह मिट्टी में प्राकृतिक रूप से पाया जानेवाला बैक्टीरिया है जो जहरीला प्रोटीन पैदा करता है। इन दिनों बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए इसका जीन नीमहकीमी दवा बन गया है। उनका मूलमंत्र हो गया है कि जिस फसल को कीटप्रतिरोधी बनाना है, उसके बीज में बीटी जीन मिला दो। हमारे वैज्ञानिकों ने जिस जीन संवर्धित आलू का विकास किया है, उसमें यह बीटी जीन नहीं है।
चलिए फिर हमारी शुभकामनाएँ
ReplyDeleteप्रशंसनीय खबर है। कहीं ये मंहगा तो नहीं होगा?
ReplyDeleteअशोक जी, एक अच्छी खबर से लोगो को अवगत कराने व हमारा ज्ञान बढाने के लिए बहुत- बहुत धन्यवाद !
ReplyDeleteपर एक बात बताना चाहूँगा की इस प्रोटीन से भरपूर आलू के विकास में बीटी की जगह अमैरंथ जीन उपयोग किया गया है जो कुछ नहीं बल्कि एक तरह का हरा व, लाल साग है...और आसानी से हमारे खेत में ही उगता है.
मै भी आपके बातो से पूर्णतः सहमत हु पर बढती हुयी आबादी के लिए पारंपरिक विधि से भोजन उत्तपन करना आज के काल में जलवायु परिवर्तन और बढ़ती हुई कृषि अन्य समस्याओं के साथ कुछ असंभव सा लगता है. कोई भी तकनीक कभी बुरा नहीं होता है, सिर्फ उसके सही और गलत तरीके से प्रष्तुत करने तथा उसके यथा सांगत उपयोग पर ही सारा कुछ निर्भर करता है. इसलिए जैव तकनीक आज की जरूरत है और सरकार एवं हमरे प्रिय श्री रमेश जी को भी अपनी जिद को छोड़कर, वैज्ञानिक तकनीको के प्रति थोड़ी उदारता दिखने की जरूरत है.क्योंकि इतना हठपन भी अच्छा नहीं होता है. वही वैज्ञानिको और तकनीक तंत्र को भी आम जनता में सही तर्क तर्क-वितर्क प्रस्तुत करने एवं जागरूक करने की आव्यशायाकता है.
बहुत ही अच्छी खबर है .
ReplyDeleteखास कर उन लोगों के लिए भी जो पूर्ण शाकाहारी हैं और प्रोटीन की कमी से अक्सर ग्रस्त रहते हैं और वैसे भी दाल और दूध के बढते दामों के कारण शाकाहारियों के लिए प्रोटीन के विकल्प बहुत कम रह गए हैं ऐसे में नयी रोशनी लाती ,वैज्ञानिको की इस खोज के लिए उन्हें बधाई.
This is one of the perfect example but its similar like bt brinjal..
ReplyDeleteआलू के किस्म तो aa गयी पर अपना बिज का काया होगा. जब आपने आलू के उत्पादन के लिए पानी नहीं है. आपने आलू के बाजार नहीं है तब बाज़ार में आलू से किशन बहुत खुश नहीं होने को है. जानकारी के लिए sukuriya
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