भारत में अनेक बड़े राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक व आर्थिक परिवर्तनों का सूत्रपात बिहार से हुआ है। लेकिन मौजूदा बिहार में वैसे नवाचारों की कल्पना नहीं की जाती। इसलिए बिहारी मिट्टी से जन्मा कोई शख्स शौचालय जैसी तुच्छ चीज के जरिए संभावनाओं का सूर्योदय करा डाले तो बात गौर करने की जरूर है। जी हां, हम बात कर रहे हैं बिन्देश्वर पाठक की, जिन्होंने भारत में सुलभ शौचालय के जरिए एक ऐसी क्रांति लायी, जिसने बहुतों की जिंदगी बदल दी। उनके बनाए सुलभ शौचालयों में जहां भंगियों को रोजगार मिला और सिर पर मैला ढोने के अमानवीय यंत्रणा से उन्हें मुक्ति मिली, वहीं ये शौचालय स्वच्छता के साथ गैर पारंपरिक उर्जा उत्पादन के भी स्रोत बने।
इन दिनों स्टॉकहोम में विश्व जल सप्ताह मनाया जा रहा है, जहां भारत के बिन्देश्वर पाठक को विश्व जल पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है। निश्चित तौर पर यह सम्मान उस क्रांति का भी है, जो शौचालयों के जरिए आयी। बिन्देश्वर पाठक को भारत में शौचालय क्रांति का जनक माना जाता है। उनकी यह टिप्पणी सोचने लायक ही है, ‘’टॉयलेट सोचने की जगह है। हम वहां बैठ सकते हैं और अपने सवालों के जवाब सोच सकते हैं। बैठते हुए हम नीचे की ओर देखते हैं, सोचने के लिए यह सबसे अच्छी पॉज़िशन है। टॉयलेटों में कितनी समस्याओं के समाधान मिल जाते हैं।"
बिन्देश्वर पाठक का जन्म 1943 में बिहार में हुआ था। उन्होंने पटना विश्वद्यालय से 1964 में समाजशास्त्र में ग्रेजुएशन किया। अपने काम की शुरुआत उन्होंने 1970 में की और फिर उनके संगठन ने सस्ते और सुलभ शौचालय बनाना शुरू किया। आज सुलभ इंटरनैशनल के सौजन्य से 12 लाख घरों में रह रहे लोग स्वच्छ जीवन का आनंद ले रहे हैं और 7 हज़ार से ज्यादा सार्वजनिक शौचालयों के जरिए चलते-फिरते लोगों की परेशानी भी दूर की जा सकी है। नई दिल्ली में एक ख़ास टॉयलेट संग्रहालय भी खोला गया है। इसमें पाठक का बनाया पहला शौचालय भी देखा जा सकता है।
बिन्देश्वर पाठक कहते हैं, "जो टॉयलेट मैंने सबसे पहले बनाया था, वह मेरे लिए सबसे दिलचस्प है। क्योंकि मैंने इससे पहले फ़्लश वाले टॉयलेट का इस्तेमाल नहीं किया था। जब मैं गांव में रहता था, तब हम खेतों में जाते थे। और फिर शहर में साधारण लैट्रीन में। जब मैंने पहली बार सुलभ टॉयलेट बनाया और उसे खुद इस्तेमाल किया, तो मुझे बड़ी ख़ुशी हुई।"
उनके संगठन ने न केवल दस्त जैसी बीमारियों की रोकथाम करने में मदद की है, बल्कि सामाजिक रूप से मैला ढोने के लिए मजबूर कई लोगों की ज़िंदगियों को बदल डाला। विश्व जल सप्ताह की निर्देशक सीसीलिया मार्टिनसेन का कहना है कि बिंदेश्वर पाठक की वजह से मानवीय मल को किस तरह संभाला जा सकता है, यह सवाल विश्व एजेंडे में शामिल हुआ।
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बिन्देश्वर पाठक को सलाम ! जियें तो इस तरह !
ReplyDeleteबहुत बढिया जानकारी दी आपने.
ReplyDeleteरामराम.
आपने बढ़िया जानकारी दी है, आभार
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मानव मस्तिष्क पढ़ना संभव
यकीनन ये आज भी भारत की बहुत बड़ी समस्या है ..स्वास्थ्य दृष्टि से ही नहीं अपितु जीवन की एक मूलभूत आवश्यकता से .विकसित देशो में अच्छे शहरो में इसकी एक अच्छी प्लानिंग की जाती है यहाँ इसे कोई प्राथमिकता में नहीं लेता है जबकि भारत की एक बड़ी जनसँख्या कई ऐसे रोगों से पीड़ित है जिसकी जनित यही समस्या है
ReplyDeleteडा. अनुराग जी से सहमत
ReplyDeleteबिन्देश्वर पाठक : बढिया जानकारी
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