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Saturday, September 27, 2014
Wednesday, September 24, 2014
Tuesday, August 5, 2014
Sunday, November 29, 2009
मेंथा यानी पिपरमिंट : यूपी ने अकेले पछाड़ दिया चीन को

खाने पीने की चीजों में होने वाले ठंडेपन का अहसास असल में मेंथा यानी पिपरमिंट की देन है। इस ठंडे में यूपी के किसानों का फंडा लगा हुआ है। कम लागत और दो फसलों के बीच मेंथा पैदा करने की कला के दम पर कभी मेंथा का चीन से आयात करने वाले भारत ने उसे पीछे छोड़ दिया है। भारत आज इसके उत्पादन में दुनिया का सिरमौर बन गया है।
कन्नौज स्थित प्रतिष्ठित संस्थान एफएफडीसी (फ्रेगनेंस एंड फ्लेवर डेवलमेंट सेंटर) के डिप्टी डायरेक्टर शक्ति विनय शुक्ला ने बताया कि मेंथा की खेती की शुरुआत भारत में 70 के दशक के बाद ही शुरू हुई। 1954 में जापान से इसके सात पौधे लाकर लगाए गए थे। तब जापान ही इसका सबसे बड़ा उत्पादक देश था। बाद के दशकों में चीन ने इस मामले में सभी को पीछे छोड़ दिया। 1980 तक भारत चीन से ही अपनी जरूरत का मेंथा ऑयल आयात करता रहा। जापान से लाए गए पौधों पर लंबे समय तक शोध किया गया। सबसे पहले एच-77 के नाम से मेंथा की हाइब्रिड नस्ल तैयार की गई। बाद में गोमती, हिमालया बाजार में आई। 1998 में मेंथा की कोसी नस्ल तैयार हुई। इसके बाद से ही देश ने मेंथा उत्पादन में बढ़त बनाना शुरू कर दिया।
विश्व में 22 हजार टन मेंथा ऑयल का उत्पादन होता है। इसमें 19 हजार टन तेल अकेले भारत में निकाला जाता है। इसका भी 90 फीसदी हिस्सा यूपी में पैदा होता है। देश के कुल 1 लाख 60 हजार हेक्टेयर में मेंथा की खेती होती है। इसमें भी 95 फीसदी रकबा अकेले यूपी में है। यूपी के बाराबंकी, सीतापुर, बलरामपुर, लखनऊ, बदायूं, रामपुर और बरेली में इसकी खेती होती है।
एसेंसियल ऑयल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष शैलेंद्र जैन ने बताया कि दशकों तक मेंथा बाजार पर काबिज रहे चीन का वर्चस्व खत्म हो गया है। यह सब यूपी की दम पर ही हुआ है। शक्ति शुक्ला के मुताबिक वायदा बाजार में आज मेंथा की धूम है। कन्नौज स्थित एफएफडीसी सेंटर में मेंथा ऑयल शुद्धता की जाच को हर रोज दर्जनों नमूने देशभर से आते हैं।
दैनिक जागरण से साभार
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Friday, November 27, 2009
चीन में जीएम चावल को मंजूरी, दो-तीन सालों में होने लगेगी वाणिज्यिक खेती

गौरतलब है कि स्थानीय स्तर पर विकसित किए गए बीटी-63 (Bt-63) नामक कीट-प्रतिरोधी जीन संवर्धित चावल की श्रृंखला को मंजूरी अभी वहां के कृषि मंत्रालय की बायोसेफ्टी कमेटी ने दी है। इसका मतलब है कि चीन के कृषि मंत्रालय से अनुमोदन अभी बाकी है। लेकिन जिस तरह से जीएम फसलों की ओर चीन का झुकाव बढ़ रहा है, माना जा सकता है कि यह अनुमोदन भी देर-सबेर मिल ही जाएगा। माना जा रहा है कि पंजीकरण और प्रायोगिक उत्पादन जैसी प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद ही वाणिज्यिक उत्पादन शुरू होगा, लेकिन अनुमान जताया जा रहा है कि अगले दो-तीन सालों में ये औपचारिकताएं पूरी हो जाएंगी। चीन ने पिछले सप्ताह जीन संवर्धित फाइटेस (GM phytase) नामक जानवरों को खिलाए जानेवाले अनाज (Corn) को भी बायोसेफ्टी मंजूरी दी है।
इस बीच पर्यावरण समर्थक संगठन ग्रीनपीस ने चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि चीन में जीएम चावल को मंजूरी अभी पूर्ण नहीं है और यह उतना आसान भी नहीं है। संगठन ने कहा है कि दुनिया की बीस फीसदी से भी अधिक आबादी को खतरनाक जेनेटिक प्रयोग से बचाने के लिए चीन के कृषि मंत्रालय से उसके द्वारा अनुरोध किया जा रहा है। विदित हो कि हर साल करीब 59.5 मिलियन टन चावल उपजानेवाला चीन दुनिया का सबसे बड़ा चावल उत्पादक है। इसमें से अधिकांश चावल की घरेलु स्तर पर ही खपत हो जाती है, लेकिन कुछ निर्यात भी होता है।
पर्यावरण संगठनों का कहना है कि जीई फूड से चीन में स्वास्थ्य, पर्यावरण व खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से क्षति होगी तथा उसके निर्यात पर बुरा असर पड़ सकता है। ग्रीनपीस के चीन में मौजूद एक कार्यकर्ता के शब्दों में जीई चावल के वाणिज्यिकरण से चीन की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी, क्योंकि इस तरह के चावल का अधिकांश पेटेन्ट मोंसैंटो जैसी विदेशी कंपनियों के नियंत्रण में है।
फोटो ग्रीनपीस से सभार
Tuesday, August 11, 2009
अब आप ही बताएं ... मैं चीन की निंदा करूं या धन्यवाद दूं!

बिहार के जिस कैमूर जिले में मैं रहता हूं, वह भीषण सूखे की चपेट में है। जीवन को प्रवाहमान रखने के लिए हम किसानों के सामने मानसून के साथ जुआ खेलने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। लेकिन यह जुआ खेलते भी तो किस बूते। हमारे गांव के आहर-तालाब अतिक्रमणकारियों के लालच और सरकार की बेरूखी की भेंट चढ़ चुके हैं। नहर में पानी का टोटा पड़ा हुआ है। बिजली सिर्फ दर्शन भर के लिए आती है। डीजल पर अनुदान जैसी राहत की सरकारी घोषणाएं सिर्फ कागजों पर हैं। इस मुश्किल समय में यदि हमारे इलाके के किसान मानसून के साथ जुआ खेलने में समर्थ हो पाए हैं तो चाइनीज डीजल इंजन पंपिंग सेटों के बूते। सरकार जिन स्वदेशी डीजल इंजन पंपिंग सेटों की खरीद पर अनुदान देती है, वे भारी और महंगे होते हैं और एक घंटे में एक लीटर डीजल खा जाते हैं। जबकि चाइनीज डीजल इंजन पंपिंग सेट अपेक्षाकृत सस्ते हैं और हल्के भी। इतने हल्के कि दो आदमी आसानी से इन्हें कहीं भी लेकर जा सकते हैं। सबसे बड़ी बात है कि ये आधे लीटर डीजल में ही एक घंटे चल जाते हैं। बगल के चित्र में जिस डीजल इंजन पंपिंग सेट के जरिए किसान सूखे खेतों तक पानी पहुंचाने का उद्यम कर रहे हैं, वह चाइनीज ही है।
इंटरनेट पर मैं खबर पढ़ रहा हूं कि चीन की दवा कंपनियों ने ''मेड इन इंडिया'' के लेबल के साथ नकली दवाइयां बनाकर उन्हें अफ़्रीकी देश नाइजीरिया भेजा। दो महीने पहले नाइजीरिया में ऐसी नकली दवाओं की एक बड़ी खेप पकड़ी गयी थी। कहा जा रहा है कि खुद चीनी अधिकारियों ने भी मान लिया है (कि चीनी कंपिनयां इस कांड में शामिल थीं)। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि चीन की निंदा करूं या उसे धन्यवाद दूं। आखिर यह भी तो सच है कि हमारे इलाके के असंख्य किसान चीन निर्मित डीजल इंजन पंपिंग सेटों की ताकत पर ही तो मानसून के साथ जुआ खेलने में समर्थ हो पाए हैं।
Friday, November 28, 2008
चीनी लहसुन से देश को खतरा, सुप्रीम कोर्ट ने दिया जलाने का आदेश

विदेश से खाद्य पदार्थों के आयात के मामले में काफी सतर्कता बरती जानी चाहिए। हल्की सी चूक भी देश की कृषि और देशवासियों की सेहत के लिए गंभीर रूप से नुकसानदेह हो सकती है। चीन से आयातित लहसुन के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए एक ताजा फैसले ने इस तथ्य को बल प्रदान किया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में चीन से आयात किए गए फफूंद लगे लहसुन के 56 टन की खेप को लोगों और खेती के लिए खतरनाक बताते हुए उसे तत्काल जलाने का आदेश दिया है। यह लहसुन वर्ष 2005 के आरंभ में भारत लाया गया था और अभी मुंबई में जवाहर लाल नेहरू बंदरगाह के निकट एक गोदाम में रखा है।
सीमा शुल्क अधिकारियों ने इसे फफूंदग्रस्त पाए जाने के बाद इसके आयात की अनुमति वापस ले ली थी। इसके बाद इसे मंगानेवाली कंपनी ने मुंबई उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जहां उसे जीत हासिल हुई। मुंबई उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा था कि बाजार में उतारने से पहले सभी 56 टन लहसुन को धुएं का इस्तेमाल कर दोषमुक्त किया जाए। उच्च न्यायालय के इस निर्णय से असंतुष्ट केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में इसे चुनौती दी, जिसने इस लहसुन को नुकसानदेह करार देते हुए जल्द से जल्द जलाने का आदेश दिया।
केन्द्र सरकार के अधिकारियों का तर्क था कि इस प्रक्रिया के चलते आयातित लहसुन में मौजूद फफूंद के पूरे देश में फैलने का खतरा है, जो अब तक यहां नदारद हैं। यदि ये फफूंद देश में फैल गए तो भविष्य में यहां की खेती को तगड़ा नुकसान पहुंचेगा।
अधिकारियों के मुताबिक इस लहसुन में ऐसे खतरनाक फफूंद हैं, जो इसे जल्द ही कूड़े में बदल देते हैं। यदि सतर्कता न बरती गयी तो इसके भारत समेत अन्य देशों में भी फैलने का खतरा है। यदि ऐसा हो गया तो कृषि विशेषज्ञों के लिए इस विपदा पर नियंत्रण कर पाना काफी मुश्किल होगा।
लहसुन को चीन से भारत भेजते समय माना गया था कि मिथाइल ब्रोमाइड के जरिए इसे दोषमुक्त कर लिया जाएगा। लेकिन जानकारों की राय में इस तरीके से केवल कीड़े-मकोड़ों को ही नष्ट किया जा सकता है। फफूंद को खत्म करना इसके जरिए संभव नहीं है। इसे खत्म करने के लिए तो फफूंदनाशी का इस्तेमाल करना पड़ता है, और ऐसा करने पर लहसुन इस्तेमाल लायक नहीं रह जाता।
इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि चीन में लहसुन की खेती काफी होती है। वहां की सरकार किसानों को इसकी खेती के लिए पैसे देती है और बिक्री में समस्या होने पर मदद भी करती है। चीनी लहसुन पहले से ही भारतीय किसानों के लिए परेशानी का सबब रहा है।
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