प्राचीन भारत के महान खगोलविद व गणितज्ञ आर्यभट के बारे में काफी कुछ कहा जाता है और लिखा जाता है, लेकिन सच्चाई यह है कि उनके बारे में प्रामाणिक तौर पर बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। उनके व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक जीवन के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं मिलती। हम यह भी नहीं जानते कि वे कहां के रहनेवाले थे और उनका जन्म किस जगह पर हुआ था। यहां प्रस्तुत उनकी प्रतिमा का फोटो विकिपीडिया से उद्धृत है। यह प्रतिमा पुणे में है, लेकिन चूंकि आर्यभट की वेश-भूषा के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है, इसलिए यह प्रतिरूप कलाकार की परिकल्पना की ही उत्पत्ति है।
आर्यभट के बारे में हमारी जानकारी का एकमात्र आधार उनकी अमर कृति आर्यभटीय है, जिसके बारे में कहा जाता है कि ज्योतिष पर प्राचीन भारत की सर्वाधिक वैज्ञानिक पुस्तक है। आर्यभटीय आर्यभट का एकमात्र उपलब्ध ग्रंथ है। उन्होंने अन्य ग्रंथों की रचना भी की होगी, पर वे वर्तमान में नहीं मिलते। आर्यभटीय के एक श्लोक में आर्यभट जानकारी देते हैं कि उन्होंने इस पुस्तक की रचना कुसुमपुर में की है और उस समय उनकी आयु 23 साल की थी। वे लिखते हैं : ‘’कलियुग के 3600 वर्ष बीत चुके हैं और मेरी आयु 23 साल की है, जबकि मैं यह ग्रंथ लिख रहा हूं।‘’
भारतीय ज्योतिष की परंपरा के अनुसार कलियुग का आरंभ ईसा पूर्व 3101 में हुआ था। इस हिसाब से 499 ईस्वी में आर्यभटीय की रचना हुई। अत: आर्यभट का जन्म 476 में होने की बात कही जाती है।
बिहार की मौजूदा राजधानी पटना को प्राचीनकाल में पाटलीपुत्र, पुष्पपुर और कुसुमपुर भी कहा जाता था। इसी आधार पर माना जाता है कि आर्यभट का कुसुमपुर आधुनिक पटना ही है। लेकिन इस मत से सभी सहमत नहीं हैं। आर्यभट के ग्रंथ का दक्षिण भारत में अधिक प्रचार रहा है और मलयालम लिपि में इस ग्रंथ की हस्तलिखित प्रतियां मिली हैं। इस आधार पर आर्यभट के कर्नाटक या केरल का निवासी होने की संभावना भी जताई जाती है।
प्राचीन भारत के खगोलविदों में आर्यभट के विचार सर्वाधिक वैज्ञानिक व क्रांतिकारी थे। प्राचीन काल में पृथ्वी को स्थिर माना जाता था। किंतु आर्यभट ने कहा कि पृथ्वी गोल है और यह अपने अक्ष पर घूमती है, यानी इसकी दैनंदिन गति है। इस सत्य वचन को कहनेवाले आर्यभट भारत के एकमात्र ज्योतिषी थे। हालांकि आर्यभट ने यह नहीं कहा था कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है।
आर्यभट ग्रहणों के असली कारण जानते थे। उन्होंने स्पष्ट तौर पर लिखा है, ‘’ चंद्र जब सूर्य को ढक लेता है और इसकी छाया पृथ्वी पर पड़ती है तो सूर्यग्रहण होता है। इसी प्रकार पृथ्वी की छाया जब चंद्र को ढक लेती है तो चंद्रग्रहण होता है।‘’
वस्तुत: आर्यभट ने भारत में गणित-ज्योतिष के अध्ययन की एक स्वस्थ परंपरा को जन्म दिया था। उनकी रचना आर्यभटीय भारतीय विज्ञान की ऐसी महान कृति है जो यह साबित करती है कि उस समय हमारा देश गणित-ज्योतिष के क्षेत्र में किसी भी अन्य देश से पीछे नहीं था। आर्यभट ने आधुनिक त्रिकोणमिति और बीजगणित की कई विधियों की खोज की थी। इस महान खगोलशास्त्री के नाम पर ही भारत द्वारा प्रक्षेपित पहले कृत्रिम उपग्रह का नाम आर्यभट्ट रखा गया था। 360 किलो का यह उपग्रह अप्रैल 1975 में छोड़ा गया था।
ध्यान रखने की बात है कि भारत में आर्यभट नाम के एक दूसरे ज्योतिषी भी हुए हैं, परंतु वे पहले आर्यभट जैसे प्रसिद्ध नहीं हैं। दूसरे आर्यभट का काल ईसा की दसवीं सदी माना जाता है तथा आर्यसिद्धांत नामक उनका एक ग्रंथ भी मिलता है।
Friday, July 24, 2009
आर्यभट की वेधशाला और दो रुपए में परिवार की खुशी खरीदते लोग!
‘’खट्टा-मिट्ठा चूस, दो रुपए में बाल-बच्चा खुश।‘’ दोनों हथेलियों में सस्ते लेमनचूस के छोटे-छोटे पैकेट लिए इन्हीं लफ्जों के साथ सुरीले अंदाज में अपने सामान का विज्ञापन करता दुर्बल-सा आदमी। और, डिब्बे की भीड़-भाड़ में खड़े होने की जगह के लिए संघर्ष कर रहे मटमैले कपड़े पहने दबे-कुचले लोग जो दो रुपए में बच्चों की खुशी खरीदकर खुद भी खुश दिख रहे हैं। पटना-गया लाइन के तरेगना और छोटे-बड़े अन्य स्टेशनों व हाल्टों की मेरे लिए अभी तक पहचान यही थी। यह कयास लगाना काफी रोचक है कि क्या भविष्य में भी मैं उस जगह को इन्हीं बिम्बों के जरिए पहचानूंगा!
बिहार के तरेगना गांव को इतनी अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि सैकड़ों सालों में पहले कभी नहीं मिली होगी। राजधानी पटना से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस छोटे-से गांव में 22 जुलाई की सुबह हुए 21-वीं सदी के सबसे लंबे सूर्यग्रहण को सबसे अधिक समय तक देखा जाना था। अंतरिक्षवैज्ञानिकों का कहना था कि तरेगना सूर्यग्रहण के 'सेंट्रल लाइन' पर स्थित है, और इसलिए यहां ग्रहण को साफ और अधिक समय तक देखने-परखने में आसानी होगी। हालांकि आकाश में बादलों के घिर आने के चलते वहां दुनिया भर से इकट्ठा हुए हजारों लोगों को निराशा ही हाथ लगी। इनमें आम लोगों के अलावा अमेरिकी अंतरिक्ष संगठन नासा सहित देश-विदेश से आए वैज्ञानिक, खगोलविद, छात्र और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी शामिल थे। इसके बावजूद लोग दिन में रात जैसा अंधेरा देखकर उत्साहित थे और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तरेगना में खगोलीय अध्ययन के लिए एक केंद्र की स्थापना करने की घोषणा की। अब देखना है कि वे अपनी घोषणा कितनी जल्द और किस सीमा तक पूरी करते हैं।
माना जाता है कि तरेगना में प्राचीन भारत के प्रसिद्ध गणितज्ञ व खगोलविद आर्यभट (476 ईस्वी) तारों का अध्ययन किया करते थे। बताया जाता है कि तरेगना के पूर्व में 70 फुट की एक मीनार थी। इसी मीनार पर आर्यभट की वेधशाला (ऑब्जर्वेटरी) थी जहां बैठकर वह अपने शिष्यों के साथ ग्रहों की चाल का अध्ययन किया करते थे। तारे गिनने के चलते ही इस जगह का नाम तरेगना पड़ा। ऐसा माना जाता है कि इस जगह का संस्कृत नामाकरण तारक-गणना कालांतर में तरेगना कहा जाने लगा।
उपर दिया गया चित्र, तरेगना गांव के उसी स्थल का है, जहां आर्यभट की वेधशाला होने की बात कही जाती है। हालांकि अब उस जगह पर निजी मकान है।
उल्लेखनीय है कि पटना के समीप ही एक अन्य जगह है जिसका नाम खगौल है। अक्सर कहा जाता है कि यह जगह भी प्राचीन काल में खगोलीय अनुसंधान का केन्द्र था और इसीलिए उसका नाम खगौल पड़ा।
इन जनश्रुतियों में सच्चाई कितनी है, यह कहना मुश्किल है। लेकिन यह तो निश्चित जान पड़ता है कि बिहार की मौजूदा राजधानी पटना का इलाका आर्यभट का कर्मस्थल रहा था। अपनी एकमात्र उपलब पुस्तक आर्यभटीय के एक श्लोक में वे कहते हैं कि उन्होंने इस पुस्तक की रचना कुसुमपुर में की। इतिहासकारों की मान्यता है कि आधुनिक पटना को ही प्राचीनकाल में पाटलीपुत्र, कुसुमपुर और पुष्पपुर भी कहा जाता था।
(फोटो बीबीसी हिन्दी से साभार)
बिहार के तरेगना गांव को इतनी अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि सैकड़ों सालों में पहले कभी नहीं मिली होगी। राजधानी पटना से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस छोटे-से गांव में 22 जुलाई की सुबह हुए 21-वीं सदी के सबसे लंबे सूर्यग्रहण को सबसे अधिक समय तक देखा जाना था। अंतरिक्षवैज्ञानिकों का कहना था कि तरेगना सूर्यग्रहण के 'सेंट्रल लाइन' पर स्थित है, और इसलिए यहां ग्रहण को साफ और अधिक समय तक देखने-परखने में आसानी होगी। हालांकि आकाश में बादलों के घिर आने के चलते वहां दुनिया भर से इकट्ठा हुए हजारों लोगों को निराशा ही हाथ लगी। इनमें आम लोगों के अलावा अमेरिकी अंतरिक्ष संगठन नासा सहित देश-विदेश से आए वैज्ञानिक, खगोलविद, छात्र और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भी शामिल थे। इसके बावजूद लोग दिन में रात जैसा अंधेरा देखकर उत्साहित थे और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तरेगना में खगोलीय अध्ययन के लिए एक केंद्र की स्थापना करने की घोषणा की। अब देखना है कि वे अपनी घोषणा कितनी जल्द और किस सीमा तक पूरी करते हैं।
माना जाता है कि तरेगना में प्राचीन भारत के प्रसिद्ध गणितज्ञ व खगोलविद आर्यभट (476 ईस्वी) तारों का अध्ययन किया करते थे। बताया जाता है कि तरेगना के पूर्व में 70 फुट की एक मीनार थी। इसी मीनार पर आर्यभट की वेधशाला (ऑब्जर्वेटरी) थी जहां बैठकर वह अपने शिष्यों के साथ ग्रहों की चाल का अध्ययन किया करते थे। तारे गिनने के चलते ही इस जगह का नाम तरेगना पड़ा। ऐसा माना जाता है कि इस जगह का संस्कृत नामाकरण तारक-गणना कालांतर में तरेगना कहा जाने लगा।
उपर दिया गया चित्र, तरेगना गांव के उसी स्थल का है, जहां आर्यभट की वेधशाला होने की बात कही जाती है। हालांकि अब उस जगह पर निजी मकान है।
उल्लेखनीय है कि पटना के समीप ही एक अन्य जगह है जिसका नाम खगौल है। अक्सर कहा जाता है कि यह जगह भी प्राचीन काल में खगोलीय अनुसंधान का केन्द्र था और इसीलिए उसका नाम खगौल पड़ा।
इन जनश्रुतियों में सच्चाई कितनी है, यह कहना मुश्किल है। लेकिन यह तो निश्चित जान पड़ता है कि बिहार की मौजूदा राजधानी पटना का इलाका आर्यभट का कर्मस्थल रहा था। अपनी एकमात्र उपलब पुस्तक आर्यभटीय के एक श्लोक में वे कहते हैं कि उन्होंने इस पुस्तक की रचना कुसुमपुर में की। इतिहासकारों की मान्यता है कि आधुनिक पटना को ही प्राचीनकाल में पाटलीपुत्र, कुसुमपुर और पुष्पपुर भी कहा जाता था।
(फोटो बीबीसी हिन्दी से साभार)
Tuesday, July 21, 2009
ब्रिटेन का सबसे पुराना चालू टेलीविजन
ब्रिटेन में चालू हालत में मौजूद वहां का सबसे पुराना टेलीविजन लंदन के एक घर में ढूंढ निकाला गया है। मारकोनीफोन नामक यह टेलीविजन 1936 में बना था और अभी भी बढिया काम करता है। एक कमी बस यही है कि इसमें चैनल चेंजर नहीं है। पूरी खबर और वीडियो बीबीसी पर मौजूद है।
याद कीजिए जब आपके घर पहली बार टीवी आया होगा, या आपके दादा अथवा पिता जी पहली बार घर में रेडियो लेकर आए होंगे। जरूर आप के स्मृतिपटल पर कुछ रोचक और मधुर क्षण झिलमिलाने लगे होंगे। मुझे याद है जब मैं छठी कक्षा में पढ़ता था, पटना में अपने मामा के घर से टीवी देखकर गांव लौटा था। गांव की पाठशाला में अपने सहपाठियों के बीच कई दिनों तक उस चमत्कारपूर्ण चीज का बखान करते रहा।
मेरे गांव के लोग बताते हैं कि जब यहां पहली बार जमींदार के घर किसी जलसे में लाउडस्पीकर बजा था तो कौतूहल के मारे आवाज की दिशा में लोग दौड़ पड़े थे। पड़ोस के एक गांव के लोग बताते हैं कि तीन पीढ़ी पहले गांव में रेडियो आया था और रेडियो के स्वामी को अक्सर लगता था कि उनकी मशीन के अंदर कोई छोटा-सा बोलनेवाला प्राणी कैद है। आखिर उनकी मंडली में तय हुआ कि इसकी पड़ताल कर ही ली जाए। बोलनेवाले प्राणी की तलाश में रेडियो के पुर्जे इस कदर अलग-अलग किए गए कि उसका राम नाम सत्य ही हो गया।
याद कीजिए जब आपके घर पहली बार टीवी आया होगा, या आपके दादा अथवा पिता जी पहली बार घर में रेडियो लेकर आए होंगे। जरूर आप के स्मृतिपटल पर कुछ रोचक और मधुर क्षण झिलमिलाने लगे होंगे। मुझे याद है जब मैं छठी कक्षा में पढ़ता था, पटना में अपने मामा के घर से टीवी देखकर गांव लौटा था। गांव की पाठशाला में अपने सहपाठियों के बीच कई दिनों तक उस चमत्कारपूर्ण चीज का बखान करते रहा।
मेरे गांव के लोग बताते हैं कि जब यहां पहली बार जमींदार के घर किसी जलसे में लाउडस्पीकर बजा था तो कौतूहल के मारे आवाज की दिशा में लोग दौड़ पड़े थे। पड़ोस के एक गांव के लोग बताते हैं कि तीन पीढ़ी पहले गांव में रेडियो आया था और रेडियो के स्वामी को अक्सर लगता था कि उनकी मशीन के अंदर कोई छोटा-सा बोलनेवाला प्राणी कैद है। आखिर उनकी मंडली में तय हुआ कि इसकी पड़ताल कर ही ली जाए। बोलनेवाले प्राणी की तलाश में रेडियो के पुर्जे इस कदर अलग-अलग किए गए कि उसका राम नाम सत्य ही हो गया।
Monday, July 20, 2009
फिर वह दिन याद करें.. चांद के पार चलें..
चांद पर मानव के पहुंचने की ऐतिहासिक घटना की चालीसवीं वर्षगांठ को दुनिया भर में अपने-अपने अंदाज में मनाया जा रहा है. इस मौके पर गूगल ने सोमवार को Moon in Google Earth जारी किया, जहां चंद्रमा से संबंधित चित्रों और जानकारियों का अवलोकन किया जा सकता है. इस संबंध में गूगल के अधिकृत ब्लॉग पर पहली महिला प्राइवेट अंतरिक्ष यात्री अनौशेह अंसारी की पोस्ट पढ़ने लायक है. उम्मीद है उस अविस्मरणीय उपलब्धि पर सरिता झा व राम यादव की यह रिपोर्ट भी आपको ज्ञानवर्धक और पठनीय लगेगी जिसे डॉयच वेले से साभार उद्धृत किया जा रहा है :
मानवता की लंबी छलांग
अवतरण यान ईगल से निकलकर चांद की सतह पर अपने पैर रखते हुए आर्मस्ट्रांग ने कहा था, "चांद पर मनुष्य का यह एक छोटा-सा क़दम है, लेकिन मानवता के लिए एक बहुत बड़ी छलांग है." नील आर्मस्ट्रांग उस समय 39 वर्ष के थे. मानवता के इतिहास में पहली बार कोई आदमी चांद पर चल-फिर रहा था. यह विचरण दो घंटे से कुछ अधिक समय तक चला था. चंद्रमा की बहुत कम गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण आर्मस्ट्रांग वास्तव में कंगारू की तरह उछल-उछल कर चल रहे थे. वह एक अपूर्व रोमांचक क्षण था, मानो सभी पृथ्वीवासी उनके साथ चंद्रमा की धूलभरी सतह पर कूद रहे थे.
वह तत्कालीन सोवियत संघ और अमेरिका के बीच शीतयुद्ध का भी ज़माना था. दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे थे. 1957 में सोवियत संघ ने, जो अब रूस कहलाता है, अपना पहला यान स्पुतनिक-1 अंतरिक्ष में भेज कर और 1961 में संसार के पहले अंतरिक्ष यात्री यूरी गागारिन को पृथ्वी की कक्षा में पहुंचाकर अमेरिका को नीचा दिखा दिया था.
अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ़ केनेडी ने चांद पर मानव को सबसे पहले भेजने और सुरक्षित वापस लाने का बीड़ा उठाया, "इसलिए नहीं कि यह काम आसान है, बल्कि इसलिए वह बहुत मुश्किल है."
भाग्य का भी साथ रहा
इतना मुश्किल कि यदि भाग्य और भगवान ने साथ नहीं दिया होता, तो आर्मस्ट्रांग और एल्ड्रिन चंद्रमा पर से जीवित नहीं लौट पाए होते. अवतरण यान ईगल जब चंद्रमा की परिक्रमा कर रहे कोलंबिया से अलग होकर नीचे की ओर जा रहा था, तभी लगभग अंतिम क्षम में एल्ड्रिन ने देखा कि वे एक क्रेटर वाले ऐसे गड्ढे में उतरने जा रहे हैं, जहां से लौट नहीं पाएंगे. उन्होंने अवतरण यान का इंजन चालू कर उसे क्रेटर से दूर ले जाने का प्रयास किया. इस में इतना ईंधन जल गया कि सुरक्षित स्थान पर उतरने तक यदि 17 सेंकंड और देर हो जाती, तो यान चंद्रमा से टकरा कर ध्वस्त हो जाता.
इसी तरह चंद्रमा से प्रस्थान के समय अवतरण यान ईगल का इंजन चालू करने के बटन ने जवाब दे दिया. दोनों चंद्रयात्रियों के सामने एक बार फिर मौत का ख़तरा आ खड़ा हुआ. अंतिम क्षण में एल्ड्रिन को ही यह विचार आया कि उन्हें अपने फ़ेल्ट पेन से इंजन चालू करने वाले बटन का काम लेना चाहिये. उन्होंने यही किया और इंजन चालू हो गया.
ऐसी ही कुछ और बातें याद करने पर कहना पड़ता है कि 40 वर्ष पूर्व के दोनों प्रथम चंद्रयात्रियों की पृथ्वी पर सकुशल वापसी किसी चमत्कार से कम नहीं थी.
अब तक 12 चंद्रयात्री
1969 से 1972 के बीच कुल 12 अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री चंद्रमा पर उतरे और सकुशल वापस लौटे. अपोलो-13 की उड़ान केवल इस दृष्टि से सफल रही कि दुर्भाग्य और दुर्घटना की कोपदृष्टि के बावजूद उसके तीनों यात्री जैसे-तैसे पृथ्वी पर जीवित लौटने में कामयाब रहे. 7 दिसंबर 1972 को अपोलो 17 मिशन के दो अंतरिक्ष यात्रियों का चंद्रमा पर अवतरण और विचरण अब तक की अंतिम समानव चंद्रयात्रा थी.
अपोलो 17 ही एकमात्र ऐसी चंद्रयात्रा थी, जिस में कोई भूवैज्ञानि (जियोलॉजिस्ट) चन्द्रमा पर उतरा था और वहां से सौ किलो से अधिक कंकड़ पत्थर और मिट्टी साथ ले आया था.
वैसे चंद्रमा पर जाकर लौटे सभी 12 अमेरिकी चंद्रयात्री अपने साथ जो कंकड़ पत्थर और मिट्टी लाए थे, उसका कुल वज़न करीब 400 किलो पड़ता है. 80 प्रतिशत नमूने तीन अरब 80 करोड़ वर्ष से भी पुराने हैं. उन्हें परीक्षण या संरक्षण के लिए बाद में अनेक देशों के बीच बांट दिया गया.
पृथ्वी जैसी ही बनावट
चंद्रमा की मिट्टी और चट्टानों में भी वे सारे खनिज पदार्थ मिलते हैं, जो हमारी धरती पर भी पाए जाते हैं. अंतर इतना ही है कि उन पर पानी, हवा या वनस्पतियों का कोई प्रभाव नहीं देखने में आता, क्योंकि ये चीज़ें वहां हैं ही नहीं. वहां की मिट्टी काले-स्लेटी रंग की है. उसमें कांच जैसे महीन कण मिले हुए जो शायद ऊंचे तापमान में सिलिका कणों के पिघल जाने से बने हैं.
चंद्रमा ही हमारी पृथ्वी का एकमात्र उपग्रह है. उसके पास अपना कोई वायुमंडल नहीं है. वह पूरी तरह सूखा हुआ निर्जीव मरुस्थल है. उसकी ऊपरी सतह चेचक के दाग़ की तरह छोटे बड़े क्रेटरों और गड्ढों से भरी हुई है. कोई ज्वालामुखी उद्गार अब नहीं होते. कोई चुंबकीय क्षेत्र भी नहीं है. चुंबकीय दिशासूचक वहां काम नहीं कर सकता. पृथ्वी जैसी कोई सुबह-शाम नहीं होती. गुरुत्वाकर्षण शक्ति पृथ्वी की अपेक्षा छः गुना कम है. जो चीज़ पृथ्वी पर 60 किलो भारी होगी, वह चंद्रमा पर केवल दस किलो भारी रह जाएगी. इसीलिए वहां से मंगल ग्रह या अन्य जगहों के लिए उड़ान करना आसान होगा. लेकिन, तापमान में ज़मीन आसमान का अंतर है. जहां सूरज की धूप हो, यानी दिन हो, वहां तापमान 107 डिग्री सेल्ज़ियस तक चढ़ जाता है, जो भाग अंधेरे में हो, वहां ऋण 153डिग्री तक गिर जाता है. हमरी पृथ्वी पर कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां इतनी भयंकर गर्मी या सर्दी पड़ती हो.
अब मंगल की बारी है
40 वर्ष बाद चंद्रमा पर उतरने की एक बार फिर अच्छी ख़ासी होड़ लगने वाली है. उसे मंगल ग्रह पर पहुंचने के लिए बीच में एक अच्छे पड़ाव के तौर पर देखा जा रहा है, जैसा कि जर्मन अंतरिक्ष अधिकरण डी एल आर में भावी चंद्र उड़ान परियोजना के प्रमुख फ्रीडहेल्म कलाज़न का कहना है, "चंद्रमा के बाद मंगल ग्रह को छोड़कर और किसी ग्रह पर मनुष्य का पहुंचना विवेकसम्मत नहीं लगता. इसलिए सभी चंद्रमा पर जाने और वहां से आगे की उड़ानों का अभ्यास करने और सीखने की सोच रहे हैं."
''1903 में राइट बंधुओं का पहला हवाई जहाज़ उड़ा. 1957 में पहला कृत्रिम उपग्रह स्पुतनिक-1 अंतरिक्ष में पहुंचा. 1961 में यूरी गागारिन पहले अंतरिक्षयात्री बने. 8 वर्ष बाद आदमी चंद्रमा पर भी पहुंचा. चांद पर जाने के 40 साल पूरे.''वह 20 जुलाई 1969 का दिन था. भारत में सुबह के छह बजे थे. तभी, कोई चार लाख किलोमीटर दूर चंद्रमा पर से एक ऐसी आवाज़ आई, जिसके साथ मानव सभ्यता का एक सबसे पुराना सपना साकार हो गया: "दि ईगल हैज़ लैंडेड" (ईगल चंद्रमा पर उतर गया है). अपने अवतरण यान ईगल के साथ अमेरिका के नील आर्मस्ट्रांग और एडविन एल्ड्रिन चंद्रमा पर उतर गए थे. उनके तीसरे साथी माइकल कॉलिंस परिक्रमा यान कोलंबिया में चंद्रमा की परिक्रमा कर रहे थे. कोई ढाई घंटे बाद नील आर्मस्ट्रांग ने चांद पर अपना पहला क़दम रखा. 40 साल पहले के इस ऐतिहासिक पल को पचास करोड़ लोगों ने दिल थाम कर टेलीविजन पर देखा.
मानवता की लंबी छलांग
अवतरण यान ईगल से निकलकर चांद की सतह पर अपने पैर रखते हुए आर्मस्ट्रांग ने कहा था, "चांद पर मनुष्य का यह एक छोटा-सा क़दम है, लेकिन मानवता के लिए एक बहुत बड़ी छलांग है." नील आर्मस्ट्रांग उस समय 39 वर्ष के थे. मानवता के इतिहास में पहली बार कोई आदमी चांद पर चल-फिर रहा था. यह विचरण दो घंटे से कुछ अधिक समय तक चला था. चंद्रमा की बहुत कम गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण आर्मस्ट्रांग वास्तव में कंगारू की तरह उछल-उछल कर चल रहे थे. वह एक अपूर्व रोमांचक क्षण था, मानो सभी पृथ्वीवासी उनके साथ चंद्रमा की धूलभरी सतह पर कूद रहे थे.
वह तत्कालीन सोवियत संघ और अमेरिका के बीच शीतयुद्ध का भी ज़माना था. दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे थे. 1957 में सोवियत संघ ने, जो अब रूस कहलाता है, अपना पहला यान स्पुतनिक-1 अंतरिक्ष में भेज कर और 1961 में संसार के पहले अंतरिक्ष यात्री यूरी गागारिन को पृथ्वी की कक्षा में पहुंचाकर अमेरिका को नीचा दिखा दिया था.
अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ़ केनेडी ने चांद पर मानव को सबसे पहले भेजने और सुरक्षित वापस लाने का बीड़ा उठाया, "इसलिए नहीं कि यह काम आसान है, बल्कि इसलिए वह बहुत मुश्किल है."
भाग्य का भी साथ रहा
इतना मुश्किल कि यदि भाग्य और भगवान ने साथ नहीं दिया होता, तो आर्मस्ट्रांग और एल्ड्रिन चंद्रमा पर से जीवित नहीं लौट पाए होते. अवतरण यान ईगल जब चंद्रमा की परिक्रमा कर रहे कोलंबिया से अलग होकर नीचे की ओर जा रहा था, तभी लगभग अंतिम क्षम में एल्ड्रिन ने देखा कि वे एक क्रेटर वाले ऐसे गड्ढे में उतरने जा रहे हैं, जहां से लौट नहीं पाएंगे. उन्होंने अवतरण यान का इंजन चालू कर उसे क्रेटर से दूर ले जाने का प्रयास किया. इस में इतना ईंधन जल गया कि सुरक्षित स्थान पर उतरने तक यदि 17 सेंकंड और देर हो जाती, तो यान चंद्रमा से टकरा कर ध्वस्त हो जाता.
इसी तरह चंद्रमा से प्रस्थान के समय अवतरण यान ईगल का इंजन चालू करने के बटन ने जवाब दे दिया. दोनों चंद्रयात्रियों के सामने एक बार फिर मौत का ख़तरा आ खड़ा हुआ. अंतिम क्षण में एल्ड्रिन को ही यह विचार आया कि उन्हें अपने फ़ेल्ट पेन से इंजन चालू करने वाले बटन का काम लेना चाहिये. उन्होंने यही किया और इंजन चालू हो गया.
ऐसी ही कुछ और बातें याद करने पर कहना पड़ता है कि 40 वर्ष पूर्व के दोनों प्रथम चंद्रयात्रियों की पृथ्वी पर सकुशल वापसी किसी चमत्कार से कम नहीं थी.
अब तक 12 चंद्रयात्री
1969 से 1972 के बीच कुल 12 अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री चंद्रमा पर उतरे और सकुशल वापस लौटे. अपोलो-13 की उड़ान केवल इस दृष्टि से सफल रही कि दुर्भाग्य और दुर्घटना की कोपदृष्टि के बावजूद उसके तीनों यात्री जैसे-तैसे पृथ्वी पर जीवित लौटने में कामयाब रहे. 7 दिसंबर 1972 को अपोलो 17 मिशन के दो अंतरिक्ष यात्रियों का चंद्रमा पर अवतरण और विचरण अब तक की अंतिम समानव चंद्रयात्रा थी.
अपोलो 17 ही एकमात्र ऐसी चंद्रयात्रा थी, जिस में कोई भूवैज्ञानि (जियोलॉजिस्ट) चन्द्रमा पर उतरा था और वहां से सौ किलो से अधिक कंकड़ पत्थर और मिट्टी साथ ले आया था.
वैसे चंद्रमा पर जाकर लौटे सभी 12 अमेरिकी चंद्रयात्री अपने साथ जो कंकड़ पत्थर और मिट्टी लाए थे, उसका कुल वज़न करीब 400 किलो पड़ता है. 80 प्रतिशत नमूने तीन अरब 80 करोड़ वर्ष से भी पुराने हैं. उन्हें परीक्षण या संरक्षण के लिए बाद में अनेक देशों के बीच बांट दिया गया.
पृथ्वी जैसी ही बनावट
चंद्रमा की मिट्टी और चट्टानों में भी वे सारे खनिज पदार्थ मिलते हैं, जो हमारी धरती पर भी पाए जाते हैं. अंतर इतना ही है कि उन पर पानी, हवा या वनस्पतियों का कोई प्रभाव नहीं देखने में आता, क्योंकि ये चीज़ें वहां हैं ही नहीं. वहां की मिट्टी काले-स्लेटी रंग की है. उसमें कांच जैसे महीन कण मिले हुए जो शायद ऊंचे तापमान में सिलिका कणों के पिघल जाने से बने हैं.
चंद्रमा ही हमारी पृथ्वी का एकमात्र उपग्रह है. उसके पास अपना कोई वायुमंडल नहीं है. वह पूरी तरह सूखा हुआ निर्जीव मरुस्थल है. उसकी ऊपरी सतह चेचक के दाग़ की तरह छोटे बड़े क्रेटरों और गड्ढों से भरी हुई है. कोई ज्वालामुखी उद्गार अब नहीं होते. कोई चुंबकीय क्षेत्र भी नहीं है. चुंबकीय दिशासूचक वहां काम नहीं कर सकता. पृथ्वी जैसी कोई सुबह-शाम नहीं होती. गुरुत्वाकर्षण शक्ति पृथ्वी की अपेक्षा छः गुना कम है. जो चीज़ पृथ्वी पर 60 किलो भारी होगी, वह चंद्रमा पर केवल दस किलो भारी रह जाएगी. इसीलिए वहां से मंगल ग्रह या अन्य जगहों के लिए उड़ान करना आसान होगा. लेकिन, तापमान में ज़मीन आसमान का अंतर है. जहां सूरज की धूप हो, यानी दिन हो, वहां तापमान 107 डिग्री सेल्ज़ियस तक चढ़ जाता है, जो भाग अंधेरे में हो, वहां ऋण 153डिग्री तक गिर जाता है. हमरी पृथ्वी पर कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां इतनी भयंकर गर्मी या सर्दी पड़ती हो.
अब मंगल की बारी है
40 वर्ष बाद चंद्रमा पर उतरने की एक बार फिर अच्छी ख़ासी होड़ लगने वाली है. उसे मंगल ग्रह पर पहुंचने के लिए बीच में एक अच्छे पड़ाव के तौर पर देखा जा रहा है, जैसा कि जर्मन अंतरिक्ष अधिकरण डी एल आर में भावी चंद्र उड़ान परियोजना के प्रमुख फ्रीडहेल्म कलाज़न का कहना है, "चंद्रमा के बाद मंगल ग्रह को छोड़कर और किसी ग्रह पर मनुष्य का पहुंचना विवेकसम्मत नहीं लगता. इसलिए सभी चंद्रमा पर जाने और वहां से आगे की उड़ानों का अभ्यास करने और सीखने की सोच रहे हैं."
Friday, July 17, 2009
वो जो चाहेंगे, आप खाएंगे... वो जो चाहेंगे, किसान उगाएंगे... आप खेत और पेट की गुलामी को तैयार तो हैं !
भारत सरकार के कृषि मंत्रालय ने संसद में एक सवाल के जवाब में बताया कि अगले तीन सालों के अंदर देश में जीन संवर्धित टमाटर, बैगन और फूलगोभी की खेती आरंभ कर देने की योजना है। पूरी खबर यहां है और यह रही इस संबंध में सरकार की प्रेस विज्ञप्ति। भारत सरकार की नीति-रीति से तो सभी परिचित हैं, लेकिन इस महत्वपूर्ण खुलासे की जैसी प्रतिक्रिया मीडिया में होनी चाहिए थी, महसूस नहीं की गयी। शायद हमारे अंदर भ्रष्टाचार की तरह प्रकृति-विनाश के प्रति भी तटस्थ रहने का सामर्थ्य विकसित हो चुका है।
अजीब बात है कि जहां यूरोप और अमेरिका में प्रकृति की ओर लौटने की चाहत देखने को मिल रही है, भारत में इसके विनाश की कवायद चल रही है। कुछ समय पहले जर्मनी में जीन संवर्धित मक्के की खेती पर रोक लगा दी गयी। चंद रोज पहले आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स प्रांत की सरकार द्वारा बोतलबंद पानी की सरकारी खरीद पर रोक लगायी गयी। हाल ही में अमेरिका के फ्लोरिडा प्रांत में शहद के प्राकृतिक स्वरूप को बरकरार रखने के लिए कानून बनाए गए हैं, जिसके तहत उसमें किसी भी तरह की मिलावट पर दंड का प्रावधान किया गया है। लेकिन पुण्यसलिला गंगा के देश में तो उलटी गंगा ही बहती है।
सवाल यह उठता है कि आखिर किसके फायदे के लिए भारत की सरकार जीन संवर्धित खाद्य फसलों की खेती देश में आरंभ करने की जल्दबाजी में है। कृषि और किसानों का तो इसमें कोई भला नहीं। इनमें बैसिलस थ्युरिंगियेंसिस (Bacillus thuringiensis) जैसी बैक्टीरिया के जीन डाले गए तो खानेवालों के लिए ये जहर का काम ही करेंगी। जहां तक भारतीय किसानों की बात है तो वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बीज खरीदने में बरबाद ही हो जाएंगे। अभी घर में बचाकर रखे बीज से उनका काम चल जाता है, लेकिन जीएम बीज हर साल खरीदना पड़ेगा, वह भी मौजूदा कीमतों से करीब बीस-तीस गुना अधिक कीमत पर। यह भी कुप्रचार ही है कि जीएम बीज से उपज में भारी वृद्धि होती है। यदि उपज में थोड़ी बहुत बढ़ोतरी होती भी हो तो उससे होनेवाली कमाई से अधिक पैसा महंगा बीज खरीदने में लग जाता है। मानसून पर निर्भर खेती करनेवाले भारतीय किसान पूरी पूंजी महंगा बीज खरीदने में ही लगा देंगे तो मौसम के दगा देने पर गले में फंदा डालने के सिवाय उनके पास कोई विकल्प नहीं बचेगा। कृषि को जो नुकसान पहुंचेगा उसकी कल्पना ही भयावह है। सृष्टि की वह रचना जो खेतों में हरियाली लाती है और मानव शरीर व मस्तिष्क का पोषण करती है, चंद बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मुट्ठी में कैद हो जाएगी। जो सरकार इस अपूरणीय क्षति की भरपाई नहीं कर सकती, इसकी राह आसान करने का नैतिक अधिकार उसे कहां से मिल गया ?
सच तो यह है कि जीन संवर्धित फसलों के मूल स्रोत अमेरिका में भी अभी तक सोयाबीन और मक्का ही ऐसी खाद्य फसलें हैं, जिनकी जीन संवर्धित किस्मों को मंजूरी दी गयी है। वहां भी इन दोनों फसलों का अधिकांश उपयोग जानवरों के चारे के रूप में होता है। यूरोपीय संघ में अभी तक सिर्फ मोंसैंटो के जीएम मक्का प्रभेद मोन 810 की खेती की अनुमति है। उसमें भी जर्मनी, फ़्रांस, ऑस्ट्रिया, हंगरी, ग्रीस और लक्ज़ेमबर्ग जैसे उसके सदस्य देखों ने उसकी खेती पर रोक लगा रखी है। जाहिर है कि यदि जीन संवर्धित खाद्य फसलों की खेती भारत में आरंभ करने की सरकार की योजना अमल में आती है तो इन अप्राकृतिक फसलों के लिए प्रयोगशाला के चूहे करोड़ों भारतवासी ही बनेंगे।
ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि जीन संवर्धित फसलें हमारी आर्थिक गुलामी का मार्ग प्रशस्त करेंगी। जीएम बीजों के उत्पादन और विक्रय का समूचा कारोबार मोंसैंटो, सिनजेंटा, बायर, बीएएसएफ आदि जैसी कुछ बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नियंत्रण में है। वे बाजार पर अपने एकाधिकार को सुनिश्चित करने के लिए फसलों की जीन-सरंचना के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ से नहीं चूकेंगी। देश में एक बार जीएम खाद्य फसलों की खेती शुरू हुई तो बीज के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर पूरी तरह से निर्भर होने में हमें देर नहीं लगेगी। तब क्या करेंगे मनमोहन, सोनिया, पवार, प्रवण व चिदंबरम जब बहुराष्ट्रीय कंपनियां अचानक अपने बीजों की आपूर्ति रोक दें ? जीन संवर्धित फसलों की देश में बहुतायत होने पर हमारा कृषि निर्यात भी बुरी तरह से प्रभावित होगा।
आदमी की पहली जरूरत उसकी भूख से जुड़ी होती है। जीन संवर्धित खाद्य फसलों की खेती से हमारे खेत ही नहीं, पेट भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मर्जी का गुलाम हो जाएगा। ईस्ट इंडिया कंपनी भी एक दिन इस देश में व्यापार करने ही आयी थी और लालची व गद्दार लोगों की मदद से पूरी कौम को गुलाम बना डाला। जीन संवर्धित खाद्य फसलों की खेती के जरिए भी इसी तरह की गुलामी की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है। हम भारतवासियों के पास अब दो ही विकल्प हैं – औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के इस नए रूप को पहचानें या अपने खेत व पेट की जरूरतों को मुट्ठी भर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इच्छा का गुलाम बनाने को तैयार रहें।
(फोटो यहां से साभार लिया गया है।)
अजीब बात है कि जहां यूरोप और अमेरिका में प्रकृति की ओर लौटने की चाहत देखने को मिल रही है, भारत में इसके विनाश की कवायद चल रही है। कुछ समय पहले जर्मनी में जीन संवर्धित मक्के की खेती पर रोक लगा दी गयी। चंद रोज पहले आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स प्रांत की सरकार द्वारा बोतलबंद पानी की सरकारी खरीद पर रोक लगायी गयी। हाल ही में अमेरिका के फ्लोरिडा प्रांत में शहद के प्राकृतिक स्वरूप को बरकरार रखने के लिए कानून बनाए गए हैं, जिसके तहत उसमें किसी भी तरह की मिलावट पर दंड का प्रावधान किया गया है। लेकिन पुण्यसलिला गंगा के देश में तो उलटी गंगा ही बहती है।
सवाल यह उठता है कि आखिर किसके फायदे के लिए भारत की सरकार जीन संवर्धित खाद्य फसलों की खेती देश में आरंभ करने की जल्दबाजी में है। कृषि और किसानों का तो इसमें कोई भला नहीं। इनमें बैसिलस थ्युरिंगियेंसिस (Bacillus thuringiensis) जैसी बैक्टीरिया के जीन डाले गए तो खानेवालों के लिए ये जहर का काम ही करेंगी। जहां तक भारतीय किसानों की बात है तो वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बीज खरीदने में बरबाद ही हो जाएंगे। अभी घर में बचाकर रखे बीज से उनका काम चल जाता है, लेकिन जीएम बीज हर साल खरीदना पड़ेगा, वह भी मौजूदा कीमतों से करीब बीस-तीस गुना अधिक कीमत पर। यह भी कुप्रचार ही है कि जीएम बीज से उपज में भारी वृद्धि होती है। यदि उपज में थोड़ी बहुत बढ़ोतरी होती भी हो तो उससे होनेवाली कमाई से अधिक पैसा महंगा बीज खरीदने में लग जाता है। मानसून पर निर्भर खेती करनेवाले भारतीय किसान पूरी पूंजी महंगा बीज खरीदने में ही लगा देंगे तो मौसम के दगा देने पर गले में फंदा डालने के सिवाय उनके पास कोई विकल्प नहीं बचेगा। कृषि को जो नुकसान पहुंचेगा उसकी कल्पना ही भयावह है। सृष्टि की वह रचना जो खेतों में हरियाली लाती है और मानव शरीर व मस्तिष्क का पोषण करती है, चंद बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मुट्ठी में कैद हो जाएगी। जो सरकार इस अपूरणीय क्षति की भरपाई नहीं कर सकती, इसकी राह आसान करने का नैतिक अधिकार उसे कहां से मिल गया ?
सच तो यह है कि जीन संवर्धित फसलों के मूल स्रोत अमेरिका में भी अभी तक सोयाबीन और मक्का ही ऐसी खाद्य फसलें हैं, जिनकी जीन संवर्धित किस्मों को मंजूरी दी गयी है। वहां भी इन दोनों फसलों का अधिकांश उपयोग जानवरों के चारे के रूप में होता है। यूरोपीय संघ में अभी तक सिर्फ मोंसैंटो के जीएम मक्का प्रभेद मोन 810 की खेती की अनुमति है। उसमें भी जर्मनी, फ़्रांस, ऑस्ट्रिया, हंगरी, ग्रीस और लक्ज़ेमबर्ग जैसे उसके सदस्य देखों ने उसकी खेती पर रोक लगा रखी है। जाहिर है कि यदि जीन संवर्धित खाद्य फसलों की खेती भारत में आरंभ करने की सरकार की योजना अमल में आती है तो इन अप्राकृतिक फसलों के लिए प्रयोगशाला के चूहे करोड़ों भारतवासी ही बनेंगे।
ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि जीन संवर्धित फसलें हमारी आर्थिक गुलामी का मार्ग प्रशस्त करेंगी। जीएम बीजों के उत्पादन और विक्रय का समूचा कारोबार मोंसैंटो, सिनजेंटा, बायर, बीएएसएफ आदि जैसी कुछ बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नियंत्रण में है। वे बाजार पर अपने एकाधिकार को सुनिश्चित करने के लिए फसलों की जीन-सरंचना के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ से नहीं चूकेंगी। देश में एक बार जीएम खाद्य फसलों की खेती शुरू हुई तो बीज के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर पूरी तरह से निर्भर होने में हमें देर नहीं लगेगी। तब क्या करेंगे मनमोहन, सोनिया, पवार, प्रवण व चिदंबरम जब बहुराष्ट्रीय कंपनियां अचानक अपने बीजों की आपूर्ति रोक दें ? जीन संवर्धित फसलों की देश में बहुतायत होने पर हमारा कृषि निर्यात भी बुरी तरह से प्रभावित होगा।
आदमी की पहली जरूरत उसकी भूख से जुड़ी होती है। जीन संवर्धित खाद्य फसलों की खेती से हमारे खेत ही नहीं, पेट भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मर्जी का गुलाम हो जाएगा। ईस्ट इंडिया कंपनी भी एक दिन इस देश में व्यापार करने ही आयी थी और लालची व गद्दार लोगों की मदद से पूरी कौम को गुलाम बना डाला। जीन संवर्धित खाद्य फसलों की खेती के जरिए भी इसी तरह की गुलामी की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है। हम भारतवासियों के पास अब दो ही विकल्प हैं – औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के इस नए रूप को पहचानें या अपने खेत व पेट की जरूरतों को मुट्ठी भर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की इच्छा का गुलाम बनाने को तैयार रहें।
(फोटो यहां से साभार लिया गया है।)
Tuesday, July 14, 2009
खेती-बाड़ी का खास पन्ना : कृषि समाचार
आज से करीब साल भर पहले जब खेती-बाड़ी ब्लॉग शुरू किया गया, भारत में अंतरजाल पर किसान पाठक नहीं के बराबर थे। अभी भी गिने-चुने ही हैं। लेकिन अब किसान भी इंटरनेट से जुड़ रहे हैं और विश्वास है कि भविष्य में उनकी संख्या जरूर बढ़ेगी। इसी बात को ध्यान में रखकर ब्लॉग में कृषि संबंधी सूचनाओं व जानकारियों से संबंधित कुछ खास पन्ने शामिल करना जरूरी प्रतीत होता है, जिनमें समय-समय पर संशोधन व परिवर्धन होता रहे। तो प्रस्तुत है खास पन्ना : वर्ष 2009 - कृषि समाचार। इस पन्ने पर जुलाई, 2009 से भारतीय कृषि से संबंधित मुख्य खबरें संक्षेप में दी जा रही हैं।
आर्थिक समीक्षा : कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर में 1.6 फीसदी की गिरावट
नई दिल्ली (3 जुलाई, 2009)। आर्थिक समीक्षा 2008-09 के मुताबिक बीते वित्त वर्ष में कृषि एवं संबंधित गतिविधियों के विकास में 1.6 प्रतिशत तक की गिरावट आयी है।
सरकार ने गेहूं निर्यात पर प्रतिबंध में ढील दी
नई दिल्ली (4 जुलाई, 2009)। केन्द्र सरकार ने प्रतिबंध में ढील देते हुए 9 लाख टन गेहूं के निर्यात की मंजूरी दी है। इसी तरह 6.5 लाख टन गेहूं उत्पाद को विदेश में बेचने की भी इजाजत दी गयी है। इन उत्पादों में आटा, सूजी व मैदा शामिल हैं। मालूम हो कि सरकार ने वर्ष 2007 में गेहूं के निर्यात पर पाबंदी लगा दी थी।
आम बजट में किसानों के लिए कर्ज संबंधी रियायतें
नई दिल्ली (6 जुलाई, 2009)। वर्ष 2009-10 के आम बजट में कर्ज में रियायतें देकर किसानों का मर्ज दूर करने की कोशिश की गयी है। तीन लाख रुपए तक के फसली कर्ज पर ब्याज की दर पूर्व की भांति 7 प्रतिशत वार्षिक ही रहेगी। हालांकि इसमें एक नया नुक्ता जोड़ा गया है कि जो किसान बैंक से लिए कर्ज का भुगतान समय पर कर देंगे, उनकी ब्याज दर में एक प्रतिशत की सीधी कटौती कर दी जाएगी। यानी, उन्हें 6 प्रतिशत की ब्याज दर पर ही लोन मिलेगा।
आम चुनाव के पूर्व पेश बजट में यूपीए सरकार ने चार करोड़ किसानों का लगभग 72 हजार करोड़ रुपए का बकाया कृषि कर्ज माफ कर दिया था। इस कर्ज राहत पैकेज में दो हेक्टेयर से अधिक भूमि वाले किसानों को 25 फीसदी की माफी दी गयी है, लेकिन इसके लिए 75 फीसदी कर्ज की अदायगी जरूरी है, जिसके लिए 30 जून 2009 तक की मोहलत थी। वित्तमंत्री प्रवण मुखर्जी ने चालू वित्त वर्ष के बजट में इस अवधि को छह महीने के लिए और बढ़ा दिया है और इस छूट की वजह मानसून में हुई देरी को माना है।
देश में खाद्यान्न का पर्याप्त भंडार
नई दिल्ली (8 जुलाई, 2009)। कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा है कि देश के पास करीब 2.5 करोड़ टन गेहूं और 3.06 करोड़ टन चावल का भंडार है, जो 13 माह तक चल सकता है। उन्होंने कहा कि हमारे पास और खाद्यान्न का भंडारण करने के लिए जगह ही नहीं है।
फिर लगी गेहूं निर्यात पर रोक
नई दिल्ली (13 जुलाई, 2009)। भारत सरकार ने महज दस दिनों के भीतर गेहूं के निर्यात की अनुमति देने वाला आदेश वापस ले लिया है। इसके साथ ही गेहूं के निर्यात पर पाबंदी फिर से लागू हो गई है।
मानसून की बेरूखी देख कृषि मंत्रालय में युद्ध कक्ष की स्थापना
नई दिल्ली (14 जुलाई, 2009)। भारत में मानसून आने में देरी को देखते हुए खाद्य सुरक्षा पर चौबीस घंटे निगाह रखने के लिए भारत सरकार ने कृषि मंत्रालय में एक युद्ध-कक्ष की स्थापना की है। स्थिति की गंभीरता को भांप कर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने केंद्रीय वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में आठ मंत्रियों के एक समूह का गठन भी भी किया है। इस मंत्रिसमूह को खाद्य सुरक्षा, खाद्यान्न की खरीद और उनके दाम तय करने का अधिकार होगा। यह समूह गेहूं और चावल के केंद्रीय भण्डार के प्रबंधन और खाद्यान्नों के आयात, निर्यात और न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में निर्णय लेने के लिए भी स्वतंत्र होगा।
तीन साल के अंदर आ जाएंगी जीन संवर्धित सब्जियां
नई दिल्ली (15 जुलाई, 2009)। भारतीय कृषि मंत्रालय ने लोकसभा के एक प्रश्नोत्तर में घोषणा की है कि अगले तीन सालों के अंदर जीएम सब्जियों टमाटर, बैगन और फूलगोभी को बाजार में उतारने की योजना है। ऐसा पहली बार है कि मंत्रालय ने जीएम खाद्य फसलों को मंजूरी देने की बात कही है। अभी तक भारत में सिर्फ जीएम कपास को मंजूरी मिली थी, जो अखाद्य फसल है।
खरीफ का रकबा एक तिहाई घटा
नई दिल्ली (17 जुलाई, 2009)। सूखे के चलते खरीफ सीजन का बुवाई रकबा एक तिहाई घट गया है। सबसे नाजुक हालत उत्तर प्रदेश और बिहार के साथ छत्तीसगढ़ व महाराष्ट्र का है, जहां बारिश के अभाव में फसलों की बुवाई ही नहीं हो पाई है। मोटे अनाजों की बुवाई से लेकर धान की रोपाई तक प्रभावित हुई है। दलहन व तिलहन की हालत और भी तंग है।
चीन निर्मित चॉकलेट पर भी रोक लगी
नई दिल्ली (27 जुलाई, 2009)। चीनी खिलौनों को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मानते हुए उन पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद अब चीन निर्मित चाकलेट कैंडी टाफियों और सभी प्रकार के कनफैक्शनरी उत्पादों के आयात पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया है।
फोर्ब्स ने किया हरदा मंडी का गुणगान
हरदा (8 अगस्त, 2009)। मध्यप्रदेश के हरदा की कृषि उपज मंडी की सफलता अब अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर उभर आई है। इस मंडी का लोहा मानते हुए प्रतिष्ठित पत्रिका 'फोर्ब्स' ने इसे बेहद सफल मंडी करार दिया है। यहां किसानों के साथ व्यापारियों की जरुरत को ध्यान में रखकर तमाम सुविधाएं मौजूद हैं। सरकारी क्षेत्र की यह मंडी निजी कंपनियों का पूरी ताकत से मुकाबला कर रही है।
खुले बाजार में गेहूं-चावल की बिक्री को मंजूरी
नई दिल्ली (19 अगस्त, 2009)। केंद्र सरकार ने खुले बाजार में गेहूं और चावल को बेचने की योजना को मंजूरी दी है, ताकि इन खाद्यान्नों की कीमतें में तेजी न आने पाए।
धान और दालों का एमएसपी बढ़ा
नई दिल्ली (20 अगस्त, 2009)। सामान्य धान के लिए समर्थन मूल्य अब 950 रुपये प्रति क्विंटल होगा, जबकि ए-ग्रेड के धान की कीमत 980 रुपये प्रति क्विंटल होगी। दोनों की ही कीमत में सौ रुपये की बढ़ोतरी की गई है। तूहर दाल के लिए एमएसपी 2000 रुपये से बढ़ाकर 2300 रुपये प्रति क्विंटल किया गया है जबकि मूंग के मामले में इसे 2520 रुपये से बढ़ाकर 2760 रुपये प्रति क्विंटल किया गया है।
गन्ना किसानों के लिए चुनावी चासनी
नई दिल्ली (21 अगस्त, 2009)। केंद्र सरकार ने गन्ना किसानों को लुभाने वाले तोहफे की घोषणा की है। तोहफे के तहत गन्ना किसानों को न्यूनतम चार फीसदी की रियायती ब्याज दर पर खेती के लिए कर्ज मुहैया कराया जाएगा। यह कर्ज बैंकों की मार्फत नहीं, बल्कि उन चीनी मिलों से दिलाया जाएगा, जो कभी किसानों को उनका बकाया देने में भी आनाकानी करती रही हैं।
समर्थन मूल्य को लेकर धान उत्पादक राज्य केंद्र से नाराज
नई दिल्ली (28 अगस्त, 2009)। धान के घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य [एमएसपी] को लेकर धान उत्पादक राज्य केंद्र सरकार से खासा नाराज हैं। भीषण सूखे में जैसे-तैसे धान की फसल को बचाए रखने में लागत बढ़ जाने के बावजूद समर्थन मूल्य में कोई खास वृद्धि नहीं की गई है। कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने कृषि व खाद्य मंत्री शरद पवार से मुलाकात की तो कुछ ने उन्हें पत्र लिखकर अपनी आपत्ति जताई है।
समय पर कर्ज की अदायगी करने वाले किसानों को रियायत
नई दिल्ली (29 अगस्त, 2009)। केंद्र सरकार ने उन किसानों से एक फीसदी कम ब्याज लेने का फैसला किया है, जिन्होंने समय से कर्ज की अदायगी कर दी है। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा कि समय पर कर्ज की अदायगी करने वाले किसानों से सात के बजाय छह प्रतिशत ब्याज लिया जाएगा।
खाद्य तेलों के निर्यात पर रोक की अवधि बढ़ी
नई दिल्ली (6 सितंबर, 2009)। घरेलू बाजार में आपूर्ति बढ़ाने की खातिर सरकार ने खाद्य तेलों के निर्यात पर लगे प्रतिबंध की अवधि को 30 सितंबर 2010 तक बढ़ा दिया है। खाद्य तेलों के बढ़ते दामों पर अंकुश लगाने की खातिर इसके निर्यात पर पहले से ही मार्च, 2010 तक रोक लगी हुई है।
बासमती निर्यातकों को राहत
नई दिल्ली (8 सितंबर, 2009)। विदेशी व्यापार महानिदेशालय ने 900 डालर प्रति टन मूल्य वाले बासमती चावल के निर्यात की अनुमति दे दी है। इस तरह से भारतीय व्यापारी अंतरराष्ट्रीय बाजार में पाकिस्तानी चावल से मुकाबला कर सकेंगे। अब तक एक हजार 100 डालर प्रति टन या उससे अधिक कीमत वाले बासमती चावल को ही निर्यात करने की अनुमति थी।
कोक-पेप्सी को मंगानी होगी विदेश से चीनी
नई दिल्ली (13 सितंबर, 2009)। घरेलू बाजार में चीनी की ऊंची कीमतों से चिंतित सरकार ने शीतल पेय पदार्थ तैयार करने वाली अग्रणी कंपनियों कोका-कोला, पेप्सी और नेस्ले से चीनी विदेश से मंगाने को कहा है।
जल्द मिलेगा गाय का लेक्टोज मुक्त दूध
कोलकाता (19 सितंबर, 2009)। भारतीय कंपनी आईएमबिज ने आस्ट्रेलिया से गाय के लेक्टोजमुक्त दूध का आयात शुरू कर दिया है। यह उत्पाद एक महीने में देश के प्रमुख शहरों के खुदरा बिक्री श्रृंखलाओं में उपलब्ध होगा जिसकी कीमत 117 रुपये प्रति लीटर होगी।
कोर बैंकिंग से जुड़ेंगे देश के डाकघर
जालंधर (21 सितंबर, 2009)। लाखों लोगों को बैंकिंग सुविधा मुहैया कराने वाले डाकघर अब बैंकों की तर्ज पर कोर बैंकिंग प्रणाली [सीबीएस] से लैस होंगे। चालू वित्त वर्ष 2009-10 के अंत यानी मार्च तक यह प्रणाली लागू हो जाएगी। इसका सबसे अधिक फायदा ग्रामीण आबादी को मिलेगा। विस्तार से पढ़ें
बीटी बैगन को जीईएसी की मंजूरी, गेंद अब केन्द्र सरकार के पाले
नई दिल्ली (14 अक्टूबर, 2009)। किसान संगठनों के कड़े विरोध के बीच जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी (जीईएसी) ने बीटी बैगन को हरी झंडी दे दी है। अब यह मसला सरकार के पास आ गया है। सरकार के मंजूरी देने के बाद बीटी बैगन की व्यावसायिक खेती शुरू हो सकेगी। विस्तार से पढ़ें
धान की सूखा प्रतिरोधी किस्म का हुआ विकास
भुवनेश्वर (27 अक्टूबर, 2009)। चावल अनुसंधान संस्थान [आरआरआई] ने धान की ऐसी किस्म विकसित की है जो तीन सप्ताह तक बिना पानी के रहने के बाद भी उपज दे सकती है। इसका नाम 'सहाभागी' रखा गया है।
धान पर 50 रुपये बोनस व गन्ने का एफआरपी तय
नई दिल्ली (29 अक्टूबर, 2009)। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई आर्थिक मामलों की मंत्रीमंडलीय समिति (सीसीईए) की बैठक में धान के घोषित समर्थन मूल्य पर 50 रुपए का अतिरिक्त बोनस देने का फैसला लिया गया। सीसीईए ने गन्ने के वैधानिक न्यूनतम मूल्य (एसएमपी) की जगह अध्यादेश के जरिए आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन कर लागू की गयी गन्ने के फेयर एंड रिम्यूनरेटिव प्राइस (एफआरपी) की भी घोषणा कर दी।
दो रुपये महंगा हुआ मदर डेयरी दूध
नई दिल्ली (30 अक्टूबर, 2009)। मदर डेयरी ने दूध की कीमतों में बढ़ोतरी करते हुए फुल क्रीम दूध की कीमत 26 रुपए की जगह 28 रुपए और टोन्ड दूध की कीमत 21 रुपए से बढ़ाकर 22 रुपए प्रति लीटर कर दी है।
सरकार ने प्याज की एमएईपी बढ़ाई
नई दिल्ली (3 नवंबर, 2009)। घरेलू बाजार में प्याज की सप्लाई मजबूत करने के लिए सरकार ने प्याज का न्यूनतम निर्यात मूल्य (एमईपी) प्रति टन 145 डॉलर बढ़ाकर औसत 445-450 डॉलर प्रति टन कर दिया है। .
गेहूं का समर्थन मूल्य 20 रुपये बढ़ा
नई दिल्ली (6 नवंबर, 2009)। केंद्र सरकार ने गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में सिर्फ 20 रुपए की मामूली वृद्धि कर 1100 रुपए प्रति क्विंटल कर दिया है। जबकि चना को छोड़कर दलहन व तिलहन की प्रमुख फसलों में कोई बढ़ोतरी नहीं की गयी है।
आयुर्वेदिक दवाओं पर भी एक्सपायरी डेट
नई दिल्ली (6 नवंबर, 2009)। अप्रैल, 2010 से अंग्रेजी दवाओं की तरह आयुर्वेद के नियमों से बनी हर दवा पर भी एक्सपायरी डेट छपा रहना अनिवार्य होगा और उस तारीख से पहले वह दवा दुकान से हटा लेना जरूरी होगा। यानी 20 अप्रैल के बाद कोई भी आयुर्वेदिक, यूनानी या सिद्धा दवा उपयोग की अंतिम तिथि का लेबल लगाए बिना नहीं बिक सकेगी।
आर्थिक समीक्षा : कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर में 1.6 फीसदी की गिरावट
नई दिल्ली (3 जुलाई, 2009)। आर्थिक समीक्षा 2008-09 के मुताबिक बीते वित्त वर्ष में कृषि एवं संबंधित गतिविधियों के विकास में 1.6 प्रतिशत तक की गिरावट आयी है।
सरकार ने गेहूं निर्यात पर प्रतिबंध में ढील दी
नई दिल्ली (4 जुलाई, 2009)। केन्द्र सरकार ने प्रतिबंध में ढील देते हुए 9 लाख टन गेहूं के निर्यात की मंजूरी दी है। इसी तरह 6.5 लाख टन गेहूं उत्पाद को विदेश में बेचने की भी इजाजत दी गयी है। इन उत्पादों में आटा, सूजी व मैदा शामिल हैं। मालूम हो कि सरकार ने वर्ष 2007 में गेहूं के निर्यात पर पाबंदी लगा दी थी।
आम बजट में किसानों के लिए कर्ज संबंधी रियायतें
नई दिल्ली (6 जुलाई, 2009)। वर्ष 2009-10 के आम बजट में कर्ज में रियायतें देकर किसानों का मर्ज दूर करने की कोशिश की गयी है। तीन लाख रुपए तक के फसली कर्ज पर ब्याज की दर पूर्व की भांति 7 प्रतिशत वार्षिक ही रहेगी। हालांकि इसमें एक नया नुक्ता जोड़ा गया है कि जो किसान बैंक से लिए कर्ज का भुगतान समय पर कर देंगे, उनकी ब्याज दर में एक प्रतिशत की सीधी कटौती कर दी जाएगी। यानी, उन्हें 6 प्रतिशत की ब्याज दर पर ही लोन मिलेगा।
आम चुनाव के पूर्व पेश बजट में यूपीए सरकार ने चार करोड़ किसानों का लगभग 72 हजार करोड़ रुपए का बकाया कृषि कर्ज माफ कर दिया था। इस कर्ज राहत पैकेज में दो हेक्टेयर से अधिक भूमि वाले किसानों को 25 फीसदी की माफी दी गयी है, लेकिन इसके लिए 75 फीसदी कर्ज की अदायगी जरूरी है, जिसके लिए 30 जून 2009 तक की मोहलत थी। वित्तमंत्री प्रवण मुखर्जी ने चालू वित्त वर्ष के बजट में इस अवधि को छह महीने के लिए और बढ़ा दिया है और इस छूट की वजह मानसून में हुई देरी को माना है।
देश में खाद्यान्न का पर्याप्त भंडार
नई दिल्ली (8 जुलाई, 2009)। कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा है कि देश के पास करीब 2.5 करोड़ टन गेहूं और 3.06 करोड़ टन चावल का भंडार है, जो 13 माह तक चल सकता है। उन्होंने कहा कि हमारे पास और खाद्यान्न का भंडारण करने के लिए जगह ही नहीं है।
फिर लगी गेहूं निर्यात पर रोक
नई दिल्ली (13 जुलाई, 2009)। भारत सरकार ने महज दस दिनों के भीतर गेहूं के निर्यात की अनुमति देने वाला आदेश वापस ले लिया है। इसके साथ ही गेहूं के निर्यात पर पाबंदी फिर से लागू हो गई है।
मानसून की बेरूखी देख कृषि मंत्रालय में युद्ध कक्ष की स्थापना
नई दिल्ली (14 जुलाई, 2009)। भारत में मानसून आने में देरी को देखते हुए खाद्य सुरक्षा पर चौबीस घंटे निगाह रखने के लिए भारत सरकार ने कृषि मंत्रालय में एक युद्ध-कक्ष की स्थापना की है। स्थिति की गंभीरता को भांप कर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने केंद्रीय वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में आठ मंत्रियों के एक समूह का गठन भी भी किया है। इस मंत्रिसमूह को खाद्य सुरक्षा, खाद्यान्न की खरीद और उनके दाम तय करने का अधिकार होगा। यह समूह गेहूं और चावल के केंद्रीय भण्डार के प्रबंधन और खाद्यान्नों के आयात, निर्यात और न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में निर्णय लेने के लिए भी स्वतंत्र होगा।
तीन साल के अंदर आ जाएंगी जीन संवर्धित सब्जियां
नई दिल्ली (15 जुलाई, 2009)। भारतीय कृषि मंत्रालय ने लोकसभा के एक प्रश्नोत्तर में घोषणा की है कि अगले तीन सालों के अंदर जीएम सब्जियों टमाटर, बैगन और फूलगोभी को बाजार में उतारने की योजना है। ऐसा पहली बार है कि मंत्रालय ने जीएम खाद्य फसलों को मंजूरी देने की बात कही है। अभी तक भारत में सिर्फ जीएम कपास को मंजूरी मिली थी, जो अखाद्य फसल है।
खरीफ का रकबा एक तिहाई घटा
नई दिल्ली (17 जुलाई, 2009)। सूखे के चलते खरीफ सीजन का बुवाई रकबा एक तिहाई घट गया है। सबसे नाजुक हालत उत्तर प्रदेश और बिहार के साथ छत्तीसगढ़ व महाराष्ट्र का है, जहां बारिश के अभाव में फसलों की बुवाई ही नहीं हो पाई है। मोटे अनाजों की बुवाई से लेकर धान की रोपाई तक प्रभावित हुई है। दलहन व तिलहन की हालत और भी तंग है।
चीन निर्मित चॉकलेट पर भी रोक लगी
नई दिल्ली (27 जुलाई, 2009)। चीनी खिलौनों को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मानते हुए उन पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद अब चीन निर्मित चाकलेट कैंडी टाफियों और सभी प्रकार के कनफैक्शनरी उत्पादों के आयात पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया है।
फोर्ब्स ने किया हरदा मंडी का गुणगान
हरदा (8 अगस्त, 2009)। मध्यप्रदेश के हरदा की कृषि उपज मंडी की सफलता अब अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर उभर आई है। इस मंडी का लोहा मानते हुए प्रतिष्ठित पत्रिका 'फोर्ब्स' ने इसे बेहद सफल मंडी करार दिया है। यहां किसानों के साथ व्यापारियों की जरुरत को ध्यान में रखकर तमाम सुविधाएं मौजूद हैं। सरकारी क्षेत्र की यह मंडी निजी कंपनियों का पूरी ताकत से मुकाबला कर रही है।
खुले बाजार में गेहूं-चावल की बिक्री को मंजूरी
नई दिल्ली (19 अगस्त, 2009)। केंद्र सरकार ने खुले बाजार में गेहूं और चावल को बेचने की योजना को मंजूरी दी है, ताकि इन खाद्यान्नों की कीमतें में तेजी न आने पाए।
धान और दालों का एमएसपी बढ़ा
नई दिल्ली (20 अगस्त, 2009)। सामान्य धान के लिए समर्थन मूल्य अब 950 रुपये प्रति क्विंटल होगा, जबकि ए-ग्रेड के धान की कीमत 980 रुपये प्रति क्विंटल होगी। दोनों की ही कीमत में सौ रुपये की बढ़ोतरी की गई है। तूहर दाल के लिए एमएसपी 2000 रुपये से बढ़ाकर 2300 रुपये प्रति क्विंटल किया गया है जबकि मूंग के मामले में इसे 2520 रुपये से बढ़ाकर 2760 रुपये प्रति क्विंटल किया गया है।
गन्ना किसानों के लिए चुनावी चासनी
नई दिल्ली (21 अगस्त, 2009)। केंद्र सरकार ने गन्ना किसानों को लुभाने वाले तोहफे की घोषणा की है। तोहफे के तहत गन्ना किसानों को न्यूनतम चार फीसदी की रियायती ब्याज दर पर खेती के लिए कर्ज मुहैया कराया जाएगा। यह कर्ज बैंकों की मार्फत नहीं, बल्कि उन चीनी मिलों से दिलाया जाएगा, जो कभी किसानों को उनका बकाया देने में भी आनाकानी करती रही हैं।
समर्थन मूल्य को लेकर धान उत्पादक राज्य केंद्र से नाराज
नई दिल्ली (28 अगस्त, 2009)। धान के घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य [एमएसपी] को लेकर धान उत्पादक राज्य केंद्र सरकार से खासा नाराज हैं। भीषण सूखे में जैसे-तैसे धान की फसल को बचाए रखने में लागत बढ़ जाने के बावजूद समर्थन मूल्य में कोई खास वृद्धि नहीं की गई है। कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने कृषि व खाद्य मंत्री शरद पवार से मुलाकात की तो कुछ ने उन्हें पत्र लिखकर अपनी आपत्ति जताई है।
समय पर कर्ज की अदायगी करने वाले किसानों को रियायत
नई दिल्ली (29 अगस्त, 2009)। केंद्र सरकार ने उन किसानों से एक फीसदी कम ब्याज लेने का फैसला किया है, जिन्होंने समय से कर्ज की अदायगी कर दी है। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा कि समय पर कर्ज की अदायगी करने वाले किसानों से सात के बजाय छह प्रतिशत ब्याज लिया जाएगा।
खाद्य तेलों के निर्यात पर रोक की अवधि बढ़ी
नई दिल्ली (6 सितंबर, 2009)। घरेलू बाजार में आपूर्ति बढ़ाने की खातिर सरकार ने खाद्य तेलों के निर्यात पर लगे प्रतिबंध की अवधि को 30 सितंबर 2010 तक बढ़ा दिया है। खाद्य तेलों के बढ़ते दामों पर अंकुश लगाने की खातिर इसके निर्यात पर पहले से ही मार्च, 2010 तक रोक लगी हुई है।
बासमती निर्यातकों को राहत
नई दिल्ली (8 सितंबर, 2009)। विदेशी व्यापार महानिदेशालय ने 900 डालर प्रति टन मूल्य वाले बासमती चावल के निर्यात की अनुमति दे दी है। इस तरह से भारतीय व्यापारी अंतरराष्ट्रीय बाजार में पाकिस्तानी चावल से मुकाबला कर सकेंगे। अब तक एक हजार 100 डालर प्रति टन या उससे अधिक कीमत वाले बासमती चावल को ही निर्यात करने की अनुमति थी।
कोक-पेप्सी को मंगानी होगी विदेश से चीनी
नई दिल्ली (13 सितंबर, 2009)। घरेलू बाजार में चीनी की ऊंची कीमतों से चिंतित सरकार ने शीतल पेय पदार्थ तैयार करने वाली अग्रणी कंपनियों कोका-कोला, पेप्सी और नेस्ले से चीनी विदेश से मंगाने को कहा है।
जल्द मिलेगा गाय का लेक्टोज मुक्त दूध
कोलकाता (19 सितंबर, 2009)। भारतीय कंपनी आईएमबिज ने आस्ट्रेलिया से गाय के लेक्टोजमुक्त दूध का आयात शुरू कर दिया है। यह उत्पाद एक महीने में देश के प्रमुख शहरों के खुदरा बिक्री श्रृंखलाओं में उपलब्ध होगा जिसकी कीमत 117 रुपये प्रति लीटर होगी।
कोर बैंकिंग से जुड़ेंगे देश के डाकघर
जालंधर (21 सितंबर, 2009)। लाखों लोगों को बैंकिंग सुविधा मुहैया कराने वाले डाकघर अब बैंकों की तर्ज पर कोर बैंकिंग प्रणाली [सीबीएस] से लैस होंगे। चालू वित्त वर्ष 2009-10 के अंत यानी मार्च तक यह प्रणाली लागू हो जाएगी। इसका सबसे अधिक फायदा ग्रामीण आबादी को मिलेगा। विस्तार से पढ़ें
बीटी बैगन को जीईएसी की मंजूरी, गेंद अब केन्द्र सरकार के पाले
नई दिल्ली (14 अक्टूबर, 2009)। किसान संगठनों के कड़े विरोध के बीच जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी (जीईएसी) ने बीटी बैगन को हरी झंडी दे दी है। अब यह मसला सरकार के पास आ गया है। सरकार के मंजूरी देने के बाद बीटी बैगन की व्यावसायिक खेती शुरू हो सकेगी। विस्तार से पढ़ें
धान की सूखा प्रतिरोधी किस्म का हुआ विकास
भुवनेश्वर (27 अक्टूबर, 2009)। चावल अनुसंधान संस्थान [आरआरआई] ने धान की ऐसी किस्म विकसित की है जो तीन सप्ताह तक बिना पानी के रहने के बाद भी उपज दे सकती है। इसका नाम 'सहाभागी' रखा गया है।
धान पर 50 रुपये बोनस व गन्ने का एफआरपी तय
नई दिल्ली (29 अक्टूबर, 2009)। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई आर्थिक मामलों की मंत्रीमंडलीय समिति (सीसीईए) की बैठक में धान के घोषित समर्थन मूल्य पर 50 रुपए का अतिरिक्त बोनस देने का फैसला लिया गया। सीसीईए ने गन्ने के वैधानिक न्यूनतम मूल्य (एसएमपी) की जगह अध्यादेश के जरिए आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन कर लागू की गयी गन्ने के फेयर एंड रिम्यूनरेटिव प्राइस (एफआरपी) की भी घोषणा कर दी।
दो रुपये महंगा हुआ मदर डेयरी दूध
नई दिल्ली (30 अक्टूबर, 2009)। मदर डेयरी ने दूध की कीमतों में बढ़ोतरी करते हुए फुल क्रीम दूध की कीमत 26 रुपए की जगह 28 रुपए और टोन्ड दूध की कीमत 21 रुपए से बढ़ाकर 22 रुपए प्रति लीटर कर दी है।
सरकार ने प्याज की एमएईपी बढ़ाई
नई दिल्ली (3 नवंबर, 2009)। घरेलू बाजार में प्याज की सप्लाई मजबूत करने के लिए सरकार ने प्याज का न्यूनतम निर्यात मूल्य (एमईपी) प्रति टन 145 डॉलर बढ़ाकर औसत 445-450 डॉलर प्रति टन कर दिया है। .
गेहूं का समर्थन मूल्य 20 रुपये बढ़ा
नई दिल्ली (6 नवंबर, 2009)। केंद्र सरकार ने गेहूं के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में सिर्फ 20 रुपए की मामूली वृद्धि कर 1100 रुपए प्रति क्विंटल कर दिया है। जबकि चना को छोड़कर दलहन व तिलहन की प्रमुख फसलों में कोई बढ़ोतरी नहीं की गयी है।
आयुर्वेदिक दवाओं पर भी एक्सपायरी डेट
नई दिल्ली (6 नवंबर, 2009)। अप्रैल, 2010 से अंग्रेजी दवाओं की तरह आयुर्वेद के नियमों से बनी हर दवा पर भी एक्सपायरी डेट छपा रहना अनिवार्य होगा और उस तारीख से पहले वह दवा दुकान से हटा लेना जरूरी होगा। यानी 20 अप्रैल के बाद कोई भी आयुर्वेदिक, यूनानी या सिद्धा दवा उपयोग की अंतिम तिथि का लेबल लगाए बिना नहीं बिक सकेगी।
Monday, July 13, 2009
फिलीपीन्स की सड़कों पर चल रही इन बांस की टैक्सियों को तो देखिए !
क्या आप ने कभी सोचा है कि बांस से कार या टैक्सी भी बन सकती है? नीचे के छायाचित्रों को देखिए। इन टैक्सियों का 90 फीसदी हिस्सा बांस का है और ये नारियल से तैयार बायोडीजल पर चलती हैं। इन्हें ईको टैक्सी (ECO taxis) नाम दिया गया है तथा फिलहाल इनके दो मॉडल तैयार किए गए हैं : ईको 1 और ईको 2 । ईको 1 में 20 आदमी बैठ सकते हैं। एक गैलन बायोडीजल में यह आठ घंटे तक चलती है। ईको 2 भी एक गैलन बायोडीजल में आठ घंटे चलती है, हालांकि इसमें 8 आदमी ही बैठ सकते हैं। वैसे ईको 2 में स्टीरियो साउंड सिस्टम भी है।
दरअसल ये बांस की टैक्सियां फिलीपीन्स के टाबोंटाबोन शहर के मेयर रूस्टिको बाल्डेरियन के सोच की उपज हैं, जिन्होंने शहरवासियों की जरूरतों को ध्यान में रख इन्हें तैयार कराया। धान की खेती के लिए जाने जानेवाले इस छोटे-से शहर में लोगों के आवागमन का मुख्य साधन मोटरसाइकिलें हैं। भाड़े के वाहनचालक पांच-छह लोगों को बैठाकर मोटरसाइकिलें चलाते हैं, जो असुविधाजनक और खतरनाक दोनों है। आवागमन के साधन के रूप में इन मोटरसाइकिलों के विकल्प के तौर पर बांस की टैक्सियों को तैयार किया गया है। इनकी लागत तो कम है ही, ये सुरक्षित और पर्यावरण हितैषी (eco friendly) भी हैं। बांस तेजी से नवीनीकरण होने योग्य वस्तु है तथा स्थानीय तौर पर प्रचुरता में उपलब्ध है। बांस काफी लचीला होता है और इस दृष्टि से इसकी मजबूती भी कम नहीं आंकी जा सकती। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इन टैक्सियों को स्थानीय स्तर पर पर स्थानीय सामग्री से स्थानीय युवकों ने तैयार किया है।
यदि संबंधित खबर को अंग्रेजी में पढ़ना चाहते हों तो इन कडियों पर जाएं : TOTI Eco और Inhabitat.
दरअसल ये बांस की टैक्सियां फिलीपीन्स के टाबोंटाबोन शहर के मेयर रूस्टिको बाल्डेरियन के सोच की उपज हैं, जिन्होंने शहरवासियों की जरूरतों को ध्यान में रख इन्हें तैयार कराया। धान की खेती के लिए जाने जानेवाले इस छोटे-से शहर में लोगों के आवागमन का मुख्य साधन मोटरसाइकिलें हैं। भाड़े के वाहनचालक पांच-छह लोगों को बैठाकर मोटरसाइकिलें चलाते हैं, जो असुविधाजनक और खतरनाक दोनों है। आवागमन के साधन के रूप में इन मोटरसाइकिलों के विकल्प के तौर पर बांस की टैक्सियों को तैयार किया गया है। इनकी लागत तो कम है ही, ये सुरक्षित और पर्यावरण हितैषी (eco friendly) भी हैं। बांस तेजी से नवीनीकरण होने योग्य वस्तु है तथा स्थानीय तौर पर प्रचुरता में उपलब्ध है। बांस काफी लचीला होता है और इस दृष्टि से इसकी मजबूती भी कम नहीं आंकी जा सकती। सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इन टैक्सियों को स्थानीय स्तर पर पर स्थानीय सामग्री से स्थानीय युवकों ने तैयार किया है।
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Saturday, July 11, 2009
बुंडानून : आस्ट्रेलियाई शहर जिसने दुनिया में पहली बार लगाया बोतलबंद पानी पर प्रतिबंध, प्रांतीय सरकार ने भी खरीद की मनाही की।
आज हम आस्ट्रेलिया के ग्रामीण इलाके के उस छोटे-से शहर के बारे में बात करेंगे, जो अपने पर्यावरण हितैषी निर्णय के कारण दुनिया भर में सामुदायिक चेतना का मिसाल बन गया है। मात्र ढाई हजार लोगों की आबादी वाले इस कस्बाई शहर के बाशिंदों ने आपसी एकजुटता से ऐसा निर्णय लिया कि पर्यावरण की दुनिया में एक नयी क्रांति का सूत्रपात हुआ है।
जनसंख्या की दृष्टि से वहां के सबसे बड़े प्रांत न्यू साउथ वेल्स के कस्बाई शहर बुंडानून के निवासियों ने फैसला किया है कि शहर की दुकानों पर बोतलबंद पानी नहीं बेचा जाएगा और वहां आनेवाले बाहरी लोगों को भी इनका इस्तेमाल नहीं करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। बोतलबंद पानी के स्थान पर नगर की दुकानों पर अब दुबारा इस्तेमाल हो सकने योग्य बोतल बेचा जाएगा, जिस पर बुंडी ऑन टैप लेबल लगा होगा। इस बोतल में सड़क पर लगे सार्वजनिक नलों या फिल्टर्ड वाटर के स्रोतों से नि:शुल्क पानी भरा जा सकेगा। विदित हो कि बुंडानून को बोलचाल में संक्षेप में बुंडी नाम से पुकारा जाता है।
करीब 2500 लोगों की आबादी वाले इस प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर ग्रामीण नगर के करीब 250-300 नागरिक वहां के टाउन हॉल में चंद रोज पहले रात्रि में इकट्ठा हुए और प्रचंड बहुमत से नगर में बोतलबंद पानी पर प्रतिबंध का निर्णय लिया। सिर्फ दो आदमियों ने इनके पक्ष में मतदान नहीं किया, जिनमें एक स्थानीय नागरिक और एक बोतलबंद पानी बनानेवाली कंपनी का प्रतिनिधि था। आस्ट्रेलिया में यह अपने तरह की पहली घटना तो है ही, माना जा रहा है कि दुनिया में पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी शहर ने बोतलबंद पानी पर प्रतिबंध लगाया है। जनमत के इस अभूतपूर्व निर्णय ने वहां एक आंदोलन का रूप धारण कर लिया है, जिसे बुंडी ऑन टैप कहा जा रहा है। इस फैसले से शहर के दुकानदारों को आर्थिक क्षति होनेवाली है, लेकिन पर्यावरण के हित को देखते हुए वे इसे अंजाम देने पर एकजुट हैं।
बताया जाता है कि नोर्लेक्स नामक एक कंपनी द्वारा वहां पानी निकालने वाला प्लांट लगाने की योजना बनायी जा रही थी। इस घटना ने लोगों को पर्यावरण के प्रति सचेत करने में उत्प्रेरक का काम किया। शहरवासियों को यह बात नागवार गुजरी कि उनका ही पानी सिडनी में बोतलबंद कर उन्हें ही बेचा जाए।
एक छोटे ग्रामीण शहर का यह आंदोलन कितना महत्व का है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि न्यू साउथ वेल्स की प्रांतीय सरकार ने भी सरकारी विभागों व एजेंसियों पर बोतलबंद पानी खरीदने से रोक लगा दी है। भारतीय मीडिया ने इस खबर को महत्व भले न दिया हो, लेकिन पाश्चात्य मीडिया ने इसे प्रमुखता से कवर किया। इससे संबंधित खबर को यदि आप अंग्रेजी में पढ़ना चाहें तो यह बीबीसी, एबीसी, टाइम्स ऑनलाइन, रायटर्स एलर्टनेट व कई अन्य साइटों पर उपलब्ध है।
जनसंख्या की दृष्टि से वहां के सबसे बड़े प्रांत न्यू साउथ वेल्स के कस्बाई शहर बुंडानून के निवासियों ने फैसला किया है कि शहर की दुकानों पर बोतलबंद पानी नहीं बेचा जाएगा और वहां आनेवाले बाहरी लोगों को भी इनका इस्तेमाल नहीं करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। बोतलबंद पानी के स्थान पर नगर की दुकानों पर अब दुबारा इस्तेमाल हो सकने योग्य बोतल बेचा जाएगा, जिस पर बुंडी ऑन टैप लेबल लगा होगा। इस बोतल में सड़क पर लगे सार्वजनिक नलों या फिल्टर्ड वाटर के स्रोतों से नि:शुल्क पानी भरा जा सकेगा। विदित हो कि बुंडानून को बोलचाल में संक्षेप में बुंडी नाम से पुकारा जाता है।
करीब 2500 लोगों की आबादी वाले इस प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर ग्रामीण नगर के करीब 250-300 नागरिक वहां के टाउन हॉल में चंद रोज पहले रात्रि में इकट्ठा हुए और प्रचंड बहुमत से नगर में बोतलबंद पानी पर प्रतिबंध का निर्णय लिया। सिर्फ दो आदमियों ने इनके पक्ष में मतदान नहीं किया, जिनमें एक स्थानीय नागरिक और एक बोतलबंद पानी बनानेवाली कंपनी का प्रतिनिधि था। आस्ट्रेलिया में यह अपने तरह की पहली घटना तो है ही, माना जा रहा है कि दुनिया में पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी शहर ने बोतलबंद पानी पर प्रतिबंध लगाया है। जनमत के इस अभूतपूर्व निर्णय ने वहां एक आंदोलन का रूप धारण कर लिया है, जिसे बुंडी ऑन टैप कहा जा रहा है। इस फैसले से शहर के दुकानदारों को आर्थिक क्षति होनेवाली है, लेकिन पर्यावरण के हित को देखते हुए वे इसे अंजाम देने पर एकजुट हैं।
बताया जाता है कि नोर्लेक्स नामक एक कंपनी द्वारा वहां पानी निकालने वाला प्लांट लगाने की योजना बनायी जा रही थी। इस घटना ने लोगों को पर्यावरण के प्रति सचेत करने में उत्प्रेरक का काम किया। शहरवासियों को यह बात नागवार गुजरी कि उनका ही पानी सिडनी में बोतलबंद कर उन्हें ही बेचा जाए।
एक छोटे ग्रामीण शहर का यह आंदोलन कितना महत्व का है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि न्यू साउथ वेल्स की प्रांतीय सरकार ने भी सरकारी विभागों व एजेंसियों पर बोतलबंद पानी खरीदने से रोक लगा दी है। भारतीय मीडिया ने इस खबर को महत्व भले न दिया हो, लेकिन पाश्चात्य मीडिया ने इसे प्रमुखता से कवर किया। इससे संबंधित खबर को यदि आप अंग्रेजी में पढ़ना चाहें तो यह बीबीसी, एबीसी, टाइम्स ऑनलाइन, रायटर्स एलर्टनेट व कई अन्य साइटों पर उपलब्ध है।
Wednesday, July 8, 2009
आर्ट ऑफ लिविंग, श्री श्री रविशंकर और बाबा रामदेव : अंतरजाल पर योग चर्चा
वॉयस ऑफ अमेरिका की एक खबर में बताया गया है कि रविशंकर के योग से कुछ पूर्व अमेरिकी सैनिकों को काफी फायदा पहुंचा है।
http://www.artoflivingyoga.org/hn/ पर योग की परिभाषा देते हुए कहा गया है :
''शिकागो में रविवार को सैकड़ों लोगों के बीच वियतनाम मे लड़ चुके कुछ पूर्व अमेरिकी सैनिकों ने बताया की आर्ट ऑफ़ लिविंग की योग तकनीक से उन्हें तनाव दूर करने में कितना फायदा हुआ। सैनिकों के ये बयान रिकॉर्ड किए थे जिम लार्सन ने जो कि पूर्व सैनिकों के लिए खास तौर से तैयार किए गए कार्यक्रम के प्रमुख हैं। जिम ने इन सैनिकों को एक हफ्ते की ट्रेनिंग दी थी। श्री श्री रविशंकर मानते हैं कि पूर्व सैनिकों के लिए लड़ाई के मैदान का तनाव दूर करने में उनकी तकनीक काफी कारगर है।''योग विद्या को हाल के दिनों में भारत और विश्व में जो लोकप्रियता मिली है, वह अब नई बात नहीं है। लेकिन यह खबर पढ़ने के बाद इंटरनेट पर योग संबंधी जानकारियों के लिंक खंगालने की इच्छा हुई। थोड़ी तलाश के बाद श्री श्री रविशंकर और बाबा रामदेव से संबंधित योग संबंधी कुछ काम के लिंक मिले, जिन्हें संभवत: आप भी पसंद करें।
http://www.artoflivingyoga.org/hn/ पर योग की परिभाषा देते हुए कहा गया है :
शरीर, मन और आत्मा की तारतम्यता ही योग है।इस ठिकाने के साथ अच्छी बात यह है कि यह हिन्दी में भी है। इसी से जुड़ी एक साइट है http://www.ayurvedic-cooking.com/ जिसमें आहार संबंधी जानकारियां हैं। बाबा रामदेव से संबंधित साइट http://www.baba-ramdev.info/ हालांकि अंग्रेजी में है, लेकिन इसमें आसन और ध्यान संबंधी काफी ज्ञानवर्धक बातें हैं।
योग शब्द संस्कृत के यूज् से आया है जिसका अर्थ है मिलन (संघ)
• ग्रंथों के साथ स्वयं को मिलाना (ग्रंथों के साथ आत्मसात)
• व्यक्तिगत चेतना को सार्वभौमिक चेतना से मिलाना।
योग शरीर के लिए केवल एक प्रकार का व्यायाम ही नहीं है, यह एक प्राचीन प्रज्ञता है, जो कि स्वास्थ्य, ख़ुशी ओर शांतिपूर्ण जीवन का ढंग है जो अंतत स्वयं से मिलाता है।
हर मानव में खुश रहने की एक सहज इच्छा होती है। प्राचीन काल में ऋषि मुनि जीवन की खोज में जांच करते करते उस चैतन्य अवस्था में जाने में सक्षम हुए और उन्हें स्वास्थ्य, ख़ुशी ओर जीवन के रहस्यों के बारे मालूम हुआ।
Sunday, July 5, 2009
गे ग्लोबलाइजेशन का जश्न....साभार बीबीसी हिन्दी ब्लॉग
भारतीय मीडिया लाख दावे करे लेकिन जनता की नब्ज पकड़ने की बात आती है तो बीबीसी से बेहतर शायद कोई नहीं. समलैंगिकता के सवाल पर बीबीसी हिन्दी ब्लॉग पर राजेश प्रियदर्शी की एक बहुत ही यथार्थ टिप्पणी आयी है, जिसे आप जरूर पढ़ें. ब्लॉगर मित्रों की सुविधा के लिए हम उसे यहां भी साभार प्रस्तुत कर रहे हैं. चित्र यहां से लिया गया है, जो थोड़ा असहज करनेवाला है....लेकिन समलैंगिक मान्यताओं वाले समाज में इन दृश्यों से आप बच कैसे सकते हैं. बहरहाल आप पढ़ें राजेश प्रियदर्शी के विचारों को और अपने विचारों से भी हमें अवगत कराना नहीं भूलिएगा :
अब से दसेक साल पहले तक लोग आँख मारकर कहते थे, "इनके शौक़ ज़रा अलग हैं." 'नवाबी शौक़', 'पटरी से उतरी गाड़ी', 'राह से भटका मुसाफ़िर' जैसे जुमलों में तंज़ था लेकिन तिरस्कार या घृणा की जगह एक तरह की स्वीकार्यता भी थी.
हमारे स्कूल में बदनाम मास्टर थे, हमारी गली में मटक-मटकर चलने वाले 'आंटी जी' थे, भारत की राजनीति में कई बड़ी हस्तियाँ थीं जिनकी 'अलग तरह की रंगीन-मिजाज़ी' के क़िस्से मशहूर थे लेकिन धारा 377 का नाम अशोक राव कवि के अलावा ज्यादा लोगों को पता नहीं था.
भारत ऐसा देश है जहाँ अर्धानारीश्वर पूजे जाते हैं, किन्नरों का आशीर्वाद शुभ माना जाता है, बड़े-बड़े इज़्ज़तदार नवाब थे जिनकी वजह से 'नवाबी शौक़' जैसे मुहावरे की उत्पत्ति हुई, वहीं छक्के और हिजड़े दुत्कारे भी जाते हैं.
ये सब अलग-अलग दौर की, अलग-अलग तबक़ों की, अलग-अलग सामाजिक संरचनाओं की बातें हैं लेकिन भारतीय चेतना में विवाह के दायरे में संतानोत्त्पति से जुड़े सर्वस्वीकृत विषमलिंगी सेक्स के इतर एक पूरा इंद्रधनुष है जिसमें सेक्स और मानव देह से जुड़े सभी तरह के रंग रहे हैं, उसकी बराबरी किसी और समाज में नहीं दिखती.
लेकिन नए मिलेनियम में ऐसा कैसे हुआ कि क्वीर, ट्रांसवेस्टाइट, ट्रांससेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, थर्ड सेक्स, ट्रैप्ड इन रॉन्ग बॉडी....न जाने कितने नए विशेषण अचानक हमारे बीच चले आए जिनका सही अर्थ ढूँढ पाना विराट यौन बहुलता वाली भारतीय संस्कृति के लिए बड़ी चुनौती बन गया.
नए मिलेनियम में ऐसा क्या था जिसने भारतीय समाज के भीतर चुपचाप बह रही समलैंगिकता की धारा को सड़कों पर ला दिया, गे प्राइड मार्च सिर्फ़ कुछ वर्ष पहले तक भारत में कल्पनातीत बात थी.
मेरी समझ से सिर्फ़ एक चीज़ नई थी वह है ग्लोबलाइज़ेशन.
'गर्व से कहो हम गे हैं' का नारा 1960 के दशक के अंत में अमरीका के स्टोनवाल पब से शुरू हुए दंगों से जन्मा और दो दशक के भीतर पूंजीवादी पश्चिमी समाज में एक मानवाधिकार आंदोलन के रूप में फैल गया, 1990 आते आते यूरोप और अमरीका में लगभग पूरी राजनीतिक स्वीकार्यता मिली लेकिन समाजिक स्वीकार्यता आज भी बेहद मुश्किल है.
दिल्ली हाइकोर्ट ने सहमति से होने वाले समलैंगिक यौनाचार को क़ानूनन अपराध की श्रेणी से हटा दिया तब जिस तरह का जश्न मना उससे यही लगा कि भारत में यही एक बड़ा मुद्दा था जो हल हो गया है, अब भारत दुनिया के अग्रणी देशों की पांत में खड़ा हो गया है.
निस्संदेह आधुनिक पूंजीवादी पाश्चात्य लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरुप यह न्यायसम्मत फ़ैसला है, जो जश्न मना रहे हैं उनमें सिर्फ़ एलजीटीबी (गे, लेस्बियन, ट्रांससेक्सुअल एंड बाइसेक्सुअल) समुदाय के ही लोग नहीं हैं, मेरे पढ़े-लिखे, विवाहित, बाल-बच्चेदार, फेसबुक वाले, मल्टीनेशनल वाले, शिक्षित-सभ्य सुसंकृत शहरी दोस्त भी हैं.
जश्न मनाने वालों से मुझे कोई शिकायत नहीं बल्कि उन्हें ही मुझसे है कि मैं इसे एक महान क्रांतिकारी घटना के तौर पर देखकर उनकी तरह हर्षित क्यों नहीं हो रहा हूँ.
मेरे दोस्तों, मेरा मानना है कि यह उन चंद सौ लोगों का दबाव था जो भारत को पश्चिमी पैमाने पर एक विकसित लोकतंत्र के तौर पर सेलिब्रेट करना चाहते हैं. जल्दी ही आप देखेंगे कि भारत में 'क्रुएलिटी अगेंस्ट एनिमल' को रोकने के लिए आंदोलन चलेगा, एक कड़ा क़ानून बनेगा और आप फिर जश्न मनाएँगे.
जब मैं छत्तीसगढ़ और झारखंड की लड़कियों की तस्करी, किसानों की आत्महत्या, आदिवासियों और दलितों के शोषण, भूखे बेघर बच्चों की पीड़ा का मातम मनाता हूँ, जब मैं उम्मीद की क्षीण किरण 'नरेगा' को लेकर उत्साहित हो जाता हूँ तब आप मेरे सुख-दुख कहाँ शामिल होते हैं.
अब से दसेक साल पहले तक लोग आँख मारकर कहते थे, "इनके शौक़ ज़रा अलग हैं." 'नवाबी शौक़', 'पटरी से उतरी गाड़ी', 'राह से भटका मुसाफ़िर' जैसे जुमलों में तंज़ था लेकिन तिरस्कार या घृणा की जगह एक तरह की स्वीकार्यता भी थी.
हमारे स्कूल में बदनाम मास्टर थे, हमारी गली में मटक-मटकर चलने वाले 'आंटी जी' थे, भारत की राजनीति में कई बड़ी हस्तियाँ थीं जिनकी 'अलग तरह की रंगीन-मिजाज़ी' के क़िस्से मशहूर थे लेकिन धारा 377 का नाम अशोक राव कवि के अलावा ज्यादा लोगों को पता नहीं था.
भारत ऐसा देश है जहाँ अर्धानारीश्वर पूजे जाते हैं, किन्नरों का आशीर्वाद शुभ माना जाता है, बड़े-बड़े इज़्ज़तदार नवाब थे जिनकी वजह से 'नवाबी शौक़' जैसे मुहावरे की उत्पत्ति हुई, वहीं छक्के और हिजड़े दुत्कारे भी जाते हैं.
ये सब अलग-अलग दौर की, अलग-अलग तबक़ों की, अलग-अलग सामाजिक संरचनाओं की बातें हैं लेकिन भारतीय चेतना में विवाह के दायरे में संतानोत्त्पति से जुड़े सर्वस्वीकृत विषमलिंगी सेक्स के इतर एक पूरा इंद्रधनुष है जिसमें सेक्स और मानव देह से जुड़े सभी तरह के रंग रहे हैं, उसकी बराबरी किसी और समाज में नहीं दिखती.
लेकिन नए मिलेनियम में ऐसा कैसे हुआ कि क्वीर, ट्रांसवेस्टाइट, ट्रांससेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, थर्ड सेक्स, ट्रैप्ड इन रॉन्ग बॉडी....न जाने कितने नए विशेषण अचानक हमारे बीच चले आए जिनका सही अर्थ ढूँढ पाना विराट यौन बहुलता वाली भारतीय संस्कृति के लिए बड़ी चुनौती बन गया.
नए मिलेनियम में ऐसा क्या था जिसने भारतीय समाज के भीतर चुपचाप बह रही समलैंगिकता की धारा को सड़कों पर ला दिया, गे प्राइड मार्च सिर्फ़ कुछ वर्ष पहले तक भारत में कल्पनातीत बात थी.
मेरी समझ से सिर्फ़ एक चीज़ नई थी वह है ग्लोबलाइज़ेशन.
'गर्व से कहो हम गे हैं' का नारा 1960 के दशक के अंत में अमरीका के स्टोनवाल पब से शुरू हुए दंगों से जन्मा और दो दशक के भीतर पूंजीवादी पश्चिमी समाज में एक मानवाधिकार आंदोलन के रूप में फैल गया, 1990 आते आते यूरोप और अमरीका में लगभग पूरी राजनीतिक स्वीकार्यता मिली लेकिन समाजिक स्वीकार्यता आज भी बेहद मुश्किल है.
दिल्ली हाइकोर्ट ने सहमति से होने वाले समलैंगिक यौनाचार को क़ानूनन अपराध की श्रेणी से हटा दिया तब जिस तरह का जश्न मना उससे यही लगा कि भारत में यही एक बड़ा मुद्दा था जो हल हो गया है, अब भारत दुनिया के अग्रणी देशों की पांत में खड़ा हो गया है.
निस्संदेह आधुनिक पूंजीवादी पाश्चात्य लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरुप यह न्यायसम्मत फ़ैसला है, जो जश्न मना रहे हैं उनमें सिर्फ़ एलजीटीबी (गे, लेस्बियन, ट्रांससेक्सुअल एंड बाइसेक्सुअल) समुदाय के ही लोग नहीं हैं, मेरे पढ़े-लिखे, विवाहित, बाल-बच्चेदार, फेसबुक वाले, मल्टीनेशनल वाले, शिक्षित-सभ्य सुसंकृत शहरी दोस्त भी हैं.
जश्न मनाने वालों से मुझे कोई शिकायत नहीं बल्कि उन्हें ही मुझसे है कि मैं इसे एक महान क्रांतिकारी घटना के तौर पर देखकर उनकी तरह हर्षित क्यों नहीं हो रहा हूँ.
मेरे दोस्तों, मेरा मानना है कि यह उन चंद सौ लोगों का दबाव था जो भारत को पश्चिमी पैमाने पर एक विकसित लोकतंत्र के तौर पर सेलिब्रेट करना चाहते हैं. जल्दी ही आप देखेंगे कि भारत में 'क्रुएलिटी अगेंस्ट एनिमल' को रोकने के लिए आंदोलन चलेगा, एक कड़ा क़ानून बनेगा और आप फिर जश्न मनाएँगे.
जब मैं छत्तीसगढ़ और झारखंड की लड़कियों की तस्करी, किसानों की आत्महत्या, आदिवासियों और दलितों के शोषण, भूखे बेघर बच्चों की पीड़ा का मातम मनाता हूँ, जब मैं उम्मीद की क्षीण किरण 'नरेगा' को लेकर उत्साहित हो जाता हूँ तब आप मेरे सुख-दुख कहाँ शामिल होते हैं.
Saturday, July 4, 2009
आइए, गंठीले गाजर और कुबड़ी ककड़ी को बधाई दें।
भाई, हम गंठीले गाजर, कुबड़ी ककड़ी और उन अन्य फलों व सब्जियों को बधाई देने जा रहे हैं, जिनका आकार कुछ बदसूरत और बेडौल-सा हो गया है। आप चाहें तो खुद भी यहां उन्हें ऑनलाइन बधाई दे सकते हैं। बात वस्तुत: यह है कि बीस साल में पहली बार हुआ है कि यूरोपीय संघ के देशों में अब बेडौल और बदसूरत फल व सब्जियां बिक्री के लिए बाजारों में लायी जा सकेंगी। अब आप ही बताइए, है न बधाई देनेवाली बात।
दरअसल इंसान ही विचित्र नहीं होते, नियम भी निराले होते हैं। और हों भी क्यों भी नहीं, आखिर उन्हें भी तो आदमी ही बनाता है। ऐसे ही नियम यूरोपीय संघ में फलों व सब्जियों के बारे में हैं, जिसके तहत बाजार में आने के लिए उनके आकार-प्रकार निर्धारित थे। गत गुरुवार यूरोपीय संघ में सब्जियों के लिए ऐतिहासिक दिन था, जब पूरे बीस साल बाद उन्हें इन तानाशाहीपूर्ण नियमों से आजादी मिली। अब यूरोपीय संघ के बाजारों में ककड़ी जितनी चाहे टेढ़ी हो सकती है और तरबूज़े का हरा रंग और उसकी सूरत नहीं देखी जाएगी। हालांकि सेब व टमाटर सहित 10 अन्य फल व सब्ज़ियों को अब भी सुंदरता के नियमों का पालन करना होगा।
यूरोपीय संघ में 10 सेंटीमीटर की ककड़ी को सिर्फ़ 10 मिलीमीटर मुड़ने की इजाज़त थी। अगर उसने इससे ज़्यादा मुड़ने की जुर्रत की तो बाज़ार से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता था। जब तक ककड़ी सीधी, सुडौल नहीं होगी, उसे बाजार में नहीं लाया जा सकता था। इसी तरह अगर गाजर में गांठ हैं तो उसे खाने लायक नहीं माना जाता था। किसानों को बड़े जतन से ऐसी ख़ास उपज तैयार करनी पड़ती थी, जो वजन, रंग, आकार आदि के निर्धारित मानकों के मेल में रहे।
लेकिन अब सब्ज़ियों और फलों की 26 किस्में अपने प्राकृतिक रूप में बाज़ार में बेची जा सकेंगी। यूरोपीय संघ के कृषि कमिश्नर मारियान फिशर बॉयल ने कहा, "1 जुलाई हमारे बाजारों में मुड़ी हुई ककड़ी और गांठ वाले गाजर की वापसी का दिन होगा।" जाहिर है यूरोपीय संघ के देशों में अब फलों व सब्जियों के खरीदारों के पास सस्ते विकल्प भी होंगे। वैसे भी सिर्फ बदसूरत होने के कारण मेहनत से उगाए गए स्वास्थ्यवर्धक फलों व सब्जियों को फेंक देने में कोई समझदारी नहीं थी।
कुल 26 फलों व सब्ज़ियों को नियमों से आजादी मिली है, जिनमें खुबानी, बैंगन, गाजर, गोभी, चेरी, ककड़ी, लहसुन, पहाड़ी बादाम, फूल गोभी, हरे प्याज़, ख़रबूज़, प्याज, मटर, आलूबुख़ारा, पालक, वालनट, तरबूज़ आदि शामिल हैं। हालांकि 10 अन्य फलों व सब्ज़ियों को अब भी मानकों पर खरा उतरना होगा, जिनमें सेब, किवी, नींबू जाति के फल, आडू, स्ट्रॉबैरी, अंगूर, और टमाटर शामिल हैं। लेकिन किसान चाहें तो अमानक होने का उपयुक्त लेबल लगाकर उन्हें भी बेच सकते हैं।
आलेख के साथ प्रस्तुत फोटो यहां से लिया गया है। आप अंग्रेजी में पूरी खबर को पढ़ना और संबंधित वीडियो देखना चाहते हैं तो बीबीसी न्यूज के साइट पर जाना बेहतर रहेगा।
दरअसल इंसान ही विचित्र नहीं होते, नियम भी निराले होते हैं। और हों भी क्यों भी नहीं, आखिर उन्हें भी तो आदमी ही बनाता है। ऐसे ही नियम यूरोपीय संघ में फलों व सब्जियों के बारे में हैं, जिसके तहत बाजार में आने के लिए उनके आकार-प्रकार निर्धारित थे। गत गुरुवार यूरोपीय संघ में सब्जियों के लिए ऐतिहासिक दिन था, जब पूरे बीस साल बाद उन्हें इन तानाशाहीपूर्ण नियमों से आजादी मिली। अब यूरोपीय संघ के बाजारों में ककड़ी जितनी चाहे टेढ़ी हो सकती है और तरबूज़े का हरा रंग और उसकी सूरत नहीं देखी जाएगी। हालांकि सेब व टमाटर सहित 10 अन्य फल व सब्ज़ियों को अब भी सुंदरता के नियमों का पालन करना होगा।
यूरोपीय संघ में 10 सेंटीमीटर की ककड़ी को सिर्फ़ 10 मिलीमीटर मुड़ने की इजाज़त थी। अगर उसने इससे ज़्यादा मुड़ने की जुर्रत की तो बाज़ार से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता था। जब तक ककड़ी सीधी, सुडौल नहीं होगी, उसे बाजार में नहीं लाया जा सकता था। इसी तरह अगर गाजर में गांठ हैं तो उसे खाने लायक नहीं माना जाता था। किसानों को बड़े जतन से ऐसी ख़ास उपज तैयार करनी पड़ती थी, जो वजन, रंग, आकार आदि के निर्धारित मानकों के मेल में रहे।
लेकिन अब सब्ज़ियों और फलों की 26 किस्में अपने प्राकृतिक रूप में बाज़ार में बेची जा सकेंगी। यूरोपीय संघ के कृषि कमिश्नर मारियान फिशर बॉयल ने कहा, "1 जुलाई हमारे बाजारों में मुड़ी हुई ककड़ी और गांठ वाले गाजर की वापसी का दिन होगा।" जाहिर है यूरोपीय संघ के देशों में अब फलों व सब्जियों के खरीदारों के पास सस्ते विकल्प भी होंगे। वैसे भी सिर्फ बदसूरत होने के कारण मेहनत से उगाए गए स्वास्थ्यवर्धक फलों व सब्जियों को फेंक देने में कोई समझदारी नहीं थी।
कुल 26 फलों व सब्ज़ियों को नियमों से आजादी मिली है, जिनमें खुबानी, बैंगन, गाजर, गोभी, चेरी, ककड़ी, लहसुन, पहाड़ी बादाम, फूल गोभी, हरे प्याज़, ख़रबूज़, प्याज, मटर, आलूबुख़ारा, पालक, वालनट, तरबूज़ आदि शामिल हैं। हालांकि 10 अन्य फलों व सब्ज़ियों को अब भी मानकों पर खरा उतरना होगा, जिनमें सेब, किवी, नींबू जाति के फल, आडू, स्ट्रॉबैरी, अंगूर, और टमाटर शामिल हैं। लेकिन किसान चाहें तो अमानक होने का उपयुक्त लेबल लगाकर उन्हें भी बेच सकते हैं।
आलेख के साथ प्रस्तुत फोटो यहां से लिया गया है। आप अंग्रेजी में पूरी खबर को पढ़ना और संबंधित वीडियो देखना चाहते हैं तो बीबीसी न्यूज के साइट पर जाना बेहतर रहेगा।
Friday, July 3, 2009
समलैंगिकता, सविता भाभी, भूजल दोहन और हिंदी
आज पहली बार हमारे गांव के मैनेजर बाबू को यह दुनिया अच्छे लोगों और अच्छाइयों से भरी-पूरी लग रही है। जिन पढ़े-लिखे शहरी लोगों को वे जेठ की दुपहरी में पानी पी-पीकर कोसा करते थे, आज उनके प्रति उनका प्यार उमड़ पड़ा है।
मैनेजर बाबू अपने समय के रईस तो थे ही, रसिक भी कम न थे। उनके दालान में जब लगातार महीना दिन तक लवंडों (पैसे के लिए स्त्री वेश धर नाचने वाले पुरुष) या नचनियों (नर्तकी) का नाच होता तो गांव-जवार के लोग चर्चा करते नहीं अघाते।
हालांकि मैनेजर बाबू इन दिनों बड़ा चिंतित रहा करते थे। जबसे उन्होंने भूजल दोहन के अवैध कारोबार की श्रेणी में आने की बात सुनी थी, उन्हें हर जगह कलियुग ही दिखाई देता। किसी ने उन्हें सविता भाभी के बारे में भी बता दिया था और वे उन श्रीमती जी की चर्चा कर सबसे कहते कि इस अधर्म के बोझ तले अब धरती धंसनेवाली ही है।
लेकिन अजीब बात यह हुई कि उस वेबसाइट पर सरकार द्वारा बैन लगाए जाने की खबर सुनकर मैनेजर बाबू और अधिक दुखी हो गए। अब उन्हें आशंका सता रही थी कि कहीं ये मुई सरकार नचनियों के नाच पर भी रोक न लगा दे – ‘’जब पल्लू सरका के नाचती हैं तो लगता है कि आसमान से साक्षात अप्सराएं उतर आयी हैं, ...अब बुढ़ापे में इस सुख से भी वंचित होना पड़ेगा।‘’
बहरहाल जब से मैनेजर बाबू ने वयस्कों के समलैंगिक संबंधों को जायज ठहरानेवाले अदालती आदेश की खबर सुनी है, उनका डूबता हुआ दिल फिर से बल्लियों उछलने लगा है। मन में लड्डू फूट रहे हैं – ‘’अब ज्यादा कोई टोकेगा तो मुनेशरा से बियाह कर लेंगे।‘’
मुनेशर इलाके का नामी लवंडा था, जो महीनों मैनेजर बाबू के यहां आ कर रहता। लोग इन दोनों के संबंध के बारे में तरह-तरह की बातें किया करते, जिसकी भनक मैनेजर बाबू तक भी पहुंचती ही रहती थी। यह बात जानकर मैनेजर बाबू की खुशी चौगुनी हो गयी थी कि समलैंगिकता को कानूनी मान्यता के फैसले को मानवतावादियों का पुरजोर समर्थन मिल रहा है।
इस खुशी में आज मैनेजर बाबू ने जमकर सुरापान किया। तब वे शहरी लोगों की तरह अंगरेजी में बोलकर अपनी खुशी जताना चाहते थे, लेकिन इफ, बट और दिस, दैट के अलावा उन्हें कोई और शब्द न सूझा।
थोड़ी देर बाद वे जोर-जोर से बोलने लगे। वे हर आने-जानेवाले से पूछ रहे थे – ‘’सरकार राजकाज में अंगरेजी की जगह हिन्दी को मान्यता देनेवाला आदेश क्यों नहीं लाती ? हिन्दीभाषियों के (मानव)अधिकार कुछ भी नहीं ? गांववाले आपस में बतिया रहे थे – ‘’मैनेजर बाबू ने आज कुछ ज्यादा ही चढ़ा ली है...मैनेजर साहब नहीं, दारू बोल रहा है।‘’
(कहानी पूरी तरह कल्पना पर आधारित, चित्र इकनॉमिक टाइम्स से साभार)
मैनेजर बाबू अपने समय के रईस तो थे ही, रसिक भी कम न थे। उनके दालान में जब लगातार महीना दिन तक लवंडों (पैसे के लिए स्त्री वेश धर नाचने वाले पुरुष) या नचनियों (नर्तकी) का नाच होता तो गांव-जवार के लोग चर्चा करते नहीं अघाते।
हालांकि मैनेजर बाबू इन दिनों बड़ा चिंतित रहा करते थे। जबसे उन्होंने भूजल दोहन के अवैध कारोबार की श्रेणी में आने की बात सुनी थी, उन्हें हर जगह कलियुग ही दिखाई देता। किसी ने उन्हें सविता भाभी के बारे में भी बता दिया था और वे उन श्रीमती जी की चर्चा कर सबसे कहते कि इस अधर्म के बोझ तले अब धरती धंसनेवाली ही है।
लेकिन अजीब बात यह हुई कि उस वेबसाइट पर सरकार द्वारा बैन लगाए जाने की खबर सुनकर मैनेजर बाबू और अधिक दुखी हो गए। अब उन्हें आशंका सता रही थी कि कहीं ये मुई सरकार नचनियों के नाच पर भी रोक न लगा दे – ‘’जब पल्लू सरका के नाचती हैं तो लगता है कि आसमान से साक्षात अप्सराएं उतर आयी हैं, ...अब बुढ़ापे में इस सुख से भी वंचित होना पड़ेगा।‘’
बहरहाल जब से मैनेजर बाबू ने वयस्कों के समलैंगिक संबंधों को जायज ठहरानेवाले अदालती आदेश की खबर सुनी है, उनका डूबता हुआ दिल फिर से बल्लियों उछलने लगा है। मन में लड्डू फूट रहे हैं – ‘’अब ज्यादा कोई टोकेगा तो मुनेशरा से बियाह कर लेंगे।‘’
मुनेशर इलाके का नामी लवंडा था, जो महीनों मैनेजर बाबू के यहां आ कर रहता। लोग इन दोनों के संबंध के बारे में तरह-तरह की बातें किया करते, जिसकी भनक मैनेजर बाबू तक भी पहुंचती ही रहती थी। यह बात जानकर मैनेजर बाबू की खुशी चौगुनी हो गयी थी कि समलैंगिकता को कानूनी मान्यता के फैसले को मानवतावादियों का पुरजोर समर्थन मिल रहा है।
इस खुशी में आज मैनेजर बाबू ने जमकर सुरापान किया। तब वे शहरी लोगों की तरह अंगरेजी में बोलकर अपनी खुशी जताना चाहते थे, लेकिन इफ, बट और दिस, दैट के अलावा उन्हें कोई और शब्द न सूझा।
थोड़ी देर बाद वे जोर-जोर से बोलने लगे। वे हर आने-जानेवाले से पूछ रहे थे – ‘’सरकार राजकाज में अंगरेजी की जगह हिन्दी को मान्यता देनेवाला आदेश क्यों नहीं लाती ? हिन्दीभाषियों के (मानव)अधिकार कुछ भी नहीं ? गांववाले आपस में बतिया रहे थे – ‘’मैनेजर बाबू ने आज कुछ ज्यादा ही चढ़ा ली है...मैनेजर साहब नहीं, दारू बोल रहा है।‘’
(कहानी पूरी तरह कल्पना पर आधारित, चित्र इकनॉमिक टाइम्स से साभार)
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