संसद में नोटों की गड्डी लहराते देख लोगों को जो पीड़ा हुई उसे समझा जा सकता है। हालांकि यदि हम कृषि ऋण माफी की नैतिकता पर विचार करें तो उसके सामने सांसदों की यह खरीद-फरोख्त कुछ भी नहीं। कृषि ऋण माफी के रूप में केन्द्र सरकार ने किसानों की ईमानदारी को करारा तमाचा मारा। ईमानदारी बरतनेवाले किसानों की जुबानी सराहना तक नहीं की गयी और विपरीत आचरण करनेवालों पर 71 हजार करोड़ रुपये लुटा दिये गये। जाहिर है, कर्ज माफी के नाम पर इस देश में कृषि से जुड़े करीब सत्तर करोड़ लोगों को बेईमान बनने का संदेश दिया गया।
बचपन से हम सुनते आये हैं कि ऑनेस्टी इज द बेस्ट पॉलिसी, ईमानदारी अच्छी नीति है। लेकिन किसानों की कर्ज माफी के नाम पर सरकार ने जो कुछ किया, यह धारणा एक झटके में निर्मूल हो गयी। नीतिवान लोग हमें सिखाते हैं कि जिसका कुछ लो उसे समय से लौटा दो। जिन किसानों ने यह आचरण अपने जीवन में उतारा, वे मुंह ताकते रह गये। इसके विपरीत आचरण करनेवाले मौज मना रहे हैं। जो कर्ज दबाकर रखा था वह माफ हो गया, अब नया कर्ज भी उन्हें ही मिल रहा है।
वित्तमंत्री पी. चिदंबरम को गुमान है कि उन्होंने किसानों के हित में देश की अब तक की सबसे बड़ी कर्ज माफी योजना लागू करायी है। कहा जा रहा है कि देश के चार करोड़ छोटे व सीमांत किसानों को कर्जमुक्त कर दिया गया और बड़े किसानों को भी इस योजना का लाभ पहुंचा। मीडिया ने भी इन खबरों को इस तरह उछाला मानों किसानों को बहुत बड़ा तोहफा दिया गया। लेकिन सच्चाई यह है कि कर्ज माफी में छोटे, सीमांत, बड़े इन सभी किसानों का ध्यान रखा गया, ध्यान नहीं रखा गया तो ईमानदार किसानों का। ईमानदारी उनके लिये अभिशाप बन गयी। उनका दोष यही रहा कि उन्होंने बैंक से कर्ज लेकर उसे समय सीमा के अंदर जमा करते रहे। उन पर दोहरी मार पड़ी। करों के रूप में कर्ज माफी का बोझ भी उठाया और खुद इससे वंचित भी रहे।
फरवरी, 2008 में लोकसभा में वर्ष 2008-09 का आम बजट पेश करते हुए केन्द्रीय वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने कृषि ऋण माफी की जो योजना रखी, उसके दायरे में सिर्फ उन्हीं किसानों को रखा गया जिन्होंने 31 मार्च, 2007 से पहले कर्ज लिया था और 31 दिसंबर 2007 तक नहीं चुकाया था। अर्थात यदि किसी किसान ने (चाहे वह गरीब भूमिहीन बटाईदार किसान ही क्यों न हो) ईमानदारी पाली और पहले का कर्ज चुकाकर 31 मार्च, 2007 के बाद नया कर्ज लिया तो उसे एक पाई भी नहीं मिला। दूसरे शब्दों में हमारे वित्तमंत्री ने बजट पेश करते समय सिर्फ उन्हीं किसानों को इसका पात्र समझा जो उस समय तक डिफाल्टर घोषित हो चुके थे। वैसे कर्जदार जो डिफाल्टर नहीं रहे, उन्हें धेला भी नहीं मिला।
जाहिर है, केन्द्र सरकार से संदेश तो यही मिल रहा है कि इस देश में मेहनत और ईमानदारी की कोई कीमत नहीं? सत्तर करोड़ लोगों के बीच ईमानदारी का इतना घटिया मजाक करनेवाले लोग अगर कुछ सौ सांसदों के बीच नोटों की गड्डियों का लेन-देन करते पाये जायें तो इसमें अचरज की बात हमारे लिये तो नहीं ही है। अफसोस की बात है कि संसद में नोटो की गड्डी लहराते देख शर्म शर्म चिल्ला रहा मीडिया भी इस नजरिये से कर्ज माफी योजना पर कभी विचार नहीं किया। हमारी आंखें पथरा गयीं एक अदद ऐसी खबर की आस में जिसमें कहा गया हो कि सिर्फ डिफाल्टरों को मिला किसान कर्ज माफी योजना का लाभ। जब कि सच्चाई यही रही। किसान कर्ज माफी योजना की पात्रता के लिये सीमांत या छोटा किसान होना ही पर्याप्त नहीं रहा, डिफाल्टर होना जरूरी शर्त रही।
मौजूदा हालातों में एक बार फिर बाबा धूमिल याद आ रहे हैं-
'इस देश की मिट्टी में
अपने जांगर का सुख तलाशना
अन्धी लड़की की आंखों में
उससे सहवास का सुख तलाशना है'
Thursday, July 24, 2008
Wednesday, July 23, 2008
मारुति की पंचायत स्कीम : ग्रामीण आबादी को उपभोक्ता बनाने की उद्योगजगत की कवायाद
ब्लॉग पत्रिका निरंतर के ताजा अंक में प्रकाशित अपने एक आलेख में हमने कहा है कि गांव को शहर बनाने की बात बाजार की ताकतों के दबाव में की जा रही है। भारत की ग्रामीण आबादी को उपभोक्ता बनाने के लिये बहुराष्ट्रीय कंपनियां बेकरार हैं। इकनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित यह खबर ग्रामीण भारत को अपने ग्राहक में तब्दील करने की उद्योगजगत की बेकरारी का परिचायक है :
देश की पहली लखटकिया कार पेश करने की टाटा की घोषणा के साथ ही दूसरी कार कंपनियों का सिरदर्द शुरू हो गया था। अक्तूबर में टाटा नैनो को लॉन्च किया जाना है। ऐसे में मारुति सुजुकी इंडिया (एमएसआई) ने ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़ी अपनी कोशिशें तेज कर दी हैं।
कंपनी ने ग्रामीण विपणन अभियान के जरिए ज्यादा ग्राहकों के बीच पहुंचने का फैसला किया है। इसमें दूर-दराज के इलाकों तक पहुंच मजबूत बनाना और आकर्षक कीमतों पर प्रमुख इकनॉमी मॉडल को पेश करने के साथ हर तालुका और पंचायत तक पहुंचना शामिल है। इस मिशन का लक्ष्य उन सभी लोगों तक पहुंचना है जो कार खरीदने की हैसियत रखते हैं।
मारुति क्षेत्र विशेष में मुहैया कराए जा रहे डिस्काउंट से ज्यादा अतिरिक्त छूट मुहैया करा रही है। मसलन, मारुति 800 खरीदने पर 5,000 रुपए का डिस्काउंट दिया जा रहा है जबकि कंपनी ने ओमनी की कीमतों में 3,000 रुपए की कटौती की है। आल्टो, वैगन आर और जेन एस्टिलो जैसे मॉडल 2,000 रुपए की छूट पर बेचे जा रहे हैं।
' पंचायत स्कीम' नामक इस योजना का उद्देश्य कारों को उन लोगों तक पहुंचाना है जो गांवों में रसूख रखते हैं। मारुति जिन लोगों को लक्ष्य बना रही हैं उनकी सूची में पंचायत के सदस्य, स्थानीय ग्रामीण बैंक के कर्मचारी, ग्रामीण अस्पतालों के डॉक्टर, सामान्य स्वास्थ्य केन्द्रों के सदस्य, शिक्षक, नम्बरदार, तहसीलदार और उनका स्टाफ शामिल है।
दिलचस्प बात है कि एमएसआई ने ग्रामीण भारत में 32,000 से ज्यादा वाहन बेचे हैं। इन इलाकों में पटना का दानापुर है तो गुजरात का गोंडल भी जो राजकोट से 30 किलोमीटर के फासले पर है।
एक खास लोकेशन में करीब 20 वाहन बेचने पर मारुति सुजुकी के अधिकारियों ने एक समारोह आयोजित किया जिसमें गाड़ियों की चाबी सौंपी गईं। इस समारोह में करीब 100 लोगों को बुलाया गया था जिनमें पंचायत सदस्य, आढ़ती, स्कूली शिक्षक, ग्रामीण डॉक्टर, सरकारी दफ्तरों के अफसर, जिलाधिकारी, जिला पंचायत प्रमुख और विधायक जैसे प्रमुख लोग शामिल रहे।
इस आयोजन के बाद ऋण मेला लगाया गया जिनमें वित्तीय इकाइयों ने सक्षम ग्राहकों को कर्ज मुहैया कराने की पेशकश की। इसके अलावा एमएसआई के कारखाने का दौरा करने के वाले एक दल का चुनाव भी किया गया।
देशव्यापी ग्रामीण मार्केटिन्ग रणनीति में एक कदम आगे बढ़ाते हुए मारुति सुजुकी ने हाल में सिंगूर में ग्रामीण महोत्सव का आयोजन किया जहां से उसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी कंपनी टाटा अक्तूबर में नैनो को बाजार में उतारेगी। इसके बाद कल्याणी में भी इसी तरह का कार्यक्रम किया गया। एमएसआई के एक अधिकारी ने बताया कि हम पूरे पश्चिम बंगाल में इसी तरह के आयोजन करेंगे।
अधिकारी ने कहा, 'गांवों के ऐसे प्रभावशाली लोगों की काफी तादाद है जो एक कार रखना चाहते हैं। मारुति ने इन सक्षम ग्राहकों के ख्वाब को हकीकत में तब्दील करने के लिए शीर्ष स्तरीय सेवाएं मुहैया कराने को विशेष उपाय किए हैं।'
ग्रामीण इलाकों से जुड़ी पहल से कंपनी की गांवों में मौजूदगी पुख्ता होगी। इनमें ग्रामीण इलाकों में सेल्स एवं सर्विस सुविधाओं के साथ विशेष एक्सटेंशन काउंटर शामिल हैं।
अपनी पहुंच को मजबूत बनाने के लिए कंपनी ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया और उससे जुड़े बैंक तथा श्रीराम फाइनैंस, मैग्मा फाइनैंस और एमएंडएम फाइनैंसिंग जैसी वित्तीय कंपनियों के साथ गठबंधन किया है।
देश की पहली लखटकिया कार पेश करने की टाटा की घोषणा के साथ ही दूसरी कार कंपनियों का सिरदर्द शुरू हो गया था। अक्तूबर में टाटा नैनो को लॉन्च किया जाना है। ऐसे में मारुति सुजुकी इंडिया (एमएसआई) ने ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़ी अपनी कोशिशें तेज कर दी हैं।
कंपनी ने ग्रामीण विपणन अभियान के जरिए ज्यादा ग्राहकों के बीच पहुंचने का फैसला किया है। इसमें दूर-दराज के इलाकों तक पहुंच मजबूत बनाना और आकर्षक कीमतों पर प्रमुख इकनॉमी मॉडल को पेश करने के साथ हर तालुका और पंचायत तक पहुंचना शामिल है। इस मिशन का लक्ष्य उन सभी लोगों तक पहुंचना है जो कार खरीदने की हैसियत रखते हैं।
मारुति क्षेत्र विशेष में मुहैया कराए जा रहे डिस्काउंट से ज्यादा अतिरिक्त छूट मुहैया करा रही है। मसलन, मारुति 800 खरीदने पर 5,000 रुपए का डिस्काउंट दिया जा रहा है जबकि कंपनी ने ओमनी की कीमतों में 3,000 रुपए की कटौती की है। आल्टो, वैगन आर और जेन एस्टिलो जैसे मॉडल 2,000 रुपए की छूट पर बेचे जा रहे हैं।
' पंचायत स्कीम' नामक इस योजना का उद्देश्य कारों को उन लोगों तक पहुंचाना है जो गांवों में रसूख रखते हैं। मारुति जिन लोगों को लक्ष्य बना रही हैं उनकी सूची में पंचायत के सदस्य, स्थानीय ग्रामीण बैंक के कर्मचारी, ग्रामीण अस्पतालों के डॉक्टर, सामान्य स्वास्थ्य केन्द्रों के सदस्य, शिक्षक, नम्बरदार, तहसीलदार और उनका स्टाफ शामिल है।
दिलचस्प बात है कि एमएसआई ने ग्रामीण भारत में 32,000 से ज्यादा वाहन बेचे हैं। इन इलाकों में पटना का दानापुर है तो गुजरात का गोंडल भी जो राजकोट से 30 किलोमीटर के फासले पर है।
एक खास लोकेशन में करीब 20 वाहन बेचने पर मारुति सुजुकी के अधिकारियों ने एक समारोह आयोजित किया जिसमें गाड़ियों की चाबी सौंपी गईं। इस समारोह में करीब 100 लोगों को बुलाया गया था जिनमें पंचायत सदस्य, आढ़ती, स्कूली शिक्षक, ग्रामीण डॉक्टर, सरकारी दफ्तरों के अफसर, जिलाधिकारी, जिला पंचायत प्रमुख और विधायक जैसे प्रमुख लोग शामिल रहे।
इस आयोजन के बाद ऋण मेला लगाया गया जिनमें वित्तीय इकाइयों ने सक्षम ग्राहकों को कर्ज मुहैया कराने की पेशकश की। इसके अलावा एमएसआई के कारखाने का दौरा करने के वाले एक दल का चुनाव भी किया गया।
देशव्यापी ग्रामीण मार्केटिन्ग रणनीति में एक कदम आगे बढ़ाते हुए मारुति सुजुकी ने हाल में सिंगूर में ग्रामीण महोत्सव का आयोजन किया जहां से उसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी कंपनी टाटा अक्तूबर में नैनो को बाजार में उतारेगी। इसके बाद कल्याणी में भी इसी तरह का कार्यक्रम किया गया। एमएसआई के एक अधिकारी ने बताया कि हम पूरे पश्चिम बंगाल में इसी तरह के आयोजन करेंगे।
अधिकारी ने कहा, 'गांवों के ऐसे प्रभावशाली लोगों की काफी तादाद है जो एक कार रखना चाहते हैं। मारुति ने इन सक्षम ग्राहकों के ख्वाब को हकीकत में तब्दील करने के लिए शीर्ष स्तरीय सेवाएं मुहैया कराने को विशेष उपाय किए हैं।'
ग्रामीण इलाकों से जुड़ी पहल से कंपनी की गांवों में मौजूदगी पुख्ता होगी। इनमें ग्रामीण इलाकों में सेल्स एवं सर्विस सुविधाओं के साथ विशेष एक्सटेंशन काउंटर शामिल हैं।
अपनी पहुंच को मजबूत बनाने के लिए कंपनी ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया और उससे जुड़े बैंक तथा श्रीराम फाइनैंस, मैग्मा फाइनैंस और एमएंडएम फाइनैंसिंग जैसी वित्तीय कंपनियों के साथ गठबंधन किया है।
Tuesday, July 22, 2008
तो कृत्रिम कमी बनाकर बढ़ाये गये चीनी के दाम !
आपने महसूस किया होगा कि पिछले कुछ दिनों से चीनी के लिये आपको अधिक कीमत चुकानी पड़ रही है। ऐसा तब है जब कि धान व गेहूं की तरह चीनी के भी रिकार्ड उत्पादन की संभावनाएं हैं। ऐसा भी नहीं कि आपके अधिक कीमत देने से गन्ना उत्पादक किसानों को उनके उपज की बेहतर कीमत मिल रही है। इसके विपरीत वे तो उचित कीमत नहीं मिलने की वजह से इसकी खेती से विमुख हो रहे हैं। किसान गन्ना की खेती छोड़ देंगे तो उनका जो नफा नुकसान होगा सो होगा, भविष्य में चीनी की कीमतें भी आम उपभोक्ताओं की पहुंच से बाहर हो जायेंगी। आखिर कौन है इन सबके लिये दोषी? पढिये राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित एजेंसी की यह खबर और खुद फैसला कीजिए :
चालू सीजन में चीनी के रिकार्ड उत्पादन की संभावनाओं के बावजूद खुले बाजार का कोटा उम्मीदों से कम जारी किए जाने से पिछले माह चीनी कीमतों में 10 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई है। कृषि मंत्रालय के हाल में ही जारी किए गए अनुमान के मुताबिक अक्टूबर 2007 से सितम्बर 2008 तक के चीनी के सीजन में इसका उत्पादन 350 लाख टन तक पहुंच सकता है।
कारोबारियों के अनुसार बीते सप्ताहांत में थोक बाजारों में चीनी एस के दाम 1710-1800 रूपए, चीनी एम के दाम 1710-1750 रूपए और मिल डिलीवरी के दाम 1500-1600 रूपए प्रति क्विंटल तक चढ़ गए जबकि एक माह पूर्व चीनी एस 1540-1580 रूपए, चीनी एम 1550-1600 रूपए और मिल डिलीवरी 1340-1465 रूपए प्रति क्विंटल के भाव पर खरीदी बेची जा रही थी। कारोबारियों का कहना है कि बाजार में चीनी की आवक कम हो गई है जबकि मांग पहले के स्तर पर टिकी हुई है। इस वर्ष की शुरूआत में थोक बाजार में चीनी की कीमतें 1440 रूपए प्रति क्विंटल थी।
जानकारों का मानना है कि गन्ने का रकबा घटने से भी चीनी की कीमतों को समर्थन मिला है। सरकार के इस चालू वर्ष के फसल उत्पादन के चौथे अग्रिम अनुमान के अनुसार गन्ने की बुआई का रकबा घट रहा है और इसमें पिछले वर्ष के मुकाबले अभी तक 4.21 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की चुकी है। इस बीच सरकार ने जुलाई से सितम्बर की तिमाही की अवधि के लिए अपेक्षा से कम कोटा जारी किया है। सरकार ने इस अवधि के लिए 30 लाख टन चीनी खुले बाजार के लिए जारी है।
कारोबारियों का कहना है कि सरकार द्वारा लगभग 44 लाख टन चीनी का कोटा जारी करने की संभावना थी लेकिन कोटा कम जारी होने से बाजार में चीनी के दाम चढ़ने शुरू हो गए हैं। कुछ समय पहले तक जहां चीनी मिलें अपना माल बेचने के लिए आमादा थी वहीं बदली हुई परिस्थितियों को देखते हुए उन्होंने आपूर्ति रोक दी है और बाजार के वर्तमान भावों पर माल बेचने के लिए तैयार नहीं है। इससे बाजार में कृत्रिम कमी पैदा कर दाम बढ़ा दिए गए हैं।
उधर किसानों ने पिछले साल के गन्ने का भुगतान नहीं होने के कारण इस वर्ष इसकी अपेक्षाकृत कम बुआई की है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार किसान गन्ने के रकबे पर तिलहन की खेती कर रहे हैं। पिछले कई वर्षो से चीनी के अतिरेक उत्पादन का लाभ किसानों का नहीं मिल सका और उनके गन्ने की कीमत सही समय पर नहीं मिल पाई। अंतरराष्ट्रीय चीनी संगठन के अनुसार वैश्विक स्तर पर चीनी के उत्पादन में वृद्धि होगी। चालू वर्ष में एक करोड़ 11 लाख टन अधिक चीनी का उत्पादन होगा जिसका असर इसके दामों पर पडे़गा।
भारत विश्व में चीनी का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश होने के साथ-साथ सबसे बड़ा उपभोक्ता देश भी है। जानकारों का कहना है कि यदि देश में चीनी का उत्पादन इसी तरह से जारी रहा तो शीघ्र ही भारत सर्वाधिक उत्पादन करने वाले देश ब्राजील को पीछे छोड़ देगा।
चालू सीजन में चीनी के रिकार्ड उत्पादन की संभावनाओं के बावजूद खुले बाजार का कोटा उम्मीदों से कम जारी किए जाने से पिछले माह चीनी कीमतों में 10 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई है। कृषि मंत्रालय के हाल में ही जारी किए गए अनुमान के मुताबिक अक्टूबर 2007 से सितम्बर 2008 तक के चीनी के सीजन में इसका उत्पादन 350 लाख टन तक पहुंच सकता है।
कारोबारियों के अनुसार बीते सप्ताहांत में थोक बाजारों में चीनी एस के दाम 1710-1800 रूपए, चीनी एम के दाम 1710-1750 रूपए और मिल डिलीवरी के दाम 1500-1600 रूपए प्रति क्विंटल तक चढ़ गए जबकि एक माह पूर्व चीनी एस 1540-1580 रूपए, चीनी एम 1550-1600 रूपए और मिल डिलीवरी 1340-1465 रूपए प्रति क्विंटल के भाव पर खरीदी बेची जा रही थी। कारोबारियों का कहना है कि बाजार में चीनी की आवक कम हो गई है जबकि मांग पहले के स्तर पर टिकी हुई है। इस वर्ष की शुरूआत में थोक बाजार में चीनी की कीमतें 1440 रूपए प्रति क्विंटल थी।
जानकारों का मानना है कि गन्ने का रकबा घटने से भी चीनी की कीमतों को समर्थन मिला है। सरकार के इस चालू वर्ष के फसल उत्पादन के चौथे अग्रिम अनुमान के अनुसार गन्ने की बुआई का रकबा घट रहा है और इसमें पिछले वर्ष के मुकाबले अभी तक 4.21 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की चुकी है। इस बीच सरकार ने जुलाई से सितम्बर की तिमाही की अवधि के लिए अपेक्षा से कम कोटा जारी किया है। सरकार ने इस अवधि के लिए 30 लाख टन चीनी खुले बाजार के लिए जारी है।
कारोबारियों का कहना है कि सरकार द्वारा लगभग 44 लाख टन चीनी का कोटा जारी करने की संभावना थी लेकिन कोटा कम जारी होने से बाजार में चीनी के दाम चढ़ने शुरू हो गए हैं। कुछ समय पहले तक जहां चीनी मिलें अपना माल बेचने के लिए आमादा थी वहीं बदली हुई परिस्थितियों को देखते हुए उन्होंने आपूर्ति रोक दी है और बाजार के वर्तमान भावों पर माल बेचने के लिए तैयार नहीं है। इससे बाजार में कृत्रिम कमी पैदा कर दाम बढ़ा दिए गए हैं।
उधर किसानों ने पिछले साल के गन्ने का भुगतान नहीं होने के कारण इस वर्ष इसकी अपेक्षाकृत कम बुआई की है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार किसान गन्ने के रकबे पर तिलहन की खेती कर रहे हैं। पिछले कई वर्षो से चीनी के अतिरेक उत्पादन का लाभ किसानों का नहीं मिल सका और उनके गन्ने की कीमत सही समय पर नहीं मिल पाई। अंतरराष्ट्रीय चीनी संगठन के अनुसार वैश्विक स्तर पर चीनी के उत्पादन में वृद्धि होगी। चालू वर्ष में एक करोड़ 11 लाख टन अधिक चीनी का उत्पादन होगा जिसका असर इसके दामों पर पडे़गा।
भारत विश्व में चीनी का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश होने के साथ-साथ सबसे बड़ा उपभोक्ता देश भी है। जानकारों का कहना है कि यदि देश में चीनी का उत्पादन इसी तरह से जारी रहा तो शीघ्र ही भारत सर्वाधिक उत्पादन करने वाले देश ब्राजील को पीछे छोड़ देगा।
Monday, July 21, 2008
एफएओ ने माना, बढ़ सकता है देश में धान का उत्पादन
समय से पहले मानसून के आ धमकने और उत्पादन क्षेत्रों में काफी अच्छी बारिश होने से इस बार देश में धान के कुल उत्पादन में बढ़ोतरी का अनुमान है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा जारी एक रिपोर्ट में संभावना जतायी गयी है कि इस साल भारत में धान के उत्पादन में लगभग 1.39 फीसदी यानी 20 लाख टन की वृद्धि हो सकती है। एफएओ का अनुमान है कि इस साल यहां धान का कुल उत्पादन 14.55 करोड़ टन रहेगा।
उल्लेखनीय है कि पिछले साल (2007) 14.35 करोड़ टन धान का उत्पादन हुआ था। जबकि 2006 में 14 करोड़ धान पैदा किया गया था। केंद्रीय कृषि विभाग द्वारा इकट्ठे किए गए आंकड़ों के मुताबिक, अब तक धान के रकबे में 5.45 फीसदी की वृद्धि हो चुकी है। पिछले साल इसी समय जहां 86.90 लाख हेक्टेयर में धान की रोपाई हो चुकी थी वहीं इस साल 92.35 लाख हेक्टेयर में रोपाई हो चुकी है।
विश्लेषकों के मुताबिक, दक्षिण-पश्चिम मानूसन के बेहतर रहने के चलते इस साल खरीफ उत्पादन की शुरुआती तस्वीर बढ़िया दिख रही है। फिर भी इसकी वास्तविक स्थिति तभी बेहतर हो पाएगी, जब जुलाई और अगस्त में भी यह मानसून अच्छी बारिश करा सके। हालांकि धान के दो मुख्य उत्पादक राज्य आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र ने कम बारिश के चलते राज्य में सूखे जैसी स्थिति की घोषणा की है। मौसम विभाग ने इन इलाकों की स्थिति में जल्द ही सुधार आने के संकेत दिए हैं और कहा है कि यहां जल्द ही अच्छी बारिश हो सकती है।
देश के उत्तरी और पूर्वी राज्यों जैसे जम्मू और कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश और पूर्वी राजस्थान में पर्याप्त बारिश हुई है जबकि पश्चिमी राजस्थान, गुजरात और पश्चिमी मध्य प्रदेश में औसत बारिश ही हुई है। दूसरी ओर, दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में सामान्य से कम बारिश हुई है। मौसम विभाग के मुताबिक, अब तक देश के 36 में से 23 सब-डिवीजनों में औसत बारिश हुई है पर 13 में औसत से कम बारिश हुई है।
जून में इस साल 268.5 मिलीमीटर बारिश हुई है जबकि इस महीने में बारिश का औसत 243.8 मिलीमीटर है। इस तरह देश में जून महीने में औसत से 10 फीसदी ज्यादा बारिश हुई है। मोटे अनाजों और दालों के रकबे में भी क्रमश: 9.01 फीसदी और 2.18 फीसदी की वृद्धि हो चुकी है। 87.35 लाख हेक्टेयर और 30.85 लाख हेक्टेयर में मोटे अनाजों और दालों की बुआई की जा चुकी है। एफएओ की रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि इस साल देश का कुल खाद्यान्न उत्पादन पिछले साल के 25.5 करोड़ टन की तुलना में थोड़ा बढ़कर 25.79 करोड़ टन हो जाएगा।
साल 2006 में तो खाद्यान्नों का कुल उत्पादन 24.26 करोड़ टन ही रहा था। अभी-अभी खत्म हुए रबी सीजन में बेहतरीन मौसम के चलते गेहूं के कुल उत्पादन में जोरदार बढ़त दर्ज की गई। 2007 के रबी सीजन की तुलना में इस बार 22 लाख टन ज्यादा गेहूं उपजाया गया। इस बार गेहूं का कुल उत्पादन 7.8 करोड़ टन रहा जो पिछले 8 सालों में सबसे ज्यादा है।
खाद्यान्नों के उत्पादन में ऐसी बढ़ोतरी होने से विश्लेषकों का मानना है कि 2008-09 साल में देश की खाद्यान्न जरूरतों को आसानी से पूरा किया जा सकेगा। 2006-07 के दौरान देश को 67 लाख टन जबकि 2007-08 में 20 लाख टन गेहूं का आयात करना पड़ा था। एफएओ के ताजा पूर्वानुमान के मुताबिक, 2008 में दुनिया का खाद्यान्न उत्पादन 218 करोड़ टन हो जाएगा। पिछले साल की तुलना में यह 2.8 फीसदी ज्यादा पर पहले के अनुमान से कम है।
(खबर बिजनेस स्टैंडर्ड से साभार)
संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा जारी एक रिपोर्ट में संभावना जतायी गयी है कि इस साल भारत में धान के उत्पादन में लगभग 1.39 फीसदी यानी 20 लाख टन की वृद्धि हो सकती है। एफएओ का अनुमान है कि इस साल यहां धान का कुल उत्पादन 14.55 करोड़ टन रहेगा।
उल्लेखनीय है कि पिछले साल (2007) 14.35 करोड़ टन धान का उत्पादन हुआ था। जबकि 2006 में 14 करोड़ धान पैदा किया गया था। केंद्रीय कृषि विभाग द्वारा इकट्ठे किए गए आंकड़ों के मुताबिक, अब तक धान के रकबे में 5.45 फीसदी की वृद्धि हो चुकी है। पिछले साल इसी समय जहां 86.90 लाख हेक्टेयर में धान की रोपाई हो चुकी थी वहीं इस साल 92.35 लाख हेक्टेयर में रोपाई हो चुकी है।
विश्लेषकों के मुताबिक, दक्षिण-पश्चिम मानूसन के बेहतर रहने के चलते इस साल खरीफ उत्पादन की शुरुआती तस्वीर बढ़िया दिख रही है। फिर भी इसकी वास्तविक स्थिति तभी बेहतर हो पाएगी, जब जुलाई और अगस्त में भी यह मानसून अच्छी बारिश करा सके। हालांकि धान के दो मुख्य उत्पादक राज्य आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र ने कम बारिश के चलते राज्य में सूखे जैसी स्थिति की घोषणा की है। मौसम विभाग ने इन इलाकों की स्थिति में जल्द ही सुधार आने के संकेत दिए हैं और कहा है कि यहां जल्द ही अच्छी बारिश हो सकती है।
देश के उत्तरी और पूर्वी राज्यों जैसे जम्मू और कश्मीर, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश और पूर्वी राजस्थान में पर्याप्त बारिश हुई है जबकि पश्चिमी राजस्थान, गुजरात और पश्चिमी मध्य प्रदेश में औसत बारिश ही हुई है। दूसरी ओर, दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में सामान्य से कम बारिश हुई है। मौसम विभाग के मुताबिक, अब तक देश के 36 में से 23 सब-डिवीजनों में औसत बारिश हुई है पर 13 में औसत से कम बारिश हुई है।
जून में इस साल 268.5 मिलीमीटर बारिश हुई है जबकि इस महीने में बारिश का औसत 243.8 मिलीमीटर है। इस तरह देश में जून महीने में औसत से 10 फीसदी ज्यादा बारिश हुई है। मोटे अनाजों और दालों के रकबे में भी क्रमश: 9.01 फीसदी और 2.18 फीसदी की वृद्धि हो चुकी है। 87.35 लाख हेक्टेयर और 30.85 लाख हेक्टेयर में मोटे अनाजों और दालों की बुआई की जा चुकी है। एफएओ की रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि इस साल देश का कुल खाद्यान्न उत्पादन पिछले साल के 25.5 करोड़ टन की तुलना में थोड़ा बढ़कर 25.79 करोड़ टन हो जाएगा।
साल 2006 में तो खाद्यान्नों का कुल उत्पादन 24.26 करोड़ टन ही रहा था। अभी-अभी खत्म हुए रबी सीजन में बेहतरीन मौसम के चलते गेहूं के कुल उत्पादन में जोरदार बढ़त दर्ज की गई। 2007 के रबी सीजन की तुलना में इस बार 22 लाख टन ज्यादा गेहूं उपजाया गया। इस बार गेहूं का कुल उत्पादन 7.8 करोड़ टन रहा जो पिछले 8 सालों में सबसे ज्यादा है।
खाद्यान्नों के उत्पादन में ऐसी बढ़ोतरी होने से विश्लेषकों का मानना है कि 2008-09 साल में देश की खाद्यान्न जरूरतों को आसानी से पूरा किया जा सकेगा। 2006-07 के दौरान देश को 67 लाख टन जबकि 2007-08 में 20 लाख टन गेहूं का आयात करना पड़ा था। एफएओ के ताजा पूर्वानुमान के मुताबिक, 2008 में दुनिया का खाद्यान्न उत्पादन 218 करोड़ टन हो जाएगा। पिछले साल की तुलना में यह 2.8 फीसदी ज्यादा पर पहले के अनुमान से कम है।
(खबर बिजनेस स्टैंडर्ड से साभार)
Thursday, July 17, 2008
जट्रोफा की खेती में बढ़ा ऑटो कंपनियों का रुझान
अनाज की खेती कर लगातार घाटा उठा रहे किसानों का जट्रोफा की ओर रुझान तो हो ही रहा था, अब ऑटो कंपिनयों के भी इसमें दिलचस्पी लेने की खबर है। पेश है इकनॉमिक टाइम्स में अहमदाबाद डेटलाइन से प्रकाशित एक समाचार :
तेल में लगी आग से परेशान ऑटो कंपनियां भविष्य के ईंधन को लेकर तैयारी में जुट गई हैं। बॉयोडीजल को भविष्य के ईंधन के रूप देख जा रहा है। खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों के चलते कंपनियां अब बॉयोडीजल उत्पादन के लिए जट्रोफा पर अपने दांव लगा रही हैं। जट्रोफा पर दांव लगाने वाली प्रमुख ऑटो कंपनियों में जनरल मोटर्स, डेमलर-क्राइसलर और महिंद्रा एंड महिंद्रा शामिल हैं। जीएम और डेमलर-क्राइसलर ने अपने वाहनों पर जट्रोफा से तैयार ईंधन का परीक्षण तो किया ही है, अब जट्रोफा की व्यापक पैमाने पर खेती को भी बढ़ावा दे रही हैं।
गुजरात स्थित सेन्ट्रल सॉल्ट एंड मरिन केमिकल्स रिसर्च इंस्टीट्यूट (सीएसएमसीआरआई) विभिन्न कंपनियों की गाड़ियों के भविष्य के इंजनों के लिए जट्रोफा से तैयार बायोडीजल का परीक्षण कर रही है। यूरोप की ऑटोमोबाइल कंपनी डेमलर-क्राइसलर द्वारा गुजरात और उड़ीसा में पिछले 4 सालों से जट्रोफा की खेती की जा रही है। प्रमुख अमेरिकी ऑटो कंपनी जनरल मोटर्स भी इस दौड़ में शामिल हो गई है और वह गुजरात की 75-80 हेक्टेयर बंजर भूमि पर जट्रोफा की खेती करने जा रही है।
जनरल मोटर्स (इंडिया) के प्रेजिडेंट और मैनेजिंग डायरेक्टर कार्ल स्लिम ने ईटी को बताया कि जनरल मोटर्स अपने में जट्रोफा के परीक्षण के लिए पहले चरण में 5 लाख डॉलर का निवेश कर चुकी है। स्लिम ने कहा कि तेल के दाम में वृद्धि का दौर खत्म होता नहीं दिख रहा, जिसे देखते हुए जनरल मोटर्स ईंधन के विकल्प पर आक्रामक तरीके से काम कर रही है। बायोडीजल के रूप में जट्रोफा की उपयोगिता को देखते कंपनी की छह गाड़ियों पर भावनगर स्थित सीएसएमसीआरआई ने जट्रोफा से संबंधित परीक्षण किया है। तेल की समस्या को देखते हुए कंपनी अन्य विकल्पों पर भी नजर रखे हुए है, इसी के तहत इलेक्ट्रिक वाहन, एलपीजी और सीएनजी मॉडलों को भी देखा जा रहा है। स्लिम ने यह भी बताया कि जट्रोफा की ठेके पर खेती के लिए कंपनी शीघ्र ही सीएसएमसीआरआई के साथ एक समझौता करेगी।
उन्होंने कहा कि जट्रोफा को लेकर कंपनी प्रतिबद्ध है। गुजरात के 75-80 हेक्टेयर बंजर भूमि पर जट्रोफा की खेती की तैयारी हो चुकी है। कंपनी के कॉरपोरेट मामलों के वाइस प्रेजिडेंट पी. बालेंद्रन ने बताया कि योजना की मंजूरी के बाद जरूरत के अनुरूप निवेश किया जाएगा, फिलहाल योजना गुजरात सरकार के पास भेजी जा चुकी है।
सीएसएमसीआरआई के डायरेक्टर पुष्पितो के घोष ने ईटी को बताया कि जनरल मोटर्स के साथ हम 5 वर्षीय प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं। योजना के तहत 75 हेक्टेयर क्षेत्र में जट्रोफा के पौधों को उगाकर अच्छी गुणवत्ता के बीज प्राप्त किए जाएंगे। इंस्टीट्यूट का लक्ष्य इस नई परियोजना के तहत जट्रोफा के बीज का साल में करीब 100 टन उत्पादन करना है। संस्था के सीनियर वैज्ञानिक ने जट्रोफा के अच्छे उत्पादन का भरोसा जताते हुए कहा कि बढ़िया तकनीक और प्रयास से हम इसे प्राप्त कर लेंगे। सीएसएमसीआरआई बीज से 40 फीसदी तक तेल निकालने में सक्षम है।
डेमलर-क्राइसलर 90,000 लीटर बायोडीजल हासिल करने के लिए पिछले 4 साल में 3 करोड़ रुपए लगा चुकी है। इस योजना के तहत कंपनी गुजरात और उड़ीसा में जट्रोफा के प्रत्येक पौधे से 1 से लेकर 5 किलोग्राम तक बीज प्राप्त कर रही है। साल 2006 में मर्सडीज कार पर जट्रोफा का सफलतापूर्वक परीक्षण किया गया था और अब डेमलर-क्राइसलर लक्जरी कारों में उत्सर्जन और क्षमता संबंधी परीक्षण के लिए 500 लीटर जट्रोफा बॉयोडीजल का उपयोग करेगी।
इस क्रम में अगली कड़ी एशिया की प्रमुख कंपनी टोयोटा हो सकती है। सीएसएमसीआरआई ने टोयोटा क्वालिस (इंजन में बिना किसी परिवर्तन के) पर शुद्ध जट्रोफा बायोडीजल का प्रयोग 86,000 किलोमीटर चलाकर किया है।
Saturday, July 12, 2008
धरती के रंग, किसान के संग
वर्षा ऋतु भारत के गांवों में सुख और दु:ख दोनों का संदेशा लाती है। कई गांव बाढ़ में बह जाते हैं, कई का सड़क संपर्क भंग हो जाता है। भारतीय गांवों में आदमी और मवेशी पर बीमारियों का प्रकोप बरसात में कुछ ज्यादा ही होता है। इन सबके बावजूद यदि किसानों को किसी ऋतु का सबसे अधिक इंतजार रहता है तो वह वर्षा ही है। यही वह मौसम है, जब धरती तो हरी-भरी हो ही जाती है, किसानों के मन में भी हरियाली छा जाती है। धरती पर चांदी से चमकते पानी का अनंत विस्तार, पौधों की हरी-हरी बाढ़, रंग-बिरंगे बादलों से पटा आकाश – यह सब इसी मौसम में देखने को मिलता है। किसानों के मन में नयी फसल बोने की उमंग धरती का अप्रतिम सौन्दर्य देख कई गुना बढ़ जाती है।
वर्षा ऋतु में धरती के इन रंगों को अपने कैमरे में संजोने की कोशिश की, तो सोचा खेती किसानी की व्यस्तता के बीच इस बार इन चित्रों से ही पोस्ट का काम चला लिया जाये। शायद ब्लॉगर मित्रों को पसंद आये, या हो सकता है न भी आये।
वर्षा ऋतु में धरती के इन रंगों को अपने कैमरे में संजोने की कोशिश की, तो सोचा खेती किसानी की व्यस्तता के बीच इस बार इन चित्रों से ही पोस्ट का काम चला लिया जाये। शायद ब्लॉगर मित्रों को पसंद आये, या हो सकता है न भी आये।
Tuesday, July 8, 2008
भूखे लोगों का खाना एथनॉल में 'हजम' कर जाता है अमेरिका
आधे से अधिक अफ्रीकी देशों के भोजन से अमेरिका एथनॉल व बायोडीजल बना रहा है। एक अमेरिकी स्पोर्ट्स बाइक की टंकी में एक बार में जितना एथनॉल डाला जा सकता है, उसे बनाने में लगने वाले अनाज को एक आदमी एक साल तक खा सकता है।
एक तरफ तो संयुक्त राष्ट्र संघ और फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन (एफएओ) इस बात की चेतावनी दे रहा है कि आगामी 10 साल में अफ्रीका के लगभग आधे देश भुखमरी के कगार पर पहुंच जाएंगे, वहीं अमेरिका गाड़ी चलाने के लिए अनाज से एथनॉल और तिलहन से बायोडीजल बनाने में जुटा है।
विश्व बैंक की रिपोर्ट भी इस बात को प्रमाणित कर चुकी है कि अमेरिका में बनने वाले एथनॉल और बायोडीजल के चलते ही विश्व में खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ रही हैं। हालांकि, अमेरिकी राष्ट्रपति बुश को किरकिरी से बचाने के लिए अभी तक इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया है। गौरतलब है कि बुश ने कहा था कि भारत और चीन के लोगों के ज्यादा खाने के कारण विश्व में खाद्य संकट हो रहा है।
एफएओ के मुताबिक, अमेरिका विश्व में उपजने वाले कुल मोटे अनाज के लगभग 12 फीसदी हिस्से से एथनॉल बनाने का काम करता है। वर्ष 2008-09 में विश्व में कुल 109.6 करोड़ टन मोटे अनाज के उत्पादन का अनुमान है। अमेरिका में इस दौरान 10.16 करोड़ टन मक्के से एथनॉल बनाए जाने की उम्मीद है। इसके अलावा ज्वार का इस्तेमाल भी एथनॉल बनाने में किया जाता है। अमेरिकी कृषि विभाग के मुताबिक इस साल पिछले साल के मुकाबले एथनॉल निर्माण के लिए 25 मिलियन टन अधिक मक्के का इस्तेमाल किया जाएगा।
वर्ष 2006-07 के मुकाबले यह मात्रा दोगुना है। मालूम हो कि 1 किलोग्राम अनाज से 103 ग्राम एथनॉल निकलता है यानी कि लगभग 10 किलोग्राम अनाज से 1 किलोग्राम एथनॉल निकलता है। कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक, अगर एक अमेरिकी सिर्फ 12-15 किलोमीटर का सफर कार से न करे तो दो अफ्रीकी बच्चे महीने भर का खाना खा सकते है। दूसरी ओर बायोडीजल के लिए सोयाबीन और पाम ऑयल का अमेरिका में धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है।
रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2006-07 के दौरान अमेरिका में बायोडीजल के लिए सोया तेल का इस्तेमाल दोगुना हो गया है। उसके बाद से हर साल बायोडीजल के लिए सोया का इस्तेमाल 5-6 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। भारत में बायोडीजल मामले के विशेषज्ञ और दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के प्रो. नवीन कुमार के मुताबिक 4 किलोग्राम सोया से 1 किलोग्राम बायोडीजल बनता है।
लगभग इतनी ही मात्रा तिलहन से बायोडीजल बनाने में लगती है। हालत ऐसी है कि दुनिया भर में मोटे अनाज की कीमत साल भर में 45-65 फीसदी बढ़ी है। मक्के की कीमत में पिछले साल के मुकाबले इस साल मई में 50 फीसदी की तो ज्वार की कीमत में 60 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गयी है। खाद्य विशेषज्ञों का मानना है कि खाद्य सामग्री से जुड़ी किसी भी चीज के मूल्य बढ़ते ही उसके समर्थन में अन्य चीजों की कीमत भी बढ़ जाती है।
(बिजनेस स्टैंडर्ड से साभार)
एक तरफ तो संयुक्त राष्ट्र संघ और फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन (एफएओ) इस बात की चेतावनी दे रहा है कि आगामी 10 साल में अफ्रीका के लगभग आधे देश भुखमरी के कगार पर पहुंच जाएंगे, वहीं अमेरिका गाड़ी चलाने के लिए अनाज से एथनॉल और तिलहन से बायोडीजल बनाने में जुटा है।
विश्व बैंक की रिपोर्ट भी इस बात को प्रमाणित कर चुकी है कि अमेरिका में बनने वाले एथनॉल और बायोडीजल के चलते ही विश्व में खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ रही हैं। हालांकि, अमेरिकी राष्ट्रपति बुश को किरकिरी से बचाने के लिए अभी तक इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया है। गौरतलब है कि बुश ने कहा था कि भारत और चीन के लोगों के ज्यादा खाने के कारण विश्व में खाद्य संकट हो रहा है।
एफएओ के मुताबिक, अमेरिका विश्व में उपजने वाले कुल मोटे अनाज के लगभग 12 फीसदी हिस्से से एथनॉल बनाने का काम करता है। वर्ष 2008-09 में विश्व में कुल 109.6 करोड़ टन मोटे अनाज के उत्पादन का अनुमान है। अमेरिका में इस दौरान 10.16 करोड़ टन मक्के से एथनॉल बनाए जाने की उम्मीद है। इसके अलावा ज्वार का इस्तेमाल भी एथनॉल बनाने में किया जाता है। अमेरिकी कृषि विभाग के मुताबिक इस साल पिछले साल के मुकाबले एथनॉल निर्माण के लिए 25 मिलियन टन अधिक मक्के का इस्तेमाल किया जाएगा।
वर्ष 2006-07 के मुकाबले यह मात्रा दोगुना है। मालूम हो कि 1 किलोग्राम अनाज से 103 ग्राम एथनॉल निकलता है यानी कि लगभग 10 किलोग्राम अनाज से 1 किलोग्राम एथनॉल निकलता है। कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक, अगर एक अमेरिकी सिर्फ 12-15 किलोमीटर का सफर कार से न करे तो दो अफ्रीकी बच्चे महीने भर का खाना खा सकते है। दूसरी ओर बायोडीजल के लिए सोयाबीन और पाम ऑयल का अमेरिका में धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है।
रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2006-07 के दौरान अमेरिका में बायोडीजल के लिए सोया तेल का इस्तेमाल दोगुना हो गया है। उसके बाद से हर साल बायोडीजल के लिए सोया का इस्तेमाल 5-6 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। भारत में बायोडीजल मामले के विशेषज्ञ और दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के प्रो. नवीन कुमार के मुताबिक 4 किलोग्राम सोया से 1 किलोग्राम बायोडीजल बनता है।
लगभग इतनी ही मात्रा तिलहन से बायोडीजल बनाने में लगती है। हालत ऐसी है कि दुनिया भर में मोटे अनाज की कीमत साल भर में 45-65 फीसदी बढ़ी है। मक्के की कीमत में पिछले साल के मुकाबले इस साल मई में 50 फीसदी की तो ज्वार की कीमत में 60 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गयी है। खाद्य विशेषज्ञों का मानना है कि खाद्य सामग्री से जुड़ी किसी भी चीज के मूल्य बढ़ते ही उसके समर्थन में अन्य चीजों की कीमत भी बढ़ जाती है।
(बिजनेस स्टैंडर्ड से साभार)
Saturday, July 5, 2008
बिहार से जुड़े हैं विकास के प्रतिमान : सुलभ इंटरनेशनल और सुधा डेयरी
भारत जैसे जनसंख्याबहुल व कृषिप्रधान देश के लिये विकास के जो अनुकरणीय प्रतिमान हो सकते हैं, उनमें सुलभ इंटरनेशनल और सुधा डेयरी के नाम प्रमुखता से लिये जा सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की सर्वसमावेशी विकास से संबंधित एक रिपोर्ट में मानव प्रगति के साथ संपत्ति-सृजन में सुलभ इंटरनेशनल की भूमिका को खासा महत्व दिया गया है। सुधा डेयरी की सफलता की कहानी भी समाचार माध्यमों की सूर्खियां बनती रही है। खास बात यह है कि इन दोनों का संबंध उसी बिहार प्रदेश से है, जिसके नाम से ही कई लोग मुंह बनाने लगते हैं। खेती-बाड़ी में हम पेश कर रहे हैं उन दोनों संस्थाओं से संबंधित दो खबरें :
सर्वसमावेशी विकास से दूर हो सकती है गरीबी
सर्वसमावेशी विकास (इंक्लूसिव ग्रोथ) से संपत्ति का सृजन हो सकता है और इससे निजी उद्यमों के कारोबारी मॉडल में गरीबों को जोड़कर सामाजिक परिवर्तन को भी बढ़ावा दिया जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की एक रिपोर्ट में यह बात कही गई है। यूएनडीपी की 2006 में शुरू किए गए 'बढ़ते सर्वसमावेशी बाजार पहल' के तहत यह अध्ययन किया गया है। इस रिपोर्ट में विकसित और विकासशील देशों के उन 50 केस स्टडी को शामिल किया गया है जिनमें मानव प्रगति और संपत्ति के सृजन के लिए प्रभावी सर्वसमावेशी कारोबारी मॉडल अपनाया गया।
इसमें भारत से सुलभ इंटरनैशनल के केस स्टडी को शामिल किया गया है जिसने एक ऐसा मॉडल बनाया है जिसमें आमदनी भी होती है और सामाजिक समस्याओं का भी समाधान होता है। हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के भारतीय अनुसंधान केंद्र के द्वारा लिखित रिपोर्ट में बताया गया है कि किस प्रकार बिंदेश्वरी पाठक ने सुलभ इंटरनेशनल के माध्यम से मैला ढोने वाले भंगियों को मुक्ति दिलाई।
सुलभ ने विभिन्न तरह के बजट और जगह के हिसाब से कुल 26 तरह के टॉयलट का विकास किया है और स्थानीय स्तर पर उपलब्ध पदार्थों की मदद से टॉयलट बनाने के लिए 19,000 राजगीरों को प्रशिक्षण दिया गया है। इस अभियान से 60,000 लोग भंगी जीवन छोड़कर समाज की मुख्यधारा से जुड़ सके हैं।
रिपोर्ट में उन रास्तों को रेखांकित किया गया है जिससे न केवल निजी क्षेत्र, बल्कि सरकारें, समुदाय और गैर सरकारी संगठन गरीबी और भूख को दूर करने और पर्यावरण सुरक्षा के साथ सामाजिक बराबरी को हासिल करने के सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य को पाने में योगदान कर सकते हैं। रिपोर्ट में एक कारोबारी रणनीति भी बताई गई है जिससे गरीबों के साथ सफल कारोबार के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर किया जा सकता है।
(इकनॉमिक टाइम्स से साभार)
सुधा डेयरी से निकली जीवन की धारा
पटना से 25 किलोमीटर दूर इटकी के काथाटोली गांव का सुमन कुमार अब जिंदगी अपनी शर्तों पर जी रहा है। आज उसके पास आम जरूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त धन और साधन हैं।
बिहार की सहकारी दुग्ध योजना सुधा डेयरी ने उसकी किस्मत को बदल दी है। एक समय था, जब वह इलाके के दूध माफिया को दूध बेचने को मजबूर था, लेकिन आज वह सारा दूध सुधा डेयरी को देता है और उसे उसकी सही कीमत मिलती है। सुधा डेयरी की स्थापना 1983 को को-ऑपरेटिव सोसाइटी के तहत की गई थी। सुधा डेयरी दूध और इसके उत्पादों से करोड़ों का व्यापार करती है।
बिहार में सुधा डेयरी ने सफलता की जो कहानी लिखी है, वह अन्य क्षेत्रों के लिए प्रेरणा भी है और मिसाल भी। इस डेयरी के बिहार और आसपास के राज्यों के 84 शहरों में 6,000 से ज्यादा आउटलेट हैं। सुधा डेयरी में प्रतिदिन 6 लाख लीटर दूध का संग्रहण होता है। लगभग 5 लाख से ज्यादा दूधवाले सुधा डेयरी से जुड़े हुए हैं। इसकी सफलता ने ऐसे प्रतिमान गढ़े हैं कि अब निजी क्षेत्र के बैंकों ने भी इन ग्वालों को जरूरत पड़ने पर ऋण मुहैया कराने की पेशकश की है। सुधा डेयरी ने श्वेत क्रांति की जो कहानी बिहार में लिखी है, उससे आज हजारों किसान और ग्वाले लाभान्वित हो रहे हैं।
सुधा डेयरी के प्रबंध निदेशक सुधीर कुमार सिंह ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि सुधा डेयरी दो नए प्लांट खोलने जा रही है। इनमें 26 एकड़ में फैला बिहारशरीफ प्लांट प्रमुख है। उन्होंने बताया कि बिहार में छह दुग्ध यूनियन हैं, जो पटना, सिमुल (मुजफ्फरपुर), समस्तीपुर, भोजपुर, बरौनी और भोजपुर में स्थित हैं। उन्होंने कहा कि सुधा डेयरी से 5 लाख से ज्यादा दुग्ध उत्पादकों को फायदा हो रहा है। डेयरी संगठन ने मवेशियों के स्वास्थ्य बीमा की भी व्यवस्था की है। इस संगठन से जुड़े किसानों को टीकाकरण की सुविधा भी उपलब्ध कराई गई है।
उन्होंने कहा कि यूनिसेफ की मदद से सुधा डेयरी ने गांवों में कम कीमत वाले शौचालय बनाने की योजना भी चला रही है। उन्होंने कहा कि हालांकि राज्य में राज डेयरी और अमूल डेयरी का भी छोटा-मोटा बाजार है, लेकिन अगर डेयरी उद्योग की बात की जाए तो सुधा डेयरी ही लोग जानते हैं। पशु चिकित्सक संजय कुमार झा ने क हते हैं कि निश्चित तौर पर सुधा डेयरी ने बिहार में श्वेत क्रांति की दिशा बदल दी है। बिहार में कृषि और पशुपालन एक प्रमुख व्यवसाय है, लेकिन सटीक रणनीति के अभाव में यहां दुग्ध उत्पादन की स्थिति अच्छी नहीं है।
इस दिशा में सुधा डेयरी एक उम्मीद की रोशनी बनकर आई है। को-ऑपरेटिव सोसाइटी के अंतर्गत काफी कम लाभ लेकर लोगों को सेवाएं उपलब्ध करवाकर सुधा डेयरी ने व्यापार और प्रबंधन का एक बेहतरीन उदाहरण पेश किया है। उन्होंने कहा कि ऐसे किसान, जो को-ऑपरेटिव दुग्ध सोसाइटी के सदस्य हैं, वे ही निजी बैंकों द्वारा दिए जा रहे ऋण और अन्य पैकेजों का लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह से सुधा ने किसानों और ग्वालों को एक बेहतर जिंदगी जीने का रास्ता दिखाया है।
(बिजनेस स्टैंडर्ड से साभार)
सर्वसमावेशी विकास से दूर हो सकती है गरीबी
सर्वसमावेशी विकास (इंक्लूसिव ग्रोथ) से संपत्ति का सृजन हो सकता है और इससे निजी उद्यमों के कारोबारी मॉडल में गरीबों को जोड़कर सामाजिक परिवर्तन को भी बढ़ावा दिया जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की एक रिपोर्ट में यह बात कही गई है। यूएनडीपी की 2006 में शुरू किए गए 'बढ़ते सर्वसमावेशी बाजार पहल' के तहत यह अध्ययन किया गया है। इस रिपोर्ट में विकसित और विकासशील देशों के उन 50 केस स्टडी को शामिल किया गया है जिनमें मानव प्रगति और संपत्ति के सृजन के लिए प्रभावी सर्वसमावेशी कारोबारी मॉडल अपनाया गया।
इसमें भारत से सुलभ इंटरनैशनल के केस स्टडी को शामिल किया गया है जिसने एक ऐसा मॉडल बनाया है जिसमें आमदनी भी होती है और सामाजिक समस्याओं का भी समाधान होता है। हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के भारतीय अनुसंधान केंद्र के द्वारा लिखित रिपोर्ट में बताया गया है कि किस प्रकार बिंदेश्वरी पाठक ने सुलभ इंटरनेशनल के माध्यम से मैला ढोने वाले भंगियों को मुक्ति दिलाई।
सुलभ ने विभिन्न तरह के बजट और जगह के हिसाब से कुल 26 तरह के टॉयलट का विकास किया है और स्थानीय स्तर पर उपलब्ध पदार्थों की मदद से टॉयलट बनाने के लिए 19,000 राजगीरों को प्रशिक्षण दिया गया है। इस अभियान से 60,000 लोग भंगी जीवन छोड़कर समाज की मुख्यधारा से जुड़ सके हैं।
रिपोर्ट में उन रास्तों को रेखांकित किया गया है जिससे न केवल निजी क्षेत्र, बल्कि सरकारें, समुदाय और गैर सरकारी संगठन गरीबी और भूख को दूर करने और पर्यावरण सुरक्षा के साथ सामाजिक बराबरी को हासिल करने के सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य को पाने में योगदान कर सकते हैं। रिपोर्ट में एक कारोबारी रणनीति भी बताई गई है जिससे गरीबों के साथ सफल कारोबार के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर किया जा सकता है।
(इकनॉमिक टाइम्स से साभार)
सुधा डेयरी से निकली जीवन की धारा
पटना से 25 किलोमीटर दूर इटकी के काथाटोली गांव का सुमन कुमार अब जिंदगी अपनी शर्तों पर जी रहा है। आज उसके पास आम जरूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त धन और साधन हैं।
बिहार की सहकारी दुग्ध योजना सुधा डेयरी ने उसकी किस्मत को बदल दी है। एक समय था, जब वह इलाके के दूध माफिया को दूध बेचने को मजबूर था, लेकिन आज वह सारा दूध सुधा डेयरी को देता है और उसे उसकी सही कीमत मिलती है। सुधा डेयरी की स्थापना 1983 को को-ऑपरेटिव सोसाइटी के तहत की गई थी। सुधा डेयरी दूध और इसके उत्पादों से करोड़ों का व्यापार करती है।
बिहार में सुधा डेयरी ने सफलता की जो कहानी लिखी है, वह अन्य क्षेत्रों के लिए प्रेरणा भी है और मिसाल भी। इस डेयरी के बिहार और आसपास के राज्यों के 84 शहरों में 6,000 से ज्यादा आउटलेट हैं। सुधा डेयरी में प्रतिदिन 6 लाख लीटर दूध का संग्रहण होता है। लगभग 5 लाख से ज्यादा दूधवाले सुधा डेयरी से जुड़े हुए हैं। इसकी सफलता ने ऐसे प्रतिमान गढ़े हैं कि अब निजी क्षेत्र के बैंकों ने भी इन ग्वालों को जरूरत पड़ने पर ऋण मुहैया कराने की पेशकश की है। सुधा डेयरी ने श्वेत क्रांति की जो कहानी बिहार में लिखी है, उससे आज हजारों किसान और ग्वाले लाभान्वित हो रहे हैं।
सुधा डेयरी के प्रबंध निदेशक सुधीर कुमार सिंह ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि सुधा डेयरी दो नए प्लांट खोलने जा रही है। इनमें 26 एकड़ में फैला बिहारशरीफ प्लांट प्रमुख है। उन्होंने बताया कि बिहार में छह दुग्ध यूनियन हैं, जो पटना, सिमुल (मुजफ्फरपुर), समस्तीपुर, भोजपुर, बरौनी और भोजपुर में स्थित हैं। उन्होंने कहा कि सुधा डेयरी से 5 लाख से ज्यादा दुग्ध उत्पादकों को फायदा हो रहा है। डेयरी संगठन ने मवेशियों के स्वास्थ्य बीमा की भी व्यवस्था की है। इस संगठन से जुड़े किसानों को टीकाकरण की सुविधा भी उपलब्ध कराई गई है।
उन्होंने कहा कि यूनिसेफ की मदद से सुधा डेयरी ने गांवों में कम कीमत वाले शौचालय बनाने की योजना भी चला रही है। उन्होंने कहा कि हालांकि राज्य में राज डेयरी और अमूल डेयरी का भी छोटा-मोटा बाजार है, लेकिन अगर डेयरी उद्योग की बात की जाए तो सुधा डेयरी ही लोग जानते हैं। पशु चिकित्सक संजय कुमार झा ने क हते हैं कि निश्चित तौर पर सुधा डेयरी ने बिहार में श्वेत क्रांति की दिशा बदल दी है। बिहार में कृषि और पशुपालन एक प्रमुख व्यवसाय है, लेकिन सटीक रणनीति के अभाव में यहां दुग्ध उत्पादन की स्थिति अच्छी नहीं है।
इस दिशा में सुधा डेयरी एक उम्मीद की रोशनी बनकर आई है। को-ऑपरेटिव सोसाइटी के अंतर्गत काफी कम लाभ लेकर लोगों को सेवाएं उपलब्ध करवाकर सुधा डेयरी ने व्यापार और प्रबंधन का एक बेहतरीन उदाहरण पेश किया है। उन्होंने कहा कि ऐसे किसान, जो को-ऑपरेटिव दुग्ध सोसाइटी के सदस्य हैं, वे ही निजी बैंकों द्वारा दिए जा रहे ऋण और अन्य पैकेजों का लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इस तरह से सुधा ने किसानों और ग्वालों को एक बेहतर जिंदगी जीने का रास्ता दिखाया है।
(बिजनेस स्टैंडर्ड से साभार)
Friday, July 4, 2008
गेहूं, चावल, खाद्य तेल और दालों के बाद अब मक्का के निर्यात पर भी प्रतिबंध
मुद्रास्फीति की बढ़ती दर से जूझ रही सरकार ने 15 अक्टूबर तक के लिए मक्का के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया, ताकि घरेलू बाजार में उपलब्धता बढ़ाई जा सके और मुर्गी के चारे व अन्य उत्पादों की कीमतों पर नियंत्रण किया जा सके।
वाणिज्य मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के जरिए इस प्रतिबंध की घोषणा की गई जो 15 अक्टूबर तक लागू रहेगी तब तक नई फसल तैयार होगी। वित्त वर्ष 2007-08 की बंपर पैदावार के बावजूद जुलाई में मक्के की कीमत 40 फीसदी बढ़कर 970 रुपये प्रति क्विंटल हो गई जो जनवरी में 700 रुपये प्रति क्विंटल थी। सरकार ने गेहूं, गैर बासमती चावल, खाद्य तेल और दालों पर पहले ही प्रतिबंध लगा दिया है।
वाणिज्य और उद्योग मंत्री कमलनाथ ने हाल ही में कहा था कि कोई और उत्पाद है जो प्रतिबंध से बचा हुआ है। कारोबारियों ने कहा कि विशेषकर अमेरिका में जैव ईधन में मक्का के इस्तेमाल के कारण बढ़ रही वैश्विक मांग का असर घरेलू कीमतों पर भी हुआ। मक्के का इस्तेमाल कलफ [स्टार्च] उद्योग के अलावा मुर्गी और पशुओं के चारे के तौर पर होता है जिसके लिए सालाना 1.2 टन मक्के की जरूरत होती है।
उन्होंने कहा कि भारत मक्का का विश्व में छठा सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है। भारत द्वारा मक्के के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए जाने से अंतरराष्ट्रीय बाजार पर असर पड़ेगा। भारत ने वित्तवर्ष 2007-08 के दौरान 25 लाख टन मक्के का निर्यात किया था, जबकि इसके पिछले साल 10 लाख टन मक्के का निर्यात किया गया था। दिल्ली स्थित मुर्गी चारा विनिर्माता राम विलास मंगला ने कहा कि निर्यात में बढ़ोतरी से घरेलू बाजार की उपलब्धता और कीमत पर असर पड़ा।
कीमतों में फर्क होने के कारण भारत से निर्यात की मांग मुख्यत: पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया और पश्चिम एशिया से आती है। अमेरिका के मुकाबले भारत में मक्का लगभग आधी कीमत पर मिलता है। मुर्गी पालक और कलफ निर्माता निर्यात पर पाबंदी लगाने की मांग कर रहे थे, ताकि घरेलू कीमतों को नियंत्रित किया जा सके।
आल इंडिया स्टार्च मेन्युफेक्चरर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष अमोल एस शेठ ने कहा कि भारत को चीन का अनुसरण करना चाहिए और मक्का के निर्यात का नियमन करना चाहिए। उन्होंने कहा कि नई फसल की आवक से पहले इस उद्योग को 35 लाख टन मक्के की जरूरत होगी।
(दैनिक जागरण से साभार)
वाणिज्य मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के जरिए इस प्रतिबंध की घोषणा की गई जो 15 अक्टूबर तक लागू रहेगी तब तक नई फसल तैयार होगी। वित्त वर्ष 2007-08 की बंपर पैदावार के बावजूद जुलाई में मक्के की कीमत 40 फीसदी बढ़कर 970 रुपये प्रति क्विंटल हो गई जो जनवरी में 700 रुपये प्रति क्विंटल थी। सरकार ने गेहूं, गैर बासमती चावल, खाद्य तेल और दालों पर पहले ही प्रतिबंध लगा दिया है।
वाणिज्य और उद्योग मंत्री कमलनाथ ने हाल ही में कहा था कि कोई और उत्पाद है जो प्रतिबंध से बचा हुआ है। कारोबारियों ने कहा कि विशेषकर अमेरिका में जैव ईधन में मक्का के इस्तेमाल के कारण बढ़ रही वैश्विक मांग का असर घरेलू कीमतों पर भी हुआ। मक्के का इस्तेमाल कलफ [स्टार्च] उद्योग के अलावा मुर्गी और पशुओं के चारे के तौर पर होता है जिसके लिए सालाना 1.2 टन मक्के की जरूरत होती है।
उन्होंने कहा कि भारत मक्का का विश्व में छठा सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता है। भारत द्वारा मक्के के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए जाने से अंतरराष्ट्रीय बाजार पर असर पड़ेगा। भारत ने वित्तवर्ष 2007-08 के दौरान 25 लाख टन मक्के का निर्यात किया था, जबकि इसके पिछले साल 10 लाख टन मक्के का निर्यात किया गया था। दिल्ली स्थित मुर्गी चारा विनिर्माता राम विलास मंगला ने कहा कि निर्यात में बढ़ोतरी से घरेलू बाजार की उपलब्धता और कीमत पर असर पड़ा।
कीमतों में फर्क होने के कारण भारत से निर्यात की मांग मुख्यत: पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया और पश्चिम एशिया से आती है। अमेरिका के मुकाबले भारत में मक्का लगभग आधी कीमत पर मिलता है। मुर्गी पालक और कलफ निर्माता निर्यात पर पाबंदी लगाने की मांग कर रहे थे, ताकि घरेलू कीमतों को नियंत्रित किया जा सके।
आल इंडिया स्टार्च मेन्युफेक्चरर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष अमोल एस शेठ ने कहा कि भारत को चीन का अनुसरण करना चाहिए और मक्का के निर्यात का नियमन करना चाहिए। उन्होंने कहा कि नई फसल की आवक से पहले इस उद्योग को 35 लाख टन मक्के की जरूरत होगी।
(दैनिक जागरण से साभार)
Thursday, July 3, 2008
एक करोड़ लोगों का एक साल का निवाला सड़ाया
पिछले एक दशक के दौरान भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के गोदामों में सैकड़ों करोड़ रूपए मूल्य का 10 लाख टन से ज्यादा अनाज सड़ गया जो एक करोड़ से अधिक लोगों की एक साल तक पेट की आग बुझाने के लिए काफी था। यह स्थिति तब है जब संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में रेखांकित है कि भारत के 63 फीसदी बच्चे भूखे पेट सोने के लिए मजबूर हैं।
अनाज को भंडारण के समय नुकसान से बचाने के लिए निगम द्वारा 245 करोड़ रूपए खर्च किए जाने के बावजूद यह स्थिति है। यह विडंबना है कि अनाज के सड़ जाने के बाद उन्हें निपटाने के लिए भी निगम को 2.59 करोड़ खर्च करने पड़े।
अनाजों के भंडारण से संबंधित ये सनसनीखेज तथ्य सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत दिल्ली निवासी देवाशीष भट्टाचार्य के आवेदन पर सामने आए। श्री भट्टाचार्य के सवाल पर निगम ने उन्हें सूचित किया कि देश भर में अनाजों की खरीदारी व वितरण की जिम्मेदारी निभा रही सरकारी एजेंसी के भंडारों में पिछले एक दशक के दौरान 10 लाख टन अनाज सड़ गए। निगम की सूचना के अनुसार 1997 से 2007 के बीच 1.83 लाख टन गेहूं, 3.95 लाख टन चावल, 22 हजार टन धान और 110 टन मक्का सड़ गए। निगम ने बताया कि उत्तरी क्षेत्र के तहत आने वाले उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश व दिल्ली में सात लाख टन अनाज सड़ गए। निगम ने 86.15 करोड़ रूपए अनाज को नुकसान से बचाने के लिए खर्च किया जबकि 60 लाख रूपए सड़े अनाज को निबटाने में गए।
भट्टाचार्य ने बताया कि एफसीआई ने अपने गोदामों में अनाजों के संरक्षण के लिए जितनी रकम खर्च की उसे देखते हुए यह नुकसान विशाल है। क्या यह राष्ट्रीय शर्म नहीं है। निगम के अनुसार पूर्व क्षेत्र-असम, नगालैंड, मणिपुर, उड़ीसा, बिहार, झारखंड, और पश्चिम बंगाल में 1.5 लाख टन अनाज सड़ा। निगम ने यहां अनाजों को सड़ने से बचाने के लिए 122 करोड़ रूपए खर्च किए जबकि सड़े अनाज को निबटाने के लिए 1.65 करोड़ रूपए खर्च किए गए।
दक्षिण क्षेत्र-आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल में 25 करोड़ रूपए खर्च करने के बावजूद 43069.023 टन अनाज सड़ गए। सड़े अनाज को निपटाने के लिए 34867 रूपए खर्च किए गए। महाराष्ट्र व गुजरात में 73814 टन अनाज को नुकसान पहुंचा। एफसीआई ने अनाजों को सड़ने से बचाने के लिए 2.78 करोड़ रूपए खर्च किए। सड़े अनाज को ठिकाने लगाने के लिए 24 लाख रूपए खर्च किए गए। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 23323.57 टन अनाज सड़ गए। अनाजों को सड़ने से बचाने के लिए वहां साढ़े पांच करोड़ रूपए खर्च किए गए। यहां मामला दूसरे राज्यों के गोदामों से भिन्न नहीं है। एफसीआई को सड़े अनाज निबटाने के लिए वहां 10.64 लाख रूपए खर्च करने पड़े। भट्टाचार्य ने कहा कि एफसीआई के आंकड़ों में उलटफेर प्रतीत होता है।
(राष्ट्रीय सहारा से साभार)
अनाज को भंडारण के समय नुकसान से बचाने के लिए निगम द्वारा 245 करोड़ रूपए खर्च किए जाने के बावजूद यह स्थिति है। यह विडंबना है कि अनाज के सड़ जाने के बाद उन्हें निपटाने के लिए भी निगम को 2.59 करोड़ खर्च करने पड़े।
अनाजों के भंडारण से संबंधित ये सनसनीखेज तथ्य सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत दिल्ली निवासी देवाशीष भट्टाचार्य के आवेदन पर सामने आए। श्री भट्टाचार्य के सवाल पर निगम ने उन्हें सूचित किया कि देश भर में अनाजों की खरीदारी व वितरण की जिम्मेदारी निभा रही सरकारी एजेंसी के भंडारों में पिछले एक दशक के दौरान 10 लाख टन अनाज सड़ गए। निगम की सूचना के अनुसार 1997 से 2007 के बीच 1.83 लाख टन गेहूं, 3.95 लाख टन चावल, 22 हजार टन धान और 110 टन मक्का सड़ गए। निगम ने बताया कि उत्तरी क्षेत्र के तहत आने वाले उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश व दिल्ली में सात लाख टन अनाज सड़ गए। निगम ने 86.15 करोड़ रूपए अनाज को नुकसान से बचाने के लिए खर्च किया जबकि 60 लाख रूपए सड़े अनाज को निबटाने में गए।
भट्टाचार्य ने बताया कि एफसीआई ने अपने गोदामों में अनाजों के संरक्षण के लिए जितनी रकम खर्च की उसे देखते हुए यह नुकसान विशाल है। क्या यह राष्ट्रीय शर्म नहीं है। निगम के अनुसार पूर्व क्षेत्र-असम, नगालैंड, मणिपुर, उड़ीसा, बिहार, झारखंड, और पश्चिम बंगाल में 1.5 लाख टन अनाज सड़ा। निगम ने यहां अनाजों को सड़ने से बचाने के लिए 122 करोड़ रूपए खर्च किए जबकि सड़े अनाज को निबटाने के लिए 1.65 करोड़ रूपए खर्च किए गए।
दक्षिण क्षेत्र-आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल में 25 करोड़ रूपए खर्च करने के बावजूद 43069.023 टन अनाज सड़ गए। सड़े अनाज को निपटाने के लिए 34867 रूपए खर्च किए गए। महाराष्ट्र व गुजरात में 73814 टन अनाज को नुकसान पहुंचा। एफसीआई ने अनाजों को सड़ने से बचाने के लिए 2.78 करोड़ रूपए खर्च किए। सड़े अनाज को ठिकाने लगाने के लिए 24 लाख रूपए खर्च किए गए। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में 23323.57 टन अनाज सड़ गए। अनाजों को सड़ने से बचाने के लिए वहां साढ़े पांच करोड़ रूपए खर्च किए गए। यहां मामला दूसरे राज्यों के गोदामों से भिन्न नहीं है। एफसीआई को सड़े अनाज निबटाने के लिए वहां 10.64 लाख रूपए खर्च करने पड़े। भट्टाचार्य ने कहा कि एफसीआई के आंकड़ों में उलटफेर प्रतीत होता है।
(राष्ट्रीय सहारा से साभार)
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