बकरियों से चरवाकर जमीन में उग आयी घास की सफाई कराने का गूगल का प्रयोग पश्चिमी दुनिया के लिए भले ही कौतूहल की बात हो, लेकिन भारतीय किसानों के लिए यह सामान्य परिपाटी है। यह हमारी सदियों पुरानी कृषि प्रथाओं की पर्यावरण-अनुकूलता की ओर भी हमारा ध्यान ले जाता है, जिन्हें आज के पूंजीवादी युग में महत्व नहीं दिया जा रहा है।
गूगल के अधिकृत ब्लॉग में कहा गया है कि उनके माउंटेन व्यू हेडक्वार्टर्स में कुछ खेत हैं, जिनमें उगे घास-पात को समय-समय पर कटवाना पड़ता है ताकि आग लगने का खतरा न रहे। इस दफा उन्होंने ध्वनि और धुआं-प्रदूषण करनेवाली घास काटनेवाली मशीनों का इस्तेमाल न कर अपेक्षाकृत कम प्रदूषण वाला तरीका अख्तियार किया। वे कैलिफोर्निया ग्रेजिंग से कुछ बकरियां किराए पर मंगवाकर अपनी जमीन पर उग आयी घास को उनसे चरवा रहे हैं। इस काम के लिए एक चरवाहा तकरीबन 200 बकरियां लाता है जो करीब एक सप्ताह उनके यहां रहकर उनकी जमीन पर चरती हैं। इससे जमीन की उर्वरता भी बढ़ जाती है। ऐसा करने में घास को मशीन से कटवाने के बराबर ही उनका खर्च आ रहा है, और लॉन-मूअर जैसी मशीनों की तुलना में बकरियों को देखना ज्यादा सुखद है।
भेड़-बकरियों के झुंड को खेतों में बैठाकर जमीन की उर्वरता बढ़ाने का तरीका भारतीय किसानों द्वारा बहुत पहले से अपनाया जाता रहा है। भारतीय किसानों की आम धारणा है कि बकरी जिस पौधे को चरती है इस कदर ठूंठ कर देती है कि वह जल्द नहीं पनपता। दूसरी ओर उसका मल-मूल जमीन के लिए बहुत अच्छे जैविक उर्वरक का काम करता है।
आज के समय में मशीनों का उपयोग दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, जिसके चलते कृषि में पशुओं की उपयोगिता को लोग महत्व नहीं देते। लेकिन पहले ऐसी बात नहीं थी। खेत की जुताई से लेकर खेतों की सिंचाई, फसल की दौनी और अनाज की ढुलाई तक सारा काम पशुओं के जरिए होता था। ईंधन, दूध, दही, मट्ठा, घी, खोवा, पनीर, अंडा, मांस, कंबल, जूता आदि जैसी घर-गृहस्थी की जरूरी चीजें पशुओं से ही मिलती थीं। आवागमन के साधन भी पशु ही थे। कहने का मतलब है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक पशु हमारी कृषि संस्कृति के अभिन्न अंग थे।
उन दिनों खेतों में डालने के लिए रासायनिक उर्वरक नहीं होते थे। किसान घूर (राख और जैविक कचरा) और पशुओं के मल-मूत्र खेतों में डालते और उन्हीं की बदौलत फसलें लहलहाया करती थीं। कृषि और पशुचारण का अन्योनाश्रय संबंध था और दोनों एक दूसरे के पूरक थे। फसल कट चुकने पर जब खेत खाली हो जाते तो पशुपालक उनमें अपने पशुओं को चराते। पशुओं को चारा मिल जाता था और उनके मल-मूत्र के रूप में खेतों को खाद।
कृषि और पशुपालन के पारस्परिक साहचर्य की यह परंपरा आज भी गांवों में कुछ अंशों में जीवित है। गांवों में आज भी ऐसे बुनकर परिवार हैं, जो झुंड के झुंड भेड़-बकरियां पालते हैं और अपने करघों पर उनके ऊन से कंबल का निर्माण करते हैं। खेती करनेवाले किसान उनसे आग्रह करकर अपने खेतों में उनकी भेड़-बकरियां बैठवाते हैं ताकि उनकी जमीन की उर्वरता बढ़ जाए।
गर्मी के दिनों में जब पशु चारे की समस्या हो जाती है, कई मवेशीपालक अपने मवेशियों को चरवाहों के हवाले कर देते हैं जो उनके झुंड पहाड़, जंगल या वैसी अन्य जगहों पर ले जाते हैं, जहां चारा मिल सकता है। कई किसान इन चरवाहों को अपना अतिरिक्त पुआल इस शर्त पर मवेशियों को खिलाने के लिए सौंप देते हैं कि वे मवेशियों को उस किसान के खेतों में ही रखेंगे। मवेशियों के मल-मूत्र रूपी उर्वरक की लालच में किसान इन चरवाहों के खाने-पीने का इंतजाम भी करते हैं।
आज के समय में जैविक खेती और पर्यावरण संरक्षण के खूब नारे लगाए जाते हैं, हालांकि उसी अनुपात में व्यावहारिक उपाय अपनाने पर उतना बल नहीं दिया जाता। यदि इन उद्देश्यों को प्राप्त करना है तो कृषि और पशुपालन के साहचर्य को बरकरार रखना ही होगा। इस दृष्टि से देखें तो भारतीय संदर्भ में गूगल का यह प्रयोग काफी महत्व रखता है।
(फोटो गूगल के ब्लॉग से साभार)
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बेहतर जानकारी.............. जै हो गूगल बाबा की..
ReplyDeleteबहुत ही बढीया जानकरी दे रहे है आप । उत्तर भारत मे धान की खेती के लिये यह उपयुक्त समय है कृपया करके इसके बारे मे नई जानकरी से अवगत कराएं।
ReplyDeletebahut badhiya aayojan kiya hai google ne
ReplyDeleteलगभग ५० साल पहले मेरे बाबा ने एक ऊसर ज़मीन खरीदी जिसमे उस समय कुछ भी नहीं होता था . उसी गावं के पास में बकरियों की बहुत बड़ी हाट लगती थी लोग दूर से अपनी बकरिया बेचने आते थे उस समय रहने की बहुत परेशानी hoती थी . बाबा ने उन व्यापारियों को रहने का इंतजाम किया सैकडो बकरियां वहां चुन्गती थी और मींगनी करती रहती थी बकरी के मींगनी से ज्यादा शायद ही कोई उर्वरक ho . इस तरह बकरियों ने लगभग ६० विघा जमीन नई कर दी जो आजतक बहुफसली है
ReplyDeleteराजस्थान और मध्यप्रदेश में मैने किसानो द्वारा भेड़-बकरियों के रेवड़ वालों को बुला कर अपने खेत में बिठाते देखा है। दिनों के हिसाब से ये रेवड़ वाले पैसा लेते हैं। नेचुरल खाद पाने का यह बहुत अच्छा तरीका है।
ReplyDeleteपोस्ट अच्छी लगी - आपके ब्लॉग की प्रवृत्ति अनुकूल।
भाई हम तो बचपन से देखते आरहे हैं ये सब. और अभी तक ये सिलसिला चालू है. एक बहुत ही बेहतर खाद का तरीका है ये.
ReplyDeleteरामराम.
भेड़ों को एक दो दिन के लिए खेत में बुलाने का काम तो मैंने भी देखा है.
ReplyDeleteबढियां विवेचन !
ReplyDeleteमैंने भी पढ़ा था इस बारे में.. आपने काफी कुछ कह दिया है ..
ReplyDeleteashok ji,
ReplyDeletesahi kah rahe ho aap.
hamare desh me to yah tareeka prachin kaal se chala aa raha hai.
अरे वाह, बहुत अचछी जानकारी है।
ReplyDelete----------
किस्म किस्म के आम
क्या लडकियां होती है लडको जैसी