सुअरों की बात चले और ऐनिमल फार्म याद न आए, ऐसा हो नहीं सकता। बीसवीं सदी के महान अंग्रेज उपन्यासकार जॉर्ज ऑरवेल ने अपनी इस कालजयी कृति में सुअरों को केन्द्रीय चरित्र बनाकर बोलशेविक क्रांति की विफलता पर करारा व्यंग्य किया था। अपने आकार के लिहाज से लघु उपन्यास की श्रेणी में आनेवाली यह रचना पाठकों के लिए आज भी उतनी ही असरदार है।
कालजयी कृति का संदर्भ कभी मरता नहीं। हर युग और देश के संदर्भ में वह इस कदर महत्वपूर्ण दिखने लगती है कि लगता है कि उसकी रचना उसी संदर्भ में हुई हो। ऐनिमल फार्म भी उसी तरह की अमर कृति है, जो आज के संदर्भ में भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। खासकर मौजूदा समय में भारत की राजनीतिक व्यवस्था के संदर्भ में यह उपन्यास और अधिक अर्थबहुल हो जाता है। यही कारण है कि वर्तमान भारत की राजनीतिक स्थितियों का चित्रण करने के लिए राजनीतिक टिप्पणीकार अक्सर इसके उद्धरण प्रस्तुत करते हैं।
जॉर्ज ऑरवेल (1903-1950) के संबंध में खास बात यह है कि उनका जन्म भारत में ही बिहार के मोतिहारी नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता ब्रिटिश राज की भारतीय सिविल सेवा के मुलाजिम थे। ऑरवेल का मूल नाम एरिक आर्थर ब्लेयर था। उनके जन्म के साल भर बाद ही उनकी मां उन्हें लेकर इंग्लैण्ड में बस गयी, जहां सेवानिवृत्ति के बाद उनके पिता भी चले गए। वहीं पर उनकी शिक्षा हुई।
ऐनिमल फार्म की कहानी कुछ इस प्रकार है : मेनर फार्म के जानवर अपने मालिक के खिलाफ बगावत कर देते हैं और शासन अपने हाथ में ले लेते हैं। जानवरों में सुअर सबसे चालाक हैं और इसलिए वे ही इनका नेतृत्व करते हैं। सुअर जानवरों की सभा में सुशासन के कुछ नियम तय करते हैं। पंरतु बाद में ये सुअर आदमी का ही रंग-ढंग अपना लेते हैं और अपने फायदे व ऐश के लिए दूसरे जानवरों का शोषण करने लगते हैं। इस क्रम में वे नियमों में मनमाने ढंग से तोड़-मरोड़ भी करते हैं। मसलन नियम था – ALL ANIMALS ARE EQUAL. लेकिन उसमें हेराफेरी कर उसे बना दिया जाता है:-
ALL ANIMALS ARE EQUAL,
BUT SOME ANIMALS ARE MORE EQUAL THAN OTHERS.
जॉर्ज ऑरवेल के इस मशहूर उपन्यास को हममें से अधिकांश ने जरूर पढ़ा होगा। लेकिन यह एक ऐसी रचना है, जिसकी पंक्तियों के बीच बार-बार तांक-झांक करने को मन करता है। ऐनिमल फार्म ऑनलाइन उपलब्ध है और इसे इस लिंक पर जाकर पढ़ा जा सकता है।
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वाह क्या बात है.. ! वैसे यशवंत व्यास की किताब ' कोमरेड गोडसे ' में सूअर की मौत पर होती राजनीति पर बाण कसा गया है..
ReplyDeleteस्मृतियों में कहीं धंसी ये रचना फिर से उभर कर आयी.आभार. भारतीय लोकतंत्र के सन्दर्भ में भी सच है कि सब समान में भी कुछ अधिक समान होतें हैं.
ReplyDeleteआपने कैसे मान लिया कि हममे से अधिकाँश ने इसे पढ़ लिया होगा. एक अंश हम भी हैं जिसने नहीं पढ़ा.और हमारे जैसे बहुतेरे होंगे उन सब को मिलाया जावे तो वे बन जायेंगे अधिकाँश. लिंक के लिए आभार.सस्नेह.
ReplyDeleteमैं ने इसे पढ़ा है। बहुत ही सुंदरता से गढ़ा गया उपन्यास है। लेकिन मैं लेखक के मंतव्य से सहमत नहीं।
ReplyDeleteमैंने भी नहीं पढ़ा। अब पढूंगी।
ReplyDeleteबहुत बढिया जानकारी दी आपने.
ReplyDeleteरामराम.
यहाँ भी देखें पाण्डेय जी ,आपने तो मेरे प्रिय लेखक की चर्चा छेड़ दी !
ReplyDeletehttp://indiascifiarvind.blogspot.com/2007/09/blog-post_10.html
पढ़ा है इस कृति को हमने भी । कालजयी रचना का स्मरण । धन्यवाद ।
ReplyDeleteये नहीं पता था ...जानकारी के लिए धन्यवाद
ReplyDeleteउत्तम पोस्ट अशोक भाई. And thanks for the online link.
ReplyDeleteये पुस्तक तो अपनी भी पढ़ी हुई है !
ReplyDeleteअशोक भाई ,
ReplyDeleteमैँने ये कथा पढी नहीँ - अब लिन्क से पढ लूँगी -आभार !
- लावण्या
यह बेहतरीन पुस्तक है और साम्यवाद पर व्यंग है।
ReplyDeleteघर पर ये किताब है पर इसके बारे में इतना सुनने के बाद भी इसे पढ़ नहीं पाया हूँ। कोशिश रहेगि की जल्द ही पढूँ।
ReplyDeleteसही कहा.
ReplyDeleteमैं ने इसे पढ़ा है। बहुत ही सुंदरता से गढ़ा गया उपन्यास है। मैं लेखक के मंतव्य से पूर्णत: सहमत हूं। (दिनेशराय द्विवेदी की टिप्पणी अंशत लेने के लिये माफी!)
ReplyDeleteपढ़ा नहीं था. अब पढ़ लेंगें. लिंक आपने दे ही दिया है, भाई... साभार..
ReplyDeletenayee jaankari mili..dhnywaad..link par bhi jaa kar dekhtey hain.
ReplyDeleteMaine to bbC par natak ke roop mein suna tha ise. Motihari se inke jude hone ki nai jaankari mili.
ReplyDeleteस्वाइन फ्लू के बहाने ही सही ओरवेल का ज़िक्र तो आया!
ReplyDeleteYAH JAAN KAR BAHUT ACCHA LAGA
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