''1903 में राइट बंधुओं का पहला हवाई जहाज़ उड़ा. 1957 में पहला कृत्रिम उपग्रह स्पुतनिक-1 अंतरिक्ष में पहुंचा. 1961 में यूरी गागारिन पहले अंतरिक्षयात्री बने. 8 वर्ष बाद आदमी चंद्रमा पर भी पहुंचा. चांद पर जाने के 40 साल पूरे.''वह 20 जुलाई 1969 का दिन था. भारत में सुबह के छह बजे थे. तभी, कोई चार लाख किलोमीटर दूर चंद्रमा पर से एक ऐसी आवाज़ आई, जिसके साथ मानव सभ्यता का एक सबसे पुराना सपना साकार हो गया: "दि ईगल हैज़ लैंडेड" (ईगल चंद्रमा पर उतर गया है). अपने अवतरण यान ईगल के साथ अमेरिका के नील आर्मस्ट्रांग और एडविन एल्ड्रिन चंद्रमा पर उतर गए थे. उनके तीसरे साथी माइकल कॉलिंस परिक्रमा यान कोलंबिया में चंद्रमा की परिक्रमा कर रहे थे. कोई ढाई घंटे बाद नील आर्मस्ट्रांग ने चांद पर अपना पहला क़दम रखा. 40 साल पहले के इस ऐतिहासिक पल को पचास करोड़ लोगों ने दिल थाम कर टेलीविजन पर देखा.
मानवता की लंबी छलांग
अवतरण यान ईगल से निकलकर चांद की सतह पर अपने पैर रखते हुए आर्मस्ट्रांग ने कहा था, "चांद पर मनुष्य का यह एक छोटा-सा क़दम है, लेकिन मानवता के लिए एक बहुत बड़ी छलांग है." नील आर्मस्ट्रांग उस समय 39 वर्ष के थे. मानवता के इतिहास में पहली बार कोई आदमी चांद पर चल-फिर रहा था. यह विचरण दो घंटे से कुछ अधिक समय तक चला था. चंद्रमा की बहुत कम गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण आर्मस्ट्रांग वास्तव में कंगारू की तरह उछल-उछल कर चल रहे थे. वह एक अपूर्व रोमांचक क्षण था, मानो सभी पृथ्वीवासी उनके साथ चंद्रमा की धूलभरी सतह पर कूद रहे थे.
वह तत्कालीन सोवियत संघ और अमेरिका के बीच शीतयुद्ध का भी ज़माना था. दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे थे. 1957 में सोवियत संघ ने, जो अब रूस कहलाता है, अपना पहला यान स्पुतनिक-1 अंतरिक्ष में भेज कर और 1961 में संसार के पहले अंतरिक्ष यात्री यूरी गागारिन को पृथ्वी की कक्षा में पहुंचाकर अमेरिका को नीचा दिखा दिया था.
अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ़ केनेडी ने चांद पर मानव को सबसे पहले भेजने और सुरक्षित वापस लाने का बीड़ा उठाया, "इसलिए नहीं कि यह काम आसान है, बल्कि इसलिए वह बहुत मुश्किल है."
भाग्य का भी साथ रहा
इतना मुश्किल कि यदि भाग्य और भगवान ने साथ नहीं दिया होता, तो आर्मस्ट्रांग और एल्ड्रिन चंद्रमा पर से जीवित नहीं लौट पाए होते. अवतरण यान ईगल जब चंद्रमा की परिक्रमा कर रहे कोलंबिया से अलग होकर नीचे की ओर जा रहा था, तभी लगभग अंतिम क्षम में एल्ड्रिन ने देखा कि वे एक क्रेटर वाले ऐसे गड्ढे में उतरने जा रहे हैं, जहां से लौट नहीं पाएंगे. उन्होंने अवतरण यान का इंजन चालू कर उसे क्रेटर से दूर ले जाने का प्रयास किया. इस में इतना ईंधन जल गया कि सुरक्षित स्थान पर उतरने तक यदि 17 सेंकंड और देर हो जाती, तो यान चंद्रमा से टकरा कर ध्वस्त हो जाता.
इसी तरह चंद्रमा से प्रस्थान के समय अवतरण यान ईगल का इंजन चालू करने के बटन ने जवाब दे दिया. दोनों चंद्रयात्रियों के सामने एक बार फिर मौत का ख़तरा आ खड़ा हुआ. अंतिम क्षण में एल्ड्रिन को ही यह विचार आया कि उन्हें अपने फ़ेल्ट पेन से इंजन चालू करने वाले बटन का काम लेना चाहिये. उन्होंने यही किया और इंजन चालू हो गया.
ऐसी ही कुछ और बातें याद करने पर कहना पड़ता है कि 40 वर्ष पूर्व के दोनों प्रथम चंद्रयात्रियों की पृथ्वी पर सकुशल वापसी किसी चमत्कार से कम नहीं थी.
अब तक 12 चंद्रयात्री
1969 से 1972 के बीच कुल 12 अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री चंद्रमा पर उतरे और सकुशल वापस लौटे. अपोलो-13 की उड़ान केवल इस दृष्टि से सफल रही कि दुर्भाग्य और दुर्घटना की कोपदृष्टि के बावजूद उसके तीनों यात्री जैसे-तैसे पृथ्वी पर जीवित लौटने में कामयाब रहे. 7 दिसंबर 1972 को अपोलो 17 मिशन के दो अंतरिक्ष यात्रियों का चंद्रमा पर अवतरण और विचरण अब तक की अंतिम समानव चंद्रयात्रा थी.
अपोलो 17 ही एकमात्र ऐसी चंद्रयात्रा थी, जिस में कोई भूवैज्ञानि (जियोलॉजिस्ट) चन्द्रमा पर उतरा था और वहां से सौ किलो से अधिक कंकड़ पत्थर और मिट्टी साथ ले आया था.
वैसे चंद्रमा पर जाकर लौटे सभी 12 अमेरिकी चंद्रयात्री अपने साथ जो कंकड़ पत्थर और मिट्टी लाए थे, उसका कुल वज़न करीब 400 किलो पड़ता है. 80 प्रतिशत नमूने तीन अरब 80 करोड़ वर्ष से भी पुराने हैं. उन्हें परीक्षण या संरक्षण के लिए बाद में अनेक देशों के बीच बांट दिया गया.
पृथ्वी जैसी ही बनावट
चंद्रमा की मिट्टी और चट्टानों में भी वे सारे खनिज पदार्थ मिलते हैं, जो हमारी धरती पर भी पाए जाते हैं. अंतर इतना ही है कि उन पर पानी, हवा या वनस्पतियों का कोई प्रभाव नहीं देखने में आता, क्योंकि ये चीज़ें वहां हैं ही नहीं. वहां की मिट्टी काले-स्लेटी रंग की है. उसमें कांच जैसे महीन कण मिले हुए जो शायद ऊंचे तापमान में सिलिका कणों के पिघल जाने से बने हैं.
चंद्रमा ही हमारी पृथ्वी का एकमात्र उपग्रह है. उसके पास अपना कोई वायुमंडल नहीं है. वह पूरी तरह सूखा हुआ निर्जीव मरुस्थल है. उसकी ऊपरी सतह चेचक के दाग़ की तरह छोटे बड़े क्रेटरों और गड्ढों से भरी हुई है. कोई ज्वालामुखी उद्गार अब नहीं होते. कोई चुंबकीय क्षेत्र भी नहीं है. चुंबकीय दिशासूचक वहां काम नहीं कर सकता. पृथ्वी जैसी कोई सुबह-शाम नहीं होती. गुरुत्वाकर्षण शक्ति पृथ्वी की अपेक्षा छः गुना कम है. जो चीज़ पृथ्वी पर 60 किलो भारी होगी, वह चंद्रमा पर केवल दस किलो भारी रह जाएगी. इसीलिए वहां से मंगल ग्रह या अन्य जगहों के लिए उड़ान करना आसान होगा. लेकिन, तापमान में ज़मीन आसमान का अंतर है. जहां सूरज की धूप हो, यानी दिन हो, वहां तापमान 107 डिग्री सेल्ज़ियस तक चढ़ जाता है, जो भाग अंधेरे में हो, वहां ऋण 153डिग्री तक गिर जाता है. हमरी पृथ्वी पर कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां इतनी भयंकर गर्मी या सर्दी पड़ती हो.
अब मंगल की बारी है
40 वर्ष बाद चंद्रमा पर उतरने की एक बार फिर अच्छी ख़ासी होड़ लगने वाली है. उसे मंगल ग्रह पर पहुंचने के लिए बीच में एक अच्छे पड़ाव के तौर पर देखा जा रहा है, जैसा कि जर्मन अंतरिक्ष अधिकरण डी एल आर में भावी चंद्र उड़ान परियोजना के प्रमुख फ्रीडहेल्म कलाज़न का कहना है, "चंद्रमा के बाद मंगल ग्रह को छोड़कर और किसी ग्रह पर मनुष्य का पहुंचना विवेकसम्मत नहीं लगता. इसलिए सभी चंद्रमा पर जाने और वहां से आगे की उड़ानों का अभ्यास करने और सीखने की सोच रहे हैं."
बहुत बढ़िया सचित्र जानकारीपूर्ण आलेख. जब आर्मस्ट्रोंग चंद्रमा पर पहुंचे थे मई बहुत छोटा था मैंने उस समय रेडियो से चंद्रमा पर इनके लेंडिंग की कामेंट्री सुनी थी . बढ़िया याद दिलाया आपने . आभार.
ReplyDeleteविस्तार से आपने महत्वपूर्ण जानकारियाँ जुटाईं है -शुक्रिया !
ReplyDeleteबहुत आभार आपका इन गौरव के क्षणों को पुन: याद दिलाने हेतु.
ReplyDeleteरामराम.
आभार इस जानकारीपूर्ण आलेख का!
ReplyDeleteMangal hi hoga.
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
बहुत विशिष्ट पोस्ट!
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