सिर्फ पूंजी पर ही नजर रखना और समाज की अनदेखी करना नैतिकता के लिहाज से गलत है ही, यह गलत अर्थनीति भी है। करीब एक दशक पहले जब देश में आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ तो लगातार यही गलती दुहरायी गयी। ऐसा जानते हुए किया गया या अनजाने में यह तो हमारे नीति निर्धारक जानें, लेकिन इसका कुप्रभाव अब साफ दिख रहा है। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि देश में उद्योग, सेवा, परामर्श, बैंकिंग आदि क्षेत्रों में लगतार तरक्की हो रही है, रोजगार के नित नये अवसर सृजित हो रहे हैं, फिर भी बेरोजगारी बढ़ते ही जा रही है। और जाहिर है कि बेरोजगारी बढ़ेगी तो असमानता भी बढ़ेगी। देश में कुछ लोग बहुत से लोगों को काम देने लायक होंगे लेकिन अधिकांश लोग वह काम पकड़ने लायक ही नहीं होंगे। खासकर गांवों व कस्बाई इलाकों में इस असमानता का दंश विशेष रूप से देखने को मिल रहा है।
आलोक पुराणिक जी ने अपने चिट्ठे अगड़म बगड़म में देश में रोजगार की संभावनाओं के बारे में आंख खोलनेवाला लेख लिखा है। वे अपने लेख में बताते हैं कि देश में मौजूदा समय में रोजगार बहुत ज्यादा हैं, लेकिन उपयुक्त लोग बहुत कम हैं। वे लिखते हैं-
''इन दिनों दिल्ली के कालेजों में बीकाम, बीए जर्नलिज्म, बेचलर आफ बिजनेस इकोनोमिक्स के छात्र कोर्स के दूसरे या तीसरे साल में ही कुछ काम में लग जाते हैं। इतना काम है, करने वाले नहीं हैं। तरह-तरह के काम हैं। बी काम का एक छात्र आउटसोर्सिंग का बहुत मजेदार काम करता है। वह अमेरिकी स्कूलों के बच्चों का होमवर्क दिल्ली में बैठकर कर देता है। अमेरिका में कई छात्र होमवर्क करवाने के लिए बीस-पचास डालर खर्च करने को तैयार हैं। पर यहां बीस डालर का मतलब है करीब नौ सौ रुपये।''
''आईसीआईसीआई बैंक को लोग चाहिए और वह इंतजार नहीं करना चाहता। देश के गांवों की बैंकिंग पर कब्जा करना है। बैंक ग्रेजुएटों को पहले से ही पकडना चाहता है।''
''इनफोसिस या टाटा कंसलटेंसी जैसी कंपनियों को सौ दो सौ नहीं चाहिए, इन्हे तीस -चालीस हजार लोग चाहिए एक साल में।''
''एक अध्ययन के मुताबिक २०१० तक भारत में दस लाख लोगों की कमी होगी, इनफोरमेशन टेक्नोलोजी के आउटसोर्सिंग से जुडे धंधों में।''
श्री पुराणिक इतनी बड़ी संख्या में उपलब्ध रोजगार की संभावनाओं की तुलना में उपयुक्त लोगों की कमी का कारण भी बताते हैं- ''दरअसल उद्योग, अर्थव्यवस्था की तस्वीर जितनी तेजी से बदल गयी, उतनी तेजी से भारतीय शैक्षिक ढांचा नहीं बदला। काल सेंटर का कारोबार इतना बडा कारोबार है, पर भारत के एक भी विश्लविद्यालय में इस पर फोकस कोर्स नहीं है। विज्ञापन कापीराइटिंग इतना बडा कारोबार है, देश के दस विश्वविद्यालय भी इस पर फोकस डिग्री कोर्स नहीं चलाते।''
श्री पुराणिक चेतावनी भी देते हैं- ''लोग हवा से नहीं आयेंगे., लोग तैयार करने पडेंगे। अगर लोग यहां तैयार नहीं होंगे, तो चीन तैयार कर लेगा। कारोबार चीन चला जायेगा। ऐसी सूरत में भारत चुकी हुई संभावनाओं का देश होगा, संभावनाओं का नहीं। दुर्भाग्य से यह मसला अभी नीति निर्माताओं के लिए किसी किस्म की प्राथमिकता का विषय नहीं है।''
दरअसल देश की अर्थव्यवस्था और मानव संसाधन दोनों पर समान रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए। खासकर भारत जैसी बड़ी आबादी वाले देश के लिए तो यह निहायत ही जरूरी है। हालांकि आर्थिक उदारीकरण के हमारे प्रणेता गत एक दशक से भी अधिक समय से पूंजी के निवेश और उसके प्रवाह की धारा को आंकड़ों में निहार कर इतने आत्ममुग्ध होते रहे कि मानव संसाधन के विकास के तरीके में भी समानुपातिक सुधार पर उनका ध्यान ही नहीं रहा। पूंजी की चकाचौंध में समाज को भुला दिया गया। पूंजीवाद की प्रतिष्ठा में समाजवाद को तड़ीपार कर दिया गया। रोजगार की असीम संभावनाओं के बीच भी बेरोजगारी के 'पानी बीच मीन प्यासी' वाली स्थिति इस दोषपूर्ण नीति का ही कुफल है।
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ReplyDeleteविजय जी और देबाशीष जी चिट्ठे की तारीफ के लिए धन्यवाद। देबाशीष भाई मैंने आपको अपना ईमेल पता भेज रहा हूं।
ReplyDeleteविजय जी और देबाशीष जी, चिट्ठे की तारीफ के लिए धन्यवाद। देबाशीष भाई, मैं आपको अपना ईमेल पता भेज रहा हूं।
ReplyDeleteअशोक जी
ReplyDeleteआप मेरे ब्लॉग पर आए ग़ज़ल पसंद की समझिए मेरा मान बढ़ गया. आप ख़ुद विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं. काश देश का हर किसान आप सा समझदार हो जाए तो प्रगति की रफ्तार कई गुना बढ़ जाए. मैं आप के ब्लॉग और इसपर दी गई विविध पठनिए सामग्री को देख कर आप के समक्ष नतमस्तक हूँ.
नीरज
आपकी सोच की तो कायल हूँ मैं और बहुत अच्छे ढंग से उसे प्रस्तुत भी किया है आपने....
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