भाषा का न सांप्रदायिक आधार होता है, न ही वह शास्त्रीयता के बंधन को मानती है। अपने इस सहज रूप में उसकी संप्रेषणयीता और सौन्दर्य को देखना हो तो अमीर खुसरो की हिन्दी रचनाओं से बेहतर शायद ही कुछ हो। अपने युग की महानतम शख्सियत अमीर खुसरो को
खड़ी बोली हिन्दी का पहला कवि माना जाता है। इस भाषा का इस नाम (हिन्दवी) से उल्लेख सबसे पहले उन्हीं की रचनाओं में मिलता है। हालांकि वे फारसी के भी अपने समय के सबसे बड़े भारतीय कवि थे, लेकिन उनकी लोकप्रियता का मूल आधार उनकी हिन्दी रचनाएं ही हैं। उन्होंने स्वयं कहा है- ‘’मैं तूती-ए-हिन्द हूं। अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो। मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूंगा।’’ एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है, ‘’तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब (अर्थात् मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूं, हिन्दवी में जवाब देता हूं।)’’
खुसरो जैसी बेमिसाल व बहुरंगी प्रतिभाएं इतिहास में कम ही होती हैं। वे मानवतावादी कवि, कलाकार, संगीतज्ञ, सूफी संत व सैनिक भी थे। उनके धार्मिक गुरु महान सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया थे, जिनके पास वे अपने पिता के साथ आठ साल की आयु में गए और तभी से उनके मुरीद हो गए। अमीर खुसरो को दिल्ली सल्तनत का राज्याश्रय हासिल था। अपनी दीर्घ जीवन-अवधि में उन्होंने गुलाम वंश, खिलजी वंश से लेकर तुगलक वंश तक 11 सुल्तानों के सत्ता-संघर्ष के खूनी खेल को करीब से देखा था। लेकिन राजनीति का हिस्सा बनने के बजाए वे निर्लिप्त भाव से साहित्य सृजन व सूफी संगीत साधना में लीन रहे। अक्सर कव्वाली व गजल की परंपरा की शुरुआत अमीर खुसरो से ही मानी जाती है। उनकी रचना
‘जब यार देखा नैन भर..’ को अनेक विद्वान
हिन्दी की पहली गजल मानते हैं। उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत की खयाल गायकी के ईजाद का श्रेय भी उन्हें दिया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने ध्रुपद गायन में फारसी लय व ताल को जोड़कर खयाल पैदा किया था। कहते हैं कि उन्होंने पखावज (मृदंग) को दो हिस्सों में बांटकर ‘तबला’ नाम के एक नए साज का ईजाद किया।
माना जाता है कि मध्य एशिया के तुर्कों के लाचीन कबीले के सरदार सैफुद्दीन महमूद के पुत्र अमीर खुसरो का जन्म ईस्वी सन् 1253 में उत्तर प्रदेश के एटा जिले में पटियाली नामक गांव में गंगा किनारे हुआ था। लाचीन कबीले के तुर्क चंगेज खां के आक्रमणों से पीड़ित होकर बलवन (1266 -1286 ई.) के राज्यकाल में शरणार्थी के रूप में भारत में आ बसे थे। खुसरो की मां दौलत नाज़ एक भारतीय मुलसलमान महिला थीं। वे बलबन के युद्धमंत्री अमीर एमादुल्मुल्क की पुत्री थीं, जो राजनीतिक दवाब के कारण हिन्दू से नए-नए मुसलमान बने थे। इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बावजूद इनके घर में सारे रीति-रिवाज हिन्दुओं के थे। इस मिले जुले घराने एवं दो परम्पराओं के मेल का असर बालक खुसरो पर पड़ा। आठ वर्ष की अवस्था में खुसरो के पिता का देहान्त हो गया। किशोरावस्था में उन्होंने कविता लिखना प्रारम्भ किया और बीस वर्ष के होते होते वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए।
खुसरो के पिता ने इनका नाम
‘अबुल हसन’ रखा था। ‘ख़ुसरो’ इनका उपनाम था। किन्तु आगे चलकर उपनाम ही इतना प्रसिद्ध हुआ कि लोग इनका यथार्थ नाम भूल गए। ‘अमीर खुसरो’ में ‘अमीर’ शब्द का भी अपना अलग इतिहास है। यह भी इनके नाम का मूल अंश नहीं है। जलालुद्दीन फीरोज ख़िलजी ने इनकी कविता से प्रसन्न हो इन्हें ‘अमीर’ का ख़िताब दिया और तब से ये ‘मलिक्कुशोअरा अमीर ख़ुसरो ’ कहे जाने लगे। उनके द्वारा रचित फारसी मसनवी ‘नुह सिपहर’ पर खुश होकर सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने एक हाथी के बराबर सोना तौलकर उन्हें दिया था। ‘नुह सिपहर’ में हिन्दुस्तान के रीति-रिवाजों, संस्कृति, प्रकृति, पशु-पक्षी व लोगों की तारीफ की गयी है।
अमीर खुसरो की 99 पुस्तकों का उल्लेख मिलता है, किन्तु 22 ही अब उपलब्ध हैं। हिन्दी में खुसरो की तीन रचनाएं मानी जाती हैं, किन्तु इन तीनों में केवल एक ‘खालिकबारी’ ही उपलब्ध है, जो कविता के रूप में हिन्दवी-फारसी शब्दकोश है। इसके अतिरिक्त खुसरो की फुटकर रचनाएं भी संकलित हैं, जिनमें पहेलियां, मुकरियां, गीत, निस्बतें, अनमेलियां आदि हैं। ये सामग्री भी लिखित में कम उपलब्ध थीं, वाचक रूप में इधर-उधर फैली थीं, जिसे
नागरी प्रचारिणी सभा ने ‘खुसरो की हिन्दी कविता’ नामक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया था।
(फोटो
http://tdil.mit.gov.in/coilnet/ignca/amir0001.htm से साभार)