लोग-बाग बसने लगे।
फिर भी चलते रहे।
गुफाओं से घर उठाये।
उंचे से नीचे उतरे।
भेड़ों से गायें रखीं।
जंगल से बाग और उपवन तैयार किये।
खुली जबां बंधने लगी।
वैदिक से संवर दी भाषा संस्कृत हुई।
नियम बने, शुद्ध रूप लाये गये,
अथवा जंगली सभ्य हुए वेशवास से।
कड़े कोस ऐसे कटे।
खोज हुई, सुख के साधन बढ़े-
जैसे उबटन से साबुन।
वेदों के बाद जाति चार भागों में बंटी,
यही रामराज है।
वाल्मीकि ने पहले वेदों की लीक छोड़ी,
छन्दों में गीत रचे, मंत्रों को छोड़कर,
मानव को मान दिया,
धरती की प्यारी लड़की सीता के गाने गाये।
कली ज्योति में खिली
मिट्टी से चढ़ती हुई।
''वर्जिन स्वैल'', ''गुड अर्थ'', अब के परिणाम हैं।
कृष्ण ने भी जमीं पकड़ी,
इन्द्र की पूजा की जगह
गोवर्धन को पुजाया,
मानव को, गायों और बैलों को मान दिया।
हल को बलदेव ने हथियार बनाया,
कन्धे पर डाले फिरे।
खेती हरी-भरी हुई।
यहां तक पहुंचते अभी दुनियां को देर है।
(कविता राग-विराग तथा चित्र विकिपीडिया से साभार)
आनन्द आ गया.आभार इस प्रस्तुति के लिए.
ReplyDeletewaah...maine yah pahale nahi padi par ab lag raha hai,kyon nahi padhi thi?
ReplyDeleteaabhar
अशोक जी अन्यथा न लें, आपके ब्लाग की जो विशेषता है उसे यदि बरकरार रखें तो वह ठीक रहेगा। फ़िलहाल कविता पर इसीलिए कुछ नहीं कह रहा हूं। यदि आपका ब्लाग अपने विषय की विशिष्टता के लिए जाना जाए तो यह एक महत्वपूर्ण काम होगा, मित्र।
ReplyDeleteभाई विजय गौड़ जी, मार्गदर्शन के लिए आभार। इस मामले में मेरी राय भी आपसे भिन्न नहीं है। आप गौर से देखेंगे तो पायेंगे कि मैं अपने ब्लॉग में जो पुस्तक अंश, कविता आदि प्रस्तुत कर रहा हूं, उनका कहीं न कहीं धरती, कृषि और किसानों से संबंध है। मैंने आपकी बात का बिल्कुल ही अन्यथा नहीं लिया। मेरे प्रति आपका स्नेह है तभी तो संवाद कर रहे हैं।
ReplyDeleteनिराला की हर कविता निराली ही होती है.. अच्छी प्रस्तुति.
ReplyDeleteइस एक कविता में सदियों की चढ़ाई भी है और सुविधाओं की ढलान भी। अब तो खेतों में भी रोबोट पैदा होंगे, ऐसा लगता है।
ReplyDeleteधन्यवाद, बहुत दिनो बाद निराला जी की याद दिला दी,धन्यवाद इस सुन्दर कविता के लिये
ReplyDeleteकविता वाकई बहुत बढ़िया रही.. किसानो के लिए लिखी गयी है तो ब्लॉग पर प्रकाशित करने में कोई हानि नही.. पर फिर भी सुधि पाठको का ख्याल तो रखा जाना ही चाहिए.. हालाँकि मुझे इस पर कोई आपत्ति नही है
ReplyDeleteकुश भाई, कविता सबके लिए लिखी गयी है :) वर्षा जी ने अपनी टिप्पणी में ठीक कहा है कि महाकवि निराला की इस कविता में सदियों की चढ़ाई भी है और सुविधाओं की ढलान भी।
ReplyDeleteमैं ब्लॉगलेखन भी सबसे लिए करता हूं। यदि सिर्फ किसानों के लिए लिखने लगूं तो ब्लॉगजगत में ढूंढने पर भी किसान नहीं मिलेंगे :) मेरी कोशिश रहती है कि किसान की अनूभूति आप सबसे साझा कर सकूं।
हल को बलदेव ने हथियार बनाया,
ReplyDeleteकन्धे पर डाले फिरे।
खेती हरी-भरी हुई।
यहां तक पहुंचते अभी दुनियां को देर है।
बहुत सुन्दर लिखा है। बधाई
बहुत सुंदर कविता है और बहुत उपयुक्त भी - सभ्यता का विकास विशेषकर भारतीय परिवेश में. निराला जी की बात ही कुछ और है. धन्यवाद.
ReplyDeleteअशोक जी हम तो सीधे साधे देहाती आदमी सें !
ReplyDeleteये.. वो... अपने पल्ले पड़ती कोनी ! अपणे पल्ले तो आदरणीय निराला जी की कविता पड़ी ! आपको जितना भी धन्यवाद देवे वो कम है ! भई आप तो ऐसे ही पढ़वाते रहो ! बहुत बहुत धन्यवाद !
ये रामपुरिया जी सही कह रहे हैं।
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