ओएनजीसी जैसी प्रतिष्ठित कंपनी की नौकरी छोड़कर खेती-किसानी में सफलता की नयी इबारत लिखनेवाले आईआईटी से पढ़े मेकेनिकल इंजीनियर आर माधवन जैसे लोग जो खुद के बलबूते पर कर लेते हैं, वही काम कृषि से संबंधित केन्द्र व प्रांतों के मंत्रालयों, विभागों, विश्वविद्यालयों, वैज्ञानिकों व प्रशासकों का भारी-भरकम ढांचा क्यों नहीं कर पाता? क्या सचमुच कृषि विश्वविद्यालयों का समूचा पाठ्यक्रम बदलने की आवश्यकता है, जैसा कि सुरेश चिपलूनकर जी ने श्री माधवन के हवाले से कहा है। क्या नरेगा जैसे रोजगारदायी कार्यक्रमों का संपूर्ण फोकस कृषि क्षेत्र में परिसंपत्ति-निर्माण पर होना चाहिए? प्रस्तुत है इस संबंध में कृषि मामलों के विशेषज्ञ लेखक देविंदर शर्मा का 'दैनिक जागरण' से साभार लेख, जिसमें उन्होंने कृषि को छोड़कर अन्य क्षेत्रों को राहत दिए जाने पर सवाल खड़े किए हैं।
मुंबई हमले की आक्रोशित प्रतिक्रिया में एक अन्य और शायद इससे भी अधिक हिंसक विपदा दब गई है। एक चौंका देने वाली खबर को इलेक्ट्रानिक मीडिया ने सामान्य खबर के रूप में प्रसारित करना भी गवारा नहीं किया। यह खबर देश में चीत्कार मचाने वाले कुलीन वर्ग को हिला देती। खबर है- 2007 के दौरान 16, 632 किसानों ने आत्महत्या कर ली। इनमें सर्वाधिक किसान महाराष्ट्र से हैं।
इन आत्महत्याओं के खबर न बनने का कारण साफ है। ये होटल ताज को अपना दूसरा घर मानने वाले लोग नहीं हैं।
गांव-देहात में मौत का धारावाहिक तांडव जस का तस जारी है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के अनुसार बढ़ते कर्ज के चलते अपमानित होने के कारण 1997 से करीब एक लाख 82 हजार 936 किसान आत्महत्या कर चुके हैं, जबकि सरकार बेलआउट में मस्त है। सितंबर से सरकार तरलता बढ़ाने और अन्य बजटीय प्रावधानों के माध्यम से सौ अरब डालर की राजकोषीय प्रोत्साहन राशि उपलब्ध करा चुकी है।
प्रोत्साहन पैकेज उन क्षेत्रों को दिए जा रहे हैं जो गलतियां कर रहे हैं। 20 लाख तक के गृह ऋणों पर दिया जाने वाला प्रस्तावित ब्याज दरों का तोहफा ऐसा ही आर्थिक दुस्साहस है। मांग में वृद्धि करने के लिए बैंकों को ब्याज दर घटाने को बाध्य करना पूरी तरह अनुचित है। सरकार को ऐसे लोगों के लिए राहत पर विचार भी क्यों करना चाहिए जो 25 हजार रुपए की मासिक किश्त देने की स्थिति में हैं? सरकार को भवन निर्माण क्षेत्र को राहत क्यों देनी चाहिए जो समाज को निचोड़ रहा है? पिछले चार सालों में फ्लैट के दाम करीब 450 फीसदी बढ़ गए हैं। प्रापर्टी के दाम नीचे क्यों नहीं लाए जा रहे, ताकि और अधिक लोग मकान खरीदने के लिए प्रोत्साहित हो सकें?
अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए भारतीय बैंकों को तरलता की जरूरत थी। भारतीय रिजर्व बैंक ने त्वरित कार्रवाई की। मध्य सितंबर से आरबीआई बैंकिंग व्यवस्था में तीन लाख करोड़ रुपए झोंक चुकी है। इन उपायों में रेपो दर कम करना, सीआर अनुपात कम करना और विशेष ऋण सुविधाएं उपलब्ध करना शामिल हैं। इसका नतीजा क्या निकला? बैंक सुरक्षित निवेश के रूप में धनराशि वापस रिजर्व बैंक में जमा करा रहे हैं। एक दिसंबर से आठ दिसंबर के दौरान, कुल आठ दिनों के भीतर बैंकों ने छह प्रतिशत की मामूली दर पर आरबीआई में तीन लाख 27 हजार करोड़ रुपए जमा करा दिए। यह दर बाद में घटाकर पांच प्रतिशत कर दी गई।
अर्थव्यवस्था को मंदी से उबारने में राजकोषीय प्रोत्साहन एक हद तक कारगर हो सकता है। लगता है, आगामी चुनाव के मद्देनजर विभिन्न लाबियों को प्रसन्न करने के लिए निर्देशित सिद्धांत लागू किए गए हैं। उदाहरण के लिए, निर्यातक दो बार प्रोत्साहन पैकेज का लाभ उठा चुके हैं। पहले जब डालर की विनिमय दर 37 रुपए पर आ गई तो कपड़ा और वस्त्र निर्यातकों ने अधिक सहयोग की गुहार लगाई। सरकार ने तुरंत ध्यान दिया और 14 सौ करोड़ रुपए जारी कर दिए और फिर जब विनिमय दर 50 रुपए पर पहुंच गई तो निर्यातकों को एक और खुराक दे दी गई। विश्व व्यापार संघ से समझौते के समय विशेषज्ञों ने अनुमान लगाया था कि इसका सबसे अधिक फायदा भारत को होगा और यहां लाखों लोगों को रोजगार मिलेगा। अन्यायपूर्ण वैश्विक व्यापार हुकूमत अपनाते समय रोजगार के जिन अवसरों का आकलन किया गया था वे कहां हैं?
बहती गंगा में हाथ धोने में पीछे न रह जाएं, इसलिए कपास निर्यातक भी राहत पैकेज की मांग करने लगे हैं। वे चाहते हैं कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य और विश्व में कपास के मूल्यों के बीच के अंतर की भरपाई करे। निर्यात में 95 फीसदी गिरावट का रोना रोते हुए उद्योग जगत बचाव पैकेज की मांग कर रहा है। आश्चर्य है कि जब न्यूनतम समर्थन मूल्य कम और अंतरराष्ट्रीय मूल्य अधिक थे तो उद्योग जगत ने सरकार से कपास किसानों की क्षतिपूर्ति के लिए नहीं कहा।
तमाम उतार-चढ़ाव के बीच, कृषि ही ऐसा क्षेत्र है जिसके घाटे की भरपाई की कोई व्यवस्था नहीं की गई। भारत चमके या बुझे, अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि ही रही है। कृषि क्षेत्र की पूरी तरह अवहेलना और अलगाव के कारण किसान आत्महत्या करने और खेतीबाड़ी छोड़ने को मजबूर हो रहे हैं। सरकार की नीतियां कृषि के उसके अंत की ओर ले जा रही हैं। अब जमीन का जबरन अधिग्रहण कर कंपनियों को दी जा रही है। प्रधानमंत्री खुद विश्व बैंक के नुस्खे पर अमल कर रहे हैं- ग्रामीण क्षेत्र से लोगों का स्थानांतरण।
भारत की साठ प्रतिशत आबादी सीधे तौर पर कृषि से जुड़ी है। इसके अलावा 20 करोड़ भूमिहीन किसान भी अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर हैं। ऐसे में अर्थव्यवस्था को वास्तविक प्रोत्साहन तभी मिल सकता है जब इसका केंद्रबिंदु कृषि की तरफ घूम जाए। जब मैं कृषि की बात करता हूं तो इसका अर्थ ट्रैक्टर या प्रसंस्करण उद्योग को राहत पैकेज देना नहीं है। यह तो प्रतिगामी कदम होगा।
जिस चीज की फौरी जरूरत है वह है कृषि क्षेत्र में प्रोत्साहन का स्थानांतरण। यह अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने का अचूक नुस्खा है। सर्वप्रथम पैकेज कृषि के पुनरुत्थान के लिए होना चाहिए। आर्गेनिक खेती के लिए विशेष प्रोत्साहन पैकेज होने चाहिए। 1.2 लाख करोड़ रुपए का खाद अनुदान सीधे किसानों को मिलना चाहिए, ताकि वे प्राकृतिक कृषि की ओर उन्मुख हो सकें। प्रोत्साहन पैकेज किसानों के कल्याण पर केंद्रित होना चाहिए। समस्याओं से घिरे कृषक समुदाय को प्रत्यक्ष आय सहायता के सिद्धांत पर सुनिश्चित आय प्रदान करनी चाहिए। इससे लाखों लोगों का जीविकोपार्जन होगा, मांग बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी।
इसके अलावा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की सौ दिनों की सीमा को तत्काल हटाना चाहिए। ग्रामीण कामगारों को संगठित क्षेत्र की तरह साल में 365 दिनों के काम की दरकार है। इससे मांग उत्पन्न होगी और अर्थव्यवस्था पटरी पर आएगी। नरेगा को कृषि से जोड़ने की तात्कालिक आवश्यकता है। यह समग्र विकास का नुस्खा है।
"जय जवान, जय किसान " आदरणीय शास्त्री जी के साथ चल बसा है ! किसानोँ के आत्महत्या के किस्से सुनकर बहोत ही दुख होता है :-((
ReplyDeleteआतँकवाद के विरुध्ध अभियान चले उसके साथ ही भारतीय कृषक व श्रमिक वर्ग की बेहतरी के उपाय भी इमरजेन्सी की तरह करना जरुरी है -
आपको २००९ के नव वर्ष मेँ शुभकामना
स स्नेह,
- लावण्या
बहुत ही उचित बात लिखी है आप ने अपने लेख मै, लेकिन हमारे नेता पता नही किस दुनिया के सपने देखते है, वेसे तो इस समय भारत के हालात हर तरफ़ जहां भी एक गरीब खडा है बुरा ही है, लेकिन किसान ओर जवान का सब से बुरा हाल है.... कब तक चलेगा यह... एक दिन लोगो का सवर का प्याला भर जायेगा तो ...तो यह नेता कहा छुपेगे कहा जायेगे ,क्रान्तिया ऎसे ही मोको पर आती है, अभी भी समय है यह नेता चेत जाये.
ReplyDeleteलेकिन अभी तक तो हर तरफ़ यह गरीबो की लाशो पर ही जश्न मना रहे है, ना इन्हे देश की परवाह है, ना किसानो की.
धन्यवाद, नये साल की आप को शुभकामनाऎ
कृषक आत्महत्या के आंकडे सचमुच चिंताजनक हैं, और उससे भी चिताजनक बात यह है कि इन आंकडों ने किसी सरकारी अर्थशास्त्री, वित्तमंत्री, या प्रधानमंत्री के ह्रदय को इतना व्यथित नहीं किया कि कुछ कारगर उपाय किया जाता. सचमुच देश को कृषि-संबंधी नीतियों के आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है.
ReplyDeleteसचमुच दुखद स्थिति है !
ReplyDeleteवाकई बदी दुखद स्थिति है. जब तक किसान के लिये कुछ नही सोचा जायेगा ये सब विकास कि बाते बेमानी है. किसान आज भी बहुत परेशान है. आपने बहुत बढिया लिखा.
ReplyDeleteरामराम.
chintneeya.
ReplyDeletesamaj ke hit mein achhe sawaal uthaayen hain aapne.