हमारा धान 7 रु. 45 पैसे में हमसे लिया जाये और वैसा ही धान हमें 215 रु. में बीज के नाम पर दिया जाये, तो इसे आप क्या कहेंगे? कोई भी कंपनी कारोबार मुनाफा के लिए ही करती है, लेकिन क्या यह मुनाफा 2885 फीसदी होना चाहिए? यह तो लूट की खुली छूट है। सरासर ठगी है, धोखाधड़ी। हम कैसे मानें कि इस देश में किसानों का भला सोचनेवाली कोई सरकार है?
दरअसल निजी कंपनियां बीज के नाम पर किसानों लूट रही हैं, और सरकार आंखें मुंदे हुए है। यही नहीं, बहुधा ऐसा देखा जाता है कि ये कंपनियां सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल भी करती हैं। हद तो यह है कि सरकारी कर्मचारी व जनप्रतिनिधि इनकी मदद में खड़े रहते हैं। सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल ये कंपनियां इस उद्देश्य से करती हैं कि लोग इन्हें सरकारी कार्यक्रम का हिस्सा समझें। अशिक्षित या अल्पशिक्षित किसान इन्हें वैसा समझ भी लेते हैं और खुशी-खुशी बोरे भर अनाज की कमाई दो-चार मुट्ठी बीज के लिए गवां देते हैं। एक अंधी आशावादिता उनकी कंगाली को और बढ़ा देती है। निराशा से घिरे वे धरतीपुत्र लॉटरी का टिकट समझ कर महंगा बीज खरीदते हैं कि शायद इतनी फसल हो कि उनके सारे दुख दूर हो जायें। लेकिन वैसा कुछ नहीं होता। कभी-कभी तो महंगे बीज से होनेवाली पैदावार उनके घर के बीज से भी कम होती है।
जब भी बीज बोने का सीजन आता है, हमारे खेतिहर इलाकों में तथाकथित उन्नत बीज बेचनेवाली कंपनियों व संस्थाओं के एजेंटों की चहलकदमी बढ़ जाती है। इनमें से कुछ लोग सरकारी मशीनरी के सहयोग से किसान प्रशिक्ष्ाण शिविरों का आयोजन भी करते हैं। हालांकि वह केवल स्वांग होता है, उनका असली उद्देश्य बीज बेचना होता है। कितना चोखा धंधा है? 7 रु. 45 पैसे में मिलनेवाला एक किलो धान बेच रहे हैं दो सौ ढाई सौ रुपये में। क्या कोई कमाएगा ? पांच किलो भी बेच दिये तो हजार रुपये धरे हैं। उधर किसान चार बोरा धान लेकर जाये तब शायद इतने पैसे मिलें।
केन्द्र और राज्य की सरकारों के बीज निगम हैं, राष्ट्रीय बीज नीति भी है। लेकिन सब जहां के तहां हैं। खेती-बाड़ी की समस्याएं प्रशासनिक अधिकारियों के लिए के लिए कभी प्राथमिकता नहीं बन पातीं। रोम के जलने और नीरो के चैन से बंशी बजानेवाली स्थिति ही हमेशा रहती है। चालू खरीफ वर्ष 2008 में बीज विस्तार कार्यक्रम के तहत बिहार सरकार ने बिहार राज्य बीज निगम के धान बीज किसानों के बीच उपलब्ध कराने पर काफी जोर दिया। तब भी बेहतर बीज का झांसा देकर निजी कंपनियों के एजेंट किसानों की जेबें कतरने में कामयाब रहे।
यह तो हमारा अपने इलाके का अनुभव है। शायद विदर्भ की स्िथति और अधिक खराब है। मशहूर पत्रकार पी. साईंनाथ कहते हैं कि विदर्भ क्षेत्र में 1994 में स्थानीय स्तर पर एक किलो कपास के बीज की कीमत 7 रुपये किलो होती थी। लेकिन आज उसी इलाके में मोनसेंटों द्वारा एक किलो कपास का बीज 1800 रुपये किलो बेचा जा रहा है। यह अंधेरनगरी नहीं तो क्या है?
किसान की उपज की कीमतों को नियंत्रित करने के तमाम उपाय हों और उसकी कृषि लागत कम करने का कोई प्रयास न हो, यह ठीक नहीं। किसान अभाव में रहेगा तो खेती भी उन्नत नहीं हो सकेगी। आज की तारीख में बीज, खाद, बिजली, डीजल कोई भी चीज किसान को सस्ती व वाजिब कीमतों पर नहीं मिल रही हैं। ये चीजें महंगी तो हैं ही, अक्सर किसानों को खाद व डीजल कालाबाजार में खरीदना होता है। आखिर कितना बोझ सहेगा भारत का किसान?
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ये तो समस्या है ही... पी. साईंनाथ को मैं भी बहुत पढता हूँ... कमाल का ज्ञान रखते हैं गरीबी पर. unaki एक किताब भी padhi थी... "everybody loves a good draught".
ReplyDeleteबड़ी अफसोसजनक स्थितियां हैं.
ReplyDeleteसमझ में नहीं आया कि कैसा है यह बीज। अगर बीज में खासियत नहीं तो किसान का टेंटुआ दबा कर खरीदवाया जा रहा है क्या?
ReplyDeleteखाद और डीजल में सबसिडी का बोझ टेक्सपेयर झेल रहा है। तब भी किसान परेशान है।
असल में अशिक्षा/अल्पशिक्षा ही किसान का सबसे बड़ा दुश्मन है। और सब का इण्टरेस्ट इसी में है कि वह वैसा बना रहे।
ऐसे ही है। किसानों के साथ कोई भी कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन, खेती-किसानी पर आप जैसे लोग कुछ लिख रहे हैं ये अच्छा है
ReplyDeleteइस बढ़ती हुई समस्या का हल तो अनभिज्ञ किसानों को वास्तविकता से अवगत कराने से ही होगा। यह भी सच है कि किसानों का मस्तिष्क आप की बातों का आसानी से स्वीकार नहीं करेगा। फिर भी आप के यह
ReplyDeleteलेख कालांतर में असर अवश्य लाएंगे।
शुभकामनाओं सहित
महावीर शर्मा
aapne bilkul sahi kaha...bhola bhala kisan kam gyaan hone ke kaaran ghata uthata hai...bahut hi saamyik lekh hai aapka.
ReplyDeleteYou mentioned several points with good perspective, we are completely agreed with the sense of the topic you discussed here.
ReplyDeleteMy Health Tips Online