Thursday, December 4, 2008
कोल्हू, पनघट, कौओं का उचरना और धोती
मेरे प्रिय कवि केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता है :
गांव की सड़क
शहर को जाती है,
शहर छोड़कर
जब गांव
वापस आती है
तब भी
गांव रहता है वही गांव,
कांव-कांव करते कौओं का गांव।
1980 ईस्वी में जब उन्होंने यह कविता लिखी होगी, कतई नहीं सोचा होगा कि दो दशक बाद गांवों में इतना बदलाव आ जाएगा कि वे गांव नहीं रह जाएंगे।
इन्हें अभी भी गांव ही कहा जाता है, लेकिन पहले वाली बात नहीं रही। रून-ढुन, रून-ढुन घंटी बजाते बैलों का जोड़ा, कोल्हू, पनघट, वटवृक्ष, पीपल, अमराई, तालाब, कौओं का उचरना – भारतीय गांव की यह परंपरागत छवि अब स्मृतियों में सिमटती जा रही है। न पहले जैसा लोकजीवन में रंग व रस रहा, न ही फसलों में वैविध्य। भूमंडलीकरण और बढ़ते भ्रष्टाचार ने गांवों का समूचा ताना-बाना ही नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। आचार-विचार, रहन-सहन सब कुछ बदलते जा रहा है।
लोगों के पहनावा पर भी खासा असर देखने को मिल रहा है। इकॅनामिक टाइम्स में छपे एक आलेख में भारत सरकार की टेक्सटाइल समिति के एक रिपोर्ट के हवाले से बताया गया है कि ग्रामीण इलाकों में धोती की मांग में तेजी से गिरावट आ रही है। सामान्य पर्यवेक्षण में भी यह देखने में आता है कि धोती की जगह पतलून और पाजामा अब ग्रामीण युवाओं की पसंद बनते जा रहे हैं।
आलेख में कहा गया है, ‘’ ग्रामीण इलाकों में धोती को पसंद करने वालों की संख्या में भारी कमी आयी है। साल 2006 में धोती का कुल बाजार 12.8 करोड़ पीस का था, जबकि 2007 में यह घटकर 11.7 करोड़ पीस रह गया है। इस तरह से देखें तो 2007 में धोती की मांग में 8.59 फीसदी की गिरावट आयी है। धोती के बाजार में शहरी भारत की हिस्सेदारी 21.37 फीसदी रही, वहीं ग्रामीण भारत की हिस्सेदारी 78.63 फीसदी रही। .... लोगों के कपड़े में आए बदलाव से धोती आकर्षक नहीं रह गया है। दक्षिण और पूर्वी भारत के राज्यों में धोती की मांग में भारी कमी आयी है।‘’
आलेख में रेडीमेड वस्त्र विक्रेताओं का रुख अब गांवों की ओर होने की बात बताते हुए कहा गया है, ‘’ग्रामीण इलाकों में रेडीमेड कपड़ों की मांग में अच्छी तेजी आयी है और 2007 में इसमें 7.53 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। रेडीमेड गारमेंट खपत के मामले में साल 2006 के 29.2 करोड़ पीस की तुलना में 2007 में 31.4 करोड़ पीस की खपत हुई। इस कैटेगरी में ग्रामीण भारत ने 55.73 फीसदी बाजार हिस्सेदारी हासिल की, वहीं शहरी भारत 44.27 फीसदी बाजार ही हासिल कर सका।‘’
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
-
प्रा चीन यूनान के शासक सिकंदर (Alexander) को विश्व विजेता कहा जाता है। लेकिन क्या आप सिकंदर के गुरु को जानते हैं? सिकंदर के गुरु अरस्तु (Ari...
-
भाषा का न सांप्रदायिक आधार होता है, न ही वह शास्त्रीयता के बंधन को मानती है। अपने इस सहज रूप में उसकी संप्रेषणयीता और सौन्दर्य को देखना हो...
-
हमारे गांवों में एक कहावत है, 'जिसकी खेती, उसकी मति।' हालांकि हमारे कृषि वैज्ञानिक व पदाधिकारी शायद ऐसा नहीं सोचते। किसान कोई गलत कृ...
-
आज पहली बार हमारे गांव के मैनेजर बाबू को यह दुनिया अच्छे लोगों और अच्छाइयों से भरी-पूरी लग रही है। जिन पढ़े-लिखे शहरी लोगों को वे जेठ की द...
-
आज के समय में टीवी व रेडियो पर मौसम संबंधी जानकारी मिल जाती है। लेकिन सदियों पहले न टीवी-रेडियो थे, न सरकारी मौसम विभाग। ऐसे समय में महान कि...
यदि कोई नई उम्र वाला शख्स धोती पहनना शुरू कर दे तो अगले ही दिन से लोग उसे धोतीवाला कहकर बुलाना शुरू कर देंगे और इस शिद्दत से यह नाम पुकारा जायगा कि उसका खुद का नाम कहीं खो जायगा.....जबकि आज लोग जो भी काम करते हैं वहाँ अपना नाम देखना चाहते हैं.....अखबारों में एक बार कहीं किसी का नाम क्या आ जाय, लोग उसे चहक कर देखते और दूसरों को दिखाते हैं....ऐसे में अपना मूल नाम कोई नहीं गंवाना चाहेगा।
ReplyDeleteअशोक जी, मेरी बात को आजमाना चाहें तो एक हफ्ते धोती पहन कर चलिये :)
धोतीयही पोस्ट के लिये बधाई, अच्छी पोस्ट, नया विषय।
हद है. लोग कमर पर नहीं, कम से कम गरदन में ही लपेटकर घूमते. कहीं तो धोती टाइप गुंडई छंट रही होती?
ReplyDeleteसही है पांडे जी ! समय के साथ साथ सब कुछ पश्चिमीकृत होता जारहा है ! अब गाँव भी कहने के ही गाँव रह गए हैं !
ReplyDeleteइस कैटेगरी में ग्रामीण भारत ने 55.73 फीसदी बाजार हिस्सेदारी हासिल की, वहीं शहरी भारत 44.27 फीसदी बाजार ही हासिल कर सका।‘’
आपका यह कथन ही सिद्ध करता है की गाँव भी अब तो शहरों को पीछे छोड़ते जा रहे हैं !
सच मे गांव बदल गये हैं।मै साल मे दो-तीन बार गांव जाता हूं और हर बार उसे नया पाता हूं,एक्दम बदला हुआ। अड़ोस-पड़ोस के शहर उसे निगल रहे है धीरे-धीरे।
ReplyDeleteगांव अब शहर जैसे दिखने लगे हैं ...वो खुशबु तो कहीं खतम होती जा रही है ..जो पहले महसूस होती थी
ReplyDeleteपांडे जी, धोती तो क्या, कुरता पजामा भी लुप्त होते जा रहे है.
ReplyDeleteकेदारनाथ जी कि यह कविता सचमुच लाजवाब है। इसे जब जब पढो, उतना ही आनन्द आता है।
ReplyDeleteकुछ दिनो पहले एक मित्र के गाँव जाना हुआ.. किसी भी दृष्टि से वो गाँव नही लग रहा था.. गाँव बदल रहे है
ReplyDeleteअच्छा; अब बरन में धोती-खड़ाऊं की जगह पैण्ट-हवाई चप्पल देने का प्रचलन शुरू हो जायेगा जल्दी ही। आखिर पण्डितजी के लड़के बच्चे तो धोती-खड़ाऊं का प्रयोग करने से रहे।
ReplyDeleteइस पोस्ट ने तो सोचने का मामला दे दिया।
कोल्हू, पनघट, कौओं का उचरना और धोती: अब किताबों में ही पाये जायेंगे !
ReplyDeleteमैं रोज गाँव जाता हूँ !!!!
ReplyDeleteपरिवर्तन की हद से ज्यादा बदल चुके हैं गाँव!!!
संस्कृति का रोना हम शहरों के लिए रोते हैं लेकिन गाँव भी अब कुछ कम नहीं रहे ???
बहुत बदल रहे हैं गाँव !! और वैसे ही बदलते जा रहे हैं,..... ये संस्कार, मान्यताएं!!!!!!
जी पाण्डेय जी बहुत बदलते से लगे हैं गाँव !
ReplyDeleteअच्छा आलेख...गांव ले चलता हुआ
ReplyDeleteशुक्रिया
अरे !! मे तो अब भी अपनी बीबी को बच्चो को बताता हू की भारत मे शहरो से ज्यादा गांव मै सफ़ाई होती,शांति होती है, लोग अजनबी को भी सर आंखो मे बिठाते है... तो क्या सब गायव ?? यह तो बहुत बुरा होगा, क्योकि इस बार हम सब ने किसी गांव देखने का कार्यक्रम बनाया था.
ReplyDeleteमै कुछ समय गांव मै रहा जो मेरी जिन्दगी का सब से वेहतरीन समय है.
धन्यवाद, सुंदर कविता के लिये, ओर एक अति सुंदर लेख के लिये
जींस, बाइक, बीयर, चाउमिन, हाटडाग, बर्गर, पीज़ा, साफ्टड्रिंक, केबल, डिश ये सब भी पहुंच गया अशोक जी......
ReplyDeleteश्रध्धेय केदार नाथ जी का सँसमरणात्मक आलेख पापा जी की याद मेँ लिखा हुआ है
ReplyDeleteमैँ उसे किसी दिन अवश्य मेरे ब्लोग पर लिखूँगी --
मुझे धोती का पहनावा पसँद है
शायद सारी ऊम्र मेरे पापा जी को वही पहने देखा है इसीलिये -
और हाँ आपको बीज मिले या नहीँ ? अब तो बहुत दिन हो गये मेल करके -
स स्नेह,
- लावण्या
वक़्त के साथ दुनिया बदलती है. कभी सारा देश संस्कृत बोलता था, फ़िर नयी भाषायें जन्मीं, उसी तरह कभी सब सूती-रेशमी धोती पहनते थे अभी ऊनी, सिंथेटिक पतलून पहनेंगे!
ReplyDeleteमैं तो कहती हूं थोड़ा शहर गांव में आ जाना चाहिए और शहर में थोड़ा गांव भी।
ReplyDeleteहम इसे इस तरह नहीं कह सकते कि गांव भी तरक्की के रास्तों से जुड़ रहे हैं। गांव से हमारा मतलब क्या होता है। खेत-खलिहान, बाग-बगीचे, प्रकृति की ख़ुश्बू, जो हमें यहां नहीं मिलती। ये तो नहीं कि मिट्टी की झोपड़ी कभी ईंट के घर में तब्दील न हो। बरसात में गांव के कीचड़ से सने रास्ते क्या गांव के लोगों को भी पसंद होंगे। वहां अगर पक्की सड़क बन जाए तो क्या बुरा। और पहनावे में वक़्त के साथ बदलाव आया है।
केदार जी की कविताएं मुझे हमेशा से पसंद हैं।
परिवर्तन सही है पर एक सीमा तक
ReplyDeleteभूमंडलीकरण के इस दौर से गाँव भी अछूते नहीं
ReplyDeleteमैं तो थोड़ी देर पहले भी आया था, पर यह जान कर कि आप खेत में हैं, लौट गया. अपने ब्लाग पर गया तो आप टिप्पणीबाक्स में थे. क्या कमाल की टैलीपैथी है भाई..!!
ReplyDelete