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Tuesday, January 28, 2014

गोरख पाण्‍डेय का भोजपुरी गीत : समाजवाद

ऐसे दौर में जब लोग निजी लाभ के लिए रचना करते हैं, गोरख पाण्डेय ने जनहित के लिए लिखा। उन्होंने जनता की जिजीविषा बनाये रखने के लिए उसकी ही जुबान में गीत लिखे। लोकधुनों पर आधारित उनके गीत पूरे उत्तर भारत और गैर हिन्दीभाषी प्रांतों में भी जनांदोलनों की आवाज बने। अपने अध्ययन के दौरान उन्होंने काफी समय दिल्ली के जेएनयू में गुजारा और जनांदोलनों के हिस्सेदार रहे। उत्तरप्रदेश के देवरिया जिले में 1945 में जन्मे इस क्रांतिकारी जनकवि ने आज ही के दिन 29 जनवरी 1989 को अपनी इहलीला समाप्त कर ली थी।

खेती-बाड़ी में भी उनकी स्मृति बनी रहे, इस कोशिश में प्रस्तुत है उनका एक भोजपुरी गीत :

गोरख पाण्‍डेय
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

हाथी से आई, घोड़ा से आई
अंगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद...

नोटवा से आई, बोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद...

गांधी से आई, आंधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद...

कांगरेस से आई, जनता से आई
झंडा से बदली हो आई, समाजवाद...

डालर से आई, रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद...

वादा से आई, लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद...

लाठी से आई, गोली से आई
लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद...

महंगी ले आई, ग़रीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद...

छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन
बखरा बराबर लगाई, समाजवाद...

परसों ले आई, बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई, समाजवाद...

धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई
अंखियन पर परदा लगाई

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

गोरख पाण्डेय द्वारा ही स्थापित संगठन जन संस्कृति मंच से जुड़ी पटना की चर्चित नाट्य संस्था हिरावल के कलाकारों की आवाज में यह सुनने लायक है :
















(गीत कविता कोश से साभार)

Sunday, March 20, 2011

फाग चैता गाता हूं, इसलिए जिंदा हूं।

जब देश के अन्‍य भागों में अपने किसान भाइयों की आत्‍महत्‍या की घटनाएं पढ़ता-सुनता हूं तो अक्‍सर सोचता हूं कि कौन-सी ताकत है जो बिहार व उत्‍तरप्रदेश के हम पूरबिया किसानों को मरने नहीं देती। कौन से बुनियादी तत्‍व है, जिनके बूते हम मॉरीशस, फीजी अथवा दिल्‍ली, पंजाब जाकर मजदूरी कर जी लेते हैं, लेकन जान नहीं देते। मुझे लगता है कि हर मुश्किल में जीने का जीवट प्रदान करनेवाले वे मौलिक तत्‍व हमारे लोकपर्व व लोकसंगीत हैं, और संभवत: फागुन उनमें सर्वोपरि है।

फागुन में जिस होलिका का हम दहन करते हैं उसे हम ‘सम्‍मत’ कहते हैं। ऐसा कहने में एकजुटता व आपसी सम्‍मति से अगले संवत् को सकुशल गुजार लेने की प्रचंड आशावादिता का भाव अंतर्निहित होता है। जब हम रंगों में सराबोर होकर फाग गाते हैं तो पिछले सारे गम व कष्‍ट भूल जाते हैं तथा जीवन जीने की नयी उर्जा से लबरेज हो उठते हैं। तो चलिए आज हम लंबे समय से निष्क्रिय पड़े खेती-बाड़ी में भी होली से संबंधित रचनाओं व गीतों की ही बात करते हैं। गौर करने की बात यह है कि होली के विविध रंगों की भांति होली से संबंधित रचनाओं के भी अलग-अलग रंग व मिजाज हैं। हमारे यहां होली से संबंधित गीतों में भक्ति व अध्‍यात्‍म की अविरल धारा मिलेगी तो राष्‍ट्रवाद व देशप्रेम के सोते भी फूटते मिलेंगे। अल्‍हड़ता व मस्‍ती के स्‍वर तो हर जगह सुनाई देंगे।

भारतीय लोकजीवन में रचे-बसे होली से संबंधित ऐसे ही गीतों में सबसे पहले प्रस्‍तुत है, गंगा-जमुनी संस्‍कृति के पुरोधा अमीर खुसरो की एक रचना :

दैया री मोहे भिजोया री शाह निजाम के रंग में।
कपरे रंगने से कुछ न होवत है
या रंग में मैंने तन को डुबोया री।
पिया रंग मैंने तन को डुबोया
जाहि के रंग से शोख रंग सनगी
खूब ही मल मल के धोया री।
पीर निजाम के रंग में भिजोया री।

भक्तिकाल की प्रसिद्ध कवयित्री मीरा बाई ने होली से संबंधित कई भक्ति रचनाएं की हैं, जिनमें कुछ यहां प्रस्‍तुत की जा रही हैं :

मत डारो पिचकारी,
मैं सगरी भिज गई सारी।
जीन डारे सो सनमुख रहायो,
नहीं तो मैं देउंगी गारी।
भर पिचकरी मेरे मुख पर डारी,
भीज गई तन सारी।
लाल गुलाल उडावन लागे,
मैं तो मन में बिचारी।
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर,
चरनकमल बलहारी।

उनकी दूसरी रचना :

होरी खेलन कू आई राधा प्यारी, हाथ लिये पिचकरी।
कितना बरसे कुंवर कन्हैया, कितना बरस राधे प्यारी।
सात बरस के कुंवर कन्हैया, बारा बरस की राधे प्यारी।
अंगली पकड मेरो पोचो पकड्यो, बैयां पकड झक झारी।
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर, तुम जीते हम हारी।

मीरा बाई की एक अन्‍य रचना, जिसे इस लिंक पर आशा भोंसले की आवाज में यूट्यूब पर भी सुना जा सकता है :

फागुन के दिन चार होली खेल मना रे॥
बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे।
बिन सुर राग छतीसूं गावै रोम रोम रणकार रे॥
सील संतोख की केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे॥
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे॥

उनकी निम्‍नलिखित रचना को भी इस लिंक पर यूट्यूब पर सुना जा सकता है :

होरी खेलत हैं गिरधारी।
मुरली चंग बजत डफ न्यारो,
संग जुबती ब्रजनारी।
चंदन केसर छिड़कत मोहन ,
अपने हाथ बिहारी।
भरि भरि मूठ गुलाल लाल संग,
स्यामा प्राण पियारी।
गावत चार धमार राग तहं,
दै दै कल करतारी।
फाग जु खेलत रसिक सांवरो,
बाढ्यौ रस ब्रज भारी।
मीरा कूं प्रभु गिरधर मिलिया,
मोहनलाल बिहारी।

संत कवि सूरदास भी कहां पीछे रहनेवाले हैं :

हरि संग खेलति हैं सब फाग।
इहिं मिस करति प्रगट गोपी: उर अंतर को अनुराग।।
सारी पहिरी सुरंग, कसि कंचुकी, काजर दे दे नैन।
बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढी, सुनि माधो के बैन।।
डफ, बांसुरी, रुंज अरु महुआरि, बाजत ताल मृदंग।
अति आनन्द मनोहर बानि गावत उठति तरंग।।
एक कोध गोविन्द ग्वाल सब, एक कोध ब्रज नारि।
छांडि सकुच सब देतिं परस्पर, अपनी भाई गारि।।
मिली दस पांच अली चली कृष्नहिं, गहि लावतिं अचकाई।
भरि अरगजा अबीर कनक घट, देतिं सीस तैं नाईं।।
छिरकतिं सखि कुमकुम केसरि, भुरकतिं बंदन धूरि।
सोभित हैं तनु सांझ समै घन, आये हैं मनु पूरि।।
दसहूं दिसा भयो परिपूरन, सूर सुरंग प्रमोद।
सुर बिमान कौतुहल भूले, निरखत स्याम बिनोद।।

रसखान तो हैं ही रस की खान :

फागुन लाग्यो जब तें तब तें ब्रजमण्डल में धूम मच्यौ है।
नारि नवेली बचैं नहिं एक बिसेख यहै सबै प्रेम अच्यौ है।।
सांझ सकारे वहि रसखानि सुरंग गुलाल ले खेल रच्यौ है।
कौ सजनी निलजी न भई अब कौन भटु बिहिं मान बच्यौ है।।

गंगा-जमुनी संस्‍कृति के प्रतीक 18वीं-19वीं शताब्दी के शायर नजीर अकबराबादी ने होली पर कई सुंदर रचनाएं लिखी हैं। उनकी एक प्रसिद्ध रचना निम्‍नलिखित है:

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
ख़ूम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।

हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे,
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे,
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे,
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे,
कुछ घुंगरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की।

गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो,
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो,
मुंह लाल, गुलाबी आंखें हो और हाथों में पिचकारी हो,
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो,
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।

और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।

ये धूम मची हो होली की, ऐश मज़े का झक्कड़ हो,
उस खींचा खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक़्कड़ हो,
माजून, रबें, नाच, मज़ा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो,
लड़भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़ पत्थड़ हो,
जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की।


इसे छाया गांगुली ने बहुत सुंदर तरीके से गाया है, जिसे यूट्यूब पर इस लिंक पर सुना जा सकता है।

युगप्रवर्तक साहित्‍यकार भारतेन्‍दु हरिश्‍चंद्र द्वारा होली पर लिखित इन पंक्तियों का स्‍वर गौर करने की अपेक्षा रखता है :

कैसी होरी खिलाई।
आग तन-मन में लगाई॥
पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।
पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥
तबौ नहिं हबस बुझाई।
भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।
टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥
तुम्हें कैसर दोहाई।
कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥
तुम्‍हे कछु लाज न आई।

सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्‍चन की रचना :

यह मिट्टी की चतुराई है,
रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं,
ढाल अलग है ढंग अलग,

आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर
और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के
शासन से मत घबराओ,

आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!

प्रेम चिरंतन मूल जगत का,
वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में
सदा सफलता जीवन की,

जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!


विख्‍यात शास्‍त्रीय गायक पं. छन्‍नूलाल मिश्र का गाया यह प्रसिद्ध फाग न सुना जाए तो होली की चर्चा अधूरी रहेगी :

खेलैं मसाने में होरी दिगंबर, खेलैं मसाने में होरी,
भूत पिसाच बटोरी, दिगंबर खेलैं मसाने में होरी।
लखि सुंदर फागुनी छटा के, मन से रंग-गुलाल हटा के,
चिता-भस्म भरि झोरी, दिगंबर खेले मसाने में होरी।
गोप न गोपी श्याम न राधा, ना कोई रोक ना कौनो बाधा,
ना साजन ना गोरी, दिगंबर खेले मसाने में होरी।
नाचत गावत डमरूधारी, छोड़ै सर्प-गरल पिचकारी,
पीटैं प्रेत थपोरी, दिगंबर खेले मसाने में होरी।
भूतनाथ की मंगल-होरी, देखि सिहाएं बिरिज कै छोरी,
धन-धन नाथ अघोरी, दिगंबर खेलैं मसाने में होरी।

इसे यहां जाकर यूट्यूब पर सुना जा सकता है।

प्रसिद्ध गायिका शोभा गुर्टू द्वारा गाया गया होली से संबंधित यह गीत भी काफी कर्णप्रिय है, जिसे इस लिंक पर यूट्यूब पर सुना जा सकता है :

रंगी सारी गुलाबी चुनरिया रे,
मोहे मारे नज‍रिया संवरिया रे।
जावो जी जावो, करो ना बतिया,
ए जी बाली है मोरी उमरिया रे।
मोहे मारे नजरिया संवरिया रे
रंगी सारी गुलाबी चुनरिया रे
मोहे मारे नज‍रिया संवरिया रे

चलते-चलते आग्रह करूंगा कि महान बांग्‍ला कवि काजी नजरुल इस्‍लाम की रचना ‘ब्रजो गोपी खेले होरी..’ जरूर सुनें। यह यूट्यूब पर मोहम्‍मद रफी और सबिहा महबूब की आवाज में मौजूद है।

(रचनाएं मुख्‍यत: कविता कोश और चित्र विकिपीडिया से लिया गया है।)

Tuesday, October 12, 2010

इंटरनेट पर हनुमान चालीसा

हान सं‍त कवि तुलसीदास रचित हनुमान चालीसा दुनिया में सबसे अधिक पढ़ी जानेवाली साहित्यिक अथवा धार्मिक रचनाओं में है। इसमें हिन्‍दुओं के आराध्‍यदेव श्रीराम के अनन्‍य भक्‍त हनुमान के गुणों एंव कार्यों का चालीस चौपाइयों में वर्णन है। इसमें श्री हनुमान की भावपूर्ण स्‍तुति तो है ही, श्रीराम के भी व्‍यक्तित्‍व को सरल शब्‍दों में उकेरा गया है।

हिन्‍दू धर्म के अनुयायियों में यह रचना इतनी लोकप्रिय है कि सामान्‍यत: उन्‍हें यह कंठस्‍थ होती है। असंख्‍य लोग हर दिन इसका पाठ करते हैं। अनगिनत मंदिरों की दीवारों पर पूरी की पूरी रचना संगमरमर पर उत्‍कीर्ण मिलेगी। खासकर उत्‍तर भारत के ग्रामीण जीवन में तो यह काव्‍यात्‍मक कृति गहराई तक रची-बसी है। जिन्‍होंने कभी कोई अक्षर नहीं पहचाना, उन्‍हें भी इसकी चौपाइयां याद होती हैं। जनमानस में इसे भय व क्‍लेश मिटानेवाला माना जाता है। इसीलिए परंपरागत हिन्‍दू परिवारों में जहां कहीं संकट उत्‍पन्‍न हुआ, लोग सहज भाव से इस कर्णप्रिय रचना का पाठ आरंभ कर देते हैं।

यह रचना इंटरनेट पर भी उपलब्‍ध है। इसे विकिपीडिया, कविताकोश, विकिसोर्स और वेबदुनिया पर पढ़ा जा सकता है। विकिसोर्स पर इसके मूल पाठ के साथ उसका अंगरेजी लिप्‍यांतर व अनुवाद भी दिया गया है।

हनुमान चालीसा आम लोगों में ही नहीं, संगीत बिरादरी में भी काफी लोकप्रिय है। हिन्‍दी के अनेक गायक-गायिकाओं ने इसे अपने-अपने अंदाज में गाया है। हर कलाकार के गायन की खूबियां हैं। हर गायक को सुनने का अलग आनंद है। इनमें से कुछ की गायकी यूट्यूब पर मौजूद है, जिसे संबंधित लिंक पर जाकर सुना जा सकता है : एमएस सुब्‍बुलक्ष्‍मी, हरिओम शरण, लता मंगेशकर, रवीन्‍द्र जैन, अनूप जलोटा, उदित नारायण, अलका याग्निक, जसपिन्‍दर नरुला, पुराना संस्‍करण

Sunday, March 29, 2009

ब्‍लॉगिंग यानी विचारों का मेला....ब्‍लॉगलेख यानी छोटी अनुभूतियों की बड़ी बात

आखिर हम क्‍यों करते हैं ब्‍लॉगिंग ? क्‍या मिलता है हमें इसमें ? कुछ लोग इसके जरिए पैसा जरूर कमाते हैं, लेकिन अधिकांश को तो एक पाई भी नहीं मिलती। फिर हम अपना इतना समय और श्रम क्‍यों जाया करते हैं ? ये सवाल बार-बार पूछे जाते हैं और पूछे जाते रहेंगे। लेकिन मेरी तरह शायद बहुत से ऐसे लोग होंगे जो इस तरह से नहीं सोचते।

हम हर दिन सैकड़ों ऐसे काम करते हैं जिनके पीछे अर्थोपार्जन जैसा कोई उद्देश्‍य नहीं होता। कहीं कोई अच्‍छा दृश्‍य नजर आता है, हम उसे अपलक देखते रहते हैं। कोई अच्‍छा गीत सुनाई पड़ता है, हम उसे जी भर के सुनना चाहते हैं। कहीं कोई प्‍यारा बच्‍चा अंकल कहता है और हम उसे गोद में उठा लेते हैं। इन कार्यों से हमें क्‍या मिलता है ? जा‍हिर है हमारा जवाब होगा, हमें यह सब अच्‍छा लगता है...ऐसा कर हमें संतोष मिलता है...हमें सुख की अनुभूति होती है।

बस इतनी-सी ही बात है। हम संतोष के लिए ब्‍लॉगिंग करते हैं। हम इसे इसलिए करते हैं क्‍योंकि यह अच्‍छा लगता है। ब्‍लॉगिंग ब्‍लॉगर को आत्मिक सुख देता है। मैं अपनी बात करूं तो मुझे ब्‍लॉगिंग में मेला घूमने जैसा आनंद आता है। मेरी दृष्टि में यह विचारों का मेला है। मेले में लोग अपने सामान लेकर आते हैं, नुमाइश करते हैं और जिन्‍हें पसंद आता है वे उन्हें ले लेते हैं। उसी तरह ब्‍लॉगिंग में दुनिया भर के लोग हर रोज अपने विचार ओर जानकारियां लेकर आते हैं। विचारों के इस मेले में हमारे पास बहुतेरे विकल्‍प होते हैं, हमें जो पसंद आता है उसे पढ़ते हैं और अपने भी विचार रखते हैं। इससे हमारे चिंतन को धार मिलती है और जानकारियों का विस्‍तार होता है।

एक औसत आदमी अपनी छोटी-छोटी अनुभूतियों के साथ जीता है। उसकी छोटी अनुभूतियां ही उसके लिए दुनिया की सबसे बड़ी बातें होती हैं। और उसकी अनुभूति सिर्फ उसी के लिए नहीं, उसी जैसे दूसरे आदमी के लिए भी बड़ी बात होती है। ब्‍लॉग लिखने और पढ़नेवाला सबसे बड़ा वर्ग आम आदमी का है। यह आदमी क्षणों में जीता है, छोटे-छोटे लम्‍हों में जीता है। छोटी-छोटी खुशियों में उसे अपार सुख मिलता है, मामूली-से आघात से वह दुखी हो जाता है। यही कारण है कि सामान्‍य-सी दिखनेवाली संवेदना ब्‍लॉगर के लिए बड़ी बात होती है और इस जमात द्वारा यह पसंद भी की जाती है। किसी नामचीन ब्‍लॉगर के भारी-भरकम राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक विश्‍लेषण में एक आम ब्‍लॉगर की उतनी रूचि नहीं होती, जितनी अपने जैसे किसी औसत ब्‍लॉगर की मानसिक हलचल या दिल की बात में।

आइए इसी बात पर पढ़ते हैं हमारे प्रिय कवि रघुवीर सहाय की एक कविता :

आज फिर शुरू हुआ
रघुवीर सहाय

आज फिर शुरू हुआ जीवन
आज मैंने एक छोटी-सी सरल-सी कविता पढ़ी
आज मैंने सूरज को डूबते देर तक देखा

जी भर आज मैंने शीतल जल से स्‍नान किया

आज एक छोटी-सी बच्‍ची आयी, किलक मेरे कन्‍धे चढ़ी
आज मैंने आदि से अन्‍त तक एक पूरा गान किया

आज फिर जीवन शुरू हुआ।

(कविता राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रतिनिधि कविताएं से साभार उद्धृत, यह कविता 1954 में लिखी गयी थी।)

Sunday, January 4, 2009

आत्‍महत्‍या कर रहे किसान की कविता


किसान और आत्‍महत्‍या
रचनाकार-हरीशचन्‍द्र पाण्‍डे

उन्हें धर्मगुरुओं ने बताया था प्रवचनों में
आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
तब भी उन्होंने आत्महत्या की

क्या नर्क से भी बदतर हो गई थी उनकी खेती

वे क्यों करते आत्महत्या
जीवन उनके लिए उसी तरह काम्य था
जिस तरह मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
लोकाचार उनमें सदानीरा नदियों की तरह
प्रवहमान थे
उन्हीं के हलों के फाल से संस्कृति की लकीरें
खिंची चली आई थीं
उनका आत्म तो कपास की तरह उजार था
वे क्यों करते आत्महत्या

वे तो आत्मा को ही शरीर पर वसन की तरह
बरतते थे
वे कड़ें थे फुनगियाँ नहीं
अन्नदाता थे, बिचौलिये नहीं
उनके नंगे पैरों के तलुवों को धरती अपनी संरक्षित
ऊर्जा से थपथपाती थी
उनके खेतों के नाक-नक्श उनके बच्चों की तरह थे

वो पितरों का ऋण तारने के लिए
भाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गए
वो आरुणि के शरीर को ही मेंड़ बना लेते थे
मिट्टी का
जीवन-द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए

कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना
और दुर्नीति को नीति।

(रचना कविता कोश से और फोटो बीबीसी हिन्‍दी से साभार)

Sunday, November 30, 2008

अमृता प्रीतम की कविता : राजनीति


सुना है राजनीति एक क्‍लासिक फिल्‍म है
हीरो : बहुमुखी प्रतिभा का मालिक
रोज अपना नाम बदलता
हीरोइन : हकूमत की कुर्सी वही रहती है
ऐक्‍स्‍ट्रा : राजसभा और लोकसभा के मैम्‍बर
फाइनेंसर : दिहाड़ी के मजदूर,
कामगर और खेतिहर
(फाइनेंस करते नहीं, करवाए जाते हैं)
संसद : इनडोर शूटिंग का स्‍थान
अखबार : आउटडोर शू‍टिंग के साधन
यह फिल्‍म मैंने देखी नहीं
सिर्फ सुनी है
क्‍योंकि सैन्‍सर का कहना है-
’नॉट फॉर अडल्‍स।’

(फोटो बीबीसी हिन्‍दी से साभार)

Friday, November 21, 2008

खड़ी बोली हिन्‍दी के पहले कवि अमीर खुसरो


भाषा का न सांप्रदायिक आधार होता है, न ही वह शास्‍त्रीयता के बंधन को मानती है। अपने इस सहज रूप में उसकी संप्रेषणयीता और सौन्‍दर्य को देखना हो तो अमीर खुसरो की हिन्‍दी रचनाओं से बेहतर शायद ही कुछ हो।

अपने युग की महानतम ‍शख्सियत अमीर खुसरो को खड़ी बोली हिन्‍दी का पहला कवि माना जाता है। इस भाषा का इस नाम (हिन्‍दवी) से उल्‍लेख सबसे पहले उन्‍हीं की रचनाओं में मिलता है। हालांकि वे फारसी के भी अपने समय के सबसे बड़े भारतीय कवि थे, लेकिन उनकी लोकप्रियता का मूल आधार उनकी हिन्‍दी रचनाएं ही हैं। उन्होंने स्वयं कहा है- ‘’मैं तूती-ए-हिन्‍द हूं। अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो। मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूंगा।’’ एक अन्‍य स्थान पर उन्होंने लिखा है, ‘’तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब (अर्थात् मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूं, हिन्दवी में जवाब देता हूं।)’’

खुसरो जैसी बेमिसाल व बहुरंगी प्रतिभाएं इतिहास में कम ही होती हैं। वे मानवतावादी कवि, कलाकार, संगीतज्ञ, सूफी संत व सैनिक भी थे। उनके धार्मिक गुरु महान सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया थे, जिनके पास वे अपने पिता के साथ आठ साल की आयु में गए और तभी से उनके मुरीद हो गए। अमीर खुसरो को दिल्‍ली सल्‍तनत का राज्‍याश्रय हासिल था। अपनी दीर्घ जीवन-अवधि में उन्‍होंने गुलाम वंश, खिलजी वंश से लेकर तुगलक वंश तक 11 सुल्‍तानों के सत्ता-संघर्ष के खूनी खेल को करीब से देखा था। लेकिन राजनीति का हिस्‍सा बनने के बजाए वे निर्लिप्‍त भाव से साहित्‍य सृजन व सूफी संगीत साधना में लीन रहे। अक्‍सर कव्‍वाली व गजल की परंपरा की शुरुआत अमीर खुसरो से ही मानी जाती है। उनकी रचना ‘जब यार देखा नैन भर..’ को अनेक विद्वान हिन्‍दी की पहली गजल मानते हैं। उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत की खयाल गायकी के ईजाद का श्रेय भी उन्हें दिया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने ध्रुपद गायन में फारसी लय व ताल को जोड़कर खयाल पैदा किया था। कहते हैं कि उन्होंने पखावज (मृदंग) को दो हिस्सों में बांटकर ‘तबला’ नाम के एक नए साज का ईजाद किया।

माना जाता है कि मध्य एशिया के तुर्कों के लाचीन कबीले के सरदार सैफुद्दीन महमूद के पुत्र अमीर खुसरो का जन्म ईस्‍वी सन् 1253 में उत्तर प्रदेश के एटा जिले में पटियाली नामक गांव में गंगा किनारे हुआ था। लाचीन कबीले के तुर्क चंगेज खां के आक्रमणों से पीड़ित होकर बलवन (1266 -1286 ई.) के राज्यकाल में शरणार्थी के रूप में भारत में आ बसे थे। खुसरो की मां दौलत नाज़ एक भारतीय मुलसलमान महिला थीं। वे बलबन के युद्धमंत्री अमीर एमादुल्मुल्क की पुत्री थीं, जो राजनीतिक दवाब के कारण हिन्‍दू से नए-नए मुसलमान बने थे। इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बावजूद इनके घर में सारे रीति-रिवाज हिन्दुओं के थे। इस मिले जुले घराने एवं दो परम्पराओं के मेल का असर बालक खुसरो पर पड़ा। आठ वर्ष की अवस्था में खुसरो के पिता का देहान्त हो गया। किशोरावस्था में उन्होंने कविता लिखना प्रारम्भ किया और बीस वर्ष के होते होते वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए।

खुसरो के पिता ने इनका नाम ‘अबुल हसन’ रखा था। ‘ख़ुसरो’ इनका उपनाम था। किन्तु आगे चलकर उपनाम ही इतना प्रसिद्ध हुआ कि लोग इनका यथार्थ नाम भूल गए। ‘अमीर खुसरो’ में ‘अमीर’ शब्द का भी अपना अलग इतिहास है। यह भी इनके नाम का मूल अंश नहीं है। जलालुद्दीन फीरोज ख़िलजी ने इनकी कविता से प्रसन्न हो इन्हें ‘अमीर’ का ख़िताब दिया और तब से ये ‘मलिक्कुशोअरा अमीर ख़ुसरो ’ कहे जाने लगे। उनके द्वारा रचित फारसी मसनवी ‘नुह सिपहर’ पर खुश होकर सुल्‍तान अलाउद्दीन खिलजी ने एक हाथी के बराबर सोना तौलकर उन्‍हें दिया था। ‘नुह सिपहर’ में हिन्‍दुस्‍तान के रीति-रिवाजों, संस्‍कृति, प्रकृति, पशु-पक्षी व लोगों की तारीफ की गयी है।

अमीर खुसरो की 99 पुस्तकों का उल्लेख मिलता है, किन्तु 22 ही अब उपलब्ध हैं। हिन्दी में खुसरो की तीन रचनाएं मानी जाती हैं, किन्तु इन तीनों में केवल एक ‘खालिकबारी’ ही उपलब्ध है, जो कविता के रूप में हिन्‍दवी-फारसी शब्‍दकोश है। इसके अतिरिक्त खुसरो की फुटकर रचनाएं भी संकलित हैं, जिनमें पहेलियां, मुकरियां, गीत, निस्बतें, अनमेलियां आदि हैं। ये सामग्री भी लिखित में कम उपलब्ध थीं, वाचक रूप में इधर-उधर फैली थीं, जिसे नागरी प्रचारिणी सभा ने ‘खुसरो की हिन्दी कविता’ नामक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया था।

(फोटो http://tdil.mit.gov.in/coilnet/ignca/amir0001.htm से साभार)

Monday, September 22, 2008

झारखंड से निकली भोजपुरी पत्रिका 'परास'


झारखंड प्रदेश से भोजपुरी की नयी त्रैमासिक पत्रिका परास का प्रकाशन आरंभ हुआ है। तेनुघाट साहित्‍य परिषद (बोकारो) द्वारा निकाली जा रही इस पत्रिका के संपादक आसिफ रोहतासवी के हिन्‍दी और भोजपुरी के कई कविता व गजल संग्रह आ चुके हैं। पटना विश्‍वविद्यालय के सायंस कॉलेज में हिन्‍दी के व्‍याख्‍याता डॉ. रोहतासवी की रचनाओं में कृषि संस्‍कृति और ग्राम जीवन की अमिट छाप देखने को मिलती है। आशा है उनके कुशल संपादन में यह पत्रिका भी गांव की मिट्टी से जुड़ी इन संवेदनाओं की वाहक बनेगी।

परास के समहुत-अंक से उद्धृत है लोकप्रिय कवि व गीतकार स्‍व. कैलाश गौतम का एक भोजपुरी गीत :

चला चलीं कहीं बनवा के पार हिरना
एही बनवा में बरसै अंगार हिरना।

रेत भइलीं नदिया, पठार भइलीं धरती
जरि गइलीं बगिया, उपर भइलीं परती
एही अगिया में दहकै कछार हिरना।

निंदिया क महंगी सपनवा क चोरी
एही पार धनिया, त ओहि पार होरी
बिचवां में उठलीं दीवार हिरना।

बड़ी-बड़ी बखरी क बड़ी-बड़ी कहनी
केहू धोवै सोरिया, त केहू तौरै टहनी
केहू बीछै हरी-हरी डार हिरना।

गीतिया ना महकी, ना फुलिहैं कजरवा
लुटि जइहैं लजिया, न अंटिहैं अंचरवा
बिकि जइहैं सोरहो सिंगार हिरना।

Wednesday, August 27, 2008

किसानों के लिए बीज व पानी से भी अहम है हिन्‍दी का मुद्दा

आज हम आपसे हिन्‍दी के विषय में बातचीत करना चाहते हैं। हो सकता है, हमारे कुछ मित्रों को लगे कि किसान को खेती-बाड़ी की चिंता करनी चाहिए। वह हिन्‍दी के पचड़े में क्‍यों पड़ रहा है। लेकिन हमारा मानना है कि हिन्‍दी के कल्‍याण के बिना हिन्‍दुस्‍तान के आमजन खासकर किसानों का कल्‍याण संभव नहीं।

राष्‍ट्र की आजादी के बाद भी यहां की आम जनता आर्थिक रूप से इसलिए गुलाम है, क्‍योंकि उसकी राष्‍ट्रभाषा गुलाम है। विशेष रूप से किसानों के लिए तो हिन्‍दी का मुद्दा बीज, खाद और पानी से भी अधिक महत्‍वपूर्ण है। किसी फसल के लिए अच्‍छा बीज व पर्याप्‍त सिंचाई नहीं मिले तो वह फसल मात्र ही बरबाद होगी, लेकिन राष्‍ट्रभाषा हिन्‍दी की पराधीनता भारत के बहुसंख्‍यक किसानों व उनकी भावी पीढि़यों के संपूर्ण जीवन को ही नष्‍ट कर रही है।

देश के करीब सत्‍तर करोड़ किसानों में अधिकांश हिन्‍दी जुबान बोलते व समझते हैं। लेकिन देश के सत्‍ता प्रतिष्‍ठानों की राजकाज की भाषा आज भी अंगरेजी ही है। यह एक ऐसा दुराव है, जो इस भूमंडल पर शायद ही कहीं और देखने को मिले। जनतंत्र में जनता और शासक वर्ग का चरित्र अलग-अलग नहीं होना चाहिए। लेकिन हमारे देश में उनका भाषागत चरित्र भिन्‍न-भिन्‍न है। जनता हिन्‍दी बोलती है, शासन में अंग्रेजी चलती है। इससे सबसे अधिक बुरा प्रभाव किसानों पर पड़ रहा है, क्‍योंकि वे गांवों में रहते हैं, जहां अंगरेजी भाषा की अच्‍छी शिक्षा संभव नहीं हो पाती। आजाद होते हुए भी जीवनपर्यन्‍त उनकी जुबान पर अंगरेजी का ब्रितानी ताला लगा रहता है।

आज के समय में कस्‍बाई महाविद्यालयों से बीए की डिग्री लेनेवाले किसानपुत्र भी पराये देश की इस भाषा को ठीक से नहीं लिख-बोल पाते। कुपरिणाम यह होता है कि किसान न शासकीय प्रतिष्‍ठानों तक अपनी बात ठीक से पहुंचा पाते हैं, न ही सत्‍तातंत्र के इरादों व कार्यक्रमों को भलीभांति समझ पाते हैं। सबसे बड़ा दुष्‍परिणाम यह होता है कि वे रोजगार के अवसरों से वंचित हो जाते हैं।

हिन्‍दी आज बाजार की भाषा भले हो, लेकिन वह रोजगार की भाषा नहीं है। किसी भी देश में रोजगार की भाषा वही होती है, जो राजकाज की भाषा होती है। चूंकि हमारे देश में राजकाज की वास्तविक भाषा अंगरेजी है, इसलिए रोजगार की भाषा भी वही है। रोजगार नहीं मिलने से किसान गरीब बने रहते हैं, उनकी खेती भी अर्थाभाव में पिछड़ी रहती है, और आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक विषमता की खाई कभी भी पट नहीं पाती।

जाहिर है यदि भारत के राजकाज की भाषा हिन्‍दी होती तो देश की बहुसंख्‍यक किसान आबादी अपनी जुबान पर ताला लगा महसूस नहीं करती। तब देश के किसान सत्‍ता के साथ बेहतर तरीके से संवाद करते एवं रोजगार के अवसरों में बराबरी के हिस्‍सेदार होते।

Wednesday, August 20, 2008

महाकवि निराला की कविता : चर्खा चला


वेदों का चर्खा चला,
सदियां गुजरीं।
लोग-बाग बसने लगे।
फिर भी चलते रहे।
गुफाओं से घर उठाये।
उंचे से नीचे उतरे।
भेड़ों से गायें रखीं।
जंगल से बाग और उपवन तैयार किये।

खुली जबां बंधने लगी।
वैदिक से संवर दी भाषा संस्‍कृत हुई।
नियम बने, शुद्ध रूप लाये गये,
अथवा जंगली सभ्‍य हुए वेशवास से।
कड़े कोस ऐसे कटे।
खोज हुई, सुख के साधन बढ़े-
जैसे उबटन से साबुन।

वेदों के बाद जाति चार भागों में बंटी,
यही रामराज है।
वाल्‍मीकि ने पहले वेदों की लीक छोड़ी,
छन्‍दों में गीत रचे, मंत्रों को छोड़कर,
मानव को मान दिया,
धरती की प्‍यारी लड़की सीता के गाने गाये।

कली ज्‍योति में खिली
मिट्टी से चढ़ती हुई।
''वर्जिन स्‍वैल'', ''गुड अर्थ'', अब के परिणाम हैं।
कृष्‍ण ने भी जमीं पकड़ी,
इन्‍द्र की पूजा की जगह
गोवर्धन को पुजाया,
मानव को, गायों और बैलों को मान दिया।

हल को बलदेव ने हथियार बनाया,
कन्‍धे पर डाले फिरे।
खेती हरी-भरी हुई।
यहां तक पहुंचते अभी दुनियां को देर है।


(कविता राग-विराग तथा चित्र विकिपीडिया से साभार)