जब हम भारतीय पत्रकारिता की प्रकृति और स्थिति में बदलाव पर विचार करते हैं, तो निश्चित तौर पर विभाजक रेखा देश की आजादी ही हो सकती है। देश की आजादी ही वह कालखंड है, जिसके बाद भारत में पत्रकारिता के उद्देश्य व पत्रकारों के चरित्र-व्यवहार में एक बड़ा बदलाव देखने को मिलता है। हमारे विचार में यदि आजादी से पूर्व की पत्रकारिता के संदर्भ में आज की पत्रकारिता पर अध्ययन-मनन किया जाये, तो यह एक नयी रोशनी दे सकता है।
भारत में आजादी के पूर्व पत्रकारिता मिशन था, व्यवसाय नहीं। उन दिनों समाचारपत्र निकालने का उद्देश्य राष्ट्र और समाज की सेवा होता था, मुनाफा अर्जित करना नहीं। इसके विपरीत उस समय के कई लोगों को समाचारपत्र निकालने में काफी घाटा होता था। उन्हें घोर आर्थिक तंगी से जूझना होता था। तब भी वे अपना मिशन जारी रखते थे। आजादी से पूर्व समाचारपत्र निकालनेवाले अधिकांश लोग राजनीतिक-सांस्कृतिक आंदोलन अथवा समाजसेवा से जुड़े होते थे। वे लोग हर तरह के त्याग और बलिदान के लिए तैयार रहते थे। 1885 ई. में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई थी, इसके संस्थापकों में एक तिहाई पत्रकार थे।
देश की आजादी के पूर्व भारतीय राजनीतिक व सांस्कृतिक परिदृश्य के जितने भी चमकदार नक्षत्र थे, उनमें अधिकांश पत्रकार थे। राजा राममोहन राय, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, दादा भाई नौरोजी, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, एनी बेसेंट, द्वारिका नाथ टैगोर, देवेन्द्र नाथ टैगोर, जी. सुब्रह्मण्यम अय्यर, गोपाल कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, वीर राघवाचारी, महात्मा गांधी, बाल मुकुंद गुप्त, फिरोजशाह मेहता, युगल किशोर शुक्ल, पं. मदन मोहन मालवीय, प्रताप नारायण मिश्र, केशव चन्द्र सेन, बाल कृष्ण भट्ट, मोतीलाल नेहरू, शिवप्रसाद गुप्त, के. एम. पनिक्कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, मौलाना अबुल कलाम आजाद, पं. रामचन्द्र शुक्ल, बाबू श्यामसुन्दर दास, बाबूराव विष्णु पराड़कर आदि जैसे लोग उन दिनों समाचारपत्रों के संपादक अथवा संस्थापक हुआ करते थे।
इन लोगों का देश में राष्ट्रीय चेतना के प्रचार-प्रसार, समाज सुधार व स्वभाषा उन्नति में महत्वपूर्ण योगदान रहा। ये लोग चाहते तो उस समय के राजे-राजवाड़े की तरह अंग्रेजों के कृपापात्र बनकर ऐश की जिंदगी जीते। लेकिन इन्होंने सुखों का त्याग कर देश की पराधीनता के खिलाफ आवाज बुलंद की। इनका साहित्य भी राष्ट्रभावना से ओत-प्रोत रहता था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की एक पहेली देखिए –
आजादी से पूर्व के पत्रकारों ने अपने आचरण की श्रेष्ठता व सच्चाई की पक्षधरता की जो मिसाल कायम की, वह हर युग में अनुकरणीय है। भारत में पत्रकारिता का वह काल इतना गौरवपूर्ण था कि आधुनिक भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में जिसे पहला पत्रकार होने का गौरव प्राप्त है, उसने अपनी निर्भीकता के लिए जेल की यातना सही। जेम्स ऑगस्टस हिक्की नामक ईस्ट इंडिया कंपनी के उस कमर्चारी ने 1780 ई. में कलकत्ता जेनरल एडवर्टाइजर नामक भारत का पहला मुद्रित अखबार निकाला था। उस साप्ताहिक अखबार को बंगाल गजट भी कहा जाता था। हिक्की इतने निर्भीक पत्रकार थे कि वे गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स तक की आलोचना करने से नहीं हिचकते थे। गवर्नर जनरल, मुख्य न्यायाधीश तथा सरकारी अधिकारियों की निष्पक्ष आलोचना के कारण उनका मुद्रणालय जब्त कर लिया गया तथा उन्हें कारावास में डाल दिया गया।
भारतीय पत्रकारिता के इन गौरवमय क्षणों को विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए। इनकी चर्चा होनी चाहिए।
भारत में आजादी के पूर्व पत्रकारिता मिशन था, व्यवसाय नहीं। उन दिनों समाचारपत्र निकालने का उद्देश्य राष्ट्र और समाज की सेवा होता था, मुनाफा अर्जित करना नहीं। इसके विपरीत उस समय के कई लोगों को समाचारपत्र निकालने में काफी घाटा होता था। उन्हें घोर आर्थिक तंगी से जूझना होता था। तब भी वे अपना मिशन जारी रखते थे। आजादी से पूर्व समाचारपत्र निकालनेवाले अधिकांश लोग राजनीतिक-सांस्कृतिक आंदोलन अथवा समाजसेवा से जुड़े होते थे। वे लोग हर तरह के त्याग और बलिदान के लिए तैयार रहते थे। 1885 ई. में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई थी, इसके संस्थापकों में एक तिहाई पत्रकार थे।
देश की आजादी के पूर्व भारतीय राजनीतिक व सांस्कृतिक परिदृश्य के जितने भी चमकदार नक्षत्र थे, उनमें अधिकांश पत्रकार थे। राजा राममोहन राय, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, दादा भाई नौरोजी, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, एनी बेसेंट, द्वारिका नाथ टैगोर, देवेन्द्र नाथ टैगोर, जी. सुब्रह्मण्यम अय्यर, गोपाल कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, वीर राघवाचारी, महात्मा गांधी, बाल मुकुंद गुप्त, फिरोजशाह मेहता, युगल किशोर शुक्ल, पं. मदन मोहन मालवीय, प्रताप नारायण मिश्र, केशव चन्द्र सेन, बाल कृष्ण भट्ट, मोतीलाल नेहरू, शिवप्रसाद गुप्त, के. एम. पनिक्कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, मौलाना अबुल कलाम आजाद, पं. रामचन्द्र शुक्ल, बाबू श्यामसुन्दर दास, बाबूराव विष्णु पराड़कर आदि जैसे लोग उन दिनों समाचारपत्रों के संपादक अथवा संस्थापक हुआ करते थे।
इन लोगों का देश में राष्ट्रीय चेतना के प्रचार-प्रसार, समाज सुधार व स्वभाषा उन्नति में महत्वपूर्ण योगदान रहा। ये लोग चाहते तो उस समय के राजे-राजवाड़े की तरह अंग्रेजों के कृपापात्र बनकर ऐश की जिंदगी जीते। लेकिन इन्होंने सुखों का त्याग कर देश की पराधीनता के खिलाफ आवाज बुलंद की। इनका साहित्य भी राष्ट्रभावना से ओत-प्रोत रहता था। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की एक पहेली देखिए –
भीतर भीतर सब रस चूसे, बाहर से तन मन धन भूसे।
जाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि साजन, नहीं अंग्रेज।।
जाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि साजन, नहीं अंग्रेज।।
आजादी से पूर्व के पत्रकारों ने अपने आचरण की श्रेष्ठता व सच्चाई की पक्षधरता की जो मिसाल कायम की, वह हर युग में अनुकरणीय है। भारत में पत्रकारिता का वह काल इतना गौरवपूर्ण था कि आधुनिक भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में जिसे पहला पत्रकार होने का गौरव प्राप्त है, उसने अपनी निर्भीकता के लिए जेल की यातना सही। जेम्स ऑगस्टस हिक्की नामक ईस्ट इंडिया कंपनी के उस कमर्चारी ने 1780 ई. में कलकत्ता जेनरल एडवर्टाइजर नामक भारत का पहला मुद्रित अखबार निकाला था। उस साप्ताहिक अखबार को बंगाल गजट भी कहा जाता था। हिक्की इतने निर्भीक पत्रकार थे कि वे गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स तक की आलोचना करने से नहीं हिचकते थे। गवर्नर जनरल, मुख्य न्यायाधीश तथा सरकारी अधिकारियों की निष्पक्ष आलोचना के कारण उनका मुद्रणालय जब्त कर लिया गया तथा उन्हें कारावास में डाल दिया गया।
भारतीय पत्रकारिता के इन गौरवमय क्षणों को विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए। इनकी चर्चा होनी चाहिए।
निर्भीकता और कार्य कुशलता में भेद नहीं है। एक उत्कृष्ट व्यवसाई को भी निर्भीकता का सहारा लेना होता है।
ReplyDeleteअच्छा लगा आपका आलेख पढ़कर. जानकारी बढ़ी. आभार.
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