आप भले एयरकंडीशंड घरों में रहते हों, लेकिन गर्मियों में खस की टट्टियों की याद जरूर आती होगी। इस बात को अधिक से अधिक लोगों को जानने की जरूरत है कि इस वनस्पति की उपयोगिता आपके कमरों के तापमान को नियंत्रित रखने में ही नहीं, पर्यावरण को अनुकूलित रखने में भी है। मृदा और जल संरक्षण तथा जल शुद्धीकरण में इसकी उपयोगिता को देखते हुए दुनिया भर में इसके प्रति लोगों की दिलचस्पी तेजी से बढ़ी है। जानकार लोगों का कहना है कि खस की इतनी खासियतें हैं कि उसे भारत भूमि को प्रकृति का अनुपम उपहार माना जा सकता है। अफसोस की बात है कि हम भारतीय प्रकृत्ति प्रदत्त इस उपहार को सहेजने में विफल साबित हो रहे हैं।
खस यानी वेटीवर (vetiver)। यह एक प्रकार की झाड़ीनुमा घास है, जो केरल व अन्य दक्षिण भारतीय प्रांतों में उगाई जाती है। वेटीवर तमिल शब्द है। दुनिया भर में यह घास अब इसी नाम से जानी जाती है। हालांकि उत्तरी और पश्चिमी भारत में इसके लिए खस शब्द का इस्तेमाल ही होता है। इसे खस-खस, khus, cuscus आदि नामों से भी जाना जाता है। इस घास की ऊपर की पत्तियों को काट दिया जाता है और नीचे की जड़ से खस के परदे तैयार किए जाते हैं। बताते हैं कि इसके करीब 75 प्रभेद हैं, जिनमें भारत में वेटीवेरिया जाईजेनियोडीज (Vetiveria zizanioides) अधिक उगाया जाता है।
भारत में उगनेवाली इस घास की ओर दुनिया का ध्यान 1987 में विश्वबैंक के दो कृषि वैज्ञानिकों के जरिए गया। इसकी काफी रोचक कहानी है। विश्वबैंक के कृषि वैज्ञानिक रिचर्ड ग्रिमशॉ और जॉन ग्रीनफिल्ड मृदा क्षरण पर रोक के उपाय की तलाश में थे। इसी दौरान उनका भारत में आना हुआ और उन्होंने कर्नाटक के एक गांव में देखा कि वहां के किसान सदियों से मृदा क्षरण पर नियंत्रण के लिए वेटीवर उगाते आए हैं। उन्होंने किसानों से ही जाना कि इसकी वजह से उनके गांवों में जल संरक्षण भी होता था तथा कुओं को जलस्तर ऊपर बना रहता था।
उसके बाद से विश्वबैंक के प्रयासों से दुनिया भर में वेटीवर को पर्यावरण संरक्षण के उपयोगी साधन के रूप में काफी लोकप्रियता मिली है। हालांकि भारतीय कृषि व पर्यावरण विभागों व इनसे संबद्ध वैज्ञानिकों ने इसमें खासी रुचि नहीं दिखायी। नतीजा यह है कि भारत में लोकप्रियता की बात तो दूर, इस पौधे का चलन कम होने लगा है।
कुछ वर्षों पूर्व भारत में खस की टट्टियां काफी लोकप्रिय थी। लू के थपेड़ों से बचने के लिए दरवाजे और खिड़कियों पर खस के परदे लगाए जाते थे। ये सुख-सुविधा और वैभव की निशानी हुआ करते थे। लेकिन आधुनिकता की अंधी दौड़ और पानी की बढ़ती किल्लत की वजह से खस के परदों का चलन समाप्तप्राय हो ही गया है, लोग कूलर भी खरीदना नहीं चाहते। जैसा की हम सभी जानते हैं कि एयरकूलर में खस की टट्टियां लगती हैं, जो पानी में भिंगकर उसके पंखे की हवा को ठंडा कर देती हैं। लेकिन अब लोग कूलर की जगह एसी खरीदना ज्यादा पसंद करते हैं।
वैसे खस का इस्तेमाल सिर्फ ठंडक के लिए ही नहीं होता, आयुर्वेद जैसी परंपरागत चिकित्सा प्रणालियों में औषधि के रूप में भी इसका इस्तेमाल होता है। इसके अलावा इससे तेल बनता है और इत्र जैसी खुशबूदार चीजों में भी इसका उपयोग होता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात है कि पर्यावरण के खतरों से निबटने में सक्षम एक बहुउपयोगी पौधे के रूप में आज दुनिया के विभिन्न देशों में इस पौधे के प्रति लोगों की दिलचस्पी काफी बढ़ रही है। मृदा संरक्षण और जल संरक्षण में उपयोगी होने के साथ यह दूषित जल को भी शुद्ध करता है। जाहिर है कि यदि इसका प्रचार-प्रसार हो तो यह भूमि की उर्वरता और जलस्तर बरकरार रखने के लिए किसानों के हाथ में एक सस्ता साधन साबित हो सकता है। इससे कई हस्तशिल्प उत्पाद भी तैयार होते हैं और यह ग्रामीण लोगों के जीवन स्तर में सुधार का माध्यम बन सकता है।
(चित्र विकीपीडिया से साभार)
Monday, May 18, 2009
Sunday, May 10, 2009
मोतिहारी में जन्मे जॉर्ज ऑरवेल का ऐनिमल फार्म तो पढ़ा ही होगा !
सुअरों की बात चले और ऐनिमल फार्म याद न आए, ऐसा हो नहीं सकता। बीसवीं सदी के महान अंग्रेज उपन्यासकार जॉर्ज ऑरवेल ने अपनी इस कालजयी कृति में सुअरों को केन्द्रीय चरित्र बनाकर बोलशेविक क्रांति की विफलता पर करारा व्यंग्य किया था। अपने आकार के लिहाज से लघु उपन्यास की श्रेणी में आनेवाली यह रचना पाठकों के लिए आज भी उतनी ही असरदार है।
कालजयी कृति का संदर्भ कभी मरता नहीं। हर युग और देश के संदर्भ में वह इस कदर महत्वपूर्ण दिखने लगती है कि लगता है कि उसकी रचना उसी संदर्भ में हुई हो। ऐनिमल फार्म भी उसी तरह की अमर कृति है, जो आज के संदर्भ में भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। खासकर मौजूदा समय में भारत की राजनीतिक व्यवस्था के संदर्भ में यह उपन्यास और अधिक अर्थबहुल हो जाता है। यही कारण है कि वर्तमान भारत की राजनीतिक स्थितियों का चित्रण करने के लिए राजनीतिक टिप्पणीकार अक्सर इसके उद्धरण प्रस्तुत करते हैं।
जॉर्ज ऑरवेल (1903-1950) के संबंध में खास बात यह है कि उनका जन्म भारत में ही बिहार के मोतिहारी नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता ब्रिटिश राज की भारतीय सिविल सेवा के मुलाजिम थे। ऑरवेल का मूल नाम एरिक आर्थर ब्लेयर था। उनके जन्म के साल भर बाद ही उनकी मां उन्हें लेकर इंग्लैण्ड में बस गयी, जहां सेवानिवृत्ति के बाद उनके पिता भी चले गए। वहीं पर उनकी शिक्षा हुई।
ऐनिमल फार्म की कहानी कुछ इस प्रकार है : मेनर फार्म के जानवर अपने मालिक के खिलाफ बगावत कर देते हैं और शासन अपने हाथ में ले लेते हैं। जानवरों में सुअर सबसे चालाक हैं और इसलिए वे ही इनका नेतृत्व करते हैं। सुअर जानवरों की सभा में सुशासन के कुछ नियम तय करते हैं। पंरतु बाद में ये सुअर आदमी का ही रंग-ढंग अपना लेते हैं और अपने फायदे व ऐश के लिए दूसरे जानवरों का शोषण करने लगते हैं। इस क्रम में वे नियमों में मनमाने ढंग से तोड़-मरोड़ भी करते हैं। मसलन नियम था – ALL ANIMALS ARE EQUAL. लेकिन उसमें हेराफेरी कर उसे बना दिया जाता है:-
ALL ANIMALS ARE EQUAL,
BUT SOME ANIMALS ARE MORE EQUAL THAN OTHERS.
जॉर्ज ऑरवेल के इस मशहूर उपन्यास को हममें से अधिकांश ने जरूर पढ़ा होगा। लेकिन यह एक ऐसी रचना है, जिसकी पंक्तियों के बीच बार-बार तांक-झांक करने को मन करता है। ऐनिमल फार्म ऑनलाइन उपलब्ध है और इसे इस लिंक पर जाकर पढ़ा जा सकता है।
कालजयी कृति का संदर्भ कभी मरता नहीं। हर युग और देश के संदर्भ में वह इस कदर महत्वपूर्ण दिखने लगती है कि लगता है कि उसकी रचना उसी संदर्भ में हुई हो। ऐनिमल फार्म भी उसी तरह की अमर कृति है, जो आज के संदर्भ में भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। खासकर मौजूदा समय में भारत की राजनीतिक व्यवस्था के संदर्भ में यह उपन्यास और अधिक अर्थबहुल हो जाता है। यही कारण है कि वर्तमान भारत की राजनीतिक स्थितियों का चित्रण करने के लिए राजनीतिक टिप्पणीकार अक्सर इसके उद्धरण प्रस्तुत करते हैं।
जॉर्ज ऑरवेल (1903-1950) के संबंध में खास बात यह है कि उनका जन्म भारत में ही बिहार के मोतिहारी नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता ब्रिटिश राज की भारतीय सिविल सेवा के मुलाजिम थे। ऑरवेल का मूल नाम एरिक आर्थर ब्लेयर था। उनके जन्म के साल भर बाद ही उनकी मां उन्हें लेकर इंग्लैण्ड में बस गयी, जहां सेवानिवृत्ति के बाद उनके पिता भी चले गए। वहीं पर उनकी शिक्षा हुई।
ऐनिमल फार्म की कहानी कुछ इस प्रकार है : मेनर फार्म के जानवर अपने मालिक के खिलाफ बगावत कर देते हैं और शासन अपने हाथ में ले लेते हैं। जानवरों में सुअर सबसे चालाक हैं और इसलिए वे ही इनका नेतृत्व करते हैं। सुअर जानवरों की सभा में सुशासन के कुछ नियम तय करते हैं। पंरतु बाद में ये सुअर आदमी का ही रंग-ढंग अपना लेते हैं और अपने फायदे व ऐश के लिए दूसरे जानवरों का शोषण करने लगते हैं। इस क्रम में वे नियमों में मनमाने ढंग से तोड़-मरोड़ भी करते हैं। मसलन नियम था – ALL ANIMALS ARE EQUAL. लेकिन उसमें हेराफेरी कर उसे बना दिया जाता है:-
ALL ANIMALS ARE EQUAL,
BUT SOME ANIMALS ARE MORE EQUAL THAN OTHERS.
जॉर्ज ऑरवेल के इस मशहूर उपन्यास को हममें से अधिकांश ने जरूर पढ़ा होगा। लेकिन यह एक ऐसी रचना है, जिसकी पंक्तियों के बीच बार-बार तांक-झांक करने को मन करता है। ऐनिमल फार्म ऑनलाइन उपलब्ध है और इसे इस लिंक पर जाकर पढ़ा जा सकता है।
उस सुअर को क्या कहें जो पूरे देश में अकेला है !
सुअर जैसा बदनसीब प्राणी शायद ही किसी को माना जाता हो, लेकिन उस सुअर को क्या कहें जो अपने देश में अकेला है और अब उसे अन्य जानवरों से भी अलग-थलग कर दिया गया है।
हम बात कर रहे हैं उसकी, जो अफगानिस्तान का इकलौता ज्ञात सुअर है। वहां सुअर के मांस से बने उत्पादों को अवैध माना जाता है तथा वहां के लोगों के लिए सुअर एक अजूबा ही है। चूंकि पश्तु भाषा में सुअर को खानजीर कहा जाता है, इसलिए उसे वहां इसी नाम से जाना जाता है।
खानजीर को चीन ने 2002 ईस्वी में अफगानिस्तान को दिया था। तब से वह वहां की राजधानी काबुल के चिडियाघर में रहता है। पहले वह चिडियाघर के हिरण और बकरियों के साथ चरा करता था, लेकिन दुनिया में स्वाइन फ्लू बीमारी फैलने के बाद उस बेचारे की बदनसीबी की हद हो गयी। अब उसे सभी प्राणियों से अलग-थलग कमरे में रखकर एकांतवास दे दिया गया है।
चिडियाघर के निदेशक अजीज गुल साकिब बताते हैं कि अफगान लोगों को स्वाइन फ्लू बीमारी के बारे में बहुत जानकारी नहीं है। इसलिए जब वे इस सुअर को देखते तो उन्हें डर सताने लगता कि कहीं वे भी एच1एन1 वायरस से संक्रमित न हो जाएं।
बहरहाल, सुअर तो सुअर हैं, मानवाधिकार जैसा उनका कोई सुअराधिकार तो होता नहीं। फिर भी, परिवार और समाज से अलग-थलग एकांत जीवन काटना किसी के लिए तकलीफदायी ही है। हम तो यही कहेंगे कि इस जीवन से मौत भली।
(चित्र और खबर का स्रोत : बीबीसी न्यूज)
हम बात कर रहे हैं उसकी, जो अफगानिस्तान का इकलौता ज्ञात सुअर है। वहां सुअर के मांस से बने उत्पादों को अवैध माना जाता है तथा वहां के लोगों के लिए सुअर एक अजूबा ही है। चूंकि पश्तु भाषा में सुअर को खानजीर कहा जाता है, इसलिए उसे वहां इसी नाम से जाना जाता है।
खानजीर को चीन ने 2002 ईस्वी में अफगानिस्तान को दिया था। तब से वह वहां की राजधानी काबुल के चिडियाघर में रहता है। पहले वह चिडियाघर के हिरण और बकरियों के साथ चरा करता था, लेकिन दुनिया में स्वाइन फ्लू बीमारी फैलने के बाद उस बेचारे की बदनसीबी की हद हो गयी। अब उसे सभी प्राणियों से अलग-थलग कमरे में रखकर एकांतवास दे दिया गया है।
चिडियाघर के निदेशक अजीज गुल साकिब बताते हैं कि अफगान लोगों को स्वाइन फ्लू बीमारी के बारे में बहुत जानकारी नहीं है। इसलिए जब वे इस सुअर को देखते तो उन्हें डर सताने लगता कि कहीं वे भी एच1एन1 वायरस से संक्रमित न हो जाएं।
बहरहाल, सुअर तो सुअर हैं, मानवाधिकार जैसा उनका कोई सुअराधिकार तो होता नहीं। फिर भी, परिवार और समाज से अलग-थलग एकांत जीवन काटना किसी के लिए तकलीफदायी ही है। हम तो यही कहेंगे कि इस जीवन से मौत भली।
(चित्र और खबर का स्रोत : बीबीसी न्यूज)
Thursday, May 7, 2009
गूगल को बताइए अपनी कहानी, वह सुनना चाहता है आपकी जुबानी।
कनाडा के यानिक कुस्सॉन का 17 सालों से अपने पिता से संपर्क टूटा हुआ था। उन्हें नहीं पता था कि उनके पिता कहां हैं और क्या कर रहे हैं। एक दिन उनके घर में इंटरनेट आया। उन्होंने गूगल सर्च बॉक्स में अपने पिता का नाम लिखा, और फिर चमत्कार हो गया। गूगल सर्च के जरिए उन्होंने अपने बिछड़े हुए पिता को पा लिया।
तब से आज तक कुस्सॉन अपने पिता के संपर्क में हैं, और वह दिन आज भी उनकी स्मृति में ताजा है। दरअसल दुनिया में ऐसे अनगिनत लोग होंगे जिनके जीवन पर गूगल सर्च ने इसी तरह अमिट छाप छोड़ी होगी। हो सकता है उन शख्सों में आप भी हों जिनके जीवन पर गूगल ने काफी असर डाला हो।
यदि ऐसा है तो देर किस बात की। इस लिंक पर जाकर गूगल के ग्रुप प्रोडक्ट मैनेजर जैक मेंजेल की पोस्ट पढि़ए और उनके बताए ठिकाने पर लिख भेजिए अपनी कहानी। जी हां, आपकी कहानी का इंतजार हो रहा है।
तब से आज तक कुस्सॉन अपने पिता के संपर्क में हैं, और वह दिन आज भी उनकी स्मृति में ताजा है। दरअसल दुनिया में ऐसे अनगिनत लोग होंगे जिनके जीवन पर गूगल सर्च ने इसी तरह अमिट छाप छोड़ी होगी। हो सकता है उन शख्सों में आप भी हों जिनके जीवन पर गूगल ने काफी असर डाला हो।
यदि ऐसा है तो देर किस बात की। इस लिंक पर जाकर गूगल के ग्रुप प्रोडक्ट मैनेजर जैक मेंजेल की पोस्ट पढि़ए और उनके बताए ठिकाने पर लिख भेजिए अपनी कहानी। जी हां, आपकी कहानी का इंतजार हो रहा है।
चेहरा क्या देखते हो...
किसी चेहरे पर दूसरे चेहरे को प्रत्यारोपित करने को लेकर नैतिकता की जो दुहाई दी जाए, लेकिन चिकित्सा विज्ञान की यह उपलब्धि गौर और गर्व करने लायक है।
वर्ष 2008 के दिसंबर माह में अमेरिका के ओहियो प्रांत के क्लीवलैंड क्लीनीक में जब डॉ. मारिया साइमिनोव के नेतृत्व में 11 शल्य चिकित्सकों के दल ने करीब 22 घंटे चले ऑपरेशन के जरिए उस महिला के चेहरे का प्रत्यारोपण किया होगा तो वे जरूर जानते होंगे कि वे इतिहास बना रहे हैं। यह अमेरिका का पहला और दुनिया का चौथा चेहरा प्रत्यारोपण था।
ऑपरेशन के दौरान महिला के चेहरे पर हड्डियां, मांसपेशियां, तंत्रिकाएं, त्वचा, रक्त वाहिनियां और दांत लगाए गए। यह सभी अंग एक अन्य महिला के चेहरे से निकाले गए थे जिसकी कुछ ही घंटे पहले मौत हुई थी। उस समय मरीज की पहचान और उम्र को गोपनीय रखा गया था। यह भी नहीं बताया गया कि वह घायल कैसे हुई थी।
जब उक्त महिला ने ऑपरेशन के पांच माह बाद गत 5 मई को संवाददाता सम्मेलन में उपस्थित होकर अपना नया चेहरा दिखाया तो दुनिया को पूरी सच्चाई का पता चला। कोनी कल्प (Connie Culp) नामक उक्त 46 वर्षीया महिला को उसके पति ने वर्ष 2004 में गोली मार दी थी, जिससे उसका पूरा चेहरा ही वीभत्स हो गया था। उसका चेहरा इतना डरावना हो चुका था कि दो बच्चों की मां उस महिला के अपने बच्चे भी उसे देखकर डर जाते थे। ऑपरेशन से पहले वह बाहरी सहायता के बिना न तो कोई ठोस चीज खा सकती थी, न ही सूंघ या सांस ले सकती थी। लेकिन अब सब सामान्य हो रहा है। उसके चेहरे का अस्सी फीसदी अंश प्रत्यारोपित करना पड़ा।
डॉ. मारिया बताती हैं कि जब कोनी ने दोनों हाथों से चेहरे को छुआ और महसूस किया कि वहां नाक हैं, जबड़े भी हैं, तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
कोनी ठीक ही कहती है, ‘’किसी के चेहरे की बदसूरती के आधार पर कोई धारणा नहीं बनाएं, क्योंकि आप नहीं जानते कि उसके साथ क्या हुआ है।‘’
Tuesday, May 5, 2009
आइए, नजर डालते हैं दुनिया के पहले अंतर्राष्ट्रीय डिजिटल पुस्तकालय पर!
हमारी खेती-बाड़ी तो चलती ही रहेगी, लेकिन पुस्तकों का साथ भी जरूरी है। तो आइए एक नजर डालें विश्व स्तर के पहले अंतर्राष्ट्रीय डिजिटल पुस्तकालय पर। दुनिया भर के इंटरनेट प्रयोक्ताओं के लिए इस पुस्तकालय का औपचारिक उदघाटन गत माह फ्रांस की राजधानी पेरिस में हुआ। विभिन्न देशों की सांस्कृतिक विरासत को इंटरनेट पर उपलब्ध कराने के अंतर्राष्ट्रीय साझे प्रयास का यह अच्छा उदाहरण है।
पाठक www.wdl.org पर जाकर दुनिया की तमाम दुर्लभ पुस्तकें पढ़ सकते हैं। यह 19 देशों के पुस्तकालयों के सहयोग से साकार हुआ है।
अमेरिकी कांग्रेस के वाशिंगटन स्थित पुस्तकालय और मिश्र के एलेक्जेण्ड्रिया पुस्तकालय ने मिलकर इसे विकसित किया है, और इसे यूनेस्को के पेरिस कार्यालय से लांच किया गया है।
हालांकि यह ऐसा पहला अंतर्राष्ट्रीय प्रयास नहीं है। इंटरनेट सर्च इंजिन गूगल ने 2004 में ऐसा ही प्रोजेक्ट शुरू किया था। इसके अलावा यूरोपीय संघ ने नवंबर, 2008 में अपना डिजिटल पुस्तकालय शुरू किया था।
यूनेस्को के इस नये पुस्तकालय के जरिये उपयोगकर्ताओं को विश्व की सात भाषाओं में दुर्लभ पुस्तकें, मानचित्र, पाण्डुलिपियां और वीडियो मिल सकते है, और दूसरी भाषाओं में भी जानकारी उपलब्ध है।
यूनेस्को के संचार और सूचना महानिदेशक अब्दुल वहीद खान कहते हैं कि इससे विश्व के देशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ाने में मदद मिलेगी।
(चित्र व जानकारी का स्रोत : वॉयस ऑफ अमेरिका)
पाठक www.wdl.org पर जाकर दुनिया की तमाम दुर्लभ पुस्तकें पढ़ सकते हैं। यह 19 देशों के पुस्तकालयों के सहयोग से साकार हुआ है।
अमेरिकी कांग्रेस के वाशिंगटन स्थित पुस्तकालय और मिश्र के एलेक्जेण्ड्रिया पुस्तकालय ने मिलकर इसे विकसित किया है, और इसे यूनेस्को के पेरिस कार्यालय से लांच किया गया है।
हालांकि यह ऐसा पहला अंतर्राष्ट्रीय प्रयास नहीं है। इंटरनेट सर्च इंजिन गूगल ने 2004 में ऐसा ही प्रोजेक्ट शुरू किया था। इसके अलावा यूरोपीय संघ ने नवंबर, 2008 में अपना डिजिटल पुस्तकालय शुरू किया था।
यूनेस्को के इस नये पुस्तकालय के जरिये उपयोगकर्ताओं को विश्व की सात भाषाओं में दुर्लभ पुस्तकें, मानचित्र, पाण्डुलिपियां और वीडियो मिल सकते है, और दूसरी भाषाओं में भी जानकारी उपलब्ध है।
यूनेस्को के संचार और सूचना महानिदेशक अब्दुल वहीद खान कहते हैं कि इससे विश्व के देशों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ाने में मदद मिलेगी।
(चित्र व जानकारी का स्रोत : वॉयस ऑफ अमेरिका)
Monday, May 4, 2009
कृषि व पशुपालन के साहचर्य का संदेश्ा दे रहा गूगल का प्रयोग
बकरियों से चरवाकर जमीन में उग आयी घास की सफाई कराने का गूगल का प्रयोग पश्चिमी दुनिया के लिए भले ही कौतूहल की बात हो, लेकिन भारतीय किसानों के लिए यह सामान्य परिपाटी है। यह हमारी सदियों पुरानी कृषि प्रथाओं की पर्यावरण-अनुकूलता की ओर भी हमारा ध्यान ले जाता है, जिन्हें आज के पूंजीवादी युग में महत्व नहीं दिया जा रहा है।
गूगल के अधिकृत ब्लॉग में कहा गया है कि उनके माउंटेन व्यू हेडक्वार्टर्स में कुछ खेत हैं, जिनमें उगे घास-पात को समय-समय पर कटवाना पड़ता है ताकि आग लगने का खतरा न रहे। इस दफा उन्होंने ध्वनि और धुआं-प्रदूषण करनेवाली घास काटनेवाली मशीनों का इस्तेमाल न कर अपेक्षाकृत कम प्रदूषण वाला तरीका अख्तियार किया। वे कैलिफोर्निया ग्रेजिंग से कुछ बकरियां किराए पर मंगवाकर अपनी जमीन पर उग आयी घास को उनसे चरवा रहे हैं। इस काम के लिए एक चरवाहा तकरीबन 200 बकरियां लाता है जो करीब एक सप्ताह उनके यहां रहकर उनकी जमीन पर चरती हैं। इससे जमीन की उर्वरता भी बढ़ जाती है। ऐसा करने में घास को मशीन से कटवाने के बराबर ही उनका खर्च आ रहा है, और लॉन-मूअर जैसी मशीनों की तुलना में बकरियों को देखना ज्यादा सुखद है।
भेड़-बकरियों के झुंड को खेतों में बैठाकर जमीन की उर्वरता बढ़ाने का तरीका भारतीय किसानों द्वारा बहुत पहले से अपनाया जाता रहा है। भारतीय किसानों की आम धारणा है कि बकरी जिस पौधे को चरती है इस कदर ठूंठ कर देती है कि वह जल्द नहीं पनपता। दूसरी ओर उसका मल-मूल जमीन के लिए बहुत अच्छे जैविक उर्वरक का काम करता है।
आज के समय में मशीनों का उपयोग दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, जिसके चलते कृषि में पशुओं की उपयोगिता को लोग महत्व नहीं देते। लेकिन पहले ऐसी बात नहीं थी। खेत की जुताई से लेकर खेतों की सिंचाई, फसल की दौनी और अनाज की ढुलाई तक सारा काम पशुओं के जरिए होता था। ईंधन, दूध, दही, मट्ठा, घी, खोवा, पनीर, अंडा, मांस, कंबल, जूता आदि जैसी घर-गृहस्थी की जरूरी चीजें पशुओं से ही मिलती थीं। आवागमन के साधन भी पशु ही थे। कहने का मतलब है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक पशु हमारी कृषि संस्कृति के अभिन्न अंग थे।
उन दिनों खेतों में डालने के लिए रासायनिक उर्वरक नहीं होते थे। किसान घूर (राख और जैविक कचरा) और पशुओं के मल-मूत्र खेतों में डालते और उन्हीं की बदौलत फसलें लहलहाया करती थीं। कृषि और पशुचारण का अन्योनाश्रय संबंध था और दोनों एक दूसरे के पूरक थे। फसल कट चुकने पर जब खेत खाली हो जाते तो पशुपालक उनमें अपने पशुओं को चराते। पशुओं को चारा मिल जाता था और उनके मल-मूत्र के रूप में खेतों को खाद।
कृषि और पशुपालन के पारस्परिक साहचर्य की यह परंपरा आज भी गांवों में कुछ अंशों में जीवित है। गांवों में आज भी ऐसे बुनकर परिवार हैं, जो झुंड के झुंड भेड़-बकरियां पालते हैं और अपने करघों पर उनके ऊन से कंबल का निर्माण करते हैं। खेती करनेवाले किसान उनसे आग्रह करकर अपने खेतों में उनकी भेड़-बकरियां बैठवाते हैं ताकि उनकी जमीन की उर्वरता बढ़ जाए।
गर्मी के दिनों में जब पशु चारे की समस्या हो जाती है, कई मवेशीपालक अपने मवेशियों को चरवाहों के हवाले कर देते हैं जो उनके झुंड पहाड़, जंगल या वैसी अन्य जगहों पर ले जाते हैं, जहां चारा मिल सकता है। कई किसान इन चरवाहों को अपना अतिरिक्त पुआल इस शर्त पर मवेशियों को खिलाने के लिए सौंप देते हैं कि वे मवेशियों को उस किसान के खेतों में ही रखेंगे। मवेशियों के मल-मूत्र रूपी उर्वरक की लालच में किसान इन चरवाहों के खाने-पीने का इंतजाम भी करते हैं।
आज के समय में जैविक खेती और पर्यावरण संरक्षण के खूब नारे लगाए जाते हैं, हालांकि उसी अनुपात में व्यावहारिक उपाय अपनाने पर उतना बल नहीं दिया जाता। यदि इन उद्देश्यों को प्राप्त करना है तो कृषि और पशुपालन के साहचर्य को बरकरार रखना ही होगा। इस दृष्टि से देखें तो भारतीय संदर्भ में गूगल का यह प्रयोग काफी महत्व रखता है।
(फोटो गूगल के ब्लॉग से साभार)
गूगल के अधिकृत ब्लॉग में कहा गया है कि उनके माउंटेन व्यू हेडक्वार्टर्स में कुछ खेत हैं, जिनमें उगे घास-पात को समय-समय पर कटवाना पड़ता है ताकि आग लगने का खतरा न रहे। इस दफा उन्होंने ध्वनि और धुआं-प्रदूषण करनेवाली घास काटनेवाली मशीनों का इस्तेमाल न कर अपेक्षाकृत कम प्रदूषण वाला तरीका अख्तियार किया। वे कैलिफोर्निया ग्रेजिंग से कुछ बकरियां किराए पर मंगवाकर अपनी जमीन पर उग आयी घास को उनसे चरवा रहे हैं। इस काम के लिए एक चरवाहा तकरीबन 200 बकरियां लाता है जो करीब एक सप्ताह उनके यहां रहकर उनकी जमीन पर चरती हैं। इससे जमीन की उर्वरता भी बढ़ जाती है। ऐसा करने में घास को मशीन से कटवाने के बराबर ही उनका खर्च आ रहा है, और लॉन-मूअर जैसी मशीनों की तुलना में बकरियों को देखना ज्यादा सुखद है।
भेड़-बकरियों के झुंड को खेतों में बैठाकर जमीन की उर्वरता बढ़ाने का तरीका भारतीय किसानों द्वारा बहुत पहले से अपनाया जाता रहा है। भारतीय किसानों की आम धारणा है कि बकरी जिस पौधे को चरती है इस कदर ठूंठ कर देती है कि वह जल्द नहीं पनपता। दूसरी ओर उसका मल-मूल जमीन के लिए बहुत अच्छे जैविक उर्वरक का काम करता है।
आज के समय में मशीनों का उपयोग दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, जिसके चलते कृषि में पशुओं की उपयोगिता को लोग महत्व नहीं देते। लेकिन पहले ऐसी बात नहीं थी। खेत की जुताई से लेकर खेतों की सिंचाई, फसल की दौनी और अनाज की ढुलाई तक सारा काम पशुओं के जरिए होता था। ईंधन, दूध, दही, मट्ठा, घी, खोवा, पनीर, अंडा, मांस, कंबल, जूता आदि जैसी घर-गृहस्थी की जरूरी चीजें पशुओं से ही मिलती थीं। आवागमन के साधन भी पशु ही थे। कहने का मतलब है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक पशु हमारी कृषि संस्कृति के अभिन्न अंग थे।
उन दिनों खेतों में डालने के लिए रासायनिक उर्वरक नहीं होते थे। किसान घूर (राख और जैविक कचरा) और पशुओं के मल-मूत्र खेतों में डालते और उन्हीं की बदौलत फसलें लहलहाया करती थीं। कृषि और पशुचारण का अन्योनाश्रय संबंध था और दोनों एक दूसरे के पूरक थे। फसल कट चुकने पर जब खेत खाली हो जाते तो पशुपालक उनमें अपने पशुओं को चराते। पशुओं को चारा मिल जाता था और उनके मल-मूत्र के रूप में खेतों को खाद।
कृषि और पशुपालन के पारस्परिक साहचर्य की यह परंपरा आज भी गांवों में कुछ अंशों में जीवित है। गांवों में आज भी ऐसे बुनकर परिवार हैं, जो झुंड के झुंड भेड़-बकरियां पालते हैं और अपने करघों पर उनके ऊन से कंबल का निर्माण करते हैं। खेती करनेवाले किसान उनसे आग्रह करकर अपने खेतों में उनकी भेड़-बकरियां बैठवाते हैं ताकि उनकी जमीन की उर्वरता बढ़ जाए।
गर्मी के दिनों में जब पशु चारे की समस्या हो जाती है, कई मवेशीपालक अपने मवेशियों को चरवाहों के हवाले कर देते हैं जो उनके झुंड पहाड़, जंगल या वैसी अन्य जगहों पर ले जाते हैं, जहां चारा मिल सकता है। कई किसान इन चरवाहों को अपना अतिरिक्त पुआल इस शर्त पर मवेशियों को खिलाने के लिए सौंप देते हैं कि वे मवेशियों को उस किसान के खेतों में ही रखेंगे। मवेशियों के मल-मूत्र रूपी उर्वरक की लालच में किसान इन चरवाहों के खाने-पीने का इंतजाम भी करते हैं।
आज के समय में जैविक खेती और पर्यावरण संरक्षण के खूब नारे लगाए जाते हैं, हालांकि उसी अनुपात में व्यावहारिक उपाय अपनाने पर उतना बल नहीं दिया जाता। यदि इन उद्देश्यों को प्राप्त करना है तो कृषि और पशुपालन के साहचर्य को बरकरार रखना ही होगा। इस दृष्टि से देखें तो भारतीय संदर्भ में गूगल का यह प्रयोग काफी महत्व रखता है।
(फोटो गूगल के ब्लॉग से साभार)
Friday, May 1, 2009
ब्रिटेन की महारानी को सात लाख डॉलर की कृषि सब्सिडी मिली
भारतीय किसानों को सब्सिडी के नाम पर देश के अंदर और बाहर भवें तनने लगती हैं। हाल ही में अमेरिकी कपास उद्योग के केन्द्रीय संगठन नेशनल कॉटन काउंसिल ने भारतीय कपास सब्सिडी को विश्व व्यापार संगठन के नियमों का उल्लंघन करार देते हुए अमेरिकी प्रशासन की मदद मांगी थी। लेकिन सच्चाई यह है कि जहां भारत में किसान-हित की जुबानी जमापूंजी से काम चलाया जाता है, वहीं अमेरिका और यूरोप में किसानों और कृषि व्यवसाय को अरबों डॉलर की सब्सिडी प्रदान की जाती है।
इस संदर्भ में ताजा खबर ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय से संबंधित है। यूरोपीय संघ द्वारा उन्हें वर्ष 2008 में करीब सात लाख डॉलर की कृषि सब्सिडी दी गयी। यूनाइटेड किंग्डम के पर्यावरण, खाद्य व ग्रामीण मामलों के विभाग द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक महारानी को उनके सैंडरिंघम फार्म के लिए 473583.31 पौंड (लगभग 700000 डॉलर या 530000 यूरो) की सब्सिडी मिली। उधर महारानी के ज्येष्ठ पुत्र प्रिंस चार्ल्स को कुल 181485.54 पौंड की राशि कृषि सब्सिडी के रूप में मिली।
संडे टाइम्स की सूची के अनुसार ब्रिटेन के सर्वाधिक अमीर आदमियों में महारानी एलिजाबेथ द्वितीय का स्थाना 214-वां है। उनके पास 27 करोड़ पौंड की संपत्ति है। हालांकि ऐसा नहीं है कि यूरोपीय संघ द्वारा दी जा रही सब्सिडी का सबसे ज्यादा फायदा ब्रिटेन की महारानी को ही मिला हो। खाद्य उत्पादों की मशहूर कंपनी नेस्ले को सब्सिडी के रूप में 1018459.69 पौंड की राशि मिली, जबकि टेट एंड लायले को 965796.78 पौंड की राशि दी गयी। ब्रिटेन के तीसरे सबसे अमीर आदमी वेस्टमिंस्टर के ड्यूक को 486534.15 पौंड की राशि बतौर कृषि सब्सिडी मिली।
उल्लेखनीय है कि यूरोपीय संघ अपने कुल बजट का करीब 40 फीसदी हिस्सा साझा कृषि नीति (CAP – Common Agricultural Policy) के तहत कृषि सब्सिडी में खर्च करता है। यह सब्सिडी इसलिए दी जाती है ताकि खाद्यान्न उत्पादन में कमी न हो, पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे और पशुपालन होता रहे।
यूनाइटेड किंग्डम के पर्यावरण, खाद्य व ग्रामीण मामलों के विभाग के आंकड़ों के अनुसार यूरोपीय संघ ने वर्ष 2008 में समूचे ब्रिटेन में बतौर कृषि सब्सिडी 2.67 अरब पौंड की राशि वितरित की।
इस संदर्भ में ताजा खबर ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय से संबंधित है। यूरोपीय संघ द्वारा उन्हें वर्ष 2008 में करीब सात लाख डॉलर की कृषि सब्सिडी दी गयी। यूनाइटेड किंग्डम के पर्यावरण, खाद्य व ग्रामीण मामलों के विभाग द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक महारानी को उनके सैंडरिंघम फार्म के लिए 473583.31 पौंड (लगभग 700000 डॉलर या 530000 यूरो) की सब्सिडी मिली। उधर महारानी के ज्येष्ठ पुत्र प्रिंस चार्ल्स को कुल 181485.54 पौंड की राशि कृषि सब्सिडी के रूप में मिली।
संडे टाइम्स की सूची के अनुसार ब्रिटेन के सर्वाधिक अमीर आदमियों में महारानी एलिजाबेथ द्वितीय का स्थाना 214-वां है। उनके पास 27 करोड़ पौंड की संपत्ति है। हालांकि ऐसा नहीं है कि यूरोपीय संघ द्वारा दी जा रही सब्सिडी का सबसे ज्यादा फायदा ब्रिटेन की महारानी को ही मिला हो। खाद्य उत्पादों की मशहूर कंपनी नेस्ले को सब्सिडी के रूप में 1018459.69 पौंड की राशि मिली, जबकि टेट एंड लायले को 965796.78 पौंड की राशि दी गयी। ब्रिटेन के तीसरे सबसे अमीर आदमी वेस्टमिंस्टर के ड्यूक को 486534.15 पौंड की राशि बतौर कृषि सब्सिडी मिली।
उल्लेखनीय है कि यूरोपीय संघ अपने कुल बजट का करीब 40 फीसदी हिस्सा साझा कृषि नीति (CAP – Common Agricultural Policy) के तहत कृषि सब्सिडी में खर्च करता है। यह सब्सिडी इसलिए दी जाती है ताकि खाद्यान्न उत्पादन में कमी न हो, पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे और पशुपालन होता रहे।
यूनाइटेड किंग्डम के पर्यावरण, खाद्य व ग्रामीण मामलों के विभाग के आंकड़ों के अनुसार यूरोपीय संघ ने वर्ष 2008 में समूचे ब्रिटेन में बतौर कृषि सब्सिडी 2.67 अरब पौंड की राशि वितरित की।
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