Tuesday, May 27, 2008

'ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत' से किसानों का भला नहीं

"यावत जीवेत सुखं जीवेत,
ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत।
"

यानी, जब तक जीयो सुख से जीयो, कर्ज लेकर घी पीयो। लगता है हमारी सरकार और बैंकों ने किसानों को इस 'चार्वाक दर्शन' का पाठ पढाने की ठान ली है। तभी तो पहले केन्द्र सरकार की कर्ज-माफ़ी की घोषणा, और अब भारतीय स्टेट बैंक की तरफ़ से किसानों को डबल कर्ज। नई फसल बोने के समय किसानों को आर्थिक मदद मिले तो सबका भला होगा। लेकिन बाद में मिला कर्ज साहूकारों की उधारी चुकाने और अन्य अनुत्पादक मदों पर ही खर्च होगा। दुःख की बात है कि ऐसा ही होने जा रहा है। किसानों के लिए केन्द्र सरकार और भारतीय स्टेट बैंक की घोषणाएं 'पोस्ट डेटेड' चेक की तरह हैं। उनका लाभ देश के किसानों को तब मिलेगा जब खरीफ फसल बोने का समय जाता रहेगा। जाहिर है, उस समय तक कई किसान महाजनों के चंगुल में जा चुके होंगे, या महामहिम राष्ट्रपति के भतीजे की भांति आत्महत्या कर चुके होंगे। ऐसे में कृषि या किसानों का कोई भला तो नहीं होगा, साहूकारों व साबुन, लिपस्टिक बनाने वाली कंपनियों की जरूर बन आएगी। मीडिया की खबरों को सही मानें तो कर्ज माफ़ी की घोषणा से वे कंपनियाँ कम खुश नहीं हैं।

कुछ रोज पहले तक किसानों को कर्ज देने से मना करनेवाले भारतीय स्टेट बैंक ने अब उनकी फसल ऋण सीमा दोगुनी कर दी है। इन फैसलों से देश में कृषि और किसानों की स्थिति में कितना सुधार होगा, यह तो बाद की बात है लेकिन बेरुखी से दरियादिली में तब्दीली के 'कभी हाँ, कभी ना' के इस ड्रामे ने देश की वित्तीय संस्थाओं की पोल खोल दी है। इस घटनाक्रम ने एक बार फिर या दिखा दिया है कि किसानों के मसलों को लेकर सरकार की वित्तीय संस्थाएं कितनी गंभीर व ईमानदार हैं। निश्चय ही उनके पास किसानों के लिए कोई सुस्पष्ट नीति या कार्यक्रम का अभाव है।

करीब हफ्ता भर पहले देश के सबसे बड़े इस बैंक ने अपनी शाखाओं को सर्कुलर जारी कर निर्देश दिया था कि वे अगले आदेश तक किसानों को ट्रैक्टर या अन्य कृषि उपकरणों के लिए लोन न दे। स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के इस फैसले का उद्योग जगत ने भी विरोध किया तथा चौतरफा निंदा के बीच उसे एक दिन बाद ही अपना फैसला वापस लेना पडा था। ताजा निर्णय के तहत स्टेट बैंक ने किसानों को दिए जाने वाले फसल लोन की सीमा पचास हजार रुपये से बढाकर एक लाख रुपये कर दी है।

देश में आजादी के बाद के ६० साल के औद्योगिक विकास के सफर के बावजूद आज भी भारत के ६५ से ७० फीसदी लोग रोजी-रोटी के लिए कृषि और कृषि आधारित कामों पर ही निर्भर हैं। ऐसे में केन्द्र सरकार को यह समझना होगा कि इनलोगों को सिर्फ वोट बैंक मानकर चलने से देश का काफी नुकसान होगा, साथ ही वोट भी नहीं मिलेगा। देश के किसानों को समय पर खाद, बीज और सिंचाई चाहिए। उपज का सही दाम चाहिए।

भारत के किसान अपनी मेहनत से अपने खेतों में अनाज उगाकर खाएँगे, अपनी गायों का दुहा दूध-घी पीयेंगे, ये चीजें अन्य देशवासियों को भी मिलेंगी। जब किसान ही कर्ज लेकर घी पीयेगा, तो बाकी का क्या होगा? कौन उपजायेगा अनाज, कौन निकालेगा घी-दूध?


3 comments:

  1. बहुत अच्छी और सही बात कही है आपने. जिसे देखो कर्ज लेकर मस्ती मार रहा है.

    भाई यह शब्द सत्यापन हटा दो. इस से व्यर्थ परेशानी होती है.

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  2. बड़ सही बिलाग है, महराज. खूब लिक्‍खें, जमके लिक्‍खें, हम लऊट-लऊट के पढ़ेंगे.

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  3. सम्भवतः शब्द-सत्यापन हटा लिया है। आप सभी का आभार।

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