Tuesday, January 13, 2009
कृषि क्षेत्र में पड़ोसियों से भी पिछड़ गया भारत
कृषि उत्पाद के मामले में भारत, दक्षिण एशिया का दिग्गज देश नजर आता है, लेकिन अगर पिछले आंकड़ों को देखें तो खाद्य फसलों की उत्पादनशीलता छोटे पड़ोसी देशों से भी कम है। यहां तक कि अफगानिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश जैसे देशों में भी पिछले दो दशकों में फसलों की उत्पादकता के मामले में भारत की तुलना में विकास दर ज्यादा रही है।
दिलचस्प यह है कि दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (सार्क) के आठ देशों में फसलों की उत्पादकता बढ़ाने के मामले में भूटान पहले स्थान पर है। इस पूरे इलाके को देखें तो पाकिस्तान में 90 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र है और वहां पर औसत कृषि जोत करीब 3 एकड़ है, लेकिन फसलों की उत्पादकता के लिहाज से भूटान उससे भी आगे है। हालांकि मालदीव ऐसा देश है जहां बमुश्किल ही खेती होती है और इस क्षेत्र की हिस्सेदारी सकल घरेलू उत्पाद के लिहाज से 3 प्रतिशत से भी कम है।
1960 के दशक के अंतिम वर्षों में निश्चित रूप से भारत में हरित क्रांति का प्रभाव पड़ा, जिसके चलते एशिया के विभिन्न देशों में विकास के मामले में भारत अग्रणी देश बन गया। लेकिन यह जोश बरकरार रखने में भारत असफल रहा। खासकर 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद स्थिति में बदलाव आया, जिसके चलते अन्य देश फसलों की उत्पादकता के मामले में भारत से आगे निकल गए। कृषि के मामले में प्रगतिशील भारत में फसलों की उत्पादकता कम होती गई, भले ही अन्य क्षेत्रों में विकास दर उच्च हो गई।
नई दिल्ली में नवंबर 2008 में सार्क देशों के कृषि मंत्रियों की हुई बैठक में जो दस्तावेज पेश किया गया, उससे कुछ इसी तरह के तथ्य उभर कर सामने आए। ये आंकड़े संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) से लिए गए थे और बैठक के दौरान इस पर चर्चा हुई।
इससे स्पष्ट हुआ कि प्रमुख अनाज, जिसमें चावल, गेहूं और दालें शामिल हैं- इनकी उपज सार्क देशों की की तुलना में भारत में सबसे कम रही है। अब चावल को ही लें, जिसकी खेती इस इलाके में व्यापक रूप से होती है और इसकी खपत भी बहुत अधिक है। इसकी औसत पैदावार में उच्चतम वृध्दि 1991-93 और 2005-07 के बीच भूटान में 3.37 प्रतिशत रिकार्ड की गई। इस दौरान भारत में यह 1.21 प्रतिशत के न्यूनतम स्तर पर रही। बांग्लादेश की स्थिति पर गौर करें तो वहां भी 2.6 प्रतिशत की जोरदार बढ़ोतरी रही।
गेहूं के मामले में, जो इस इलाके की दूसरी प्रमुख फसल है- अफगानिस्तान में सबसे उच्च वार्षिक उत्पादकता दर्ज की गई जहां बढ़ोतरी 3.44 प्रतिशत की रही। दूसरे स्थान पर 3.39 प्रतिशत के साथ नेपाल रहा। गेहूं उत्पादन में बढ़ोतरी के लिहाज से भी भारत में विकास दर सबसे कम रही। श्रीलंका और बांग्लादेश में भी गेहूं के उत्पादकता के लिहाज से मानसून अनुकूल नहीं रहा।
अगर कुल खाद्यान्न की उत्पादकता के लिहाज से वार्षिक वृध्दि दर को देखें तो यह भूटान में सबसे ज्यादा- 5.12 प्रतिशत है और सबसे कम भारत और श्रीलंका प्रत्येक में 1.46 प्रतिशत है।
अगर हम दालों की उत्पादकता में बढ़ोतरी के आंकड़ों को देखें, जो सार्क देशों के मानव आहार में सबसे ज्यादा प्रोटीन का योगदान करता है तो भी वही कहानी सामने आती है। भूटान इसकी उत्पादकता में बढ़ोतरी के लिहाज से 6.62 प्रतिशत के साथ पहले स्थान पर है और भारत नीचे से दूसरे स्थान पर है, जिसका विकास दर 0.62 प्रतिशत है।
सार्क देशों में एक समान सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि है, इसे देखते हुए इन तुलनात्मक आंकड़ों को खारिज नहीं किया जा सकता है। अगर हम मालदीव को छोड़ दें तो बाकी सभी देशों में जनसंख्या ज्यादा है और जोत छोटे-छोटे हैं। इन सभी देशों में 60 प्रतिशत लोगों का कृषि क्षेत्र पर मालिकाना हक एक एकड़ से कम है, हालांकि पाकिस्तान इसका अपवाद है। इन देशों में अभी भी सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 16.5 प्रतिशत से लेकर करीब 40 प्रतिशत तक है।
इस तरह से देखें तो अपने छोटे-छोटे पड़ोसी देशों से सीख लेते हुए भारत आखिर अपनी उपज क्यों नहीं बढ़ा सकता है। शायद इसके लिए सबसे जरूरी यह है कि हम अपनी कृषि नीतियों पर फिर से विचार करें और इस क्षेत्र को और ज्यादा संसाधन उपलब्ध कराएं।
(सुरिंदर सूद का यह विश्लेषण बिजनेस स्टैंडर्ड से साभार।)
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ये बिल्कुल सही और सटीक विशलेषण किया है सूद साहब ने. और बडी सोचने विचारने लायक बात है. इसे यहां प्रस्तुत करने के लिये आभार.
ReplyDeleteरामराम.
आँख खोलने वाला विवेचन ! मकर संक्रांति की शुभकामनाएं !
ReplyDeleteसुंदर जानकारी | मकर संक्रांति की शुभकामनाएं |
ReplyDeleteजमाना होगया खेती में किसी महत्वपूर्ण क्रान्ति हुये। और बहुत ओवरड्यू हो गयी है।
ReplyDeleteविश्लेषण अपनी जगह बिल्कुल सही है. वैसे ये आंकडे कितने सही हैं ये तो जिन्होंने दिया है (मूलतः) वही जाने. तुलना समान भौगोलिक क्षेत्र, आबादी, संसाधन आदि सब को साथ लेकर किया जावे तो सम्भव है कुछ दूसरा ही नज़ारा दिखे. चिंतित होना आवश्यक है तभी कुछ कारगर पहल की जा सकेगी. आभार..
ReplyDeleteमुझे लगता है कि इसके पीछे कहीं न कहीं दगाबाज मौसम का बहुत बडा हाथ है।
ReplyDeleteअशोक जी,अजीब सा महोल है इस समय भारत मै, हम ने जिन्दगी को किसी एक कोने से नही शुरु किया, एक तरफ़ जनता भूखी मर रही है, दुसरी तरफ़ हम चान्द को छुना चाहते है, कृषि योग्या जमीन पर कारे बनाना चाहते है, लेकिन कोई इन मुर्ख नेताओ से पुछे जब पेट मे दाना ही नही होगा तन पर कपडा नही होगा तो इन की कारे कोन खरीदेगा.
ReplyDeleteधन्यवाद
ये देश का दुर्भाग्य है कि हमारे आका कभी एग्रीकल्चर ग्रोथ रेट की बात नहीं करते। ये दुर्भाग्य ही है कि हम दालें भी रंगून की कृपा से खा रहे हैं।
ReplyDeleteकिसी भी क्षेत्र में आगे बने रहने के लिए सतत कार्यरत रहना जरूरी है. हम एक बार दौड़ लगाकर बैठ जाते हैं !
ReplyDeleteखेतों की जमीन जब ईमारतें बनाने के लिये बिकने लगेगीं तो शायद यही होगा। देहरादून में राजधानी बनने से पहले काफी खेत देखने को मिलते थे लेकिन अब जमीन के दाम इतने बड़ गये कि ये सब पलॉट बनकर रह गये।
ReplyDeleteआँख खोलने वाला विवेचन !
ReplyDeletekrishi ko bhi udyog ki tarah dekhne aur nayi nitiyon ki jarurat hai.
ReplyDeleteबहुत ख़ूब
ReplyDelete---
आप भारत का गौरव तिरंगा गणतंत्र दिवस के अवसर पर अपने ब्लॉग पर लगाना अवश्य पसंद करेगे, जाने कैसे?
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खासकर 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद स्थिति में बदलाव आया, जिसके चलते अन्य देश फसलों की उत्पादकता के मामले में भारत से आगे निकल गए।
ReplyDeleteक्या ऐसे परिवर्तन को सचमुच आर्थिक सुधार कहा जा सकता है जिसने भारतीय कृषि को भूटान और बांग्लादेश से भी पीछे पहुंचा दिया? देश को एक बिल्कुल नयी आर्थिक रणनीति बनाने की आवश्यकता है और ऐसी नीति स्वार्थी नेता या कारकुन नहीं बना सकते हैं यह निश्चित है.
aap ka vishleshan padh kar yahi samjh aata hai ki jald is disha mein kuchh kiya jaana chaheeye...aap ka kahna sahi hai ki krishi nitiyon mein sudhar ki avshykta hai.
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना .
ReplyDeleteबधाई
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आपको होली की घणी रामराम.
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