आज हम आपसे हिन्दी के विषय में बातचीत करना चाहते हैं। हो सकता है, हमारे कुछ मित्रों को लगे कि किसान को खेती-बाड़ी की चिंता करनी चाहिए। वह हिन्दी के पचड़े में क्यों पड़ रहा है। लेकिन हमारा मानना है कि हिन्दी के कल्याण के बिना हिन्दुस्तान के आमजन खासकर किसानों का कल्याण संभव नहीं।
राष्ट्र की आजादी के बाद भी यहां की आम जनता आर्थिक रूप से इसलिए गुलाम है, क्योंकि उसकी राष्ट्रभाषा गुलाम है। विशेष रूप से किसानों के लिए तो हिन्दी का मुद्दा बीज, खाद और पानी से भी अधिक महत्वपूर्ण है। किसी फसल के लिए अच्छा बीज व पर्याप्त सिंचाई नहीं मिले तो वह फसल मात्र ही बरबाद होगी, लेकिन राष्ट्रभाषा हिन्दी की पराधीनता भारत के बहुसंख्यक किसानों व उनकी भावी पीढि़यों के संपूर्ण जीवन को ही नष्ट कर रही है।
देश के करीब सत्तर करोड़ किसानों में अधिकांश हिन्दी जुबान बोलते व समझते हैं। लेकिन देश के सत्ता प्रतिष्ठानों की राजकाज की भाषा आज भी अंगरेजी ही है। यह एक ऐसा दुराव है, जो इस भूमंडल पर शायद ही कहीं और देखने को मिले। जनतंत्र में जनता और शासक वर्ग का चरित्र अलग-अलग नहीं होना चाहिए। लेकिन हमारे देश में उनका भाषागत चरित्र भिन्न-भिन्न है। जनता हिन्दी बोलती है, शासन में अंग्रेजी चलती है। इससे सबसे अधिक बुरा प्रभाव किसानों पर पड़ रहा है, क्योंकि वे गांवों में रहते हैं, जहां अंगरेजी भाषा की अच्छी शिक्षा संभव नहीं हो पाती। आजाद होते हुए भी जीवनपर्यन्त उनकी जुबान पर अंगरेजी का ब्रितानी ताला लगा रहता है।
आज के समय में कस्बाई महाविद्यालयों से बीए की डिग्री लेनेवाले किसानपुत्र भी पराये देश की इस भाषा को ठीक से नहीं लिख-बोल पाते। कुपरिणाम यह होता है कि किसान न शासकीय प्रतिष्ठानों तक अपनी बात ठीक से पहुंचा पाते हैं, न ही सत्तातंत्र के इरादों व कार्यक्रमों को भलीभांति समझ पाते हैं। सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होता है कि वे रोजगार के अवसरों से वंचित हो जाते हैं।
हिन्दी आज बाजार की भाषा भले हो, लेकिन वह रोजगार की भाषा नहीं है। किसी भी देश में रोजगार की भाषा वही होती है, जो राजकाज की भाषा होती है। चूंकि हमारे देश में राजकाज की वास्तविक भाषा अंगरेजी है, इसलिए रोजगार की भाषा भी वही है। रोजगार नहीं मिलने से किसान गरीब बने रहते हैं, उनकी खेती भी अर्थाभाव में पिछड़ी रहती है, और आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक विषमता की खाई कभी भी पट नहीं पाती।
जाहिर है यदि भारत के राजकाज की भाषा हिन्दी होती तो देश की बहुसंख्यक किसान आबादी अपनी जुबान पर ताला लगा महसूस नहीं करती। तब देश के किसान सत्ता के साथ बेहतर तरीके से संवाद करते एवं रोजगार के अवसरों में बराबरी के हिस्सेदार होते।
Wednesday, August 27, 2008
Saturday, August 23, 2008
आत्महत्या करनेवाले का भी गला दबा रहे मनमोहन जी?
केन्द्र की मनमोहन सिंह की सरकार किसानों को तबाह करने पर तुली हुई है। किसान और कृषि से संबंधित हाल में लिए गए तमाम फैसले इसी बात का संकेत दे रहे हैं। हो सकता है यह सरकार गांवों के बदले शहर बसाने के अपने घोषित इरादे को पूरा करने के लिए ऐसा कर रही हो। शायद उसकी यह सोच हो कि किसान खेती छोड़ देंगे तो गांव भी उजड़ जाएंगे।
केन्द्र सरकार द्वारा लिया गया सबसे ताजा किसान विरोधी फैसला गैर-बासमती चावल और मक्के के बीजों के निर्यात की अनुमति देना है। गौरतलब है कि सरकार ने चावल और मक्का के निर्यात पर पाबंदी लगा रखी थी। उन अनाजों के निर्यात पर पाबंदी अभी जारी रहेगी, अनुमति सिर्फ बीजों के निर्यात को मिली है। वाणिज्य मंत्रालय द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि बीज के इन पैकेटों पर साफ-साफ लिखा होगा कि ये मानव उपभोग के लायक नहीं हैं। बयान में कहा गया है कि पैकेट पर यह भी लिखा होगा कि इन बीजों में केमिकल मिला हुआ है, लिहाजा यह न तो मानव के उपभोग के काबिल हैं और न ही इनका इस्तेमाल चारे के रूप में किया जा सकता है।
लाख माथापच्ची करने पर भी इस निर्णय का औचित्य हमारी समझ में नहीं आया। आखिर किसके हित में यह फैसला लिया गया? प्रत्यक्ष तौर पर तो इस फैसले से दो को ही लाभ होता दिख रखा है- बीज उत्पादक कंपनियों को और विदेशी किसानों को। तो हम मान लें कि हमारी सरकार को अनाज उपजानेवाले अपने देश के किसानों से अधिक चिंता अनाजों की तिजारत करनेवाले कृषि निर्यातकों और विदेशी किसानों की है। कहीं इस फैसले द्वारा अनाज निर्यातकों को भ्रष्टाचार की पतली गली तो मुहैया नहीं करायी जा रही? कहीं ऐसा तो नहीं कि निर्यातित पैकेटों पर लिखा होगा 'केमिकल मिला बीज' और उनके अंदर भरा रहेगा 'खाने लायक अनाज'!
जहां तक भारत के किसानों की बात है तो यह फैसला उनके हित में तो नहीं ही है। इसके विपरीत इस तरह का निर्णय लेना खुद ही जान दे रहे उस समुदाय का गला घोंटने के समान है। आप स्वयं सोच कर देखें। चावल और मक्का के निर्यात पर पाबंदी के पक्ष में केन्द्र सरकार का तर्क है कि इससे महंगाई की ऊंची दर काबू में रहेगी। सरकार का कहना है कि इन अनाजों के निर्यात पर पाबंदी से देसी बाजार में इनकी आपूर्ति बनी रहेगी, लिहाजा कीमत में बढ़ोतरी की गुंजाइश नहीं होगी। क्या यही तर्क गैर-बासमती धान और मक्का के बीजों पर भी लागू नहीं होता? क्या उनके निर्यात की अनुमति से देसी बाजारों में उनकी आपूर्ति कम नहीं होगी और लिहाजा उनकी कीमतें नहीं बढ़ेंगी?
क्या विडंबना है? सरकार को किसानों के लिए सस्ता बीज मुहैया कराना चाहिए तो उलटे वह उसे और अधिक महंगा करने का उपाय कर रही है। बढ़ती महंगाई के दौर में किसानों के जीवन निर्वाह के खर्च और कृषि लागत में पहले ही काफी बढ़ोतरी हो चुकी है। बीज के मामले में तो किसानों का जमकर शोषण हो रहा है। कई कंपनियां उनसे बीज पर ढाई हजार फीसदी से भी अधिक मुनाफा वसूल कर रही है। क्या अभी भी सरकार का मन नहीं भरा?
अरे, माननीय प्रधानमंत्री मनमोहन जी, कुछ तो रहम कीजिए देश के किसानों पर। आखिर कितना और कब तक गला दबाएंगे इस निरीह समुदाय का? जो खुद ही आत्महत्या कर रहा, उसका गला क्या दबाना? सही बात है, सरकार सरकार है, वह जो चाहे करे। लेकिन आपकी सरकार किसान हितैषी होने का दावा भी तो करती है। आप लोगों ने ही तो नारा दिया है- कांग्रेस का हाथ, अन्नदाता के साथ?
केन्द्र सरकार द्वारा लिया गया सबसे ताजा किसान विरोधी फैसला गैर-बासमती चावल और मक्के के बीजों के निर्यात की अनुमति देना है। गौरतलब है कि सरकार ने चावल और मक्का के निर्यात पर पाबंदी लगा रखी थी। उन अनाजों के निर्यात पर पाबंदी अभी जारी रहेगी, अनुमति सिर्फ बीजों के निर्यात को मिली है। वाणिज्य मंत्रालय द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि बीज के इन पैकेटों पर साफ-साफ लिखा होगा कि ये मानव उपभोग के लायक नहीं हैं। बयान में कहा गया है कि पैकेट पर यह भी लिखा होगा कि इन बीजों में केमिकल मिला हुआ है, लिहाजा यह न तो मानव के उपभोग के काबिल हैं और न ही इनका इस्तेमाल चारे के रूप में किया जा सकता है।
लाख माथापच्ची करने पर भी इस निर्णय का औचित्य हमारी समझ में नहीं आया। आखिर किसके हित में यह फैसला लिया गया? प्रत्यक्ष तौर पर तो इस फैसले से दो को ही लाभ होता दिख रखा है- बीज उत्पादक कंपनियों को और विदेशी किसानों को। तो हम मान लें कि हमारी सरकार को अनाज उपजानेवाले अपने देश के किसानों से अधिक चिंता अनाजों की तिजारत करनेवाले कृषि निर्यातकों और विदेशी किसानों की है। कहीं इस फैसले द्वारा अनाज निर्यातकों को भ्रष्टाचार की पतली गली तो मुहैया नहीं करायी जा रही? कहीं ऐसा तो नहीं कि निर्यातित पैकेटों पर लिखा होगा 'केमिकल मिला बीज' और उनके अंदर भरा रहेगा 'खाने लायक अनाज'!
जहां तक भारत के किसानों की बात है तो यह फैसला उनके हित में तो नहीं ही है। इसके विपरीत इस तरह का निर्णय लेना खुद ही जान दे रहे उस समुदाय का गला घोंटने के समान है। आप स्वयं सोच कर देखें। चावल और मक्का के निर्यात पर पाबंदी के पक्ष में केन्द्र सरकार का तर्क है कि इससे महंगाई की ऊंची दर काबू में रहेगी। सरकार का कहना है कि इन अनाजों के निर्यात पर पाबंदी से देसी बाजार में इनकी आपूर्ति बनी रहेगी, लिहाजा कीमत में बढ़ोतरी की गुंजाइश नहीं होगी। क्या यही तर्क गैर-बासमती धान और मक्का के बीजों पर भी लागू नहीं होता? क्या उनके निर्यात की अनुमति से देसी बाजारों में उनकी आपूर्ति कम नहीं होगी और लिहाजा उनकी कीमतें नहीं बढ़ेंगी?
क्या विडंबना है? सरकार को किसानों के लिए सस्ता बीज मुहैया कराना चाहिए तो उलटे वह उसे और अधिक महंगा करने का उपाय कर रही है। बढ़ती महंगाई के दौर में किसानों के जीवन निर्वाह के खर्च और कृषि लागत में पहले ही काफी बढ़ोतरी हो चुकी है। बीज के मामले में तो किसानों का जमकर शोषण हो रहा है। कई कंपनियां उनसे बीज पर ढाई हजार फीसदी से भी अधिक मुनाफा वसूल कर रही है। क्या अभी भी सरकार का मन नहीं भरा?
अरे, माननीय प्रधानमंत्री मनमोहन जी, कुछ तो रहम कीजिए देश के किसानों पर। आखिर कितना और कब तक गला दबाएंगे इस निरीह समुदाय का? जो खुद ही आत्महत्या कर रहा, उसका गला क्या दबाना? सही बात है, सरकार सरकार है, वह जो चाहे करे। लेकिन आपकी सरकार किसान हितैषी होने का दावा भी तो करती है। आप लोगों ने ही तो नारा दिया है- कांग्रेस का हाथ, अन्नदाता के साथ?
Wednesday, August 20, 2008
महाकवि निराला की कविता : चर्खा चला
लोग-बाग बसने लगे।
फिर भी चलते रहे।
गुफाओं से घर उठाये।
उंचे से नीचे उतरे।
भेड़ों से गायें रखीं।
जंगल से बाग और उपवन तैयार किये।
खुली जबां बंधने लगी।
वैदिक से संवर दी भाषा संस्कृत हुई।
नियम बने, शुद्ध रूप लाये गये,
अथवा जंगली सभ्य हुए वेशवास से।
कड़े कोस ऐसे कटे।
खोज हुई, सुख के साधन बढ़े-
जैसे उबटन से साबुन।
वेदों के बाद जाति चार भागों में बंटी,
यही रामराज है।
वाल्मीकि ने पहले वेदों की लीक छोड़ी,
छन्दों में गीत रचे, मंत्रों को छोड़कर,
मानव को मान दिया,
धरती की प्यारी लड़की सीता के गाने गाये।
कली ज्योति में खिली
मिट्टी से चढ़ती हुई।
''वर्जिन स्वैल'', ''गुड अर्थ'', अब के परिणाम हैं।
कृष्ण ने भी जमीं पकड़ी,
इन्द्र की पूजा की जगह
गोवर्धन को पुजाया,
मानव को, गायों और बैलों को मान दिया।
हल को बलदेव ने हथियार बनाया,
कन्धे पर डाले फिरे।
खेती हरी-भरी हुई।
यहां तक पहुंचते अभी दुनियां को देर है।
(कविता राग-विराग तथा चित्र विकिपीडिया से साभार)
Thursday, August 14, 2008
पुस्तक अंश : स्वतंत्रता दिवस पर विशेष
विख्यात इतिहासकार सुमित सरकार की पुस्तक 'आधुनिक भारत' का एक अंश
पंद्रह अगस्त
अंतत: भारतीय प्रायद्वीप को स्वतंत्रता मिल ही गयी और स्वतंत्रता-सेनानियों के सुनहरे सपनों की तुलना में अनेक लोगों को यह तुच्छ ही प्रतीत हुई होगी। कारण कि अनेक वर्षों तक भारत में मुसलमानों और पाकिस्तान में हिन्दुओं के लिए स्वतंत्रता का अर्थ रहा – अचानक भड़क उठनेवाली हिंसा और रोजगार तथा आर्थिक अवसरों की तंगी के बीच या अपनी पीढि़यों पुरानी जड़ों से उखड़कर शरणार्थियों के रेले में सम्मिलित हो जाने के बीच चयन करना। यह बहुआयामी मानव-त्रासदी बलराज साहनी की अंतिम फिल्म 'गरम हवा' में बड़े ही हृदयस्पर्शी ढंग से चित्रित हुई है।
एक अन्य स्तर पर जो पूर्णत: असंबद्ध नहीं है, वे आर्थिक एवं सामाजिक विषमताएं अभी भी बनी रहीं, जिन्होंने साम्राज्यवाद-विरोधी जन-आंदोलन को ठोस आधार प्रदान किया था क्योंकि शहरों और गांवों में विशेषाधिकार-संपन्न समूह राजनीतिक स्वंत्रता की प्राप्ति का संबंध उग्र सामाजिक परिवर्तनों से तोड़ने में सफल रहे थे। अंग्रेज तो चले गए थे किन्तु पीछे छोड़ गए थे अपनी नौकरशाही और पुलिस जिनमें स्वतंत्रता के बाद भी विशेष अंतर नहीं आया था और जो उतने ही (कभी-कभी तो और भी अधिक) दमनकारी हो सकते थे।
अपने जीवन के अंतिम महीनों में महात्मा गांधी के अकेलेपन और व्यथा के कारण केवल सांप्रदायिक दंगे ही नहीं थे। अपनी हत्या से कुछ ही पहले उन्होंने चेतावनी दी थी कि देश को अपने ''सात लाख गांवों के लिए सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजादी पानी अभी बाकी है'', ''कि कांग्रेस ने 'राटन बरो' बना लिए हैं जो भ्रष्टाचार की ओर जाते हैं, ये वे संस्थाएं हैं जो नाममात्र के लिए ही लोकप्रिय और जनतांत्रिक हैं।'' इस कारण उन्होंने सलाह दी थी कि राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस को भंग कर दिया जाना चाहिए और उसके स्थान पर एक लोकसेवक संघ की स्थापना की जानी चाहिए जिसमें सच्चे अर्थों में समर्पित, आत्मबलिदानी, रचनात्मक ग्राम-कार्य करनेवाले लोग हों।
फिर भी करोड़ों लोग जो समस्त भारतीय प्रायद्वीप में खुशियां मना रहे थे, अर्धरात्रि को भारत की 'नियति के साथ भेंट' पर नेहरू का भाषण सुनकर रोमांचित हो रहे थे और जिन्होंने उस समय बालक रहे व्यक्ति के लिए भी 15 अगस्त को एक अविस्मरणीय अनुभव बना दिया था, वे पूर्णरूपेण भ्रांति के शिकार नहीं थे। 1948-51 में कम्युनिस्टों ने अपनी कीमत पर ही जाना कि 'ये आजादी झूठी है' के नारे में दम नहीं था। भारत की स्वाधीनता उपनिवेशवाद के विघटन की एक ऐसी प्रक्रिया का आरंभ थी जिसे, कम से कम जहां तक राजनीतिक स्वाधीनता का प्रश्न है, रोकना कठिन सिद्ध हुआ।
('आधुनिक भारत' के पहले छात्र संस्करण 1992 के पृष्ठ 504-505 से साभार)
पंद्रह अगस्त
अंतत: भारतीय प्रायद्वीप को स्वतंत्रता मिल ही गयी और स्वतंत्रता-सेनानियों के सुनहरे सपनों की तुलना में अनेक लोगों को यह तुच्छ ही प्रतीत हुई होगी। कारण कि अनेक वर्षों तक भारत में मुसलमानों और पाकिस्तान में हिन्दुओं के लिए स्वतंत्रता का अर्थ रहा – अचानक भड़क उठनेवाली हिंसा और रोजगार तथा आर्थिक अवसरों की तंगी के बीच या अपनी पीढि़यों पुरानी जड़ों से उखड़कर शरणार्थियों के रेले में सम्मिलित हो जाने के बीच चयन करना। यह बहुआयामी मानव-त्रासदी बलराज साहनी की अंतिम फिल्म 'गरम हवा' में बड़े ही हृदयस्पर्शी ढंग से चित्रित हुई है।
एक अन्य स्तर पर जो पूर्णत: असंबद्ध नहीं है, वे आर्थिक एवं सामाजिक विषमताएं अभी भी बनी रहीं, जिन्होंने साम्राज्यवाद-विरोधी जन-आंदोलन को ठोस आधार प्रदान किया था क्योंकि शहरों और गांवों में विशेषाधिकार-संपन्न समूह राजनीतिक स्वंत्रता की प्राप्ति का संबंध उग्र सामाजिक परिवर्तनों से तोड़ने में सफल रहे थे। अंग्रेज तो चले गए थे किन्तु पीछे छोड़ गए थे अपनी नौकरशाही और पुलिस जिनमें स्वतंत्रता के बाद भी विशेष अंतर नहीं आया था और जो उतने ही (कभी-कभी तो और भी अधिक) दमनकारी हो सकते थे।
अपने जीवन के अंतिम महीनों में महात्मा गांधी के अकेलेपन और व्यथा के कारण केवल सांप्रदायिक दंगे ही नहीं थे। अपनी हत्या से कुछ ही पहले उन्होंने चेतावनी दी थी कि देश को अपने ''सात लाख गांवों के लिए सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजादी पानी अभी बाकी है'', ''कि कांग्रेस ने 'राटन बरो' बना लिए हैं जो भ्रष्टाचार की ओर जाते हैं, ये वे संस्थाएं हैं जो नाममात्र के लिए ही लोकप्रिय और जनतांत्रिक हैं।'' इस कारण उन्होंने सलाह दी थी कि राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस को भंग कर दिया जाना चाहिए और उसके स्थान पर एक लोकसेवक संघ की स्थापना की जानी चाहिए जिसमें सच्चे अर्थों में समर्पित, आत्मबलिदानी, रचनात्मक ग्राम-कार्य करनेवाले लोग हों।
फिर भी करोड़ों लोग जो समस्त भारतीय प्रायद्वीप में खुशियां मना रहे थे, अर्धरात्रि को भारत की 'नियति के साथ भेंट' पर नेहरू का भाषण सुनकर रोमांचित हो रहे थे और जिन्होंने उस समय बालक रहे व्यक्ति के लिए भी 15 अगस्त को एक अविस्मरणीय अनुभव बना दिया था, वे पूर्णरूपेण भ्रांति के शिकार नहीं थे। 1948-51 में कम्युनिस्टों ने अपनी कीमत पर ही जाना कि 'ये आजादी झूठी है' के नारे में दम नहीं था। भारत की स्वाधीनता उपनिवेशवाद के विघटन की एक ऐसी प्रक्रिया का आरंभ थी जिसे, कम से कम जहां तक राजनीतिक स्वाधीनता का प्रश्न है, रोकना कठिन सिद्ध हुआ।
('आधुनिक भारत' के पहले छात्र संस्करण 1992 के पृष्ठ 504-505 से साभार)
Wednesday, August 6, 2008
किसान महाकवि घाघ और उनकी कविताएं
आज के समय में टीवी व रेडियो पर मौसम संबंधी जानकारी मिल जाती है। लेकिन सदियों पहले न टीवी-रेडियो थे, न सरकारी मौसम विभाग। ऐसे समय में महान किसान कवि घाघ व भड्डरी की कहावतें खेतिहर समाज का पीढि़यों से पथप्रदर्शन करते आयी हैं। बिहार व उत्तरप्रदेश के गांवों में ये कहावतें आज भी काफी लोकप्रिय हैं। जहां वैज्ञानिकों के मौसम संबंधी अनुमान भी गलत हो जाते हैं, ग्रामीणों की धारणा है कि घाघ की कहावतें प्राय: सत्य साबित होती हैं।
घाघ और भड्डरी के जीवन के बारे में प्रामाणिक तौर पर बहुत ज्ञात नहीं है। उनके द्वारा रचित साहित्य का ज्ञान भी ग्रामीणों ने किसी पुस्तक में पढ़ कर नहीं बल्कि परंपरा से अर्जित किया है। कहावतों में बहुत जगह 'कहै घाघ सुनु भड्डरी', 'कहै घाघ सुन घाघिनी' जैसे उल्लेख आए हैं। इस आधार पर आम तौर पर माना जाता है कि भड्डरी घाघ कवि की पत्नी थीं। हालांकि अनेक लोग घाघ व भड्डरी को पति-पत्नी न मानकर एक ही व्यक्ति अथवा दो भिन्न-भिन्न व्यक्ति मानते हैं।
घाघ और भड्डरी की कहावतें नामक पुस्तक में देवनारायण द्विवेदी लिखते हैं, ''कुछ लोगों का मत है कि घाघ का जन्म संवत् 1753 में कानपुर जिले में हुआ था। मिश्रबंधु ने इन्हें कान्यकुब्ज ब्राह्मण माना है, पर यह बात केवल कल्पना-प्रसूत है। यह कब तक जीवित रहे, इसका ठीक-ठाक पता नहीं चलता।''
यहां हम प्रस्तुत कर रहे हैं महाकवि घाघ की कुछ कहावतें व उनका अर्थ :
सावन मास बहे पुरवइया।
बछवा बेच लेहु धेनु गइया।।
अर्थात् यदि सावन महीने में पुरवैया हवा बह रही हो तो अकाल पड़ने की संभावना है। किसानों को चाहिए कि वे अपने बैल बेच कर गाय खरीद लें, कुछ दही-मट्ठा तो मिलेगा।
शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय।
तो यों भाखै भड्डरी, बिन बरसे ना जाए।।
अर्थात् यदि शुक्रवार के बादल शनिवार को छाए रह जाएं, तो भड्डरी कहते हैं कि वह बादल बिना पानी बरसे नहीं जाएगा।
रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय।
कहै घाघ सुन घाघिनी, स्वान भात नहीं खाय।।
अर्थात् यदि रोहिणी पूरा बरस जाए, मृगशिरा में तपन रहे और आर्द्रा में साधारण वर्षा हो जाए तो धान की पैदावार इतनी अच्छी होगी कि कुत्ते भी भात खाने से ऊब जाएंगे और नहीं खाएंगे।
उत्रा उत्तर दै गयी, हस्त गयो मुख मोरि।
भली विचारी चित्तरा, परजा लेइ बहोरि।।
अर्थात् उत्तरा और हथिया नक्षत्र में यदि पानी न भी बरसे और चित्रा में पानी बरस जाए तो उपज ठीक ठाक ही होती है।
पुरुवा रोपे पूर किसान।
आधा खखड़ी आधा धान।।
अर्थात् पूर्वा नक्षत्र में धान रोपने पर आधा धान और आधा खखड़ी (कटकर-पइया) पैदा होता है।
आद्रा में जौ बोवै साठी।
दु:खै मारि निकारै लाठी।।
अर्थात् जो किसान आद्रा नक्षत्र में धान बोता है वह दु:ख को लाठी मारकर भगा देता है।
दरअसल कृषक कवि घाघ ने अपने अनुभवों से जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे किसी भी मायने में आधुनिक मौसम विज्ञान की निष्पत्तियों से कम उपयोगी नहीं हैं।
घाघ और भड्डरी के जीवन के बारे में प्रामाणिक तौर पर बहुत ज्ञात नहीं है। उनके द्वारा रचित साहित्य का ज्ञान भी ग्रामीणों ने किसी पुस्तक में पढ़ कर नहीं बल्कि परंपरा से अर्जित किया है। कहावतों में बहुत जगह 'कहै घाघ सुनु भड्डरी', 'कहै घाघ सुन घाघिनी' जैसे उल्लेख आए हैं। इस आधार पर आम तौर पर माना जाता है कि भड्डरी घाघ कवि की पत्नी थीं। हालांकि अनेक लोग घाघ व भड्डरी को पति-पत्नी न मानकर एक ही व्यक्ति अथवा दो भिन्न-भिन्न व्यक्ति मानते हैं।
घाघ और भड्डरी की कहावतें नामक पुस्तक में देवनारायण द्विवेदी लिखते हैं, ''कुछ लोगों का मत है कि घाघ का जन्म संवत् 1753 में कानपुर जिले में हुआ था। मिश्रबंधु ने इन्हें कान्यकुब्ज ब्राह्मण माना है, पर यह बात केवल कल्पना-प्रसूत है। यह कब तक जीवित रहे, इसका ठीक-ठाक पता नहीं चलता।''
यहां हम प्रस्तुत कर रहे हैं महाकवि घाघ की कुछ कहावतें व उनका अर्थ :
सावन मास बहे पुरवइया।
बछवा बेच लेहु धेनु गइया।।
अर्थात् यदि सावन महीने में पुरवैया हवा बह रही हो तो अकाल पड़ने की संभावना है। किसानों को चाहिए कि वे अपने बैल बेच कर गाय खरीद लें, कुछ दही-मट्ठा तो मिलेगा।
शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय।
तो यों भाखै भड्डरी, बिन बरसे ना जाए।।
अर्थात् यदि शुक्रवार के बादल शनिवार को छाए रह जाएं, तो भड्डरी कहते हैं कि वह बादल बिना पानी बरसे नहीं जाएगा।
रोहिनी बरसै मृग तपै, कुछ कुछ अद्रा जाय।
कहै घाघ सुन घाघिनी, स्वान भात नहीं खाय।।
अर्थात् यदि रोहिणी पूरा बरस जाए, मृगशिरा में तपन रहे और आर्द्रा में साधारण वर्षा हो जाए तो धान की पैदावार इतनी अच्छी होगी कि कुत्ते भी भात खाने से ऊब जाएंगे और नहीं खाएंगे।
उत्रा उत्तर दै गयी, हस्त गयो मुख मोरि।
भली विचारी चित्तरा, परजा लेइ बहोरि।।
अर्थात् उत्तरा और हथिया नक्षत्र में यदि पानी न भी बरसे और चित्रा में पानी बरस जाए तो उपज ठीक ठाक ही होती है।
पुरुवा रोपे पूर किसान।
आधा खखड़ी आधा धान।।
अर्थात् पूर्वा नक्षत्र में धान रोपने पर आधा धान और आधा खखड़ी (कटकर-पइया) पैदा होता है।
आद्रा में जौ बोवै साठी।
दु:खै मारि निकारै लाठी।।
अर्थात् जो किसान आद्रा नक्षत्र में धान बोता है वह दु:ख को लाठी मारकर भगा देता है।
दरअसल कृषक कवि घाघ ने अपने अनुभवों से जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे किसी भी मायने में आधुनिक मौसम विज्ञान की निष्पत्तियों से कम उपयोगी नहीं हैं।
Tuesday, August 5, 2008
केंद्र बुझाने चला महंगाई की आग, बिहार में जल उठा मक्का
हम आरंभ से ही कहते आए हैं कि केन्द्र सरकार अनाजों के निर्यात पर प्रतिबंध लगाकर भारतीय किसानों का गला घोंटने का काम कर रही है। महंगाई का सबसे अधिक बोझ किसानों को उठाने के लिए विवश किया जा रहा है। शायद केन्द्र सरकार की यह धारणा रही हो कि गरीब व अशिक्षित किसान उसकी इस चालाकी को समझ नहीं पाएंगे। लेकिन सरकार की चालबाजी धीरे-धीरे किसानों की समझ में आने लगी है। खेती-बाड़ी की कल की पोस्ट में हमने बिहार के मक्का उत्पादक किसानों की त्रासदी के बारे में चर्चा की थी। साभार प्रस्तुत है आज के बिजनेस स्टैंडर्ड की इससे संबंधित टॉप स्टोरी :
महंगाई की आंच से देश को बचाने की केंद्र सरकार की जुगत के नतीजे भले ही कुछ भी निकलें, मगर आग बुझाने की इसी कवायद के चलते बिहार में मक्का जरूर जलने लगा है।
इसकी भड़कती आग का आलम यह है कि इसमें राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए राज्य का कोई छोटा-बड़ा राजनीतिक दल कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ रहा है। दूसरी ओर, राज्य में इस साल हुई मक्के की बंपर पैदावार को लेकर किसान इसे बेचने के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं।
मक्के में लगी इस आग की वजह है, इसके निर्यात पर केंद्र द्वारा महंगाई की आग बुझाने के नाम पर हाल ही में लगाई गई पाबंदी। हालांकि मक्के को लेकर मची इस आपाधापी में सोमवार किसानों को थोड़ी राहत की खबर जरूर लेकर आया है, जिसके तहत बिहार सरकार ने राज्य में मक्के की खरीद के लिए नैफेड को अधिकृत कर दिया।
मगर यह ताजातरीन फैसला भी किसानों के लिए ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित होने जा रहा है। इसकी वजह यह है कि नैफेड के जरिए सरकार इसे महज 620 रुपये प्रति क्विंटल के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीद रही है जबकि इस समय इसका बाजार भाव 1000 रुपये प्रति क्विंटल है।
बहरहाल, राज्य के खाद्य आपूर्ति सचिव त्रिपुरारी शरण ने बिजनेस स्टैंडर्ड से हुई बातचीत में आदेश की पुष्टि करते हुए बताया कि नैफेड राज्य के सभी जिलों में मक्का क्रय केन्द्र खोलने जा रही है। यह पूछने पर कि इस समय बाजार में मक्के का भाव 1,000 रुपये प्रति क्विंटल के आसपास है, ऐसे में किसानों को बाजार मूल्य का महज 60 फीसदी ही क्यों अदा किया जा रहा है? शरण ने कहा कि राज्य सरकार एमसपी नहीं तय करती लिहाजा वह इसी कीमत पर किसानों से खरीदारी करने को मजबूर है।
कितना है मक्के का उत्पादन?
अनुमान है कि इस साल राज्य में 17 लाख टन, देश के कुल उत्पादन का 10 फीसदी, मक्के का उत्पादन हुआ है। राज्य के कई जिलों से खबर मिली है कि मक्के की बंपर पैदावार होने और निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिए जाने से इसके भंडार बारिश में यूं ही बर्बाद हो रहे हैं। कठेला, भागलपुर के राकेश चौधरी का कहना है कि प्रतिबंध से पहले इसकी आपूर्ति कोलकाता और मुंबई को की जा रही थी। लेकिन प्रतिबंध के बाद महेशकूट और मानसी स्टेशनों पर मक्के की सैकड़ों बोरियां बर्बाद होने के लिए पड़ी हैं।
हर कोई कर रहा हितैषी का दावा
राज्य का हर राजनीतिक दल खुद को मक्का किसानों का हितैषी साबित करने की कवायद में जुटा है। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा का दावा है कि मक्का किसानों की समस्या को सबसे पहले उन्होंने ही उठाया है। कुशवाहा के मुताबिक उनकी पार्टी के एक प्रतिनिधिमंडल ने केंद्रीय कृषि मंत्री और राकांपा अध्यक्ष शरद पवार के सामने सबसे पहले इस मसले को उठाया।
इसके बाद मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। बकौल कुशवाहा पवार ने उन्हें आश्वस्त किया कि इस हफ्ते से एफसीआई राज्य में मक्के की खरीद शुरू कर देगी। लेकिन एफसीआई (पटना) में अतिरिक्त महाप्रबंधक ए.एस. सैफी ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि मक्के की खरीद के लिए अब तक उन्हें केंद्र से कोई आदेश नहीं मिला है।
क्या है मसला?
केंद्र ने महंगाई को थामने के लिए 3 जुलाई को मक्के के निर्यात पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया था। यह प्रतिबंध आगामी 15 अक्टूबर तक प्रभावी रहना है। लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री ने चंद रोज पहले ही पत्र लिखकर प्रधानमंत्री से कहा कि राज्य में इस बार मक्के की बंपर पैदावार हुई है। इसलिए इस प्रतिबंध से राज्य के किसानों का उनकी फसल का वाजिब मूल्य नहीं मिल सकेगा। फसल की कम कीमत से किसानों के लिए जहां लागत निकालना दूभर हो जाएगा, वहीं भीषण महंगाई के बीच उनका जीना मुश्किल हो जाएगा। लिहाजा इस प्रतिबंध को हटा लेना चाहिए।
महंगाई की आंच से देश को बचाने की केंद्र सरकार की जुगत के नतीजे भले ही कुछ भी निकलें, मगर आग बुझाने की इसी कवायद के चलते बिहार में मक्का जरूर जलने लगा है।
इसकी भड़कती आग का आलम यह है कि इसमें राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए राज्य का कोई छोटा-बड़ा राजनीतिक दल कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ रहा है। दूसरी ओर, राज्य में इस साल हुई मक्के की बंपर पैदावार को लेकर किसान इसे बेचने के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं।
मक्के में लगी इस आग की वजह है, इसके निर्यात पर केंद्र द्वारा महंगाई की आग बुझाने के नाम पर हाल ही में लगाई गई पाबंदी। हालांकि मक्के को लेकर मची इस आपाधापी में सोमवार किसानों को थोड़ी राहत की खबर जरूर लेकर आया है, जिसके तहत बिहार सरकार ने राज्य में मक्के की खरीद के लिए नैफेड को अधिकृत कर दिया।
मगर यह ताजातरीन फैसला भी किसानों के लिए ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित होने जा रहा है। इसकी वजह यह है कि नैफेड के जरिए सरकार इसे महज 620 रुपये प्रति क्विंटल के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीद रही है जबकि इस समय इसका बाजार भाव 1000 रुपये प्रति क्विंटल है।
बहरहाल, राज्य के खाद्य आपूर्ति सचिव त्रिपुरारी शरण ने बिजनेस स्टैंडर्ड से हुई बातचीत में आदेश की पुष्टि करते हुए बताया कि नैफेड राज्य के सभी जिलों में मक्का क्रय केन्द्र खोलने जा रही है। यह पूछने पर कि इस समय बाजार में मक्के का भाव 1,000 रुपये प्रति क्विंटल के आसपास है, ऐसे में किसानों को बाजार मूल्य का महज 60 फीसदी ही क्यों अदा किया जा रहा है? शरण ने कहा कि राज्य सरकार एमसपी नहीं तय करती लिहाजा वह इसी कीमत पर किसानों से खरीदारी करने को मजबूर है।
कितना है मक्के का उत्पादन?
अनुमान है कि इस साल राज्य में 17 लाख टन, देश के कुल उत्पादन का 10 फीसदी, मक्के का उत्पादन हुआ है। राज्य के कई जिलों से खबर मिली है कि मक्के की बंपर पैदावार होने और निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिए जाने से इसके भंडार बारिश में यूं ही बर्बाद हो रहे हैं। कठेला, भागलपुर के राकेश चौधरी का कहना है कि प्रतिबंध से पहले इसकी आपूर्ति कोलकाता और मुंबई को की जा रही थी। लेकिन प्रतिबंध के बाद महेशकूट और मानसी स्टेशनों पर मक्के की सैकड़ों बोरियां बर्बाद होने के लिए पड़ी हैं।
हर कोई कर रहा हितैषी का दावा
राज्य का हर राजनीतिक दल खुद को मक्का किसानों का हितैषी साबित करने की कवायद में जुटा है। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा का दावा है कि मक्का किसानों की समस्या को सबसे पहले उन्होंने ही उठाया है। कुशवाहा के मुताबिक उनकी पार्टी के एक प्रतिनिधिमंडल ने केंद्रीय कृषि मंत्री और राकांपा अध्यक्ष शरद पवार के सामने सबसे पहले इस मसले को उठाया।
इसके बाद मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। बकौल कुशवाहा पवार ने उन्हें आश्वस्त किया कि इस हफ्ते से एफसीआई राज्य में मक्के की खरीद शुरू कर देगी। लेकिन एफसीआई (पटना) में अतिरिक्त महाप्रबंधक ए.एस. सैफी ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि मक्के की खरीद के लिए अब तक उन्हें केंद्र से कोई आदेश नहीं मिला है।
क्या है मसला?
केंद्र ने महंगाई को थामने के लिए 3 जुलाई को मक्के के निर्यात पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया था। यह प्रतिबंध आगामी 15 अक्टूबर तक प्रभावी रहना है। लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री ने चंद रोज पहले ही पत्र लिखकर प्रधानमंत्री से कहा कि राज्य में इस बार मक्के की बंपर पैदावार हुई है। इसलिए इस प्रतिबंध से राज्य के किसानों का उनकी फसल का वाजिब मूल्य नहीं मिल सकेगा। फसल की कम कीमत से किसानों के लिए जहां लागत निकालना दूभर हो जाएगा, वहीं भीषण महंगाई के बीच उनका जीना मुश्किल हो जाएगा। लिहाजा इस प्रतिबंध को हटा लेना चाहिए।
Sunday, August 3, 2008
कितनी किसान हितैषी है केन्द्र सरकार : संदर्भ डब्ल्यूटीओ की जेनेवा वार्ता
विश्व व्यापार को बेहतर बनाने के लिए जेनेवा में चल रही दोहा दौर की डब्ल्यूटीओ वार्ता बिना सहमति के समाप्त हो गयी। कृषि और गैर कृषि वस्तुओं पर सब्सिडी तथा शुल्कों में कमी कर बहुपक्षीय विश्व व्यापार प्रणाली को उदार बनाने के समझौते के लिए 21 से 26 जुलाई तक आयोजित यह बैठक 29 जुलाई तक चली, लेकिन किसानों की आजीविका से जुड़े मुद्दों पर मुख्यत: अमेरिका के अडि़यल रवैये के चलते अंतत: विफल रही। जेनेवा बैठक में भारत का प्रतिनिधित्व करनेवाले केन्द्रीय वाणिज्य एवं उघोग मंत्री कमलनाथ के बयान जिस तरह मीडिया में देखने को मिले, उससे लगता है कि केन्द्र सरकार किसानों की बहुत बड़ी हितैषी है। लेकिन सच्चाई खाने और दिखावे के दांत भिन्न-भिन्न वाली है।
जेनेवा बैठक में भारत की ओर से कमलनाथ का स्टैंड निश्चित रूप से सराहनीय रहा, लेकिन घरेलू मोर्चे पर केन्द्र सरकार की कृषि नीति विरोधाभासी रही है। जिस समय विश्व व्यापार संगठन बैठक में जेनेवा में केन्द्रीय वाणिज्य एवं उघोग मंत्री भारतीय किसानों के हितों की दुहाई दे रहे थे, नई दिल्ली में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को 850 रुपये से बढ़ाकर 1,000 रुपये करने की सिफारिश को खारिज कर दिया। किस मुंह से यह सरकार किसानों की मददगार होने की बात कहती है? अमेरिका में किसानों की आबादी मात्र दो फीसदी है, फिर भी वहां उन्हें इतनी अधिक सब्सिडी दी जाती है कि भारत जैसे देशों को उसमें कटौती की मांग करनी पड़ती है। भारत में आबादी का दो तिहाई हिस्सा किसानों का ही है, फिर भी यहां की सरकार उन्हें उपज की वाजिब कीमत तक देने को तैयार नहीं होती। आसमान छू रही महंगाई की वजह से किसानों की कृषि लागत और जीवन निर्वाह का व्यय का काफी बढ़ गया है। ऐसे में उन्हें उपज की वाजिब कीमत भी नहीं मिलेगी तो आत्महत्या करने के अलावा और कौन-सा विकल्प रहेगा उनके पास?
न्यूनतम समर्थन मूल्य ही नहीं, कृषि उपज के व्यापार के मामले में भी केन्द्र सरकार का रवैया किसान विरोधी है। डब्ल्यूटीओ वार्ता में भारतीय किसानों के हितों के संरक्षण की ढपोरशंखी बातें करनेवाली सरकार व्यवहार में इसके विपरीत काम कर रही है। इस सरकार ने भारतीय किसानों पर बंदिशें थोपते हुए गेहूं, चावल व मक्का के निर्यात पर प्रतिबंध लगा रखा है। भारतीय किसानों की उपज के निर्यात पर प्रतिबंध से किसके हित का संरक्षण हो रहा है, भारतीय किसानों का अथवा विदेशी किसानों का?
देश के माननीय कर्णधारो, अमेरिका से अधिक तो आप ही भारतीय किसानों का गला दबा रहे हैं। यदि गैर कृषक आबादी को सस्ता अनाज मुहैया कराने के लिए चावल-गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा रहे हैं, तो स्वीकार कर लीजिए डब्ल्यूटीओ वार्ता में अमेरिकी शर्तें। आपके ही कहे अनुसार भारत में मौजूदा कीमतों से भी सस्ता मिलेगा लोगों को अनाज। यह अलग बात है कि तब शायद आपको महंगी दरों पर घटिया गेहूं के आयात का सुअवसर न मिले। लेकिन आप तो दोनों में से कोई भी काम नहीं कर रहे – न किसानों को वाजिब कीमत दे रहे हैं, न ही गैर किसान आबादी को सस्ता खाद्य पदार्थ। घोटालेबाज व जमाखोर आपकी नीतियों की वजह से जरूर मालामाल हो रहे हैं।
खबर है कि केन्द्र सरकार गैर बासमती चावल के निर्यात पर लगी पाबंदी की अब समीक्षा करने जा रही है। अब यदि सरकार यह पाबंदी हटा भी लेगी तो फिलहाल किसानों को कोई लाभ मिलने से रहा। जो भी लाभ होगा, व्यापारियों को होगा। किसान तो अपना धान, चावल कब का औने-पौने दामों पर बेच चुके हैं। अगली फसल चार-पांच माह बाद तैयार होगी।
केन्द्र सरकार द्वारा इस्पात के मूल्य को नियंत्रित करने की कोशिशों का विरोध घरेलू इस्पात उद्योग यह कह कर रहा है कि इससे औद्योगिक विकास प्रभावित होगा। तो क्या इसी तरह से घरेलू कृषि उपज की कीमतों को नियंत्रित करने से देश में कृषि के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ रहा? किसानों की आवाज उठानेवाली कोई मजबूत लॉबी नहीं है तो आप उन्हें भट्ठी में झोंक दीजिएगा?
केन्द्र सरकार की किसान विरोधी नीति के चलते इन दिनों बिहार के मक्का उत्पादक किसान त्राहि त्राहि कर रहे हैं। मक्का की बंपर उपज के बावजूद केन्द्र सरकार द्वारा गत जुलाई माह में उसके निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया। प्रतिबंध के बाद बिहार में मक्के की कीमत 750 रुपये से घटकर 500 रुपये प्रति क्वींटल पर आ गयी है। बिहार के कोसी क्षेत्र के मक्का उत्पादक किसानों में इससे हाहाकार मचा हुआ है। मक्का उत्पादक किसानों की दुर्दशा देख सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सहित कई राजनेताओं ने मक्का निर्यात पर लगी पाबंदी हटाने की मांग की है। लेकिन केन्द्र सरकार निर्यात पर लगी पाबंदी हटाने के बजाय बिहार से मक्का की खरीदारी पर विचार कर रही है। यदि मक्के की सरकारी खरीदारी होती भी है तो किसानों को मात्र 620 रुपये प्रति क्वींटल का ही न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा। मतलब मक्का उत्पादक किसानों के लिए हर हालत में इस साल खेती घाटे का सौदा ही होने जा रही है। यही है - कांग्रेस का हाथ, अन्नदाता के साथ?
जेनेवा बैठक में भारत की ओर से कमलनाथ का स्टैंड निश्चित रूप से सराहनीय रहा, लेकिन घरेलू मोर्चे पर केन्द्र सरकार की कृषि नीति विरोधाभासी रही है। जिस समय विश्व व्यापार संगठन बैठक में जेनेवा में केन्द्रीय वाणिज्य एवं उघोग मंत्री भारतीय किसानों के हितों की दुहाई दे रहे थे, नई दिल्ली में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को 850 रुपये से बढ़ाकर 1,000 रुपये करने की सिफारिश को खारिज कर दिया। किस मुंह से यह सरकार किसानों की मददगार होने की बात कहती है? अमेरिका में किसानों की आबादी मात्र दो फीसदी है, फिर भी वहां उन्हें इतनी अधिक सब्सिडी दी जाती है कि भारत जैसे देशों को उसमें कटौती की मांग करनी पड़ती है। भारत में आबादी का दो तिहाई हिस्सा किसानों का ही है, फिर भी यहां की सरकार उन्हें उपज की वाजिब कीमत तक देने को तैयार नहीं होती। आसमान छू रही महंगाई की वजह से किसानों की कृषि लागत और जीवन निर्वाह का व्यय का काफी बढ़ गया है। ऐसे में उन्हें उपज की वाजिब कीमत भी नहीं मिलेगी तो आत्महत्या करने के अलावा और कौन-सा विकल्प रहेगा उनके पास?
न्यूनतम समर्थन मूल्य ही नहीं, कृषि उपज के व्यापार के मामले में भी केन्द्र सरकार का रवैया किसान विरोधी है। डब्ल्यूटीओ वार्ता में भारतीय किसानों के हितों के संरक्षण की ढपोरशंखी बातें करनेवाली सरकार व्यवहार में इसके विपरीत काम कर रही है। इस सरकार ने भारतीय किसानों पर बंदिशें थोपते हुए गेहूं, चावल व मक्का के निर्यात पर प्रतिबंध लगा रखा है। भारतीय किसानों की उपज के निर्यात पर प्रतिबंध से किसके हित का संरक्षण हो रहा है, भारतीय किसानों का अथवा विदेशी किसानों का?
देश के माननीय कर्णधारो, अमेरिका से अधिक तो आप ही भारतीय किसानों का गला दबा रहे हैं। यदि गैर कृषक आबादी को सस्ता अनाज मुहैया कराने के लिए चावल-गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा रहे हैं, तो स्वीकार कर लीजिए डब्ल्यूटीओ वार्ता में अमेरिकी शर्तें। आपके ही कहे अनुसार भारत में मौजूदा कीमतों से भी सस्ता मिलेगा लोगों को अनाज। यह अलग बात है कि तब शायद आपको महंगी दरों पर घटिया गेहूं के आयात का सुअवसर न मिले। लेकिन आप तो दोनों में से कोई भी काम नहीं कर रहे – न किसानों को वाजिब कीमत दे रहे हैं, न ही गैर किसान आबादी को सस्ता खाद्य पदार्थ। घोटालेबाज व जमाखोर आपकी नीतियों की वजह से जरूर मालामाल हो रहे हैं।
खबर है कि केन्द्र सरकार गैर बासमती चावल के निर्यात पर लगी पाबंदी की अब समीक्षा करने जा रही है। अब यदि सरकार यह पाबंदी हटा भी लेगी तो फिलहाल किसानों को कोई लाभ मिलने से रहा। जो भी लाभ होगा, व्यापारियों को होगा। किसान तो अपना धान, चावल कब का औने-पौने दामों पर बेच चुके हैं। अगली फसल चार-पांच माह बाद तैयार होगी।
केन्द्र सरकार द्वारा इस्पात के मूल्य को नियंत्रित करने की कोशिशों का विरोध घरेलू इस्पात उद्योग यह कह कर रहा है कि इससे औद्योगिक विकास प्रभावित होगा। तो क्या इसी तरह से घरेलू कृषि उपज की कीमतों को नियंत्रित करने से देश में कृषि के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ रहा? किसानों की आवाज उठानेवाली कोई मजबूत लॉबी नहीं है तो आप उन्हें भट्ठी में झोंक दीजिएगा?
केन्द्र सरकार की किसान विरोधी नीति के चलते इन दिनों बिहार के मक्का उत्पादक किसान त्राहि त्राहि कर रहे हैं। मक्का की बंपर उपज के बावजूद केन्द्र सरकार द्वारा गत जुलाई माह में उसके निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया। प्रतिबंध के बाद बिहार में मक्के की कीमत 750 रुपये से घटकर 500 रुपये प्रति क्वींटल पर आ गयी है। बिहार के कोसी क्षेत्र के मक्का उत्पादक किसानों में इससे हाहाकार मचा हुआ है। मक्का उत्पादक किसानों की दुर्दशा देख सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सहित कई राजनेताओं ने मक्का निर्यात पर लगी पाबंदी हटाने की मांग की है। लेकिन केन्द्र सरकार निर्यात पर लगी पाबंदी हटाने के बजाय बिहार से मक्का की खरीदारी पर विचार कर रही है। यदि मक्के की सरकारी खरीदारी होती भी है तो किसानों को मात्र 620 रुपये प्रति क्वींटल का ही न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा। मतलब मक्का उत्पादक किसानों के लिए हर हालत में इस साल खेती घाटे का सौदा ही होने जा रही है। यही है - कांग्रेस का हाथ, अन्नदाता के साथ?
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