यदि आपकी पर्यटन व तीर्थाटन में रुचि है तो आपको कैमूर पहाड़ पर मौजूद मुंडेश्वरी धाम की यात्रा एक बार अवश्य करनी चाहिए। पहाड़ की चढ़ाई, जंगल की सैर, प्राचीन स्मारक का भ्रमण और मां भवानी के दर्शन। यह सारे सुख एक साथ मिलते हैं यहां की यात्रा में। शायद यही कारण है कि पहाड़ के ऊपर बने इस इस सुंदर मंदिर में जो एक बार आता है, वह बार-बार आना चाहता है।
बिहार प्रांत के कैमूर जिले के भगवानपुर प्रखंड में मौजूद यह प्राचीन मंदिर पुरातात्विक धरोहर ही नहीं, तीर्थाटन व पर्यटन का जीवंत केन्द्र भी है। इसे कब और किसने बनाया दावे के साथ कहना मुश्किल है। लेकिन इसमें दो राय नहीं कि यह देश के सर्वाधिक प्राचीन व सुंदर मंदिरों में एक है।
कैमूर पर्वत की पवरा पहाड़ी पर 608 फीट की उंचाई पर स्थित इस मंदिर से मिले एक शिलालेख से पता चलता है कि 635 ई. में यह निश्चित रूप से विद्यमान था। हाल के शोधों के आधार पर तो अब इसे देश का प्राचीनतम मंदिर माना जाने लगा है। भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी तथा बिहार धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष आचार्य किशोर कुणाल यहां मिले शिलालेख और अन्य दस्तावेज का हवाला देते हुए कहते हैं कि यह मंदिर 108 ईस्वी सन् में मौजूद था और तभी से इसमें लगातार पूजा और बलि का कार्यक्रम चल रहा है।
जानकार लोगों का कहना है कि मंदिर के आसपास मलबों की सफाई के दौरान दो टुकड़ों में खंडित 18 पंक्तियों का एक शिलालेख मिला था। एक टुकड़ा 1892 ईस्वी में मिला था, जबकि दूसरा 1902 में। उन दोनों खंडों को आपस में जब जोडा गया तो उसकी लिखावट से पता चला कि उसकी लिपि ब्राह्मी थी। उनके मुताबिक शिलालेख की भाषा गुप्तकाल से पूर्व की प्रतीत होती है, क्योंकि विख्यात वैयाकरण पाणिनी के प्रभाव से गुप्तकाल में परिनिष्ठित संस्कृत का उपयोग होने लगा था। इससे स्पष्ट होता है कि मुंडेश्वरी मंदिर का निर्माण गुप्तकाल से पूर्व हुआ होगा।
जानकार लोग बताते हैं कि शिलालेख में उदयसेन का जिक्र है जो शक संवत 30 में कुषाण शासकों के अधीन क्षत्रप रहा होगा। उनके मुताबिक ईसाई कैलेंडर से मिलान करने पर यह अवधि 108 ईस्वी सन् होती है।
शिलालेख में वर्णित तथ्यों के आधार पर कुछ लोगों द्वारा अनुमान लगाया जाता है कि यह आरंभ में वैष्णव मंदिर रहा होगा जो बाद में शैव मंदिर हो गया तथा उत्तर मध्ययुग में शाक्त विचारधारा के प्रभाव से शक्तिपीठ के रूप में परिणित हो गया।
मंदिर की प्राचीनता का आभास यहां मिले ‘महाराजा दुत्तगामनी’ की मुद्रा (seal) से भी होता है, जो बौद्ध साहित्य के अनुसार ‘अनुराधापुर वंश’ का था और ईसा पूर्व 101-77 में श्रीलंका का शासक रहा था।
अष्टकोणीय योजना में पूरी तरह से प्रस्तर-खंडों से निर्मित इस मंदिर की दीवारों पर सुंदर ताखे, अर्धस्तंभ और घट-पल्लव के अलंकरण बने हैं। दरवाजे के चौखटों पर द्वारपाल और गंगा-यमुना आदि की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मंदिर के भीतर चतुर्मुख शिवलिंग और मुंडेश्वरी भवानी की प्रतिमा है। मंदिर का शिखर नष्ट हो चुका है और इसकी छत नयी है।
बिहार के पुरातत्व विभाग के पूर्व निदेशक डा. प्रकाश चरण प्रसाद कहते हैं कि इस मंदिर का निर्माण जिस सिद्धांत पर हुआ है उस सिद्धांत का जिक्र अथर्ववेद में मिलता है। भगवान शिव की अष्ट मूर्तियों का जिक्र अथर्ववेद में दर्शाया गया है और उसी प्रकार का शिवलिंग मुंडेश्वरी शक्तिपीठ में आज भी देखा जा सकता है। वे कहते हैं कि तीन फुट नौ इंच ऊंचे चतुर्मुख शिवलिंग को चोरों ने काटकर चुरा लिया था। लेकिन बाद में इसे बरामद किया गया और उस शिवलिंग को मंदिर के गर्भगृह में स्थापित कराया गया।
मुंडेश्वरी मंदिर की बलि प्रथा का अहिंसक स्वरूप इसकी खासियत है। इस शक्तिपीठ में परंपरागत तरीके से बकरे की बलि नहीं होती है। केवल बकरे को मुंडेश्वरी देवी के सामने लाया जाता है और उस पर पुजारी द्वारा अभिमंत्रित चावल का दाना जैसे ही छिड़का जाता है वह अपने आप अचेत हो जाता है। बस यही बलि की पूरी प्रक्रिया है। इसके बाद बकरे को छोड़ दिया जाता है और वह चेतना में आ जाता है। यहां बकरे को काटा नहीं जाता है। इसके साथ-साथ यहां स्थापित चतुर्मुखी शिवलिंग के रंग को सुबह, दोपहर और शाम में परिवर्तित होते हुए आज भी देखा जा सकता है।
यह मंदिर प्राचीन स्मारक तथा पुरातात्विक स्थल एवं अवशेष अधिनियम, 1958 के अधीन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा राष्ट्रीय महत्व का घोषित है। यहां पहुंचने के लिए पहले ग्रैंडकॉर्ड रेललाइन अथवा ग्रैंडट्रंक रोड (एनएच-2) से कैमूर जिला के मोहनियां (भभुआ रोड) अथवा कुदरा स्टेशन तक पहुंचें। वहां से मुंडेश्वरी धाम तक सड़क जाती है जो वाहन से महज आधा-पौन घंटे का रास्ता है। मंदिर के अंदर पहुंचने के लिए पहाड़ को काटकर शेडयुक्त सीढियां और रेलिंगयुक्त सड़क बनायी गयी हैं। जो लोग सीढियां नहीं चढ़ना चाहते, वे सड़क मार्ग से कार, जीप या बाइक से पहाड़ के ऊपर मंदिर में पहुंच सकते हैं।
मुंडेश्वरी धाम में श्रद्धालुओं का सालों भर आना लगा रहता है, लेकिन नवरात्र के मौके पर वहां विशेष भीड़ रहती है।
Wednesday, March 18, 2009
भारत के प्राचीनतम मंदिर ‘मुंडेश्वरी’ को देखने एक बार जरूर जाएं!
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अशोक जी, मुंडेश्वरी मंदिर की इस अनूठी जानकारी के लिए धन्यवाद. खासकर अहिंसक बलि की प्राचीन परम्परा के लिए. अधिक जानकारी की प्रतीक्षा है.
ReplyDeleteइस महत्वपूर्ण जानकारी के लिए साधुवाद. वैसे कुछ ही महीनों पहले भी किसी ब्लॉग पर यह खबर आ चुकी है. यह मंदिर निश्चित रूप से १३ या १४ सौ साल पहले का लगता है. परन्तु इस मंदिर को प्राचीनतम कहना अभी जल्दबाजी होगी. वह इलाका बौद्ध मत का केंद्र भी रहा है जिसकी पुष्टि श्रीलंका के शासक के सील से हो रही है.एक अनुरोध है. इस मंदिर के बारे में भारतीय पुरातव सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट होगी या फिर राज्य पुरातव विभाग की सर्वे रिपोर्ट होगी. कृपया उसे प्राप्त करने का प्रयास करें. आभार.
ReplyDeleteआभार इस बेहतरीन जानकारी के लिए. बहुत विस्तार से जानकारी दी है शायद कभी जाना संभव हो पाये.
ReplyDeleteसुब्रमनियन जी आप ठीक कह रहे हैं। मुंडेश्वरी मंदिर के प्राचीनतम होने की बात मैं भी अभी संभावना के रूप में ही मान रहा हूं, क्योंकि इस दिशा में अभी पर्याप्त शोध नहीं हुए हैं। मुझे लगता है कि इस मामले में पुरातत्व विभाग अपने कार्य के प्रति उतना गंभीर नहीं रहा है। स्थानीय लोग बताते हैं कि कुछ समय पहले तक तो मुंडेश्वरी तक जाने के लिए पहाड़ की चढ़ाई करना काफी दुष्कर कार्य था। सड्क, सीढ़ी, शेड, पेयजल, सुरक्षा आदि जैसी जो सुविधाएं अब यहां यात्रियों को उपलब्ध हैं, वे सूबे के पूर्व मंत्री जगदानंद और कैमूर जिला में पदस्थापित कलक्टरों की व्यक्तिगत दिलचस्पी की वजह से ही संभव हो पायी हैं। हाल के दिनों में यह मंदिर पूर्व में इस इलाके में एसपी रहे भारतीय पुलिस सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी किशोर कुणाल के सत्कार्यों की वजह से मीडिया में चर्चा में रह रहा है। श्री कुणाल इन दिनों बिहार धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष हैं और इस पद को मंत्री का दर्जा प्राप्त है। उनके नेतृत्व में धार्मिक न्यास परिषद राज्य सरकार और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सहयोग से मुंडेश्वरी धाम का वैष्णो देवी के तर्ज पर विकास करने के लिए इन दिनों काफी प्रयत्नशील है। धार्मिक न्यास परिषद की योजना में मंदिर तक यात्रियों के पहुंचने के लिए एक रज्जू मार्ग(rope way) बनाना भी शामिल है। मंदिर की प्राचीनता के संबंध में शोधकार्य को बढ़ावा देने के लिए परिषद द्वारा सेमिनार भी कराए गए हैं।
ReplyDeleteसुन्दर चित्र हैं ..अगर वक्त मिला किसी दिन जरुर आउंगी
ReplyDeleteaaj subah hi aapko yaad kar raha tha aur aap aa gaye.. zarur jana chahenge..
ReplyDeleteरोचक जानकारी पहली बार जाना इस के बारे में ..शुक्रिया
ReplyDeleteबड़े दिनों बाद आपकी पोस्ट आई.
ReplyDeleteलगता तो है की कभी जाना हो ही जायेगा.
बहुत ही मेहनत से पोस्ट तैयार करते हैं आप। अच्छा है। सभी आवश्यक तथ्यों भरी।
ReplyDeleteAchhi aur bilkul nayi jankari di apne...
ReplyDeleteइस तरह की बेहतरीन जानकारी को पूर्णत: रोचकता सहित प्रस्तुत करने के लिए आपका आभार.....
ReplyDeleteआभार जानकारी के लिए...
ReplyDeleteबहुत अच्छा लग रहा चित्रों में...
Kabi time mile to Jarur jaiyega mundeshwari Mandir ye bahut hi khubsurat or impressive place hai yaha ki pahad forest,ye place charo or se pahad se ghira hua hai or Ramgarh iske bicho bich me basa hua hai mai isi villege ka rahne wala hu or mere family member's us mandir k pujari hai jb v time milta hai ham Bihar jate hai to waha jarur jate hai.
Deleteबहुत सुंदर जानकारी दी आपने. कभी मौका मिला तो अवश्य जायेंगे. आज आप बःई कई दिनों बाद आये हैं. बहुत अच्छा लगा आपकी यह पोस्ट पढना.
ReplyDeleteरामराम.
अच्छा, मन्दिर भी समय के साथ वैष्णव से शाक्त में परिवर्तित हुये। हम तो समझते थे कि यह ट्रांसफर्मेशन केवल रामलला से बाबरी मस्जिद में ही हुआ था!
ReplyDeleteचतुर्मुखी शिवलिंग के रंग को सुबह, दोपहर और शाम में परिवर्तित होते हुए आज भी देखा जा सकता है।
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ये किस तरह होता है अवश्य बतायेँ और आलेख बहुत पसँद आया अशोक भाई
- लावण्या
अच्छी विस्तृत जानकारी दी आपने ... वहां का कार्यक्रम बनाने की अवश्य कोशिश करूंगी।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर ओर नयी जानकारी दी आप ने, मंदिर के बारे पढ कर अच्छ लगा, अजी इतने दिनो तक कहा रहे ??
ReplyDeleteधन्यवाद
मुंडेश्वरी मंदिर के बारे में पहली बार ही जाना.. इतना सब पढ़ने के बाद कौन यहां नहीं जाना चाहेगा?? आभार..
ReplyDeleteबहुत अच्छी जानकारी। काश कभी इस मंदिर औ कैमूर के दर्शन कर पाएं।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर मंदिर है। सारी जानकारी पढ़कर अच्छा लगा। धन्यवाद।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
बढ़िया जानकारी.मेरा निवेदन ये है कि प्रारंभ में सच में बलि की परंपरा होगी जो कालांतर में सांकेतिक रूप में हियो रह गयी.चित्र से लगता है कि मंदिर के ऊपरी हिस्से का निकट अतीत में ही पुनर्निर्माण हुआ है.इस बेशकीमती धरोहर का और आगे क्षरण न हो इसके प्रयास होने चाहिए.
ReplyDeleteमंदिर का काल-निर्धारण और उसके आधार का पुनः परीक्षण जरूरी लगता है. इस स्मारक पर विशेषज्ञों के अध्ययन और अधिकृत जानकारियां प्रकाशित हैं, उनका भी जिक्र कर दें तो अधिक रुचि रखने वालों को मदद होगी.
ReplyDeleteThanks for this very nice and useful information.
ReplyDeletevicky
great info!
ReplyDeletethanks for sharing :)
nice blog. http://www.rotogravureprintingmachine.net
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