हमारे गांवों में एक कहावत है, 'जिसकी खेती, उसकी मति।' हालांकि हमारे कृषि वैज्ञानिक व पदाधिकारी शायद ऐसा नहीं सोचते। किसान कोई गलत कृषि परिपाटी अपनाए है, तो उसे सही रास्ता दिखाना जरूरी है। लेकिन मंत्रियों के विभाग की तरह उसे बीज व प्रौद्योगिकी बदलने को कहना कृषि का नुकसान ही करेगा। इस दुष्प्रवृत्ति के चलते परंपरागत कृषि प्रौद्योगिकी व बीजों के मामले में हमारा देश पहले ही काफी नुकसान उठा चुका है। खासकर हरित क्रांति के बाद आधुनिक पद्धति अपनाकर कृषि उपज बढ़ाने की दौड़ में हमने परंपरा से मिले अनुभव व ज्ञान को दरकिनार कर दिया। विश्वव्यापी खाद्य संकट की मौजूदा स्थिति में यह चिंता और अधिक प्रासंगिक हो गयी है।
पिछले कुछ समय से हमारे यहां किसानों के बीच खरीफ धान का एक प्रभेद एमटीयू-7029 काफी लोकप्रिय हुआ है। अर्ध बौने प्रजाति के इस धान को स्वर्णा अथवा नाटी मंसूरी (महसूरी) भी कहा जाता है। भारत के बिहार, आंध्रप्रदेश, प.बंगाल, उत्तरप्रदेश, झारखंड, उत्तरांचल, महाराष्ट्र, उड़ीसा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश आदि प्रांतों में बड़ी मात्रा में यह उपजाया जाता है। बांग्लादेश, श्रीलंका, चीन, म्यांमार आदि देशों में भी इसकी खासी पूछ है। बांग्लादेश में तो इसकी धूम है। हमारे लिये गर्व की बात है कि धान का यह प्रभेद बाहर से नहीं आया। इसका विकास भारत में ही आंध्रप्रदेश के मरूतेरू नामक गांव में हुआ। वहां एनजी रंगा कृषि विश्वविद्यालय के एक छोटे से अनुसंधान केन्द्र में आंध्रप्रदेश राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा इसे तैयार किया गया। इसे 1982 ई. में जारी किया गया। तब से यह आज भी हमारे देश में धान का सबसे लोकप्रिय अधिक उत्पादन वाला आधुनिक प्रभेद है।
लेकिन बिहार के कृषि विभाग की नजर में शायद अब यह धान-प्रभेद त्याग देने लायक हो चुका है। यहां के कृषि पदाधिकारी व वैज्ञानिक किसानों को इसके बदले राजेन्द्र मंसूरी नामक प्रभेद की खेती करने की सलाह दे रहे हैं। बिहार राज्य बीज निगम लिमिटेड अपने पंजीकृत धान बीज उत्पादकों को आधार बीज बेचकर अपनी देखरेख में उनसे प्रमाणित बीज तैयार कराता है। लेकिन खरीफ वर्ष 2008 में बिहार राज्य बीज निगम एमटीयू-7029 का प्रमाणित बीज तैयार नहीं करा रहा है। यहां ऐसा पहली बार हुआ है और किसान इससे असमंजस में हैं। किसान यह समझ नहीं पा रहे हैं कि धान के जिस प्रभेद को बो कर वे दशकों से भरपूर पैदावार हासिल करते आये हैं, उसे हटा क्यों दें। स्थिति यह है कि कृषि पदाधिकारी राजेन्द्र मंसूरी की खूबियां बताते नहीं थकते और किसान एमटीयू-7029 की तुलना में किसी अन्य प्रभेद को बेहतर मानने को तैयार नहीं।
किसानों के बीच एमटीयू-7029 की लोकप्रियता के कुछ जायज कारण हैं। 50 से 60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देनेवाला यह धान प्रतिकूल दशाओं को भी बर्दाश्त कर लेता है। खासकर बिहार के मैदानी इलाकों में कहीं सूखा तो कहीं जलजमाव जैसी स्थितियां देखने को मिलती हैं। एमटीयू-7029 जलजमाव झेलने में समर्थ तो है ही, इसके बारे में बताया जाता है कि इसे नाइट्रोजन की जरूरत भी कम ही होती है। अर्ध बौना प्रभेद होने के चलते अधिक बढ़वार से इसके पौधों के गिरने का खतरा कम रहता है। इसके अलावा किसानों का अनुभव है कि धान की दौनी के समय इसके दाने बहुत आसानी से अलग हो जाते हैं। किसान समझ नहीं पा रहे कि इतनी खूबियों वाले प्रभेद को आखिर क्यों त्याग दिया जाए। कहीं ऐसा तो नहीं कि बिहार सरकार के लिए राजेन्द्र मंसूरी इसलिए अच्छा है कि उसका विकास राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा (बिहार) द्वारा किया गया। नाटी मंसूरी इसलिए त्याज्य है कि उसका विकास आंध्रप्रदेश राइस रिसर्च इंस्टीट्रयूट द्वारा किया गया। यदि सचमुच ऐसा है तो अपना ही सिक्का चलाने की मानसिकता अत्यंत घातक हो सकती है।
सच तो यह है कि हमारे यहां के किसान अपने अनुभव व परंपरागत कृषि ज्ञान के बूते कृषि विशेषज्ञों के दावों को भी झुठलाते रहे हैं। अभी तक कृषि विशेषज्ञ एक हेक्टेयर भूमि के लिए 40 किलोग्राम धान बीज का बिचड़ा डालने की अनुशंसा करते आये हैं। लेकिन बिहार के धान उत्पादक इलाकों में किसान मात्र 6 से 12 किलो धान बीज का बिचड़ा डालकर भरपूर उपज ले रहे हैं। अब तो कृषि विशेषज्ञ भी इस तकनीक को सही मानने लगे हैं। जाहिर है, किसानों के अनुभव व उनकी परंपरागत जानकारी का सम्मान न कर, उनपर कृषि वैज्ञानिकों व अधिकारियों ने अपनी पसंद थोपने की कोशिश की, तो इससे सबका नुकसान होगा। एमटीयू-7029 जैसे अधिक उपजवाले प्रभेदों से एक झटके से मुंह फेर लेने से धान की पैदावार घटना निश्चित है।
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मेरे विचार से किसान को स्वविवेक पर ज्यादा विश्वास करना चाहिये। जहां संशय हो, वहां विशेषज्ञ की सलाह माननी चाहिये। किसानी डाक्टरी जैसी चीज नहीं कि सब कुछ डाक्टर पर छोड़ा जाये।
ReplyDeleteमुझे अपने गांव के किसान अवध नारायण तिवारी जी की बात याद आती है। उनसे मैने पूछा था कि आप खेती के निर्णय कैसे लेते हैं। उनका उत्तर सीधा था - बेटा, खेत के पास खड़े हो जाओ। खेत अपने आप बोलता है।
अर्थात अपनी अनुभव का लाभ लेना!
इस ब्लॉग के बारे में आज हिन्दुस्तान दैनिक में पढ़ा. आशा है आपने जिस उम्मीद में यह ब्लॉग शुरू किया है, वह ज़रूर सफल हो. माफ़ कीजिएगा मेरी हिन्दी अच्छी नही है.
ReplyDeleteबड़े भाई ज्ञान पाण्डेय जी ने भेजा है यहाँ . खेती बाडी संभालने के लिए आपको धन्यवाद .बहुत ही सुंदर प्रयास कहकर निकल रहा हूँ. आपका हर पोस्ट पढ़ने और पढाने की जिद है .बस आप लिखते रहे .बहुत सारी शुभकामनाये
ReplyDelete!
Very good
ReplyDeleteKheti Kare
good and best content you are providing us.
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