फागुन बसंत की तरुणाई है तो चैत प्रौढ़ावस्था। यह बसंत के वैभव का माह है। इसमें बसंत समृद्ध होकर बहार बन जाता है। वृक्षों में लगे मंजर फल बन जाते हैं, अनाज की बालियां पक कर सुनहली हो जाती हैं। धरती का रंग ही नहीं बदलता, लोगों का मिजाज भी बदल जाता है। फागुन में मतवाला बना मन चैत में भरा-पूरा खलिहान व अन्न-कोठार देखता है तो उसमें थिराव आ जाता है और कंठ से तृप्ति के बोल फूट पड़ते हैं। चैती फसल से आयी तृप्ति से उपजे इस गायन को चैता या चैती नाम दिया गया। इन गीतों में तृप्ति का भाव इतना प्रबल होता है कि नायिका मौजूदा प्राकृतिक परिवेश की ही तरह खुद को भी भरा-पूरा रखना चाहती है। वह मनभावन सिंगार करना चाहती है, और चाहती है कि उसका प्रियतम हमेशा उसके साथ रहे। प्रियतम की क्षण भर की जुदाई भी प्रिया को मंजूर नहीं। यदि प्रियतम दूर है तो वैभवशाली चैत में भी प्रिया विरहिणी बन जाती है। इसलिए चैती में विरह का स्वर भी प्रमुखता से मौजूद रहता है। चूंकि चैत प्रभु श्री राम के जन्म का माह है, इसलिए भगवान राम को संबोधित कर ही चैता गाने की परंपरा है। यही कारण है कि चैता के बोल में ‘रामा’ जरूर आता है। कृषि संस्कृति से जुड़ी इस समृद्ध लोक गायकी के कुछ नमूनों को हम खेती-बाड़ी में भी सहेजना चाहते हैं। प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायक पद्मभूषण पं. छन्नूलाल मिश्र की गायी यह चैती :
सेजिया से सइयां रूठि गइले हो रामा
कोयल तोरि बोलिया
रोज तू बोलैली सांझ सबेरवा
आज काहे बोलै आधी रतिया हो रामा
कोयल तोरि बोलिया ..
होत भोर तोरे खोतवा उजड़बो
और कटइबो पनबगिया हो रामा
कोयल तोरि बोलिया ..
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पं. छन्नूलाल मिश्र जी की चैती बहुत लुभावनी लगी जी, धन्यवाद
ReplyDeleteआनन्द आ गया, धन्यवाद!
ReplyDeleteआपका यह ब्लॉग अनूठा और आपका प्रयास सराहनीय है ...आपका आभार
ReplyDeleteजुग जुग जिय..अ पांडे जी मस्त कर दिए सुनाकर यी चैतवा हो ...!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ....जितनी सुंदर पोस्ट उतना ही सुंदर गीत .....
ReplyDeleteआपका प्रयास सराहनीय है|बहुत बढ़िया|
ReplyDeletekyaa baat, kyaa baat...kyaaaaa baaaaat!!!!!
ReplyDeleteआपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा ... और आपका यह पोस्ट भी ... मेरे ब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया ...
ReplyDeleteनवसंवत्सर की हार्दिक शुभकामनाएँ| धन्यवाद|
ReplyDeleteपं. छन्नूलाल मिश्र जी की चैती उपलब्ध कराने हेतु साधुवाद.
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