लगभग विलुप्त हो रही प्रजाति का साधारण-सा दिखनेवाला यह खट्टा सेब इन दिनों खूब चर्चा में है। दावा किया जा रहा है कि इस ‘सुपर एप्पल’ के सत्व से चमड़े की झुर्रियां मिटती हैं, मानव कोशिकाओं की जीवन-अवधि लंबी होती है और झड़े हुए बाल फिर से उग सकते हैं। यही कारण है कि इसके प्रशंसकों में मिशेल ओबामा, हेलेन मिरेन और जेनिफर लोपेज जैसे बड़े नाम भी शामिल हैं।
स्विटजरलैंड के दूरस्थ हिस्से में गिनती के रह गए एक पेड़ पर उगने वाला उटविलर स्पैटलौबर (Uttwiler Spatlauber) नामक यह दुर्लभ सेब दूसरी अन्य प्रजातियों की तुलना में अधिक (लगभग चार महीने) समय तक टिकाउ रहता है। पर इसके कसैले स्वाद के कारण इसकी मांग नहीं रही और इसके वृक्षों की संख्या इस कदर घटती गयी कि स्विटजरलैंड में अब मात्र 20 पेड़ रह गए हैं। हालांकि मीडिया में अब इसे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पत्नी और अमेरिका की प्रथम महिला मिशेल ओबामा के जवां रूप-रंग का राज बताया जा रहा है।
फैशन मैगजीन 'वोग' में मिशेल ओबामा द्वारा इस सेव की स्टेम कोशिकाओं के सत्व से बने 215 पौंड वजन के बराबर सीरम को खरीदे जाने की बात कही गयी है। कहा जा रहा है कि सीरम और क्रीम में इस्तेमाल की जा रहीं इस सेब की स्टेम कोशिकाएं मानव चमड़ी की स्टेम कोशिकाओं को उत्तेजित करती हैं और इस तरह चमड़ी पर जल्द झुर्रियां नहीं आतीं।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक सौंदर्य प्रसाधनों की दुनिया में इस सेब को उम्र रोकने के क्षेत्र में एक उत्साहजनक सफलता माना गया है तथा अमेरिका, यूरोप व एशिया की तकरीबन 100 सौंदर्य कंपनियों ने इसका इस्तेमाल शुरू किया है।
फोटो व मूल खबर के स्रोत : टेलीग्राफ व डेलीमेल
Monday, November 30, 2009
जीएम बैगन व चावल ही क्यों, अब तैयार रहिए खाने को कृत्रिम मांस
हमने एक आलेख में कहा था कि अब दाने-दाने पर लिखा होगा बनानेवाले का नाम। चीन में जीन संवर्धित चावल और भरत में जीन संवर्धित सब्जियों को मिल रही मंजूरी के बाद लगता है कि वह समय बहुत करीब आ गया है। लेकिन बात इतनी ही नहीं है। कुछेक वर्षों में अब कृत्रिम रूप से बना मांस भी खाने को मिलेगा। वैज्ञानिकों द्वारा दुनिया में पहली बार प्रयोगशाला में कृत्रिम तरीके से मांस तैयार करने में कामायाबी हासिल की गयी है।
यह कारनामा नीदरलैंड्स के शोधकर्ताओं ने कर दिखाया है। हालांकि यह अभी सूअर के गीले मांस की तरह है और वैज्ञानिक इसके मांसपेशी ऊत्तक में इस आशा में सुधार के उपाय में लगे हैं कि लोग किसी दिन इसे खाना चाहेंगे। वैसे अभी किसी ने इसे चखा नहीं है, लेकिन माना जा रहा है कि पांच साल के अंदर कृत्रिम मांस की बिक्री होने लगेगी।
डच सरकार द्वारा समर्थित इस परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक बताते हैं कि इस प्रक्रिया में एक जानवर से मांस लेकर लाखों पशुओं के बराबर मांस तैयार किया जा सकता है। उनका कहना है कि यह उत्पाद पर्यावरण के लिए अच्छा रहेगा तथा इससे जानवरों की पीड़ा कम होगी। उनका कहना है कि प्रयोगशाला में मांस का उत्पादन होने का यह फायदा भी है कि इससे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा। पशुओं के अधिकार के लिए संघर्ष करनेवाले संगठन पेटा (PETA - People for Ethical Treatment of Animals) ने भी इस मामले में कहा है कि यदि मांस मृत जानवरों का नहीं है तो उन्हें कोई नैत्तिक आपत्ति नहीं।
बहरहाल हमारे लिए तो सबसे महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया आपकी है, इस संबंध में आप क्या कहेंगे ? वैसे एक बात तो तय है कि निकट भविष्य में आचार-विचार के पुराने मानदंडों से काम नहीं चलनेवाला। आनेवाले वर्षों में शाकाहार-मांसाहार के बीच की रेखा भी उतनी स्पष्ट नहीं रहेगी, जितनी अब तक रहते आयी है।
यह कारनामा नीदरलैंड्स के शोधकर्ताओं ने कर दिखाया है। हालांकि यह अभी सूअर के गीले मांस की तरह है और वैज्ञानिक इसके मांसपेशी ऊत्तक में इस आशा में सुधार के उपाय में लगे हैं कि लोग किसी दिन इसे खाना चाहेंगे। वैसे अभी किसी ने इसे चखा नहीं है, लेकिन माना जा रहा है कि पांच साल के अंदर कृत्रिम मांस की बिक्री होने लगेगी।
डच सरकार द्वारा समर्थित इस परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक बताते हैं कि इस प्रक्रिया में एक जानवर से मांस लेकर लाखों पशुओं के बराबर मांस तैयार किया जा सकता है। उनका कहना है कि यह उत्पाद पर्यावरण के लिए अच्छा रहेगा तथा इससे जानवरों की पीड़ा कम होगी। उनका कहना है कि प्रयोगशाला में मांस का उत्पादन होने का यह फायदा भी है कि इससे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा। पशुओं के अधिकार के लिए संघर्ष करनेवाले संगठन पेटा (PETA - People for Ethical Treatment of Animals) ने भी इस मामले में कहा है कि यदि मांस मृत जानवरों का नहीं है तो उन्हें कोई नैत्तिक आपत्ति नहीं।
बहरहाल हमारे लिए तो सबसे महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया आपकी है, इस संबंध में आप क्या कहेंगे ? वैसे एक बात तो तय है कि निकट भविष्य में आचार-विचार के पुराने मानदंडों से काम नहीं चलनेवाला। आनेवाले वर्षों में शाकाहार-मांसाहार के बीच की रेखा भी उतनी स्पष्ट नहीं रहेगी, जितनी अब तक रहते आयी है।
Sunday, November 29, 2009
मेंथा यानी पिपरमिंट : यूपी ने अकेले पछाड़ दिया चीन को
ताकत, शोहरत और बाजार में सस्ते उत्पादों के दम पर चीन की चौधराहट का डंका भले ही दुनिया भर में रहा हो, लेकिन एक मामले में भारत क्या वह उत्तर प्रदेश के सामने ही घुटने टेक चुका है। मेंथा ऑयल के उत्पादन में दशकों तक ग्लोबल मार्केट में धाक रखने वाला चीन आज भारत के सामने बौना साबित हो चुका है। अकेले यूपी में पूरे देश का 92 फीसदी मेंथा का उत्पादन होता है। विश्व के कुल निर्यात मार्केट में इसकी 86 फीसदी हिस्सेदारी है।
खाने पीने की चीजों में होने वाले ठंडेपन का अहसास असल में मेंथा यानी पिपरमिंट की देन है। इस ठंडे में यूपी के किसानों का फंडा लगा हुआ है। कम लागत और दो फसलों के बीच मेंथा पैदा करने की कला के दम पर कभी मेंथा का चीन से आयात करने वाले भारत ने उसे पीछे छोड़ दिया है। भारत आज इसके उत्पादन में दुनिया का सिरमौर बन गया है।
कन्नौज स्थित प्रतिष्ठित संस्थान एफएफडीसी (फ्रेगनेंस एंड फ्लेवर डेवलमेंट सेंटर) के डिप्टी डायरेक्टर शक्ति विनय शुक्ला ने बताया कि मेंथा की खेती की शुरुआत भारत में 70 के दशक के बाद ही शुरू हुई। 1954 में जापान से इसके सात पौधे लाकर लगाए गए थे। तब जापान ही इसका सबसे बड़ा उत्पादक देश था। बाद के दशकों में चीन ने इस मामले में सभी को पीछे छोड़ दिया। 1980 तक भारत चीन से ही अपनी जरूरत का मेंथा ऑयल आयात करता रहा। जापान से लाए गए पौधों पर लंबे समय तक शोध किया गया। सबसे पहले एच-77 के नाम से मेंथा की हाइब्रिड नस्ल तैयार की गई। बाद में गोमती, हिमालया बाजार में आई। 1998 में मेंथा की कोसी नस्ल तैयार हुई। इसके बाद से ही देश ने मेंथा उत्पादन में बढ़त बनाना शुरू कर दिया।
विश्व में 22 हजार टन मेंथा ऑयल का उत्पादन होता है। इसमें 19 हजार टन तेल अकेले भारत में निकाला जाता है। इसका भी 90 फीसदी हिस्सा यूपी में पैदा होता है। देश के कुल 1 लाख 60 हजार हेक्टेयर में मेंथा की खेती होती है। इसमें भी 95 फीसदी रकबा अकेले यूपी में है। यूपी के बाराबंकी, सीतापुर, बलरामपुर, लखनऊ, बदायूं, रामपुर और बरेली में इसकी खेती होती है।
एसेंसियल ऑयल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष शैलेंद्र जैन ने बताया कि दशकों तक मेंथा बाजार पर काबिज रहे चीन का वर्चस्व खत्म हो गया है। यह सब यूपी की दम पर ही हुआ है। शक्ति शुक्ला के मुताबिक वायदा बाजार में आज मेंथा की धूम है। कन्नौज स्थित एफएफडीसी सेंटर में मेंथा ऑयल शुद्धता की जाच को हर रोज दर्जनों नमूने देशभर से आते हैं।
दैनिक जागरण से साभार
अंगरेजी में संबंधित खबर पढ़ें
खाने पीने की चीजों में होने वाले ठंडेपन का अहसास असल में मेंथा यानी पिपरमिंट की देन है। इस ठंडे में यूपी के किसानों का फंडा लगा हुआ है। कम लागत और दो फसलों के बीच मेंथा पैदा करने की कला के दम पर कभी मेंथा का चीन से आयात करने वाले भारत ने उसे पीछे छोड़ दिया है। भारत आज इसके उत्पादन में दुनिया का सिरमौर बन गया है।
कन्नौज स्थित प्रतिष्ठित संस्थान एफएफडीसी (फ्रेगनेंस एंड फ्लेवर डेवलमेंट सेंटर) के डिप्टी डायरेक्टर शक्ति विनय शुक्ला ने बताया कि मेंथा की खेती की शुरुआत भारत में 70 के दशक के बाद ही शुरू हुई। 1954 में जापान से इसके सात पौधे लाकर लगाए गए थे। तब जापान ही इसका सबसे बड़ा उत्पादक देश था। बाद के दशकों में चीन ने इस मामले में सभी को पीछे छोड़ दिया। 1980 तक भारत चीन से ही अपनी जरूरत का मेंथा ऑयल आयात करता रहा। जापान से लाए गए पौधों पर लंबे समय तक शोध किया गया। सबसे पहले एच-77 के नाम से मेंथा की हाइब्रिड नस्ल तैयार की गई। बाद में गोमती, हिमालया बाजार में आई। 1998 में मेंथा की कोसी नस्ल तैयार हुई। इसके बाद से ही देश ने मेंथा उत्पादन में बढ़त बनाना शुरू कर दिया।
विश्व में 22 हजार टन मेंथा ऑयल का उत्पादन होता है। इसमें 19 हजार टन तेल अकेले भारत में निकाला जाता है। इसका भी 90 फीसदी हिस्सा यूपी में पैदा होता है। देश के कुल 1 लाख 60 हजार हेक्टेयर में मेंथा की खेती होती है। इसमें भी 95 फीसदी रकबा अकेले यूपी में है। यूपी के बाराबंकी, सीतापुर, बलरामपुर, लखनऊ, बदायूं, रामपुर और बरेली में इसकी खेती होती है।
एसेंसियल ऑयल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष शैलेंद्र जैन ने बताया कि दशकों तक मेंथा बाजार पर काबिज रहे चीन का वर्चस्व खत्म हो गया है। यह सब यूपी की दम पर ही हुआ है। शक्ति शुक्ला के मुताबिक वायदा बाजार में आज मेंथा की धूम है। कन्नौज स्थित एफएफडीसी सेंटर में मेंथा ऑयल शुद्धता की जाच को हर रोज दर्जनों नमूने देशभर से आते हैं।
दैनिक जागरण से साभार
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Saturday, November 28, 2009
दो हजार वैज्ञानिकों ने मेक्सिको में किया जीएम मक्के का विरोध
लैटिन अमरीकी देश मेक्सिको में जेनेटिकली मॉडीफाइड (जीएम) मक्के की खेती ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है। एक ओर वहां की सरकार इसकी परीक्षण खेती की अनुमति दे चुकी है, वहीं दूसरी ओर वहां के हजारों वैज्ञानिक इसके विरोध में उठ खड़े हुए हैं। करीब दो हजार से भी अधिक वैज्ञानिकों ने सरकार को याचिका देकर डो एग्री साइंसेज और मोनसेंटो द्वारा की जा रही जेनेटिकली मॉडीफाइड (जीएम) मक्के की प्रायोगिक खेती पर रोक लगाने की मांग की है। ये वैज्ञानिक देश के उत्तरी क्षेत्र में जीएम मक्के की खेती होने से चिंतित हैं तथा इनका कहना है कि प्राकृतिक मक्के की किस्मों को पराजीनों (transgenes) के प्रदूषण से बचाए रखने लायक सामर्थ्य व संसाधन मेक्सिको के पास नहीं है।
गौरतलब है कि मक्के की उत्पत्ति मेक्सिको से ही मानी जाती है और वहां यह आहार का मुख्य स्रोत है। बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियां जीन संवर्धित मक्का को उस देश में मंजूरी दिलाने के लिए लंबे समय से प्रयत्नरत रही हैं, लेकिन पिछले ग्यारह वर्षों से सरकार ने वहां जीएम मक्के की खेती पर रोक लगा रखी थी। हालांकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आखिरकार सफलता मिल ही गयी और पिछले माह वहां की सरकार ने डो एग्री साइंसेज और मोनसेंटो नामक कंपनियों को देश के उत्तरी क्षेत्र में करीब 13 हेक्टेयर भूमि के दो दर्जन प्लाटों में पराजीनी मक्के की परीक्षण खेती करने की अनुमति दे दी।
इस संबध में सरकारी अधिकारियों का कहना है कि जीन संवर्धित मक्के से प्राकृतिक किस्मों में जीनों के प्रवाह को रोकने के लिए उपयुक्त उपाय किए जा रहे हैं। उनका कहना है कि अभी सिर्फ प्रायोगिक खेती की जा रही है, जिसका उद्देश्य यह देखना है कि इन परिस्थितियों में जीन संवर्धित पौधे कितने कारगर हैं। वे कहते हैं, ‘’आधा हेक्टेयर से भी छोटे प्लॉट होंगे, प्राकृतिक मक्के से इतर समय में बीज डाले जाएंगे और देसी मक्के पर उसके असर के बारे में किसानों से सर्वेक्षण होगा।‘’
हालांकि परीक्षण खेती का विरोध कर रहे वैज्ञानिक इन तर्कों से आश्वस्त नहीं हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले के आनुवांशिकीविद मोंटगोमरी स्लाटकिन कहते हैं, ‘’देसी फसल को पराजीन-प्रदूषण से बचाने का कोई उपाय नहीं है।‘’ मेक्सिको के प्रमुख जीवविज्ञानी जोस सारुखन केरमेज कहते हैं, ‘’यदि मेक्सिको पराजीनी मक्के की प्रायोगिक खेती करता है तो यह आदर्श स्थितियों व समुचित निगरानी में होना चाहिए। लेकिन हमारे पास दोनों में से कोई चीज नहीं।‘’
फोटो नेचर से साभार
गौरतलब है कि मक्के की उत्पत्ति मेक्सिको से ही मानी जाती है और वहां यह आहार का मुख्य स्रोत है। बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियां जीन संवर्धित मक्का को उस देश में मंजूरी दिलाने के लिए लंबे समय से प्रयत्नरत रही हैं, लेकिन पिछले ग्यारह वर्षों से सरकार ने वहां जीएम मक्के की खेती पर रोक लगा रखी थी। हालांकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आखिरकार सफलता मिल ही गयी और पिछले माह वहां की सरकार ने डो एग्री साइंसेज और मोनसेंटो नामक कंपनियों को देश के उत्तरी क्षेत्र में करीब 13 हेक्टेयर भूमि के दो दर्जन प्लाटों में पराजीनी मक्के की परीक्षण खेती करने की अनुमति दे दी।
इस संबध में सरकारी अधिकारियों का कहना है कि जीन संवर्धित मक्के से प्राकृतिक किस्मों में जीनों के प्रवाह को रोकने के लिए उपयुक्त उपाय किए जा रहे हैं। उनका कहना है कि अभी सिर्फ प्रायोगिक खेती की जा रही है, जिसका उद्देश्य यह देखना है कि इन परिस्थितियों में जीन संवर्धित पौधे कितने कारगर हैं। वे कहते हैं, ‘’आधा हेक्टेयर से भी छोटे प्लॉट होंगे, प्राकृतिक मक्के से इतर समय में बीज डाले जाएंगे और देसी मक्के पर उसके असर के बारे में किसानों से सर्वेक्षण होगा।‘’
हालांकि परीक्षण खेती का विरोध कर रहे वैज्ञानिक इन तर्कों से आश्वस्त नहीं हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले के आनुवांशिकीविद मोंटगोमरी स्लाटकिन कहते हैं, ‘’देसी फसल को पराजीन-प्रदूषण से बचाने का कोई उपाय नहीं है।‘’ मेक्सिको के प्रमुख जीवविज्ञानी जोस सारुखन केरमेज कहते हैं, ‘’यदि मेक्सिको पराजीनी मक्के की प्रायोगिक खेती करता है तो यह आदर्श स्थितियों व समुचित निगरानी में होना चाहिए। लेकिन हमारे पास दोनों में से कोई चीज नहीं।‘’
फोटो नेचर से साभार
Friday, November 27, 2009
चीन में जीएम चावल को मंजूरी, दो-तीन सालों में होने लगेगी वाणिज्यिक खेती
कृषि से संबंधित एक बड़ी खबर यह है कि चीन ने अपने यहां स्थानीय तौर पर विकसित किए गए आनुवांशिक रूप से संवर्धित (Genetically Modified Rice) चावल को मंजूरी दे दी है। चीन के वैज्ञानिकों के हवाले से यह खबर देते हुए रायटर समाचार एजेंसी ने कहा है कि वहां के कृषि मंत्रालय की बायोसेफ्टी कमेटी ने आनुवांशिक रूप से संवर्धित कीट-प्रतिरोधी बीटी चावल को बायोसेफ्टी प्रमाणमत्र जारी कर दिए हैं और इसी के साथ उस देश में अगले दो से तीन सालों में इसकी बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक खेती का मार्ग प्रशस्त हो गया है। चूंकि चीन दुनिया में चावल का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता है, इसलिए इस खबर का खासा महत्व है और पर्यावरण समर्थक संगठनों में इसको लेकर चिंता व्याप्त है।
गौरतलब है कि स्थानीय स्तर पर विकसित किए गए बीटी-63 (Bt-63) नामक कीट-प्रतिरोधी जीन संवर्धित चावल की श्रृंखला को मंजूरी अभी वहां के कृषि मंत्रालय की बायोसेफ्टी कमेटी ने दी है। इसका मतलब है कि चीन के कृषि मंत्रालय से अनुमोदन अभी बाकी है। लेकिन जिस तरह से जीएम फसलों की ओर चीन का झुकाव बढ़ रहा है, माना जा सकता है कि यह अनुमोदन भी देर-सबेर मिल ही जाएगा। माना जा रहा है कि पंजीकरण और प्रायोगिक उत्पादन जैसी प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद ही वाणिज्यिक उत्पादन शुरू होगा, लेकिन अनुमान जताया जा रहा है कि अगले दो-तीन सालों में ये औपचारिकताएं पूरी हो जाएंगी। चीन ने पिछले सप्ताह जीन संवर्धित फाइटेस (GM phytase) नामक जानवरों को खिलाए जानेवाले अनाज (Corn) को भी बायोसेफ्टी मंजूरी दी है।
इस बीच पर्यावरण समर्थक संगठन ग्रीनपीस ने चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि चीन में जीएम चावल को मंजूरी अभी पूर्ण नहीं है और यह उतना आसान भी नहीं है। संगठन ने कहा है कि दुनिया की बीस फीसदी से भी अधिक आबादी को खतरनाक जेनेटिक प्रयोग से बचाने के लिए चीन के कृषि मंत्रालय से उसके द्वारा अनुरोध किया जा रहा है। विदित हो कि हर साल करीब 59.5 मिलियन टन चावल उपजानेवाला चीन दुनिया का सबसे बड़ा चावल उत्पादक है। इसमें से अधिकांश चावल की घरेलु स्तर पर ही खपत हो जाती है, लेकिन कुछ निर्यात भी होता है।
पर्यावरण संगठनों का कहना है कि जीई फूड से चीन में स्वास्थ्य, पर्यावरण व खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से क्षति होगी तथा उसके निर्यात पर बुरा असर पड़ सकता है। ग्रीनपीस के चीन में मौजूद एक कार्यकर्ता के शब्दों में जीई चावल के वाणिज्यिकरण से चीन की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी, क्योंकि इस तरह के चावल का अधिकांश पेटेन्ट मोंसैंटो जैसी विदेशी कंपनियों के नियंत्रण में है।
फोटो ग्रीनपीस से सभार
गौरतलब है कि स्थानीय स्तर पर विकसित किए गए बीटी-63 (Bt-63) नामक कीट-प्रतिरोधी जीन संवर्धित चावल की श्रृंखला को मंजूरी अभी वहां के कृषि मंत्रालय की बायोसेफ्टी कमेटी ने दी है। इसका मतलब है कि चीन के कृषि मंत्रालय से अनुमोदन अभी बाकी है। लेकिन जिस तरह से जीएम फसलों की ओर चीन का झुकाव बढ़ रहा है, माना जा सकता है कि यह अनुमोदन भी देर-सबेर मिल ही जाएगा। माना जा रहा है कि पंजीकरण और प्रायोगिक उत्पादन जैसी प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद ही वाणिज्यिक उत्पादन शुरू होगा, लेकिन अनुमान जताया जा रहा है कि अगले दो-तीन सालों में ये औपचारिकताएं पूरी हो जाएंगी। चीन ने पिछले सप्ताह जीन संवर्धित फाइटेस (GM phytase) नामक जानवरों को खिलाए जानेवाले अनाज (Corn) को भी बायोसेफ्टी मंजूरी दी है।
इस बीच पर्यावरण समर्थक संगठन ग्रीनपीस ने चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि चीन में जीएम चावल को मंजूरी अभी पूर्ण नहीं है और यह उतना आसान भी नहीं है। संगठन ने कहा है कि दुनिया की बीस फीसदी से भी अधिक आबादी को खतरनाक जेनेटिक प्रयोग से बचाने के लिए चीन के कृषि मंत्रालय से उसके द्वारा अनुरोध किया जा रहा है। विदित हो कि हर साल करीब 59.5 मिलियन टन चावल उपजानेवाला चीन दुनिया का सबसे बड़ा चावल उत्पादक है। इसमें से अधिकांश चावल की घरेलु स्तर पर ही खपत हो जाती है, लेकिन कुछ निर्यात भी होता है।
पर्यावरण संगठनों का कहना है कि जीई फूड से चीन में स्वास्थ्य, पर्यावरण व खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से क्षति होगी तथा उसके निर्यात पर बुरा असर पड़ सकता है। ग्रीनपीस के चीन में मौजूद एक कार्यकर्ता के शब्दों में जीई चावल के वाणिज्यिकरण से चीन की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी, क्योंकि इस तरह के चावल का अधिकांश पेटेन्ट मोंसैंटो जैसी विदेशी कंपनियों के नियंत्रण में है।
फोटो ग्रीनपीस से सभार
Thursday, November 26, 2009
जज आप, ऐडवोकेट भी आप, बीटी बैगन का रास्ता साफ
क्या आप ने किसी केस में जज को ही पैरवी करते देखा है ? यदि ऐसा ही हो तो क्या फैसला होगा आसानी से समझा जा सकता है। भारत में जेनेटिकली मोडिफाईड बैगन के मामले में यही बात देखने को मिल रही है। जीएम बैगन की खेती के बारे में जिस केन्द्र सरकार को निर्णय लेना है, वही उस तरह की फसलों की पैरवी कर रही है। केन्द्र सरकार एक तरफ कह रही है कि बीटी बैगन के बारे में अंतिम निर्णय लेने से पहले सभी पक्षों से परामर्श किया जाएगा, वहीं दूसरी ओर उसके संबंधित मंत्री ट्रांसजेनिक फसलों के पक्ष में चल रही मुहिम में शामिल नजर आ रहे हैं।
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने हाल ही में सार्वजनिक रूप से बीटी बैगन का समर्थन करते हुए एक लिखित प्रश्नोत्तर में लोकसभा को बताया है कि बीटी बैगन का विकास अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप किया गया है तथा इसके पर्यावरण संबंधी खतरे का अध्ययन करनेवाले विशेषज्ञों की समिति ने इसमें कोई खराबी नहीं पायी है। इसलिए इसकी खेती से देश की जैव विविधता को नुकसान होने की आशंका नहीं है। उधर केन्द्रीय कृषि एवं उपभोक्ता मामलों के राज्य मंत्री के वी थामस तो यहां तक कह रहे हैं कि जीएम फसलों से क्रांति आ सकती है। वे कहते हैं कि आनुवांशिक रूप से संशोधित (जीएम) फसलों से मानवता का कल्याण हो सकता है। जीएम फसलों के समर्थन में श्री थामस के लगातार आ रहे वक्तव्य आप यहां, यहां, यहां, और यहां देख सकते हैं।
जब कृषि, उपभोक्ता व पर्यावरण जैसे विभागों के मंत्री ही बीटी बैगन के पक्ष में इतनी जोरदार दलीलें दे रहे हों तो माना जाना चाहिए कि भारत में उसकी वाणिज्यिक खेती को मंजूरी अब औपचारिकता भर रह गयी है। कभी-कभी तो यह संदेह भी होने लगता है कि कहीं पहले ही पूरा मामला फिक्स तो नहीं कर लिया गया है।
गौरतलब है कि केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की राष्ट्रीय खाद्य नियामक संस्था जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी पहले ही किसान संगठनों के कड़े विरोध के बावजूद बीटी बैगन को अंतिम मंजूरी दे चुकी है। कमेटी के कुछ सदस्यों ने इसका विरोध किया था। कमेटी के सदस्य और जाने-माने वैज्ञानिक पीएम भार्गव ने मॉलिक्यूलर प्रकृति का मुद्दा उठाया, लेकिन अन्य सदस्यों ने उसे खारिज कर दिया। अब यह मामला केन्द्र सरकार के पास है तथा सरकार के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की स्वीकृति के बाद बीटी बैगन के बीज को बाजार में उतारा जा सकेगा।
बीटी बैगन का विकास महाराष्ट्र हाईब्रिड सीड कंपनी (माहिको) ने किया है जो मोनसैंटो की पार्टनर है। बीटी शब्द का प्रयोग बैसिलस थ्युरिंगियेंसिस (Bacillus thuringiensis) के लिए किया जाता है। बैसिलस थ्युरिंगियेंसिस मिट्टी में प्राकृतिक रूप से पाया जानेवाला बैक्टीरिया है जो जहरीला प्रोटीन पैदा करता है। वैज्ञानिकों ने इस जहरीला प्रोटीन के लिए जिम्मेवार जीनों की पहचान की और उन्हें जेनेटिक इंजीनियरिंग तकनीक के जरिए अलग कर फसलों की जीन संरचना में डालकर बीटी फसलें तैयार कीं। बीटी कपास, बीटी मक्का और बीटी बैगन जैसी फसलों के बीजों का निर्माण इसी तरीके से हुआ है। माहिको द्वारा तैयार बीटी बैगन में क्राई1एसी (cry1Ac) नामक बीटी जीन डाला गया है, जिसकी वजह से बननेवाले जहरीले प्रोटीन को खाकर कीड़े मर जाएंगे। हालांकि पर्यावरणवादियों का कहना है कि इस तरह की जीनों से तैयार जीएम फसलें मिट्टी, मानव स्वास्थ्य व वन्य प्राणियों के लिए नुकसानदेह हैं। उनका कहना है कि इनकी वजह से अन्य फसलें भी प्रदूषित हो जाएंगी, जिससे पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने हाल ही में सार्वजनिक रूप से बीटी बैगन का समर्थन करते हुए एक लिखित प्रश्नोत्तर में लोकसभा को बताया है कि बीटी बैगन का विकास अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप किया गया है तथा इसके पर्यावरण संबंधी खतरे का अध्ययन करनेवाले विशेषज्ञों की समिति ने इसमें कोई खराबी नहीं पायी है। इसलिए इसकी खेती से देश की जैव विविधता को नुकसान होने की आशंका नहीं है। उधर केन्द्रीय कृषि एवं उपभोक्ता मामलों के राज्य मंत्री के वी थामस तो यहां तक कह रहे हैं कि जीएम फसलों से क्रांति आ सकती है। वे कहते हैं कि आनुवांशिक रूप से संशोधित (जीएम) फसलों से मानवता का कल्याण हो सकता है। जीएम फसलों के समर्थन में श्री थामस के लगातार आ रहे वक्तव्य आप यहां, यहां, यहां, और यहां देख सकते हैं।
जब कृषि, उपभोक्ता व पर्यावरण जैसे विभागों के मंत्री ही बीटी बैगन के पक्ष में इतनी जोरदार दलीलें दे रहे हों तो माना जाना चाहिए कि भारत में उसकी वाणिज्यिक खेती को मंजूरी अब औपचारिकता भर रह गयी है। कभी-कभी तो यह संदेह भी होने लगता है कि कहीं पहले ही पूरा मामला फिक्स तो नहीं कर लिया गया है।
गौरतलब है कि केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की राष्ट्रीय खाद्य नियामक संस्था जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी पहले ही किसान संगठनों के कड़े विरोध के बावजूद बीटी बैगन को अंतिम मंजूरी दे चुकी है। कमेटी के कुछ सदस्यों ने इसका विरोध किया था। कमेटी के सदस्य और जाने-माने वैज्ञानिक पीएम भार्गव ने मॉलिक्यूलर प्रकृति का मुद्दा उठाया, लेकिन अन्य सदस्यों ने उसे खारिज कर दिया। अब यह मामला केन्द्र सरकार के पास है तथा सरकार के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की स्वीकृति के बाद बीटी बैगन के बीज को बाजार में उतारा जा सकेगा।
बीटी बैगन का विकास महाराष्ट्र हाईब्रिड सीड कंपनी (माहिको) ने किया है जो मोनसैंटो की पार्टनर है। बीटी शब्द का प्रयोग बैसिलस थ्युरिंगियेंसिस (Bacillus thuringiensis) के लिए किया जाता है। बैसिलस थ्युरिंगियेंसिस मिट्टी में प्राकृतिक रूप से पाया जानेवाला बैक्टीरिया है जो जहरीला प्रोटीन पैदा करता है। वैज्ञानिकों ने इस जहरीला प्रोटीन के लिए जिम्मेवार जीनों की पहचान की और उन्हें जेनेटिक इंजीनियरिंग तकनीक के जरिए अलग कर फसलों की जीन संरचना में डालकर बीटी फसलें तैयार कीं। बीटी कपास, बीटी मक्का और बीटी बैगन जैसी फसलों के बीजों का निर्माण इसी तरीके से हुआ है। माहिको द्वारा तैयार बीटी बैगन में क्राई1एसी (cry1Ac) नामक बीटी जीन डाला गया है, जिसकी वजह से बननेवाले जहरीले प्रोटीन को खाकर कीड़े मर जाएंगे। हालांकि पर्यावरणवादियों का कहना है कि इस तरह की जीनों से तैयार जीएम फसलें मिट्टी, मानव स्वास्थ्य व वन्य प्राणियों के लिए नुकसानदेह हैं। उनका कहना है कि इनकी वजह से अन्य फसलें भी प्रदूषित हो जाएंगी, जिससे पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।
Tuesday, November 24, 2009
चाय तो रोज पीते होंगे... कभी चर्चा भी की है...
दुनिया में पानी के बाद यदि कोई चीज सबसे अधिक पी जानेवाली है तो वह संभवत: चाय ही है। सुबह-सुबह चाय न मिले तो दिन का जायका ही नहीं बनता। आप रोज ही कई कप चाय पी जाते होंगे और चाय की प्यालियां पकड़े कई तरह की चर्चा करते होंगे। लेकिन क्या आप ने कभी चाय की चर्चा की है…। की है तो अच्छा है, नहीं की है तो हम हैं ना। तो हम ले चलते हैं आपको इंटरनेट पर मौजूद चाय की जायकेदार दुनिया में।
सफर की शुरुआत में चलते हैं धान के देश में, जहां जी.के. अवधिया जी बता रहे हैं, ‘’चाय के पेड़ की उम्र लगभग सौ वर्ष होती है किन्तु अधिक उम्र के चाय पेड़ों की पत्तियों के स्वाद में कड़ुआपन आ जाने के कारण प्रायः चाय बागानों में पचास साठ वर्ष बाद ही पुराने पेड़ों को उखाड़ कर नये पेड़ लगा दिये जाते हैं। चाय के पेड़ों की कटिंग करके उसकी ऊंचाई को नहीं बढ़ने दिया जाता ताकि पत्तियों को सुविधापूर्वक तोड़ा जा सके। यदि कटिंग न किया जावे तो चाय के पेड़ भी बहुत ऊंचाई तक बढ़ सकते हैं।‘’ अवधिया जी को चाय के पेड़ के विषय में उक्त जानकारी उनके जलपाईगुड़ी प्रवास के दौरान वहां के लोगों से मिली थी।
नवभारत टाइम्स में बताया गया है, ‘’मोटे तौर पर चाय दो तरह की होती है : प्रोसेस्ड या सीटीसी (कट, टीयर ऐंड कर्ल) और ग्रीन टी (नैचरल टी)।
सीटीसी टी (आम चाय) : यह विभिन्न ब्रैंड्स के तहत बिकने वाली दानेदार चाय होती है, जो आमतौर पर घर, रेस्तरां और होटेल आदि में इस्तेमाल की जाती है। इसमें पत्तों को तोड़कर कर्ल किया जाता है। फिर सुखाकर दानों का रूप दिया जाता है। इस प्रक्रिया में कुछ बदलाव आते हैं। इससे चाय में टेस्ट और महक बढ़ जाती है। लेकिन यह ग्रीन टी जितनी नैचरल नहीं बचती और न ही उतनी फायदेमंद।
ग्रीन टी: इसे प्रोसेस्ड नहीं किया जाता। यह चाय के पौधे के ऊपर के कच्चे पत्ते से बनती है। सीधे पत्तों को तोड़कर भी चाय बना सकते हैं। इसमें एंटी-ऑक्सिडेंट सबसे ज्यादा होते हैं। ग्रीन टी काफी फायदेमंद होती है, खासकर अगर बिना दूध और चीनी पी जाए। इसमें कैलरी भी नहीं होतीं। इसी ग्रीन टी से हर्बल व ऑर्गेनिक आदि चाय तैयार की जाती है। ऑर्गेनिक इंडिया, ट्विनिंग्स इंडिया, लिप्टन कुछ जाने-माने नाम हैं, जो ग्रीन टी मुहैया कराते हैं।‘’
अखबार में चाय के फायदे भी बताए गए हैं :
- चाय में कैफीन और टैनिन होते हैं, जो स्टीमुलेटर होते हैं। इनसे शरीर में फुर्ती का अहसास होता है।
- चाय में मौजूद एल-थियेनाइन नामक अमीनो-एसिड दिमाग को ज्यादा अलर्ट लेकिन शांत रखता है।
- चाय में एंटीजन होते हैं, जो इसे एंटी-बैक्टीरियल क्षमता प्रदान करते हैं।
- इसमें मौजूद एंटी-ऑक्सिडेंट तत्व शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और कई बीमारियों से बचाव करते हैं।
- एंटी-एजिंग गुणों की वजह से चाय बुढ़ापे की रफ्तार को कम करती है और शरीर को उम्र के साथ होनेवाले नुकसान को कम करती है।
- चाय में फ्लोराइड होता है, जो हड्डियों को मजबूत करता है और दांतों में कीड़ा लगने से रोकता है।
चाय से नुकसान भी कम नहीं :
- दिन भर में तीन कप से ज्यादा पीने से एसिडिटी हो सकती है।
- आयरन एब्जॉर्ब करने की शरीर की क्षमता को कम कर देती है।
- कैफीन होने के कारण चाय पीने की लत लग सकती है।
- ज्यादा पीने से खुश्की आ सकती है।
- पाचन में दिक्कत हो सकती है।
- दांतों पर दाग आ सकते हैं लेकिन कॉफी से ज्यादा दाग आते हैं।
- देर रात पीने से नींद न आने की समस्या हो सकती है।
बीबीसी हिन्दी डॉटकाम पर ममता गुप्ता और महबूब खान बता रहे हैं कि चाय की खेती कब, कहां और कैसे आरंभ हुई। वे लिखते हैं, ‘’ सबसे पहले सन् 1815 में कुछ अंग्रेज यात्रियों का ध्यान असम में उगने वाली चाय की झाड़ियों पर गया जिससे स्थानीय कबाइली लोग एक पेय बनाकर पीते थे। भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड बैंटिक ने 1834 में चाय की परंपरा भारत में शुरू करने और उसका उत्पादन करने की संभावना तलाश करने के लिए एक समिति का गठन किया। इसके बाद 1835 में असम में चाय के बाग़ लगाए गए। ........कहते हैं कि एक दिन चीन के सम्राट शैन नुंग के सामने रखे गर्म पानी के प्याले में, कुछ सूखी पत्तियां आकर गिरीं जिनसे पानी में रंग आया और जब उन्होंने उसकी चुस्की ली तो उन्हें उसका स्वाद बहुत पसंद आया। बस यहीं से शुरू होता है चाय का सफर। ये बात ईसा से 2737 साल पहले की है। सन् 350 में चाय पीने की परंपरा का पहला उल्लेख मिलता है। सन् 1610 में डच व्यापारी चीन से चाय यूरोप ले गए और धीरे-धीरे ये समूची दुनिया का प्रिय पेय बन गया।‘’
अभिव्यक्ति की विज्ञान वार्ता में डॉ. गुरुदयाल प्रदीप बताते हैं कि दार्जिलिंग की चाय विश्वप्रसिद्व क्यों है : ‘’दक्षिण-पूर्व एशिया की उपजाऊ दोमट मिट्टी वाली पहाड़ियों पर, जहा पर्याप्त पानी बरसता है और ठंडी हवा बहती है, इस सदाबहार पौधे की विभिन्न प्रजातियां स्वाभाविक रूप से पनपती हैं। सब से पहले चाय के पौधे के बीज को नर्सरी में उगाया जाता है। इन बीजों से उत्पन्न पौधे जब 6 से 18 माह के बीच की उम्र प्राप्त कर लेते हैं तो इन्हें चाय के बाग़ानों में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। समय-समय पर इन की छंटाई की जाती है जिस से इन की ऊंचाई लगभग एक मीटर तक बनी रहे और इन में नई-नई पत्तियां आती रहें। कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों पर उगने वाले पौधों की पत्तियां लगभग ढाई साल में ही परिपक्व हो जाती हैं तो ऊंची पहाड़ियों पर उगने वाली प्रजाति की पत्तियां लगभग पांच साल में परिपक्व होती हैं। सब से अच्छी चाय उन पौधों से पाप्त होती है जो 1000 से 2000 मीटर की ऊंचाई वाली पहाड़ियों पर उगती हैं। ठंडी हवा में पनपने वाले इन पौधों की बाढ़ धीमी तो होती है परंतु इन से प्राप्त चाय का ज़ायक़ा बेहतर होता है। दार्जिलिंग की चाय संभवत: इसीलिए विश्व-प्रसिद्ध है।‘’
डॉ. प्रदीप चाय में मौजूद 'एंटी ऑक्सीडेंट’ का काम करनेवाले रसायनों के बखान के क्रम में ऑक्सिडेशन की प्रक्रिया तथा इन से होने वाली हानि को भी समझाते हैं : ‘’दरअसल, सभी जीवित कोशिकाओं में तरह-तरह की ऑक्सिडेशन प्रतिक्रियाए होती रहती हैं जिन में एलेक्ट्रॉन्स का स्थानांतरण एक रसायन से दूसरे ऑक्सिडाइज़िंग रसायन तक होता रहता है, जिस के फलस्वरूप H2O2, HOCl जैसी क्रियाशील रसायनों के अतिरिक्त 'फ्री रेडिकल्स' यथा –OH, O2- आदि रसायनों का निर्माण होता है। ये रसायन 'लिपिड-पर-ऑक्सीडेशन' की प्रकिया द्वारा कोशिका को हानि पहुँचाते हैं या फिर ऐसे रसायनों के संश्लेषण में सहायक होते हैं जो डी-एन-ए से जुडकर उन्हें 'ऑंन्कोजीन्स म्युटेन्ट' में परिवर्तित कर कैंसर की संभावना को बढ़ा सकते हैं। माइटोकांड्रिया में तो ऐसी प्रतिक्रियाएं लगातार चलती रहती हैं अत: इन से उत्पन्न क्रियाशील ऑक्सीजनयुक्त रसायनों को नष्ट करते रहना अति आवश्यक है। एंटी ऑक्सिडेंट इस कार्य को बड़ी दक्षता के साथ करते रहते हैं और कोशिकाओं को तरह-तरह की हानि से बचाते रहते हैं।‘’
विकिपीडिया पर भी चाय से संबंधित कई तरह के उपयोगी आंकड़े और जानकारियां दी गयी हैं। यहां उद्वृत है दुनिया के चाय उत्पादक क्षेत्रों से संबंधित एक चार्ट :
निशांत के हिन्दीजेन ब्लॉग पर चाय का कारोबार करनेवाली विश्वप्रसिद्व लिप्टन कम्पनी के संस्थापक सर थॉमस जोंस्टन लिप्टन की चर्चा करते हुए बताया गया है कि किस तरह धुन के उस पक्के उद्यमी ने एक दुर्घटना का भी लाभ उठा लिया और उसका कारोबार दुनिया भर में चमक उठा।
‘चाय’ और ‘Tea’ शब्द आए कहां से यदि आप यह जानना चाहते हैं, तो इंटरनेट पर यह जानकारी भी मौजूद है: ''The word for tea in most of mainland China (and also in Japan) is 'cha'. (Hence its frequency in names of Japanese teas: Sencha, Hojicha, etc.) But the word for tea in Fujian province is 'te' (pronounced approximately 'tay'). As luck would have it, the first mass marketers of tea in the West were the Dutch, whose contacts were in Fujian. They adopted this name, and handed it on to most other European countries. The two exceptions are Russia and Portugal, who had independent trade links to China. The Portuguese call it 'cha', the Russians 'chai'. Other areas (such as Turkey, South Asia and the Arab countries) have some version of 'chai' or 'shai'.
'Tay' was the pronunciation when the word first entered English, and it still is in Scotland and Ireland. For unknown reasons, at some time in the early eighteenth century the English changed their pronunciation to 'tee'. Virtually every other European language, however, retains the original pronunciation of 'tay'.''
इंटरनेट की इस चाय-चर्चा में ब्लॉगर सुनीता शानू का उल्लेख भी लाजिमी है। शानू जी का चाय का कारोबार है, और उनके शब्दों में चाय के साथ-साथ कुछ कविताएं भी हो जाएं तो क्या कहने...
इसी के साथ आपका यह किसान दोस्त विदा चाहता है। आशा है यह चर्चा आपको पसंद आयी होगी।
चाय बागान का चित्र सुलेखा डॉटकाम से साभार
सफर की शुरुआत में चलते हैं धान के देश में, जहां जी.के. अवधिया जी बता रहे हैं, ‘’चाय के पेड़ की उम्र लगभग सौ वर्ष होती है किन्तु अधिक उम्र के चाय पेड़ों की पत्तियों के स्वाद में कड़ुआपन आ जाने के कारण प्रायः चाय बागानों में पचास साठ वर्ष बाद ही पुराने पेड़ों को उखाड़ कर नये पेड़ लगा दिये जाते हैं। चाय के पेड़ों की कटिंग करके उसकी ऊंचाई को नहीं बढ़ने दिया जाता ताकि पत्तियों को सुविधापूर्वक तोड़ा जा सके। यदि कटिंग न किया जावे तो चाय के पेड़ भी बहुत ऊंचाई तक बढ़ सकते हैं।‘’ अवधिया जी को चाय के पेड़ के विषय में उक्त जानकारी उनके जलपाईगुड़ी प्रवास के दौरान वहां के लोगों से मिली थी।
नवभारत टाइम्स में बताया गया है, ‘’मोटे तौर पर चाय दो तरह की होती है : प्रोसेस्ड या सीटीसी (कट, टीयर ऐंड कर्ल) और ग्रीन टी (नैचरल टी)।
सीटीसी टी (आम चाय) : यह विभिन्न ब्रैंड्स के तहत बिकने वाली दानेदार चाय होती है, जो आमतौर पर घर, रेस्तरां और होटेल आदि में इस्तेमाल की जाती है। इसमें पत्तों को तोड़कर कर्ल किया जाता है। फिर सुखाकर दानों का रूप दिया जाता है। इस प्रक्रिया में कुछ बदलाव आते हैं। इससे चाय में टेस्ट और महक बढ़ जाती है। लेकिन यह ग्रीन टी जितनी नैचरल नहीं बचती और न ही उतनी फायदेमंद।
ग्रीन टी: इसे प्रोसेस्ड नहीं किया जाता। यह चाय के पौधे के ऊपर के कच्चे पत्ते से बनती है। सीधे पत्तों को तोड़कर भी चाय बना सकते हैं। इसमें एंटी-ऑक्सिडेंट सबसे ज्यादा होते हैं। ग्रीन टी काफी फायदेमंद होती है, खासकर अगर बिना दूध और चीनी पी जाए। इसमें कैलरी भी नहीं होतीं। इसी ग्रीन टी से हर्बल व ऑर्गेनिक आदि चाय तैयार की जाती है। ऑर्गेनिक इंडिया, ट्विनिंग्स इंडिया, लिप्टन कुछ जाने-माने नाम हैं, जो ग्रीन टी मुहैया कराते हैं।‘’
अखबार में चाय के फायदे भी बताए गए हैं :
- चाय में कैफीन और टैनिन होते हैं, जो स्टीमुलेटर होते हैं। इनसे शरीर में फुर्ती का अहसास होता है।
- चाय में मौजूद एल-थियेनाइन नामक अमीनो-एसिड दिमाग को ज्यादा अलर्ट लेकिन शांत रखता है।
- चाय में एंटीजन होते हैं, जो इसे एंटी-बैक्टीरियल क्षमता प्रदान करते हैं।
- इसमें मौजूद एंटी-ऑक्सिडेंट तत्व शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और कई बीमारियों से बचाव करते हैं।
- एंटी-एजिंग गुणों की वजह से चाय बुढ़ापे की रफ्तार को कम करती है और शरीर को उम्र के साथ होनेवाले नुकसान को कम करती है।
- चाय में फ्लोराइड होता है, जो हड्डियों को मजबूत करता है और दांतों में कीड़ा लगने से रोकता है।
चाय से नुकसान भी कम नहीं :
- दिन भर में तीन कप से ज्यादा पीने से एसिडिटी हो सकती है।
- आयरन एब्जॉर्ब करने की शरीर की क्षमता को कम कर देती है।
- कैफीन होने के कारण चाय पीने की लत लग सकती है।
- ज्यादा पीने से खुश्की आ सकती है।
- पाचन में दिक्कत हो सकती है।
- दांतों पर दाग आ सकते हैं लेकिन कॉफी से ज्यादा दाग आते हैं।
- देर रात पीने से नींद न आने की समस्या हो सकती है।
बीबीसी हिन्दी डॉटकाम पर ममता गुप्ता और महबूब खान बता रहे हैं कि चाय की खेती कब, कहां और कैसे आरंभ हुई। वे लिखते हैं, ‘’ सबसे पहले सन् 1815 में कुछ अंग्रेज यात्रियों का ध्यान असम में उगने वाली चाय की झाड़ियों पर गया जिससे स्थानीय कबाइली लोग एक पेय बनाकर पीते थे। भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड बैंटिक ने 1834 में चाय की परंपरा भारत में शुरू करने और उसका उत्पादन करने की संभावना तलाश करने के लिए एक समिति का गठन किया। इसके बाद 1835 में असम में चाय के बाग़ लगाए गए। ........कहते हैं कि एक दिन चीन के सम्राट शैन नुंग के सामने रखे गर्म पानी के प्याले में, कुछ सूखी पत्तियां आकर गिरीं जिनसे पानी में रंग आया और जब उन्होंने उसकी चुस्की ली तो उन्हें उसका स्वाद बहुत पसंद आया। बस यहीं से शुरू होता है चाय का सफर। ये बात ईसा से 2737 साल पहले की है। सन् 350 में चाय पीने की परंपरा का पहला उल्लेख मिलता है। सन् 1610 में डच व्यापारी चीन से चाय यूरोप ले गए और धीरे-धीरे ये समूची दुनिया का प्रिय पेय बन गया।‘’
अभिव्यक्ति की विज्ञान वार्ता में डॉ. गुरुदयाल प्रदीप बताते हैं कि दार्जिलिंग की चाय विश्वप्रसिद्व क्यों है : ‘’दक्षिण-पूर्व एशिया की उपजाऊ दोमट मिट्टी वाली पहाड़ियों पर, जहा पर्याप्त पानी बरसता है और ठंडी हवा बहती है, इस सदाबहार पौधे की विभिन्न प्रजातियां स्वाभाविक रूप से पनपती हैं। सब से पहले चाय के पौधे के बीज को नर्सरी में उगाया जाता है। इन बीजों से उत्पन्न पौधे जब 6 से 18 माह के बीच की उम्र प्राप्त कर लेते हैं तो इन्हें चाय के बाग़ानों में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। समय-समय पर इन की छंटाई की जाती है जिस से इन की ऊंचाई लगभग एक मीटर तक बनी रहे और इन में नई-नई पत्तियां आती रहें। कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों पर उगने वाले पौधों की पत्तियां लगभग ढाई साल में ही परिपक्व हो जाती हैं तो ऊंची पहाड़ियों पर उगने वाली प्रजाति की पत्तियां लगभग पांच साल में परिपक्व होती हैं। सब से अच्छी चाय उन पौधों से पाप्त होती है जो 1000 से 2000 मीटर की ऊंचाई वाली पहाड़ियों पर उगती हैं। ठंडी हवा में पनपने वाले इन पौधों की बाढ़ धीमी तो होती है परंतु इन से प्राप्त चाय का ज़ायक़ा बेहतर होता है। दार्जिलिंग की चाय संभवत: इसीलिए विश्व-प्रसिद्ध है।‘’
डॉ. प्रदीप चाय में मौजूद 'एंटी ऑक्सीडेंट’ का काम करनेवाले रसायनों के बखान के क्रम में ऑक्सिडेशन की प्रक्रिया तथा इन से होने वाली हानि को भी समझाते हैं : ‘’दरअसल, सभी जीवित कोशिकाओं में तरह-तरह की ऑक्सिडेशन प्रतिक्रियाए होती रहती हैं जिन में एलेक्ट्रॉन्स का स्थानांतरण एक रसायन से दूसरे ऑक्सिडाइज़िंग रसायन तक होता रहता है, जिस के फलस्वरूप H2O2, HOCl जैसी क्रियाशील रसायनों के अतिरिक्त 'फ्री रेडिकल्स' यथा –OH, O2- आदि रसायनों का निर्माण होता है। ये रसायन 'लिपिड-पर-ऑक्सीडेशन' की प्रकिया द्वारा कोशिका को हानि पहुँचाते हैं या फिर ऐसे रसायनों के संश्लेषण में सहायक होते हैं जो डी-एन-ए से जुडकर उन्हें 'ऑंन्कोजीन्स म्युटेन्ट' में परिवर्तित कर कैंसर की संभावना को बढ़ा सकते हैं। माइटोकांड्रिया में तो ऐसी प्रतिक्रियाएं लगातार चलती रहती हैं अत: इन से उत्पन्न क्रियाशील ऑक्सीजनयुक्त रसायनों को नष्ट करते रहना अति आवश्यक है। एंटी ऑक्सिडेंट इस कार्य को बड़ी दक्षता के साथ करते रहते हैं और कोशिकाओं को तरह-तरह की हानि से बचाते रहते हैं।‘’
विकिपीडिया पर भी चाय से संबंधित कई तरह के उपयोगी आंकड़े और जानकारियां दी गयी हैं। यहां उद्वृत है दुनिया के चाय उत्पादक क्षेत्रों से संबंधित एक चार्ट :
निशांत के हिन्दीजेन ब्लॉग पर चाय का कारोबार करनेवाली विश्वप्रसिद्व लिप्टन कम्पनी के संस्थापक सर थॉमस जोंस्टन लिप्टन की चर्चा करते हुए बताया गया है कि किस तरह धुन के उस पक्के उद्यमी ने एक दुर्घटना का भी लाभ उठा लिया और उसका कारोबार दुनिया भर में चमक उठा।
‘चाय’ और ‘Tea’ शब्द आए कहां से यदि आप यह जानना चाहते हैं, तो इंटरनेट पर यह जानकारी भी मौजूद है: ''The word for tea in most of mainland China (and also in Japan) is 'cha'. (Hence its frequency in names of Japanese teas: Sencha, Hojicha, etc.) But the word for tea in Fujian province is 'te' (pronounced approximately 'tay'). As luck would have it, the first mass marketers of tea in the West were the Dutch, whose contacts were in Fujian. They adopted this name, and handed it on to most other European countries. The two exceptions are Russia and Portugal, who had independent trade links to China. The Portuguese call it 'cha', the Russians 'chai'. Other areas (such as Turkey, South Asia and the Arab countries) have some version of 'chai' or 'shai'.
'Tay' was the pronunciation when the word first entered English, and it still is in Scotland and Ireland. For unknown reasons, at some time in the early eighteenth century the English changed their pronunciation to 'tee'. Virtually every other European language, however, retains the original pronunciation of 'tay'.''
इंटरनेट की इस चाय-चर्चा में ब्लॉगर सुनीता शानू का उल्लेख भी लाजिमी है। शानू जी का चाय का कारोबार है, और उनके शब्दों में चाय के साथ-साथ कुछ कविताएं भी हो जाएं तो क्या कहने...
इसी के साथ आपका यह किसान दोस्त विदा चाहता है। आशा है यह चर्चा आपको पसंद आयी होगी।
चाय बागान का चित्र सुलेखा डॉटकाम से साभार
Monday, November 23, 2009
बकरी के बच्चों को दूध पिलाती है गाय
पशुवत व्यवहार निंदनीय होता है, लेकिन कभी-कभी पशु भी अनुकरणीय व्यवहार करते देखे जाते हैं। ऐसा ही दुर्लभ दृश्य उड़ीसा के जगतसिंहपुर के गांव में देखने को मिल रहा है। वहां एक गाय और बकरी के दो बच्चों के बीच परस्पर प्रेम और लगाव दर्शनीय बना हुआ है। गांव की एक गाय पिछले दो महीने से बकरी के दो बच्चों को अपना दूध पिला रही है।
गाय और बकरी के बच्चों के इस अनोखे रिश्ते को देखने के लिए हजारों लोग भुवनेश्वर से 80 किलोमीटर दूर स्थित कुलातरातांग गांव पहुंच रहे हैं। मांगुली भोई की गाय हर दिन करीब डेढ़ घंटे तक नन्हीं बकरियों को दूध पिलाती है। भोई गाय और बकरियों का मालिक है।
भोई का कहना है कि तीन महीने पहले एक बकरी ने चार बच्चों को जन्म दिया था। बकरी ने कमजोरी के कारण पर्याप्त दूध न बन पाने की वजह से एक महीने बाद दो बच्चों को दूध पिलाना बंद कर दिया था। उसने कहा कि हम यह देखकर चकित रह गए कि बकरी के जिन दो बच्चों को उनकी मां ने दूध पिलाना बंद कर दिया था उन्हें गाय दूध पिला रही थी।
गांव के प्रमुख हरेकृष्ण बिस्वाल का कहना है कि यह एक दुर्लभ दृश्य है। पास के गांवों से हजारों लोग बकरियों और गाय के बीच के अनूठे प्रेम और स्नेह को देखने के लिए आ रहे हैं।
मूल खबर के लिए देखें: IBN Khabar
गाय और बकरी के बच्चों के इस अनोखे रिश्ते को देखने के लिए हजारों लोग भुवनेश्वर से 80 किलोमीटर दूर स्थित कुलातरातांग गांव पहुंच रहे हैं। मांगुली भोई की गाय हर दिन करीब डेढ़ घंटे तक नन्हीं बकरियों को दूध पिलाती है। भोई गाय और बकरियों का मालिक है।
भोई का कहना है कि तीन महीने पहले एक बकरी ने चार बच्चों को जन्म दिया था। बकरी ने कमजोरी के कारण पर्याप्त दूध न बन पाने की वजह से एक महीने बाद दो बच्चों को दूध पिलाना बंद कर दिया था। उसने कहा कि हम यह देखकर चकित रह गए कि बकरी के जिन दो बच्चों को उनकी मां ने दूध पिलाना बंद कर दिया था उन्हें गाय दूध पिला रही थी।
गांव के प्रमुख हरेकृष्ण बिस्वाल का कहना है कि यह एक दुर्लभ दृश्य है। पास के गांवों से हजारों लोग बकरियों और गाय के बीच के अनूठे प्रेम और स्नेह को देखने के लिए आ रहे हैं।
मूल खबर के लिए देखें: IBN Khabar
Sunday, November 15, 2009
चार महीने तक ताजा बना रहेगा यह सेब
‘’एक सेब रोज खाएं, डॉक्टर को दूर भगाएं।’’ इस लोकप्रिय कहावत पर भरोसा करनेवाले लोगों के लिए अच्छी खबर है। आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों ने सेव की ऐसी किस्म का विकास किया है, जो लंबे समय तक ताजा रह सकेगा। खास बात यह है कि यह किस्म जैव संवर्धित (Genetically Modified) न होकर परंपरागत तरीके से तैयार है।
आस्ट्रेलिया के क्वीन्सलैंड प्रांत की सरकार के संबंधित विभागीय शोधकर्ताओं के मुताबिक यह विश्व का सर्वश्रेष्ठ सेव है तथा वे पिछले 20 वर्षों से इसे तैयार करने में जुटे हुए थे। गाढ़े लाल रंग के इस सेब को आरएस 103-130 नाम दिया गया है। यदि इसे फलों की टोकरी में रखा जाए तो 14 दिनों तक ताजा रहेगा। जबकि फ्रीज में रखने पर यह 4 महीनों तक खराब नहीं होगा। वैज्ञानिकों के मुताबिक इसमें ब्लैक स्पॉट प्रतिरोधी एशियाटिक सेव की मेलुस फ्लोरिबुंडा नामक किस्म के जीन को डाले जाने के चलते रोग प्रतिरोधी क्षमता आयी है। उनका दावा है कि इस सेव का स्वाद भी बहुत अच्छा है।
क्वीन्सलैंड सरकार ने उम्मीद जतायी है कि अगले साल तक यह सेव बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध होगा। वह इसके वितरण के लिए वाणिज्यिक आपूर्ति साझेदार की तलाश में भी है।
(फोटो Telegraph.co.uk से साभार)
आस्ट्रेलिया के क्वीन्सलैंड प्रांत की सरकार के संबंधित विभागीय शोधकर्ताओं के मुताबिक यह विश्व का सर्वश्रेष्ठ सेव है तथा वे पिछले 20 वर्षों से इसे तैयार करने में जुटे हुए थे। गाढ़े लाल रंग के इस सेब को आरएस 103-130 नाम दिया गया है। यदि इसे फलों की टोकरी में रखा जाए तो 14 दिनों तक ताजा रहेगा। जबकि फ्रीज में रखने पर यह 4 महीनों तक खराब नहीं होगा। वैज्ञानिकों के मुताबिक इसमें ब्लैक स्पॉट प्रतिरोधी एशियाटिक सेव की मेलुस फ्लोरिबुंडा नामक किस्म के जीन को डाले जाने के चलते रोग प्रतिरोधी क्षमता आयी है। उनका दावा है कि इस सेव का स्वाद भी बहुत अच्छा है।
क्वीन्सलैंड सरकार ने उम्मीद जतायी है कि अगले साल तक यह सेव बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध होगा। वह इसके वितरण के लिए वाणिज्यिक आपूर्ति साझेदार की तलाश में भी है।
(फोटो Telegraph.co.uk से साभार)
Thursday, November 5, 2009
तो अब चलें ब्लॉगर डैशबोर्ड से गूगल डैशबोर्ड की ओर..
अब समय आ गया है कि हम ब्लॉगर डैशबोर्ड की जगह सीधे गूगल डैशबोर्ड पर जाकर ब्लागरी या अन्य संबंधित काम करें। जी हां, गूगल ने नित नए उत्पाद और सेवाएं मुहैया कराने की अपनी कोशिशों को विस्तार देते हुए अब गूगल डैशबोर्ड लांच किया है, जो निश्चित तौर पर इंटरनेट प्रयोक्ताओं के लिए उपयोगी प्लेटफार्म साबित होगा। इसके जरिए अब हमें एक ही जगह अपने गूगल खाते से जुड़ी सारी जानकारियां दिख जाएंगी और उनके लिंक भी उपलब्ध होंगे। कोई भी गूगल खाताधारक एक ही जगह से गूगल से जुड़े उन तमाम उत्पादों व सेवाओं के बारे में जानकारी व संपर्क रख पाएगा, जिनका वह इस्तेमाल कर रहा है।
गूगल के अधिकृत ब्लॉग पर Transparency, choice and control — now complete with a Dashboard! शीर्षक से लिखे गए आलेख में कहा गया है :
गूगल के अधिकृत ब्लॉग पर Transparency, choice and control — now complete with a Dashboard! शीर्षक से लिखे गए आलेख में कहा गया है :
In an effort to provide you with greater transparency and control over their own data, we've built the Google Dashboard. Designed to be simple and useful, the Dashboard summarizes data for each product that you use (when signed in to your account) and provides you direct links to control your personal settings. Today, the Dashboard covers more than 20 products and services, including Gmail, Calendar, Docs, Web History, Orkut, YouTube, Picasa, Talk, Reader, Alerts, Latitude and many more. The scale and level of detail of the Dashboard is unprecedented, and we're delighted to be the first Internet company to offer this.गूगल को हमारा धन्यवाद, और चलिए चलें अब अपने नए गंतव्य की ओर: www.google.com/dashboard
Tuesday, November 3, 2009
तब बाढ़ में भी नहीं डूबेंगे धान के पौधे !
तेज बरसात की वजह से चावल के पौधे पानी में बिलकुल डूब जाते हैं। अब जापानी वैज्ञानिकों ने ऐसे जीनों का पता लगाया है जिनके जरिए चावल के पौधे का विकास इस तेजी से बढ़ाया जा सकता है कि वह पानी में डूबे ही नहीं।
भारत में चावल उगाने वाले किसान जहां बरसात के लिए तरसते हैं, वहीं उससे बहुत डरते भी हैं। उनके मन में कई सवाल होते हैं, क्या बरसात ठीक वक्त पर आएगी, ज़्यादा तेज और लंबी तो नहीं होगी, कितनी बार फसल बरसात की वजह से खराब हो जाती है और हज़ारों किसानों के लिए भारत में ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और दूसरे एशियाई देशों में भी गुजारा करना मुश्किल हो जाता है।
अक्सर यह देखा गया है कि तेज बरसात की वजह से चावल के पौधे पानी में बिलकुल डूब जाते हैं। खेतों मे बढ़ता हुआ जलस्तर चावल के पौधों के लिए सामान्यत: अच्छा ही रहता है, लेकिन यह ज़रूरी है कि पौधे के उपरी हिस्से हवा के संपर्क में बने रहें। हालांकि मानसूनी इलाकों में बरसात और बाढ की वजह से चावल के खेतों में पानी इतना ज्यादा भर जाता है कि धान के पौधे बिल्कुल डूब जाते हैं तथा इससे वे सड़ने लगते हैं और मर भी जाते हैं।
गौरतलब है कि गहरे पानी में उगनेवाले चावल की प्रजाति को जलजमाव से कोई समस्या नहीं होती। पानी के साथ-साथ उसके तने वाले डंठल भी बढ़ते जाते हैं। जापान के नागोया विश्वविद्यालय के मोतोयुकी अशिकारी कहते हैं:
फोटो नेचर पत्रिका से साभार (बांग्लादेश में गहरे पानी में उगनेवाला धान)
आलेख रेडियो डॉयचवेले पर प्रकाशित प्रिया एसेलबोर्न और राम यादव की रिपोर्ट पर आधारित
भारत में चावल उगाने वाले किसान जहां बरसात के लिए तरसते हैं, वहीं उससे बहुत डरते भी हैं। उनके मन में कई सवाल होते हैं, क्या बरसात ठीक वक्त पर आएगी, ज़्यादा तेज और लंबी तो नहीं होगी, कितनी बार फसल बरसात की वजह से खराब हो जाती है और हज़ारों किसानों के लिए भारत में ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और दूसरे एशियाई देशों में भी गुजारा करना मुश्किल हो जाता है।
अक्सर यह देखा गया है कि तेज बरसात की वजह से चावल के पौधे पानी में बिलकुल डूब जाते हैं। खेतों मे बढ़ता हुआ जलस्तर चावल के पौधों के लिए सामान्यत: अच्छा ही रहता है, लेकिन यह ज़रूरी है कि पौधे के उपरी हिस्से हवा के संपर्क में बने रहें। हालांकि मानसूनी इलाकों में बरसात और बाढ की वजह से चावल के खेतों में पानी इतना ज्यादा भर जाता है कि धान के पौधे बिल्कुल डूब जाते हैं तथा इससे वे सड़ने लगते हैं और मर भी जाते हैं।
गौरतलब है कि गहरे पानी में उगनेवाले चावल की प्रजाति को जलजमाव से कोई समस्या नहीं होती। पानी के साथ-साथ उसके तने वाले डंठल भी बढ़ते जाते हैं। जापान के नागोया विश्वविद्यालय के मोतोयुकी अशिकारी कहते हैं:
गहरे पानी में उगने वाले चावल के पौधे, पानी की गहराई से ऊपर बने रहने के लिए, एक मीटर तक बढ़ सकते हैं। वे हवा के संपर्क में बने रहने के लिए ऐसा करते है। वे अंदर से खोखले होते हैं, लेकिन उसके जरिए पौधा पानी की सतह से उपर पहुंच सकता है और ऑक्सीजन पा सकता है। यह कुछ ऐसा ही है कि जब आप गोताखोरी कर रहे होते हैं, तो पानी से ऊपर निकली एक नली से सांस लेते हैं।बरसात के समय ऐसे चावल के तने 25 सेंटीमीटर प्रतिदिन की एक अनोखी गति से बढ़ सकते हैं। अशिकारी और उनकी टीम ने इस प्रक्रिया को समझने के लिए इस चावल के जीनों से यह समझने की कोशिश की कि चावल बरसात के वक्त अपने विकास को किस तरह नियंत्रित करता है। अध्ययनों से अब तक जितना पता चला है वह यह है कि एक गैसीय विकास-हॉर्मोन एथीलिन इसके लिए जिम्मेदार है, जैसाकि नीदरलैंड के उएतरेश्त विश्वविद्यालय के रेंस वोएसेनेक बताते हैं:
जब पौधा पूरी तरह पानी में डूब जाता है तब यह गैस ठीक तरह से मुक्त नहीं हो पाती। यू कहें कि वह पौधे में ही कैद हो जाती है। यानी पौधे में एथिलिन की मत्रा बढ़ने लगती है। यह पौधे के लिए संकेत है कि वह पानी में डूब रहा है और उसे कुछ करना है।जापानी विशेषज्ञों ने पता लगाने की कोशिश की कि कौन से जीन इस स्थिति में सक्रिय होते हैं। उन्होने ऐसे जीन पाए जिनको वे गोताखोरी में इस्तेमाल होनेवाली नली के अनुरूप स्नोर्कल जीन कहते हैं। ये जीन तभी सक्रिय होते हैं जब पौधे के तने में एथिलिन की मात्रा बढ़ने लगती है। वे पौधे के विकास को तेज करने वाले दूसरे तत्वों का उत्पादन शुरू कर देते हैं। मोतोयुकी अशिकारी कहते हैं:
हमने क्रॉमोसोम 1,3 और 12 पर यह तथाकथित नलिका जीन पाए। उन्हें यदि सामान्य चावल के पौधों में भी मिलाया जा सके, तो बरसात के वक्त सामान्य चावल के पौधे भी वही करेंगे जो गहरे पानी में उगने वाला चावल करता है। मुझे पूरा विश्वास है कि हम चावल की हर प्रजाति को गहरे पानी में उगने वाले चावल की प्रजाति बना सकते हैं।यानी इन जीनों की मदद से चावल की उस फसल को बचाया जा सकता है जो पानी की अधिकता के प्रति बहुत संवेदनशील है। जहां अक्सर बाढ आती है वहां के किसानों की इस बड़ी समस्या का समाधान हो सकता है। एक और समस्या भी दूर हो सकती है - गहरे पानी में उगने वाला चावल बहुत ही कम फसल देता है, प्रति हेक्टेयर सिर्फ एक टन जो उपजाऊ क़िस्मों की तुलना में सिर्फ 20 फीसदी के बराबर है। नीदरलैंड के विशेषज्ञ रेंस वोएसेनेक बहुत ही आशावादी हैं:
विकास के लिए जिम्मेदार इन जीनों के बारे में पता चल जाने के बाद अब हम चावल की अलग-अलग प्रजातियों के बीच प्रकृतिक संवर्धन के जरिए, यानी वर्णसंकर के जरिए भी इन जीनों को उनके पौधे में डाल सकते हैं। इसके लिए किसी जीन तकनीक जरूरत ही नहीं हैं।जापान के विशेषज्ञों ने यह काम शुरू कर भी दिया है। उनके अध्ययनों से एक बार फिर पता चलता है कि पौधों के संवर्धन के लिए उनके जीनों में असामान्य गुणों की तालाश कितनी जरूरी है।
फोटो नेचर पत्रिका से साभार (बांग्लादेश में गहरे पानी में उगनेवाला धान)
आलेख रेडियो डॉयचवेले पर प्रकाशित प्रिया एसेलबोर्न और राम यादव की रिपोर्ट पर आधारित
Sunday, November 1, 2009
अब बिना सिंचाई होगी गेहूं की खेती
देश में खेती का बहुत बडा रकबा असिंचित है या फिर यहां सिंचाई के पर्याप्त साधन नहीं है। ऎसे क्षेत्रों के किसानों के लिए जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय (जबलपुर) के वैज्ञानिकों ने गेहूं का ऎसा बीज तैयार किया है, जिसके उपयोग से बिना सिंचाई के भी 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की पैदावार ली जा सकती है। कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ.आर.एस. शुक्ला ने बताया कि करीब तीन साल की मेहनत के बाद जे डब्ल्यू 3211 किस्म के शरबती गेहूं का बीज ईजाद करने में सफलता प्राप्त की गयी है।
कम पानी में भी अधिक उत्पादन
डॉ. शुक्ला ने बताया कि यह बीज कम पानी से भी अच्छा उत्पादन देने की क्षमता रखता है। इस बीज से एक पानी से प्रति हेक्टेयर करीब 25 से 30 क्विंटल तक उत्पादन हो सकता है। इसी प्रकार यदि दो पानी की व्यवस्था हो तो प्रति हेक्टेयर करीब 35 से 40 क्विंटल तक गेहूं की पैदावार ली जा सकती है। जिन क्षेत्रों में सिंचाई के साधन उपलब्ध नहीं है उनमें किसान पहले की नमी को बचा कर अच्छी पैदावार ले सकते हैं। इसकी फसल को तैयार होने में करीब 118 से 125 दिन लगते हैं। मध्यप्रदेश के अलावा इस बीज की मांग महाराष्ट्र व आस-पास के क्षेत्रों से अघिक हो रही है।
मौसम परिवर्तन का प्रभाव नहीं
डॉ. शुक्ला ने बताया कि मौसम में आए उतार-चढ़ाव या तापमान बढ़ने से गेहूं की फसल प्रभावित हो जाती है, लेकिन अन्य की तुलना में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता अघिक होने कारण जे डब्ल्यू 3211 गेहूं की फसल पर मौसम परिवर्तन का कोई असर नहीं पड़ता है। इसके दाने चमकदार होते हैं व इसमें 10 से 12 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा होती है। इसके पौधे की लम्बाई 85 से 90 सेंटीमीटर तक होती है।
(आलेख : योगेश श्रीवास्तव, साभार : पत्रिका डॉटकाम)
कम पानी में भी अधिक उत्पादन
डॉ. शुक्ला ने बताया कि यह बीज कम पानी से भी अच्छा उत्पादन देने की क्षमता रखता है। इस बीज से एक पानी से प्रति हेक्टेयर करीब 25 से 30 क्विंटल तक उत्पादन हो सकता है। इसी प्रकार यदि दो पानी की व्यवस्था हो तो प्रति हेक्टेयर करीब 35 से 40 क्विंटल तक गेहूं की पैदावार ली जा सकती है। जिन क्षेत्रों में सिंचाई के साधन उपलब्ध नहीं है उनमें किसान पहले की नमी को बचा कर अच्छी पैदावार ले सकते हैं। इसकी फसल को तैयार होने में करीब 118 से 125 दिन लगते हैं। मध्यप्रदेश के अलावा इस बीज की मांग महाराष्ट्र व आस-पास के क्षेत्रों से अघिक हो रही है।
मौसम परिवर्तन का प्रभाव नहीं
डॉ. शुक्ला ने बताया कि मौसम में आए उतार-चढ़ाव या तापमान बढ़ने से गेहूं की फसल प्रभावित हो जाती है, लेकिन अन्य की तुलना में रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता अघिक होने कारण जे डब्ल्यू 3211 गेहूं की फसल पर मौसम परिवर्तन का कोई असर नहीं पड़ता है। इसके दाने चमकदार होते हैं व इसमें 10 से 12 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा होती है। इसके पौधे की लम्बाई 85 से 90 सेंटीमीटर तक होती है।
(आलेख : योगेश श्रीवास्तव, साभार : पत्रिका डॉटकाम)
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