Thursday, June 26, 2008

बुरा होगा वह दिन जब भारतीय किसान बीज के लिए विदेश पर निर्भर रहेगा

''किसानों को अच्‍छी क्‍वालिटी के बीजों की उपलब्‍धता पक्‍का करने के लिए सरकार ने बीज विधेयक में संशोधन करने का फैसला किया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्‍यक्षता में हुई केन्‍द्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में तय किया गया कि बीज विधेयक 2004 में सरकारी संशोधन लाया जायेगा। प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्‍यमंत्री पृथ्‍वीराज चाह्वाण ने नई दिल्‍ली में संवाददाताओं को बताया कि प्रस्‍तावित संशोध्‍ान से उच्‍च क्‍वालिटी वाले बीजों की उपलब्‍धता किसानों को पक्‍का की जा सकेगी। उन्‍होंने बताया कि विधेयक में प्रावधान होगा कि घटिया क्‍वालिटी के बीजों की बिक्री रुके, बीज उत्‍पादन में निजी क्षेत्र की सहभागिता बढ़े, बीजों का भली-भांति परीक्षण हो और बीजों के आयात को उदार बनाकर किसानों के हितों की सुरक्षा हो सके।''

यह खबर 26 जून, 2008 को बीज विधेयक में संशोधन करेगी केन्‍द्र सरकार शीर्षक से प्रभासाक्षी पोर्टल पर प्रकाशित हुई है। ख्‍ाबर से स्‍पष्‍ट है कि बीजों का महंगा होना सरकार की चिंता नहीं है। खबर में कहीं भी किसानों को सस्‍ते दर पर बीजों को उपलब्‍ध कराने की बात नहीं है। सरकार चिंतित है घटिया क्‍वालिटी के बीजों की बिक्री से। वह किसानों को अच्‍छे क्‍वालिटी के बीज उपलब्‍ध कराना चाहती है। इसके लिये उसे बीज उत्‍पादन में निजी क्षेत्र की सहभागिता बढ़ाना और बीजों के आयात को उदार बनाना जरूरी जान पड़ता है। बीज विधेयक 2004 में प्रस्‍तावित संशोधन में वह इसके लिये आवश्‍यक प्रावधान करेगी।

घटिया क्‍वालिटी के बीजों की बिक्री पर रोक लगे और किसानों को अच्‍छे क्‍वालिटी के बीज मिलें, इससे भला किसे एतराज हो सकता है। लेकिन इसके लिये बीजों के आयात और निजी क्षेत्र की सहभागिता को जरूरी बताना उचित नहीं जान पड़ता। क्‍या राष्‍ट्रीय बीज निगम और राज्‍य बीज निगमों द्वारा उत्‍पादित बीज घटिया होते हैं, जो निजी क्षेत्र की सहभागिता बढ़ाना जरूरी बताया जा रहा है। वैसे भी सरकार के बीज निगम सिर्फ सरकारी फार्मों पर ही बीज उत्‍पादन नहीं कराते, बल्कि किसानों को आधार बीज उपलब्‍ध कराकर अपनी देखरेख में उनके खेतों में भी प्रमाणित बीज उत्‍पादित कराते हैं। वह भी तो निजी क्षेत्र की सहभागिता ही है। जा‍हिर है सरकार इतना से संतुष्‍ट नहीं है। जो काम आज नेशनल सीड कॉरपोरेशन की अगुवाई में हो रहा है, उस काम में वह शायद निजी कंपनियों को अगुवा बनाना चाहती है।

सरकार का इरादा विदेश से अधिक मात्रा में बीज के आयात का भी है। इसके लिये वह नियमों को उदार बनाना चाहती है। हालांकि सरकार की यह नीयत कई सवाल खड़ा करती है। मसलन, क्‍या अपने देश में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, विभिन्न कृषि विश्‍वविद्यालय व अन्‍य शोध संस्‍थाओं के कृषि वैज्ञानिक जिन बीजों का विकास कर रहे हैं, वे सही नहीं हैं? क्‍या हमारे कृषि वैज्ञानिक बीज के मामले में देश को आत्‍मनिर्भर बनाये रखने में अक्षम हैं? क्‍या हमारे देश में दूसरी हरित क्रांति आयातित बीजों के बूते होगी? अपनी मिट्टी पर उपजनेवाले जिन फसल-प्रभेदों पर हमें नाज रहा है, विदेशों में भी जिनकी मांग रही है, उन्‍हें हम त्‍याग कर विदेशी प्रभेदों को अपनायें?

बीज विधेयक में ऐसे संशोधन से तो सिर्फ बीज उत्‍पादन से जुड़ी विदेशी कंपनियों और बीज आयातकों व अन्‍य कारोबारियों का भला होगा। बाहर से बीजें आयेंगी, तो निश्चित है कि उसमें बड़ा परिमाण जीन संवर्द्धित बीजों का होगा, जिनके औचित्‍य को लेकर दुनिया भर में विवाद है। इससे तो हमारी परंपरागत कृषि प्रणाली को नुकसान होगा ही, कृषि लागत अत्‍यधिक बढ़ जायेगी। ये परिस्थितियां किसान ओर किसानी दोनों को बरबाद करेंगी, जिसका खामियाजा सारे देशवासियों को उठाना होगा। कितना बुरा होगा वह दिन जब हम फसलों के बीज के लिये भी विदेश पर आश्रित हो जायेंगे? कहीं जाने या अनजाने में सरकार बीजों के मामले में हमारी आत्‍मनिर्भरता को समाप्‍त करने की साजिश का हिस्‍सा तो नहीं बन रही?

हमारे यहां यह विडंबना ही है कि रिकार्ड उत्‍पादन होने के बावजूद हमारी उपज के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है, और महंगा होने के बावजूद विदेशी बीजों के आयात को सरल बनाया जा रहा है। गौरतलब है कि भारत सरकार ने इस समय चावल व कुछ अन्‍य कृषि उत्‍पादों के निर्यात पर प्रतिबंध लगा रखा है। इस बेमेल नीति का नतीजा सामने भी आ रहा है - किसानों की कृषि लागत इतनी बढ़ती जा रही है कि फसल बेचकर उसे निकालना भी मुश्किल हो रहा है।

Friday, June 20, 2008

किसान से बीज पर 2885 फीसदी मुनाफा, यह तो सीधे लूट है।

हमारा धान 7 रु. 45 पैसे में हमसे लिया जाये और वैसा ही धान हमें 215 रु. में बीज के नाम पर दिया जाये, तो इसे आप क्‍या कहेंगे? कोई भी कंपनी कारोबार मुनाफा के लिए ही करती है, लेकिन क्‍या यह मुनाफा 2885 फीसदी होना चाहिए? यह तो लूट की खुली छूट है। सरासर ठगी है, धोखाधड़ी। हम कैसे मानें कि इस देश में किसानों का भला सोचनेवाली कोई सरकार है?

दरअसल निजी कंपनियां बीज के नाम पर किसानों लूट रही हैं, और सरकार आंखें मुंदे हुए है। यही नहीं, बहुधा ऐसा देखा जाता है कि ये कंपनियां सरकारी संसाधनों का इस्‍तेमाल भी करती हैं। हद तो यह है कि सरकारी कर्मचारी व जनप्रतिनिधि इनकी मदद में खड़े रहते हैं। सरकारी संसाधनों का इस्‍तेमाल ये कंपनियां इस उद्देश्‍य से करती हैं कि लोग इन्‍हें सरकारी कार्यक्रम का हिस्‍सा समझें। अशिक्षित या अल्‍पशिक्षित किसान इन्‍हें वैसा समझ भी लेते हैं और खुशी-खुशी बोरे भर अनाज की कमाई दो-चार मुट्ठी बीज के लिए गवां देते हैं। एक अंधी आशावादिता उनकी कंगाली को और बढ़ा देती है। निराशा से घिरे वे धरतीपुत्र लॉटरी का टिकट समझ कर महंगा बीज खरीदते हैं कि शायद इतनी फसल हो कि उनके सारे दुख दूर हो जायें। लेकिन वैसा कुछ नहीं होता। कभी-कभी तो महंगे बीज से होनेवाली पैदावार उनके घर के बीज से भी कम होती है।

जब भी बीज बोने का सीजन आता है, हमारे खेतिहर इलाकों में तथाकथित उन्‍नत बीज बेचनेवाली कंपनियों व संस्‍थाओं के एजेंटों की चहलकदमी बढ़ जाती है। इनमें से कुछ लोग सरकारी मशीनरी के सहयोग से किसान प्रशिक्ष्‍ाण शिविरों का आयोजन भी करते हैं। हालांकि वह केवल स्‍वांग होता है, उनका असली उद्देश्‍य बीज बेचना होता है। कितना चोखा धंधा है? 7 रु. 45 पैसे में मिलनेवाला एक किलो धान बेच रहे हैं दो सौ ढाई सौ रुपये में। क्‍या कोई कमाएगा ? पांच किलो भी बेच दिये तो हजार रुपये धरे हैं। उधर किसान चार बोरा धान लेकर जाये तब शायद इतने पैसे मिलें।

केन्‍द्र और राज्‍य की सरकारों के बीज निगम हैं, राष्‍ट्रीय बीज नीति भी है। लेकिन सब जहां के तहां हैं। खेती-बाड़ी की समस्‍याएं प्रशासनिक अधिकारियों के लिए के लिए कभी प्राथमिकता नहीं बन पातीं। रोम के जलने और नीरो के चैन से बंशी बजानेवाली स्थिति ही हमेशा रहती है। चालू खरीफ वर्ष 2008 में बीज विस्‍तार कार्यक्रम के तहत बिहार सरकार ने बिहार राज्‍य बीज निगम के धान बीज किसानों के बीच उपलब्‍ध कराने पर काफी जोर दिया। तब भी बेहतर बीज का झांसा देकर निजी कं‍पनियों के एजेंट किसानों की जेबें कतरने में कामयाब रहे।

यह तो हमारा अपने इलाके का अनुभव है। शायद विदर्भ की स्‍ि‍थति और अधिक खराब है। मशहूर पत्रकार पी. साईंनाथ कहते हैं कि विदर्भ क्षेत्र में 1994 में स्थानीय स्तर पर एक किलो कपास के बीज की कीमत 7 रुपये किलो होती थी। लेकिन आज उसी इलाके में मोनसेंटों द्वारा एक किलो कपास का बीज 1800 रुपये किलो बेचा जा रहा है। यह अंधेरनगरी नहीं तो क्‍या है?

किसान की उपज की कीमतों को नियंत्रित करने के तमाम उपाय हों और उसकी कृषि लागत कम करने का कोई प्रयास न हो, यह ठीक नहीं। किसान अभाव में रहेगा तो खेती भी उन्‍नत नहीं हो सकेगी। आज की तारीख में बीज, खाद, बिजली, डीजल कोई भी चीज किसान को सस्‍ती व वाजिब कीमतों पर नहीं मिल रही हैं। ये चीजें महंगी तो हैं ही, अक्‍सर किसानों को खाद व डीजल कालाबाजार में खरीदना होता है। आखिर कितना बोझ सहेगा भारत का किसान?

Thursday, June 19, 2008

निर्भीकता के लिए जेल गया था आधुनिक भारत का पहला पत्रकार

जब हम भारतीय पत्रकारिता की प्रकृति और स्थिति में बदलाव पर विचार करते हैं, तो निश्चित तौर पर विभाजक रेखा देश की आजादी ही हो सकती है। देश की आजादी ही वह कालखंड है, जिसके बाद भारत में पत्रकारिता के उद्देश्‍य व पत्रकारों के चरित्र-व्‍यवहार में एक बड़ा बदलाव देखने को मिलता है। हमारे विचार में यदि आजादी से पूर्व की पत्रकारिता के संदर्भ में आज की पत्रकारिता पर अध्‍ययन-मनन किया जाये, तो यह एक नयी रोशनी दे सकता है।

भारत में आजादी के पूर्व पत्रकारिता मिशन था, व्‍यवसाय नहीं। उन दिनों समाचारपत्र निकालने का उद्देश्‍य राष्‍ट्र और समाज की सेवा होता था, मुनाफा अर्जित करना नहीं। इसके विपरीत उस समय के कई लोगों को समाचारपत्र निकालने में काफी घाटा होता था। उन्‍हें घोर आर्थिक तंगी से जूझना होता था। तब भी वे अपना मिशन जारी रखते थे। आजादी से पूर्व समाचारपत्र निकालनेवाले अधिकांश लोग राजनीतिक-सांस्‍कृतिक आंदोलन अथवा समाजसेवा से जुड़े होते थे। वे लोग हर तरह के त्‍याग और बलिदान के लिए तैयार रहते थे। 1885 ई. में जब भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस की स्‍थापना हुई थी, इसके संस्‍थापकों में एक तिहाई पत्रकार थे।

देश की आजादी के पूर्व भारतीय राजनीतिक व सांस्‍कृतिक परिदृश्‍य के जितने भी चमकदार नक्षत्र थे, उनमें अधिकांश पत्रकार थे। राजा राममोहन राय, भारतेन्‍दु हरिश्‍चन्‍द्र, दादा भाई नौरोजी, सुरेन्‍द्र नाथ बनर्जी, एनी बेसेंट, द्वारिका नाथ टैगोर, देवेन्‍द्र नाथ टैगोर, जी. सुब्रह्मण्‍यम अय्यर, गोपाल कृष्‍ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, वीर राघवाचारी, महात्‍मा गांधी, बाल मुकुंद गुप्‍त, फिरोजशाह मेहता, युगल किशोर शुक्‍ल, पं. मदन मोहन मालवीय, प्रताप नारायण मिश्र, केशव चन्‍द्र सेन, बाल कृष्‍ण भट्ट, मोतीलाल नेहरू, शिवप्रसाद गुप्‍त, के. एम. पनिक्‍कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, मौलाना अबुल कलाम आजाद, पं. रामचन्‍द्र शुक्‍ल, बाबू श्‍यामसुन्‍दर दास, बाबूराव विष्‍णु पराड़कर आदि जैसे लोग उन दिनों समाचारपत्रों के संपादक अथवा संस्‍थापक हुआ करते थे।

इन लोगों का देश में राष्‍ट्रीय चेतना के प्रचार-प्रसार, समाज सुधार व स्‍वभाषा उन्नति में महत्‍वपूर्ण योगदान रहा। ये लोग चाहते तो उस समय के राजे-राजवाड़े की तरह अंग्रेजों के कृपापात्र बनकर ऐश की जिंदगी जीते। लेकिन इन्‍होंने सुखों का त्‍याग कर देश की पराधीनता के खिलाफ आवाज बुलंद की। इनका साहित्‍य भी राष्‍ट्रभावना से ओत-प्रोत रहता था। भारतेन्‍दु हरिश्‍चन्‍द्र की एक पहेली देखिए –

भीतर भीतर सब रस चूसे, बाहर से तन मन धन भूसे।
जाहिर बातन में अत‍ि तेज, क्‍यों सखि साजन, नहीं अंग्रेज।।

आजादी से पूर्व के पत्रकारों ने अपने आचरण की श्रेष्‍ठता व सच्‍चाई की पक्षधरता की जो मिसाल कायम की, वह हर युग में अनुकरणीय है। भारत में पत्रकारिता का वह काल इतना गौरवपूर्ण था कि आधुनिक भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में जिसे पहला पत्रकार होने का गौरव प्राप्‍त है, उसने अपनी निर्भीकता के लिए जेल की यातना सही। जेम्‍स ऑगस्‍टस हिक्‍की नामक ईस्‍ट इंडिया कंपनी के उस कमर्चारी ने 1780 ई. में कलकत्ता जेनरल एडवर्टाइजर नामक भारत का पहला मुद्रित अखबार निकाला था। उस साप्‍ताहिक अखबार को बंगाल गजट भी कहा जाता था। हिक्‍की इतने निर्भीक पत्रकार थे कि वे गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्‍स तक की आलोचना करने से नहीं हिचकते थे। गवर्नर जनरल, मुख्‍य न्‍यायाधीश तथा सरकारी अधिकारियों की निष्‍पक्ष आलोचना के कारण उनका मुद्रणालय जब्‍त कर लिया गया तथा उन्‍हें कारावास में डाल दिया गया।

भारतीय पत्रकारिता के इन गौरवमय क्षणों को विस्‍मृत नहीं किया जाना चाहिए। इनकी चर्चा होनी चाहिए।

Sunday, June 15, 2008

आर्थिक प्रगति के अनुपात में मानव संसाधन विकास भी जरूरी

सिर्फ पूंजी पर ही नजर रखना और समाज की अनदेखी करना नैतिकता के लिहाज से गलत है ही, यह गलत अर्थनीति भी है। करीब एक दशक पहले जब देश में आर्थिक सुधारों का दौर शुरू हुआ तो लगातार यही गलती दुहरायी गयी। ऐसा जानत‍े हुए किया गया या अनजाने में यह तो हमारे नीति निर्धारक जानें, लेकिन इसका कुप्रभाव अब साफ दिख रहा है। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि देश में उद्योग, सेवा, परामर्श, बैंकिंग आदि क्षेत्रों में लगतार तरक्‍की हो रही है, रोजगार के नित नये अवसर सृजित हो रहे हैं, फिर भी बेरोजगारी बढ़ते ही जा रही है। और जाहिर है कि बेरोजगारी बढ़ेगी तो असमानता भी बढ़ेगी। देश में कुछ लोग बहुत से लोगों को काम देने लायक होंगे लेकिन अधिकांश लोग वह काम पकड़ने लायक ही नहीं होंगे। खासकर गांवों व कस्‍बाई इलाकों में इस असमानता का दंश विशेष रूप से देखने को मिल रहा है।

आलोक पुराणिक जी ने अपने चिट्ठे अगड़म बगड़म में देश में रोजगार की संभावनाओं के बारे में आंख खोलनेवाला लेख लिखा है। वे अपने लेख में बताते हैं कि देश में मौजूदा समय में रोजगार बहुत ज्यादा हैं, लेकिन उपयुक्‍त लोग बहुत कम हैं। वे लिखते हैं-

''इन दिनों दिल्ली के कालेजों में बीकाम, बीए जर्नलिज्म, बेचलर आफ बिजनेस इकोनोमिक्स के छात्र कोर्स के दूसरे या तीसरे साल में ही कुछ काम में लग जाते हैं। इतना काम है, करने वाले नहीं हैं। तरह-तरह के काम हैं। बी काम का एक छात्र आउटसोर्सिंग का बहुत मजेदार काम करता है। वह अमेरिकी स्कूलों के बच्चों का होमवर्क दिल्ली में बैठकर कर देता है। अमेरिका में कई छात्र होमवर्क करवाने के लिए बीस-पचास डालर खर्च करने को तैयार हैं। पर यहां बीस डालर का मतलब है करीब नौ सौ रुपये।''

''आईसीआईसीआई बैंक को लोग चाहिए और वह इंतजार नहीं करना चाहता। देश के गांवों की बैंकिंग पर कब्जा करना है। बैंक ग्रेजुएटों को पहले से ही पकडना चाहता है।''

''इनफोसिस या टाटा कंसलटेंसी जैसी कंपनियों को सौ दो सौ नहीं चाहिए, इन्हे तीस -चालीस हजार लोग चाहिए एक साल में।''

''एक अध्ययन के मुताबिक २०१० तक भारत में दस लाख लोगों की कमी होगी, इनफोरमेशन टेक्नोलोजी के आउटसोर्सिंग से जुडे धंधों में।''

श्री पुराणिक इतनी बड़ी संख्‍या में उपलब्‍ध रोजगार की संभावनाओं की तुलना में उपयुक्‍त लोगों की कमी का कारण भी बताते हैं- ''दरअसल उद्योग, अर्थव्यवस्था की तस्वीर जितनी तेजी से बदल गयी, उतनी तेजी से भारतीय शैक्षिक ढांचा नहीं बदला। काल सेंटर का कारोबार इतना बडा कारोबार है, पर भारत के एक भी विश्लविद्यालय में इस पर फोकस कोर्स नहीं है। विज्ञापन कापीराइटिंग इतना बडा कारोबार है, देश के दस विश्वविद्यालय भी इस पर फोकस डिग्री कोर्स नहीं चलाते।''

श्री पुराणिक चेतावनी भी देते हैं- ''लोग हवा से नहीं आयेंगे., लोग तैयार करने पडेंगे। अगर लोग यहां तैयार नहीं होंगे, तो चीन तैयार कर लेगा। कारोबार चीन चला जायेगा। ऐसी सूरत में भारत चुकी हुई संभावनाओं का देश होगा, संभावनाओं का नहीं। दुर्भाग्य से यह मसला अभी नीति निर्माताओं के लिए किसी किस्म की प्राथमिकता का विषय नहीं है।''

दरअसल देश की अर्थव्‍यवस्‍था और मानव संसाधन दोनों पर समान रूप से ध्‍यान दिया जाना चाहिए। खासकर भारत जैसी बड़ी आबादी वाले देश के लिए तो यह निहायत ही जरूरी है। हालांकि आर्थिक उदारीकरण के हमारे प्रणेता गत एक दशक से भी अधिक समय से पूंजी के निवेश और उसके प्रवाह की धारा को आंकड़ों में निहार कर इतने आत्‍ममुग्‍ध होते रहे कि मानव संसाधन के विकास के तरीके में भी समानुपातिक सुधार पर उनका ध्‍यान ही नहीं रहा। पूंजी की चकाचौंध में समाज को भुला दिया गया। पूंजीवाद की प्रतिष्‍ठा में समाजवाद को तड़ीपार कर दिया गया। रोजगार की असीम संभावनाओं के बीच भी बेरोजगारी के 'पानी बीच मीन प्‍यासी' वाली स्थिति इस दोषपूर्ण नीति का ही कुफल है।

Thursday, June 12, 2008

खेती-बाड़ी चिट्ठे की चर्चा हिन्‍दुस्‍तान दैनिक में

आदरणीय मित्रों,
इस चिट्ठे खेती-बाड़ी की चर्चा हिन्‍दुस्‍तान दैनिक में हुई है। इसे अग्रलिखित लिंक क्लिक कर हिन्‍दुस्‍तान के पटना से प्रकाशित 12 जून,2008 के नगर संस्‍करण के पहले पृष्‍ठ पर जाकर देखा जा सकता है।
चिट्ठे पर आने के लिए आप सभी को धन्‍यवाद व आभार।

Monday, June 9, 2008

धान की खेती के लिए घातक हो सकती है अपना ही बीज चलाने की जिद

हमारे गांवों में एक कहावत है, 'जिसकी खेती, उसकी मति।' हालांकि हमारे कृषि वैज्ञानिक व पदाधिकारी शायद ऐसा नहीं सोचते। किसान कोई गलत कृषि परिपाटी अपनाए है, तो उसे सही रास्‍ता दिखाना जरूरी है। लेकिन मंत्रियों के विभाग की तरह उसे बीज व प्रौद्योगिकी बदलने को कहना कृषि का नुकसान ही करेगा। इस दुष्‍प्रवृत्ति के चलते परंपरागत कृषि प्रौद्योगिकी व बीजों के मामले में हमारा देश पहले ही काफी नुकसान उठा चुका है। खासकर हरित क्रांति के बाद आधुनिक पद्धति अपनाकर कृषि उपज बढ़ाने की दौड़ में हमने परंपरा से मिले अनुभव व ज्ञान को दरकिनार कर दिया। विश्‍वव्‍यापी खाद्य संकट की मौजूदा स्थिति में यह चिंता और अधिक प्रासंगिक हो गयी है।

पिछले कुछ समय से हमारे यहां किसानों के बीच खरीफ धान का एक प्रभेद एमटीयू-7029 काफी लोकप्रिय हुआ है। अर्ध बौने प्रजाति के इस धान को स्‍वर्णा अथवा नाटी मंसूरी (महसूरी) भी कहा जाता है। भारत के बिहार, आंध्रप्रदेश, प.बंगाल, उत्तरप्रदेश, झारखंड, उत्तरांचल, महाराष्‍ट्र, उड़ीसा, कर्नाटक, महाराष्‍ट्र, छत्तीसगढ़, मध्‍यप्रदेश आदि प्रांतों में बड़ी मात्रा में यह उपजाया जाता है। बांग्‍लादेश, श्रीलंका, चीन, म्‍यांमार आदि देशों में भी इसकी खासी पूछ है। बांग्‍लादेश में तो इसकी धूम है। हमारे लिये गर्व की बात है कि धान का यह प्रभेद बाहर से नहीं आया। इसका विकास भारत में ही आंध्रप्रदेश के मरूतेरू नामक गांव में हुआ। वहां एनजी रंगा कृषि विश्‍वविद्यालय के एक छोटे से अनुसंधान केन्‍द्र में आंध्रप्रदेश राइस रिसर्च इंस्‍टीट्यूट द्वारा इसे तैयार किया गया। इसे 1982 ई. में जारी किया गया। तब से यह आज भी हमारे देश में धान का सबसे लोकप्रिय अधिक उत्‍पादन वाला आधुनिक प्रभेद है।

लेकिन बिहार के कृषि विभाग की नजर में शायद अब यह धान-प्रभेद त्‍याग देने लायक हो चुका है। यहां के कृषि पदाधिकारी व वैज्ञानिक किसानों को इसके बदले राजेन्‍द्र मंसूरी नामक प्रभेद की खेती करने की सलाह दे रहे हैं। बिहार राज्‍य बीज निगम लिमिटेड अपने पंजीकृत धान बीज उत्‍पादकों को आधार बीज बेचकर अपनी देखरेख में उनसे प्रमाणित बीज तैयार कराता है। लेकिन खरीफ वर्ष 2008 में बिहार राज्‍य बीज निगम एमटीयू-7029 का प्रमाणित बीज तैयार नहीं करा रहा है। यहां ऐसा पहली बार हुआ है और किसान इससे असमंजस में हैं। किसान यह समझ नहीं पा रहे हैं कि धान के जिस प्रभेद को बो कर वे दशकों से भरपूर पैदावार हासिल करते आये हैं, उसे हटा क्‍यों दें। स्थिति यह है कि कृषि पदाधिकारी राजेन्‍द्र मंसूरी की खूबियां बताते नहीं थकते और किसान एमटीयू-7029 की तुलना में किसी अन्‍य प्रभेद को बेहतर मानने को तैयार नहीं।

किसानों के बीच एमटीयू-7029 की लोकप्रियता के कुछ जायज कारण हैं। 50 से 60 क्विंटल प्रति हेक्‍टेयर उपज देनेवाला यह धान प्रतिकूल दशाओं को भी बर्दाश्‍त कर लेता है। खासकर बिहार के मैदानी इलाकों में कहीं सूखा तो कहीं जलजमाव जैसी स्थितियां देखने को मिलती हैं। एमटीयू-7029 जलजमाव झेलने में समर्थ तो है ही, इसके बारे में बताया जाता है कि इसे नाइट्रोजन की जरूरत भी कम ही होती है। अर्ध बौना प्रभेद होने के चलते अधिक बढ़वार से इसके पौधों के गिरने का खतरा कम रहता है। इसके अलावा किसानों का अनुभव है कि धान की दौनी के समय इसके दाने बहुत आसानी से अलग हो जाते हैं। किसान समझ नहीं पा रहे कि इतनी खूबियों वाले प्रभेद को आखिर क्‍यों त्‍याग दिया जाए। कहीं ऐसा तो नहीं कि बिहार सरकार के लिए राजेन्‍द्र मंसूरी इसलिए अच्‍छा है कि उसका विकास राजेन्‍द्र कृषि विश्‍वविद्यालय, पूसा (बिहार) द्वारा किया गया। नाटी मंसूरी इसलिए त्‍याज्‍य है कि उसका विकास आंध्रप्रदेश राइस रिसर्च इंस्‍टीट्रयूट द्वारा किया गया। यदि सचमुच ऐसा है तो अपना ही सिक्‍का चलाने की मानसिकता अत्‍यंत घातक हो सकती है।

सच तो यह है कि हमारे यहां के किसान अपने अनुभव व परंपरागत कृषि ज्ञान के बूते कृषि विशेषज्ञों के दावों को भी झुठलाते रहे हैं। अभी तक कृषि विशेषज्ञ एक हेक्‍टेयर भूमि के लिए 40 किलोग्राम धान बीज का बिचड़ा डालने की अनुशंसा करते आये हैं। लेकिन बिहार के धान उत्‍पादक इलाकों में किसान मात्र 6 से 12 किलो धान बीज का बिचड़ा डालकर भरपूर उपज ले रहे हैं। अब तो कृषि विशेषज्ञ भी इस तकनीक को सही मानने लगे हैं। जाहिर है, किसानों के अनुभव व उनकी परंपरागत जानकारी का सम्‍मान न कर, उनपर कृषि वैज्ञानिकों व अधिकारियों ने अपनी पसंद थोपने की कोशिश की, तो इससे सबका नुकसान होगा। एमटीयू-7029 जैसे अधिक उपजवाले प्रभेदों से एक झटके से मुंह फेर लेने से धान की पैदावार घटना निश्चित है।

Tuesday, June 3, 2008

गांधी का नाम जपनेवालों को उनके जंतर की जरूरत

''उद्योग और वाणिज्य की दुनिया की खासमखास हस्तियों से भरा विज्ञान भवन उस वक्त तालियों से गूंज उठा, जब डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा कि देश आर्थिक प्रगति की तरफ निरंतर लंबे कदम बढ़ाता जा रहा है। इसके लिए उनका (उद्योग जगत) बेहतरीन योगदान रहा है।"

ये पंक्तियां 'हिन्दुस्तान' अखबार के 3 जून के अंक में प्रकाशित 'महंगाई के लिए तैयार रहे जनता : मनमोहन' शीर्षक खबर से उद्धृत हैं। खबर से ही पता चलता है कि प्रधानमंत्री उस समय उद्योग और वाणिज्य संगठन 'एसोचैम' के सालाना सम्मेलन को संबोधित करते हुए बता रहे थे कि देश को अब महंगी कीमतों पर पेट्रोल और डीजल खरीदने के लिए तैयार रहना चाहिए। वे बता रहे थे कि पेट्रोल के दाम में संभावित वृद्धि के बाद आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ सकते हैं, जिसके चलते महंगाई की दर और भी अधिक बढ़ सकती हैं।

जाहिर है देश के उद्योग व वाणिज्य जगत की खासमखास हस्तियां इस बात से काफी खुश हैं कि देश आर्थिक प्रगति के लंबे डग भर रहा है। वे लोग इतने खुश हैं कि महंगाई बढ़ने की बात हो रही है, तब भी ताली बजा रहे हैं। सवाल यह उठता है कि क्या यही प्रतिक्रिया देश की उस बहुसंख्यक आबादी की भी होगी जो अपनी आजीविका के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है? इस तरह का असुंतिलित विकास उचित नहीं है। मुट्ठी भर लोग लगातार अमीर होते जायें - इतना अधिक कि महंगाई बढ़ने की बात पर भी ताली बजायें - और अधिकांश लोग कष्ट भोगते रहें, यह कैसी अंधेरनगरी है।

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की पुस्तकों में बच्चों को सीख देने के लिए 'गांधी जी का जन्तर' शीर्षक से राष्ट्रपिता के कुछ उपदेश दिये जाते रहे हैं। उसे मैं यहां पेश कर रहा हूं। हमें लगता है इस जंतर की जरूरत बच्चों से ज्यादा बडों को है। खासकर रात-दिन गांधी के नाम का माला जपने वाले लोग इसकी कसौटी पर अपने विचारों को परखते तो देश का बहुत भला होता।

Sunday, June 1, 2008

लोहे के चने चबाती जनता और जड़वत सरकार

देश में महंगाई खासकर लोहे व स्टील की बढी कीमतों पर 'अमर उजाला' के रविवार के इंटरनेट संस्करण में सूर्य कुमार पांडेय का 'लोहे का चना' शीर्षक से शानदार व्यंग्य छ्पा हुआ है। हम उसे यहां साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। मेरी टाइपिंग की सीमाओं की वजह से कहीं-कहीं अशुद्धियां रह गयी हैं, जिसके लिये मैं माफ़ी चाहूंगा।

किसी से लोहा लेना पहले भी आसान नहीं था। अब तो कतई नहीं है। पहले लोग शनिवार को ही लोहा नहीं खरीदते थे। अब तो होल वीक मुश्किल है। किसी हार्डवेयर की दुकान पर जाइए, लोहे का भाव पूछिए। आप की सारी अकड मोम न हो जाये, तो कहियेगा। जब से बाजार में स्टील के भाव बढे हैं, जेब की रिब्ड आयरन जैसी हेकडी सीधी-सपाट सरिया हो गयी है।

मुझे अपने लिये एक पैकेट कील की जरूरत थी। बढी कीमतें सुनीं, तो लहराने लग गया। दुकानदार ने कहा, 'बीजिंग्स में ओलंपिक्स होनेवाले हैं। सारा माल उधर ही सप्लाई हो रहा है। दूसरी दुकान पे गया, तो बताया गया, 'वैट लगने से लोहे की वैल्यू एड हो गई है।' तीसरे बेचू भाई ने लोहे से लोहा काटते हुए समझाया, 'महंगाई की चपेट में सारी चीजें हैं। भला लोहा कैसे अछूता रह सकता है?'

बगल में एक कस्टमर खडा था। लगता था, ताजा-ताजा लोहे की राड से पिटा है। रोते हुए बोला, 'सारा माल तो बिल्डर्स खरीद ले रहे हैं। इतनी फ़ैक्टरी, फ़्लैट्स, मल्टीस्टोरीज बन रही हैं'। उनमें लोहे की ही तो खपत है! दद्दू, हम-आप जैसे आम आदमियों की फ़िकर न ही सरकार को है, न बाजार को।'

हालांकि मैनें लोहे के चने कभी नहीं देखे, मगर लोहे के चने चबाने का अनुभव बरोबर है। एक बार मेरे पांव में लोहे का जंग लगा टुकडा घुस गया था। एटीस का टीका लगवाने के लिये डाक्टर का दरवाजा आधी रात में खुलवाना पडा था। तब से ही मैं इस लोहे का लोहा मानता आया हूं। आज जब कि मार्केट से उच्चतम दाम पर कीलों का पैकेट खरीदकर लौट रहा हूं, मैं सोचता हूं कि ये मेरे घर की दीवारों पर बाद में ठुकेंगी, अभी तो मेरे दिल में ही गड रही हैं। मुझे लकडहारे की वह कहानी याद आ रही है, जिसमें कुएं में गिरी हुइ लोहे की कुल्हाडी के बदले वह सोने-चांदी की कुल्हाडियां लेने को तैयार नहीं हुआ था। मुमकिन है, उस दौर में भी आज की तरह स्टील के भाव चढे रहे होंगे।

एक अदना सी लोहे की कील की चुभन से हलकान मैं सोचता हूं, इन दिनों इस मुल्क की आम पब्लिक भीषण महंगाई से कैसे लोहा ले रही है। आश्चर्य तो यह है कि सरकार लौह्स्तम्भ-सी जडवत किंकर्तव्यविमूढ गडी पडी है। व्यवस्था पर लोहे का भारी ताला लटक रहा है, जिसकी कुंजी गुम है। अब भला चाभी खोजती हुइ यह भकुआई-सी जनता किस-किस लौहपुरुष की जेबों की तलाशियां लेती फ़िरेगी!