Sunday, November 30, 2008
अमृता प्रीतम की कविता : राजनीति
सुना है राजनीति एक क्लासिक फिल्म है
हीरो : बहुमुखी प्रतिभा का मालिक
रोज अपना नाम बदलता
हीरोइन : हकूमत की कुर्सी वही रहती है
ऐक्स्ट्रा : राजसभा और लोकसभा के मैम्बर
फाइनेंसर : दिहाड़ी के मजदूर,
कामगर और खेतिहर
(फाइनेंस करते नहीं, करवाए जाते हैं)
संसद : इनडोर शूटिंग का स्थान
अखबार : आउटडोर शूटिंग के साधन
यह फिल्म मैंने देखी नहीं
सिर्फ सुनी है
क्योंकि सैन्सर का कहना है-
’नॉट फॉर अडल्स।’
(फोटो बीबीसी हिन्दी से साभार)
Friday, November 28, 2008
चीनी लहसुन से देश को खतरा, सुप्रीम कोर्ट ने दिया जलाने का आदेश
विदेश से खाद्य पदार्थों के आयात के मामले में काफी सतर्कता बरती जानी चाहिए। हल्की सी चूक भी देश की कृषि और देशवासियों की सेहत के लिए गंभीर रूप से नुकसानदेह हो सकती है। चीन से आयातित लहसुन के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए एक ताजा फैसले ने इस तथ्य को बल प्रदान किया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में चीन से आयात किए गए फफूंद लगे लहसुन के 56 टन की खेप को लोगों और खेती के लिए खतरनाक बताते हुए उसे तत्काल जलाने का आदेश दिया है। यह लहसुन वर्ष 2005 के आरंभ में भारत लाया गया था और अभी मुंबई में जवाहर लाल नेहरू बंदरगाह के निकट एक गोदाम में रखा है।
सीमा शुल्क अधिकारियों ने इसे फफूंदग्रस्त पाए जाने के बाद इसके आयात की अनुमति वापस ले ली थी। इसके बाद इसे मंगानेवाली कंपनी ने मुंबई उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जहां उसे जीत हासिल हुई। मुंबई उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा था कि बाजार में उतारने से पहले सभी 56 टन लहसुन को धुएं का इस्तेमाल कर दोषमुक्त किया जाए। उच्च न्यायालय के इस निर्णय से असंतुष्ट केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में इसे चुनौती दी, जिसने इस लहसुन को नुकसानदेह करार देते हुए जल्द से जल्द जलाने का आदेश दिया।
केन्द्र सरकार के अधिकारियों का तर्क था कि इस प्रक्रिया के चलते आयातित लहसुन में मौजूद फफूंद के पूरे देश में फैलने का खतरा है, जो अब तक यहां नदारद हैं। यदि ये फफूंद देश में फैल गए तो भविष्य में यहां की खेती को तगड़ा नुकसान पहुंचेगा।
अधिकारियों के मुताबिक इस लहसुन में ऐसे खतरनाक फफूंद हैं, जो इसे जल्द ही कूड़े में बदल देते हैं। यदि सतर्कता न बरती गयी तो इसके भारत समेत अन्य देशों में भी फैलने का खतरा है। यदि ऐसा हो गया तो कृषि विशेषज्ञों के लिए इस विपदा पर नियंत्रण कर पाना काफी मुश्किल होगा।
लहसुन को चीन से भारत भेजते समय माना गया था कि मिथाइल ब्रोमाइड के जरिए इसे दोषमुक्त कर लिया जाएगा। लेकिन जानकारों की राय में इस तरीके से केवल कीड़े-मकोड़ों को ही नष्ट किया जा सकता है। फफूंद को खत्म करना इसके जरिए संभव नहीं है। इसे खत्म करने के लिए तो फफूंदनाशी का इस्तेमाल करना पड़ता है, और ऐसा करने पर लहसुन इस्तेमाल लायक नहीं रह जाता।
इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि चीन में लहसुन की खेती काफी होती है। वहां की सरकार किसानों को इसकी खेती के लिए पैसे देती है और बिक्री में समस्या होने पर मदद भी करती है। चीनी लहसुन पहले से ही भारतीय किसानों के लिए परेशानी का सबब रहा है।
Friday, November 21, 2008
खड़ी बोली हिन्दी के पहले कवि अमीर खुसरो
भाषा का न सांप्रदायिक आधार होता है, न ही वह शास्त्रीयता के बंधन को मानती है। अपने इस सहज रूप में उसकी संप्रेषणयीता और सौन्दर्य को देखना हो तो अमीर खुसरो की हिन्दी रचनाओं से बेहतर शायद ही कुछ हो।
अपने युग की महानतम शख्सियत अमीर खुसरो को खड़ी बोली हिन्दी का पहला कवि माना जाता है। इस भाषा का इस नाम (हिन्दवी) से उल्लेख सबसे पहले उन्हीं की रचनाओं में मिलता है। हालांकि वे फारसी के भी अपने समय के सबसे बड़े भारतीय कवि थे, लेकिन उनकी लोकप्रियता का मूल आधार उनकी हिन्दी रचनाएं ही हैं। उन्होंने स्वयं कहा है- ‘’मैं तूती-ए-हिन्द हूं। अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो। मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूंगा।’’ एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है, ‘’तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब (अर्थात् मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूं, हिन्दवी में जवाब देता हूं।)’’
खुसरो जैसी बेमिसाल व बहुरंगी प्रतिभाएं इतिहास में कम ही होती हैं। वे मानवतावादी कवि, कलाकार, संगीतज्ञ, सूफी संत व सैनिक भी थे। उनके धार्मिक गुरु महान सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया थे, जिनके पास वे अपने पिता के साथ आठ साल की आयु में गए और तभी से उनके मुरीद हो गए। अमीर खुसरो को दिल्ली सल्तनत का राज्याश्रय हासिल था। अपनी दीर्घ जीवन-अवधि में उन्होंने गुलाम वंश, खिलजी वंश से लेकर तुगलक वंश तक 11 सुल्तानों के सत्ता-संघर्ष के खूनी खेल को करीब से देखा था। लेकिन राजनीति का हिस्सा बनने के बजाए वे निर्लिप्त भाव से साहित्य सृजन व सूफी संगीत साधना में लीन रहे। अक्सर कव्वाली व गजल की परंपरा की शुरुआत अमीर खुसरो से ही मानी जाती है। उनकी रचना ‘जब यार देखा नैन भर..’ को अनेक विद्वान हिन्दी की पहली गजल मानते हैं। उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत की खयाल गायकी के ईजाद का श्रेय भी उन्हें दिया जाता है। कहा जाता है कि उन्होंने ध्रुपद गायन में फारसी लय व ताल को जोड़कर खयाल पैदा किया था। कहते हैं कि उन्होंने पखावज (मृदंग) को दो हिस्सों में बांटकर ‘तबला’ नाम के एक नए साज का ईजाद किया।
माना जाता है कि मध्य एशिया के तुर्कों के लाचीन कबीले के सरदार सैफुद्दीन महमूद के पुत्र अमीर खुसरो का जन्म ईस्वी सन् 1253 में उत्तर प्रदेश के एटा जिले में पटियाली नामक गांव में गंगा किनारे हुआ था। लाचीन कबीले के तुर्क चंगेज खां के आक्रमणों से पीड़ित होकर बलवन (1266 -1286 ई.) के राज्यकाल में शरणार्थी के रूप में भारत में आ बसे थे। खुसरो की मां दौलत नाज़ एक भारतीय मुलसलमान महिला थीं। वे बलबन के युद्धमंत्री अमीर एमादुल्मुल्क की पुत्री थीं, जो राजनीतिक दवाब के कारण हिन्दू से नए-नए मुसलमान बने थे। इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बावजूद इनके घर में सारे रीति-रिवाज हिन्दुओं के थे। इस मिले जुले घराने एवं दो परम्पराओं के मेल का असर बालक खुसरो पर पड़ा। आठ वर्ष की अवस्था में खुसरो के पिता का देहान्त हो गया। किशोरावस्था में उन्होंने कविता लिखना प्रारम्भ किया और बीस वर्ष के होते होते वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए।
खुसरो के पिता ने इनका नाम ‘अबुल हसन’ रखा था। ‘ख़ुसरो’ इनका उपनाम था। किन्तु आगे चलकर उपनाम ही इतना प्रसिद्ध हुआ कि लोग इनका यथार्थ नाम भूल गए। ‘अमीर खुसरो’ में ‘अमीर’ शब्द का भी अपना अलग इतिहास है। यह भी इनके नाम का मूल अंश नहीं है। जलालुद्दीन फीरोज ख़िलजी ने इनकी कविता से प्रसन्न हो इन्हें ‘अमीर’ का ख़िताब दिया और तब से ये ‘मलिक्कुशोअरा अमीर ख़ुसरो ’ कहे जाने लगे। उनके द्वारा रचित फारसी मसनवी ‘नुह सिपहर’ पर खुश होकर सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने एक हाथी के बराबर सोना तौलकर उन्हें दिया था। ‘नुह सिपहर’ में हिन्दुस्तान के रीति-रिवाजों, संस्कृति, प्रकृति, पशु-पक्षी व लोगों की तारीफ की गयी है।
अमीर खुसरो की 99 पुस्तकों का उल्लेख मिलता है, किन्तु 22 ही अब उपलब्ध हैं। हिन्दी में खुसरो की तीन रचनाएं मानी जाती हैं, किन्तु इन तीनों में केवल एक ‘खालिकबारी’ ही उपलब्ध है, जो कविता के रूप में हिन्दवी-फारसी शब्दकोश है। इसके अतिरिक्त खुसरो की फुटकर रचनाएं भी संकलित हैं, जिनमें पहेलियां, मुकरियां, गीत, निस्बतें, अनमेलियां आदि हैं। ये सामग्री भी लिखित में कम उपलब्ध थीं, वाचक रूप में इधर-उधर फैली थीं, जिसे नागरी प्रचारिणी सभा ने ‘खुसरो की हिन्दी कविता’ नामक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया था।
(फोटो http://tdil.mit.gov.in/coilnet/ignca/amir0001.htm से साभार)
Saturday, November 1, 2008
तब बुद्धदेव कहते, क्यों नहीं बनाते सस्ते ट्रैक्टर !
यह विडंबना ही है कि जिस देश की अधिकांश जनता किसान है, जहां का महान बुद्धिजीवी वर्ग जनवाद की बातें करते नहीं अघाता, वहां कार पर तो खूब बहस होती है लेकिन ट्रैक्टर कभी मुद्दा नहीं बनता। एक कार को लेकर बेकार का हाहाकार शीर्षक से 'राष्ट्रीय सहारा' में प्रकाशित कृष्ण प्रताप सिंह के विवेचन के कुछ अंश यहां इस संदर्भ में प्रस्तुत हैं।
भूमंडलीकरण का बाजा बजा रही सरकारें गांवों व गरीबों की ओर से मुंह मोड़कर उन्हें निर्मम बाजार व्यवस्था के हवाले करने पर न तुल जातीं, अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को थोड़ा बहुत समझतीं, किसानों–मजदूरों के हकों का अतिक्रमण रोकने में दिलचस्पी रखतीं और पूंजी को ब्रह्म व मुनाफे को मोक्ष न मानने लगतीं, तो आज किस तरह के सवाल उठाए जा रहे होते?
क्या तब भी अखबारों में ‘बंगाल ने खोया रतन (टाटा)’ जैसे शीर्षक आते और संपादकीय में तर्क दिए जाते कि सिंगुर में भूमि गंवाने वाले किसानों ने उन्हें मिले मुआवजे की राशि से ऐसे दोमंजिला भवन बनवा लिए हैं, जैसे कई पीढ़ियों में न बना पाते?
नहीं, तब निश्चित ही बुद्धदेव भट्टाचार्य टाटा को नहीं, टाटा बुद्धदेव भट्टाचार्य को मनाते दिखाई देते। यानी पूंजी की सत्ता राजनीति की सत्ता से ऊपर नहीं होती। बुद्धदेव कहते कि आप सस्ती कार ही क्यों बनाना चाहते हैं, सस्ती साइकिलें, रिक्शे या ट्रैक्टर क्यों नहीं बनाते? फिर हमसे अपनी शर्तें क्यों मनवाना चाहते हैं? सिंगुर की वह उपजाऊ कृषि भूमि ही क्यों चाहिए, आपको? इसे तो हम किसी भी कीमत पर आपको नहीं दे सकते, क्योंकि बड़े से बड़ा मुआवजा भी किसानों की कृषि भूमि का विकल्प नहीं हो सकता।
इन सवालों के साथ बुद्धदेव तब उन लोगों के साथ खड़े होते, जिनका वे आज विरोध करते दिखाई देते हैं। वे नैनो कार के खतरे गिनाते, उसे अर्थव्यवस्था के भीतरी ढांचे में कर्ज के विस्तार की नयी रणनीति का हिस्सा बताते और कहते कि संतृप्त होते ऊपरी कार बाजार से निकल कर टाटा को निम्न मध्य वर्ग की ‘ऊंची इच्छाओं’ को भुनाने यानी कर्ज लेने व आगे उसकी डेढ़ गुनी कीमत चुकाने की व्यवस्था के हवाले करने की इजाजत हम नहीं देंगे।
उन्हें अर्जुन सेनगुप्ता समिति की वह रपट भी याद आती, जिसमें कहा गया है कि देश की 80 फीसदी मेहनतकश आबादी बीस रूपए रोज से कम कमाती है। उनके साथ उनके लोग भी पूछते कि इस आबादी को आपकी नैनो से क्या सरोकार? टाटा जी, वह आम आदमी हमारे देश में कहां बसता है जिसे पत्नी-बच्चों के साथ भीगते देखकर आप करूणा विगलित हो उठे और उसकी कार–सेवा करने चल पड़े?
वे ऐसा न करते और ममता को मजबूरी में टाटा का स्वाभाविक साथ छोड़कर वही करना पड़ता, जो उन्होंने किया तो वे भी आज इतने अपराध-बोध से पीड़ित और रक्षात्मक नहीं होतीं। तब वे टाटा के सिंगुर से जाने को टाटा और बुद्धदेव का गेमप्लान न बतातीं, कहतीं कि यह उन किसानों के संघर्ष की जीत है, जिन्हें भूमिहीन बना दिया जा रहा था।
तब टाटा की हैसियत यह नहीं होती कि वे ममता या कि मोदी को बैड और गुड एम से संबोधित करते। उनके सामने साफ होता कि यह कृषि प्रधान देश कृषि की कीमत पर उद्योगों का विस्तार पसंद नहीं करता।
अब कुछ अपनी बात : इतने दिनों से ब्लॉगजगत से मेरी गैरमौजूदगी पर कुछ मित्र सोचते होंगे कि आखिर यह बंदा कर क्या रहा है। कविवर भाई योगेन्द्र मौदगिल तो पूछ ही बैठे कि किसी जरूरी कीड़े की तलाश में हो क्या..? ..तो भैया मैं किसी कीड़े की तलाश में नहीं हूं। हमेशा यही करता रहा तो खाऊंगा क्या :) दरअसल इतने दिनों से पानी के अभाव में सूख रही अपनी धान की फसल को बचाने में लगा था। अब धान की कटनी-दौनी और रबी फसल के लिए खाद-बीज के इंतजाम में जुटा हूं। वैसे अभी भी खेत की मेड़ पर बैठा अपने मोबाइल फोन पर आपकी पोस्टें पढ़ना नहीं भूलता..खेती का काम निपटाते ही शीघ्र ही टिप्पणियों में भी दिखने लगूंगा। उम्मीद करता हूं कि ब्लॉगर मित्र छुट्टी की इस अर्जी को मंजूर करने में कृपणता नहीं दिखाएंगे :)
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