अमेरिकी अंतरिक्ष संगठन नासा और जापानी अर्थव्यवस्था, वाणिज्य व उद्योग मंत्रालय ने मिलकर पृथ्वी की सतह का अब तक का सबसे संपूर्ण और विहंगम नक्शा तैयार किया है। अपनी तरह के इस पहले डिजीटल टोपोग्राफिक नक्शे के डेटा में क़रीब 13 लाख छवियां हैं, जिनमें अमेरिका की मौत की घाटी से लेकर हिमालय की अथाह ऊंचाइयों तक धरती के करीब सभी दुर्गम कोने शामिल हैं।
धरती की लगभग यह संपूर्ण तस्वीर अमेरिका के टेरा (Terra) नामक उपग्रह से जापान के एस्टर (ASTER - Advanced Spaceborne Thermal Emission and Reflection Radiometer) नामक शक्तिशाली डिजीटल कैमरा से उतारी गयी है। वैज्ञानिकों का दावा है कि इस अभूतपूर्व नक्शे में पृथ्वी की 99 फीसदी सतह कवर हो गयी है। इसे नाम दिया गया है ग्लोबल डिजीटल इलिवेशन मैप (Global Digital Elevation Map)। यह नक्शा प्रकाशित कर दिया गया है और कोई भी इसे डाउनलोड या इस्तेमाल कर सकता है।
एस्टर परियोजना से जुड़े नासा के वैज्ञानिक वुडी टर्नर कहते हैं – ‘’यह दुनिया में उपलब्ध अब तक का सबसे संपूर्ण व सुसंगत ग्लोबल डिजीटल इलेवेशन डेटा है। आंकड़ों का यह अनूठा भूमंडलीय संग्रह उन उपयोगकर्ताओं व अनुसंधानकर्ताओं के लिए काफी काम का होगा जिन्हें धरती के सतह व उठाव संबंधी जानकारियों की जरूरत होती है। परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक माइक अब्राम्स के मुताबिक यह डेटा इंजीनियरिंग, ऊर्जा-दोहन, प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, पर्यावरणीय प्रबंधन, लोक निर्माण उद्यमों, अग्निशमन, भूगर्भ विज्ञान, मनोरंजन और शहर नियोजन जैसे क्षेत्रों में अपनी बेमिसाल भूमिका निभा सकता है।
इससे पहले इस तरह का सबसे संपूर्ण टोपोग्राफिक डेटा नासा के शटल रडार टोपोग्राफी मिशन का था, जिसने पृथ्वी के 80 फ़ीसदी भूभाग का मानचित्र उतारा था। यदि आप इस संबंध में ज्यादा जानकारी के इच्छुक हैं तो निम्नलिखित कडि़यों का अवलोकन कर सकते हैं :
NASA, Japan Release Most Complete Topographic Map of Earth
ASTER Global Digital Elevation Map Announcement
Tuesday, June 30, 2009
Monday, June 29, 2009
तो भारत के विंध्य क्षेत्र में हुई जीवन की शुरुआत !
शोधकर्ताओं के एक नए अध्ययन से खुलासा हुआ है कि विंध्य घाटी में मिले जीवाश्म दुनिया में प्राचीनतम हैं। ये धरती के अन्य किसी हिस्से में पाए गए जीवाश्मों से 40 से 60 करोड़ साल पुराने हैं। यदि इन निष्पत्तियों पर भरोसा करें तो जाहिर है कि धरती पर जीवन का आरंभ भारत के विंध्य क्षेत्र में हुआ।
लाइव हिन्दुस्तान डॉटकॉम में वाशिंगटन से प्राप्त एजेंसी की खबर में कहा गया है –
‘’विंध्य नदीघाटी के जीवाश्मों के एक नए अध्ययन के मुताबिक धरती पर जीवन की शुरुआत पहले के अनुमान से 40 करोड़ साल पहले हुई है। कर्टिन तकनीकी विश्वविद्यालय के ब्रिगर रासमुसेन की अगुवाई में अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के एक दल ने भारत के विंध्य घाटी के कुछ नमूने का अध्ययन किया और पाया कि यहां के जीवाश्म 1.6 अरब साल पुराने हैं। यह पहले के यहां पाए गए जीवाश्मों से एक अरब साल पुराने है, वहीं धरती के किसी भी हिस्से में पाए जीवाश्मों से ये 40 से 60 करोड़ साल पुराने हैं।
शोधकर्ताओं के मुताबिक उन्होंने इस काम के लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन तकनीक का इस्तेमाल किया। प्रो़ रासमुसेन ने बताया कि जीवाश्म के शुद्ध परीक्षण के लिए सारे प्रयास किए गए। उनका कहना था कि भारतीय प्रयोगशालाओं में पहले हुई जांचों में त्रुटि हो सकती है। उन्होंने बताया कि जीवाशम के आयु निर्धारण के लिए उसमें मौजूद पास्पोरेट का लेड डेटिंग किया गया। करोड़ों साल पहले जीवाश्मीकरण की प्रक्रिया में समुद्र तल पर पास्पोरेट कार्बनिक पदार्थों पर जमा होने लगे। उनका कहना था कि यह पद्वति काफी सटीक होती है।‘’
उल्लेखनीय है कि विंध्य पर्वतमाला क्षेत्र में प्रागैतिहासिक मानव की गतिविधियों के भी पुष्ट प्रमाण मिले हैं। इस पर्वतश्रृंखला की तलहटी में मौजूद भीमबेतका के प्राकृतिक शैलाश्रयों में पाषाणयुगीन मानव के बनाए हुए बेहतरीन भित्ति-चित्र मौजूद हैं। इस स्थल को यूनेस्को ने अपनी विश्व धरोहर सूची में शामिल कर रखा है।
ऐसा लगता है कि जीवन की निरंतरता का क्रम इस क्षेत्र मे कभी टूटा ही नहीं। विंध्य पर्वतश्रृंखला का ही एक अंग कैमूर पहाड़ी है, जिसके शिखर पर बिहार के कैमूर जिले में मुंडेश्वरी मंदिर मौजूद है। उपलब्ध साक्ष्यों के ताजा अध्ययन के मुताबिक इसे भारत का प्राचीनतम हिन्दू मंदिर बताया जा रहा है। खास बात यह है कि करीब 2000 साल से इस मंदिर में निरंतर पूजा होती रही है।
विंध्य पर्वत की चर्चा भारतीय पौराणिक कथाओं में भी मिलती है। पुराकथाओं में इस क्षेत्र में बहनेवाली गंगा, कर्मनाशा आदि नदियों की भी चर्चा है। शायद ये तथ्य भी इस भूभाग में जीवन की प्राचीनता और निरंतरता की ओर ही संकेत करते हैं।
लाइव हिन्दुस्तान डॉटकॉम में वाशिंगटन से प्राप्त एजेंसी की खबर में कहा गया है –
‘’विंध्य नदीघाटी के जीवाश्मों के एक नए अध्ययन के मुताबिक धरती पर जीवन की शुरुआत पहले के अनुमान से 40 करोड़ साल पहले हुई है। कर्टिन तकनीकी विश्वविद्यालय के ब्रिगर रासमुसेन की अगुवाई में अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के एक दल ने भारत के विंध्य घाटी के कुछ नमूने का अध्ययन किया और पाया कि यहां के जीवाश्म 1.6 अरब साल पुराने हैं। यह पहले के यहां पाए गए जीवाश्मों से एक अरब साल पुराने है, वहीं धरती के किसी भी हिस्से में पाए जीवाश्मों से ये 40 से 60 करोड़ साल पुराने हैं।
शोधकर्ताओं के मुताबिक उन्होंने इस काम के लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन तकनीक का इस्तेमाल किया। प्रो़ रासमुसेन ने बताया कि जीवाश्म के शुद्ध परीक्षण के लिए सारे प्रयास किए गए। उनका कहना था कि भारतीय प्रयोगशालाओं में पहले हुई जांचों में त्रुटि हो सकती है। उन्होंने बताया कि जीवाशम के आयु निर्धारण के लिए उसमें मौजूद पास्पोरेट का लेड डेटिंग किया गया। करोड़ों साल पहले जीवाश्मीकरण की प्रक्रिया में समुद्र तल पर पास्पोरेट कार्बनिक पदार्थों पर जमा होने लगे। उनका कहना था कि यह पद्वति काफी सटीक होती है।‘’
उल्लेखनीय है कि विंध्य पर्वतमाला क्षेत्र में प्रागैतिहासिक मानव की गतिविधियों के भी पुष्ट प्रमाण मिले हैं। इस पर्वतश्रृंखला की तलहटी में मौजूद भीमबेतका के प्राकृतिक शैलाश्रयों में पाषाणयुगीन मानव के बनाए हुए बेहतरीन भित्ति-चित्र मौजूद हैं। इस स्थल को यूनेस्को ने अपनी विश्व धरोहर सूची में शामिल कर रखा है।
ऐसा लगता है कि जीवन की निरंतरता का क्रम इस क्षेत्र मे कभी टूटा ही नहीं। विंध्य पर्वतश्रृंखला का ही एक अंग कैमूर पहाड़ी है, जिसके शिखर पर बिहार के कैमूर जिले में मुंडेश्वरी मंदिर मौजूद है। उपलब्ध साक्ष्यों के ताजा अध्ययन के मुताबिक इसे भारत का प्राचीनतम हिन्दू मंदिर बताया जा रहा है। खास बात यह है कि करीब 2000 साल से इस मंदिर में निरंतर पूजा होती रही है।
विंध्य पर्वत की चर्चा भारतीय पौराणिक कथाओं में भी मिलती है। पुराकथाओं में इस क्षेत्र में बहनेवाली गंगा, कर्मनाशा आदि नदियों की भी चर्चा है। शायद ये तथ्य भी इस भूभाग में जीवन की प्राचीनता और निरंतरता की ओर ही संकेत करते हैं।
Friday, June 26, 2009
मसाला ही नहीं, हथगोलों में भी काम आएगी मिर्च !
जी हां, मिर्च का इस्तेमाल मसाले के रूप में भोजन में ही नहीं, अब बम बनाने में भी किया जाएगा। भारतीय रक्षा वैज्ञानिक हथगोलों में लाल मिर्च का पाउडर भरने की योजना बना रहे हैं। इसका इस्तेमाल दंगों के दौरान या चरमपंथियों के ख़िलाफ़ हो सकता है।
रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन यानी डीआरडीओ का कहना है कि उनकी योजना ऐसे छोटे हथगोले बनाने की है जिसमें मिर्च पाउडर मिला होगा। इसके लिए पूर्वोत्तर राज्यों में उगाई जाने वाली मिर्च का इस्तेमाल होगा जो काफ़ी तीखी मानी जाती है। ऐसे हथगोलों के असर से किसी की मौत नहीं होगी लेकिन वह व्यक्ति निष्क्रिय हो जाएगा। मिर्च की इस प्रजाति का नाम है भुत जोलोकिया जो आम तौर पर इस्तेमाल होने वाली मिर्च से हज़ार गुना ज़्यादा तीखी होती है।
इस मिर्च का इस्तेमाल ठंडे प्रदेशों में तैनात सुरक्षाबलों के खाने में भी होगा। वैज्ञानिकों के मुताबिक इसके सेवन से शरीर का तापमान बढ़ाने में मदद मिलेगी।
भुत जोलोकिया स्कोविले स्केल पर दस लाख यूनिट गर्मी पैदा करता है। इस स्केल का नामाकरण अमरीकी वैज्ञानिक विल्बर स्कोविले के नाम पर हुआ था जिन्होंने मिर्ची में गर्मी का आकलन करने की पद्धति इजाद की थी।
(स्रोत : बीबीसी हिन्दी)
रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन यानी डीआरडीओ का कहना है कि उनकी योजना ऐसे छोटे हथगोले बनाने की है जिसमें मिर्च पाउडर मिला होगा। इसके लिए पूर्वोत्तर राज्यों में उगाई जाने वाली मिर्च का इस्तेमाल होगा जो काफ़ी तीखी मानी जाती है। ऐसे हथगोलों के असर से किसी की मौत नहीं होगी लेकिन वह व्यक्ति निष्क्रिय हो जाएगा। मिर्च की इस प्रजाति का नाम है भुत जोलोकिया जो आम तौर पर इस्तेमाल होने वाली मिर्च से हज़ार गुना ज़्यादा तीखी होती है।
इस मिर्च का इस्तेमाल ठंडे प्रदेशों में तैनात सुरक्षाबलों के खाने में भी होगा। वैज्ञानिकों के मुताबिक इसके सेवन से शरीर का तापमान बढ़ाने में मदद मिलेगी।
भुत जोलोकिया स्कोविले स्केल पर दस लाख यूनिट गर्मी पैदा करता है। इस स्केल का नामाकरण अमरीकी वैज्ञानिक विल्बर स्कोविले के नाम पर हुआ था जिन्होंने मिर्ची में गर्मी का आकलन करने की पद्धति इजाद की थी।
(स्रोत : बीबीसी हिन्दी)
Thursday, June 25, 2009
35 हजार साल पहले भी थी संगीत की परंपरा, तब की बांसुरी मिली !
पुरा पाषाणकालीन मानव द्वारा खेती और पशुपालन आरंभ करने के साक्ष्य भले न मिले हों, लेकिन उनके कलाप्रेम के प्रमाण मिलते रहे हैं। उनके बनाए चित्रों के नमूने दुनिया भर में गुफाओं व शैलाश्रयों में मिले हैं। हाल ही में दक्षिण जर्मनी में एक ऐसी महत्वपूर्ण खोज हुई है, जिससे उस युग के मानव के संगीत से जुड़ाव की जानकारी मिलती है।
जर्मनी में खोजकर्ताओं ने लगभग 35 हज़ार साल पुरानी बांसुरी खोज निकाली है और कहा जा रहा है कि यह दुनिया का अब तक प्राप्त प्राचीनतम संगीत-यंत्र है। प्रस्तर उपकरणों से गिद्ध की हड्डी को तराश कर बनायी गयी इस बांसुरी के टुकड़े वर्ष 2008 में दक्षिणी जर्मनी में होल फेल्स की पुरापाषाणकालीन गुफ़ाओं में मिले थे। जर्मनी के तूबिंजेन विश्वविद्यालय के पुरातत्व विज्ञानी निकोलस कोनार्ड ने उन टुकड़ों को असेंबल कर उस पर शोध किया। उनके नेतृत्व में उस प्रागैतिहासिक बांसुरी पर हुए शोध के नतीजे हाल ही में नेचर जर्नल में ऑनलाइन प्रकाशित हुए हैं। श्री कोनार्ड के मुताबिक बांसुरी करीब बीस सेंटीमीटर लंबी है और इसमें पांच छेद बनाए गए हैं। कोनार्ड कहते हैं, "स्पष्ट है कि उस समय भी समाज में संगीत का कितना महत्व था।" वहां इस बांसुरी के अलावा हाथी दांत के बने दो बांसुरियों के अवशेष भी मिले हैं। अब तक इस इलाक़े से आठ बांसुरियां मिली हैं। शोध के मुताबिक हड्डी से निर्मित यह बांसुरी उस समय का है जब आधुनिक मानव जाति का यूरोप में बसना शुरु हुआ था।
इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि दुनिया भर में पुरातात्विक खोजों में पुरा पाषाण युग (Palaeolithic Age) के मानव के जो औजार मिले हैं, वे सामान्यत: पत्थर, हांथी दांत, हड्डी या सीपियों के बने हैं। पक्षी के हड्डी से बनी यह बांसुरी उस युग के मानव में सर्जनात्मक क्षमता और सामुदायिक जीवन की भावना के हो रहे विकास की भी परिचायक है।
(चित्र व खबर के स्रोत : बीबीसी हिन्दी, uk.news.yahoo.com तथा नेशनल ज्योग्राफिक न्यूज)
जर्मनी में खोजकर्ताओं ने लगभग 35 हज़ार साल पुरानी बांसुरी खोज निकाली है और कहा जा रहा है कि यह दुनिया का अब तक प्राप्त प्राचीनतम संगीत-यंत्र है। प्रस्तर उपकरणों से गिद्ध की हड्डी को तराश कर बनायी गयी इस बांसुरी के टुकड़े वर्ष 2008 में दक्षिणी जर्मनी में होल फेल्स की पुरापाषाणकालीन गुफ़ाओं में मिले थे। जर्मनी के तूबिंजेन विश्वविद्यालय के पुरातत्व विज्ञानी निकोलस कोनार्ड ने उन टुकड़ों को असेंबल कर उस पर शोध किया। उनके नेतृत्व में उस प्रागैतिहासिक बांसुरी पर हुए शोध के नतीजे हाल ही में नेचर जर्नल में ऑनलाइन प्रकाशित हुए हैं। श्री कोनार्ड के मुताबिक बांसुरी करीब बीस सेंटीमीटर लंबी है और इसमें पांच छेद बनाए गए हैं। कोनार्ड कहते हैं, "स्पष्ट है कि उस समय भी समाज में संगीत का कितना महत्व था।" वहां इस बांसुरी के अलावा हाथी दांत के बने दो बांसुरियों के अवशेष भी मिले हैं। अब तक इस इलाक़े से आठ बांसुरियां मिली हैं। शोध के मुताबिक हड्डी से निर्मित यह बांसुरी उस समय का है जब आधुनिक मानव जाति का यूरोप में बसना शुरु हुआ था।
इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि दुनिया भर में पुरातात्विक खोजों में पुरा पाषाण युग (Palaeolithic Age) के मानव के जो औजार मिले हैं, वे सामान्यत: पत्थर, हांथी दांत, हड्डी या सीपियों के बने हैं। पक्षी के हड्डी से बनी यह बांसुरी उस युग के मानव में सर्जनात्मक क्षमता और सामुदायिक जीवन की भावना के हो रहे विकास की भी परिचायक है।
(चित्र व खबर के स्रोत : बीबीसी हिन्दी, uk.news.yahoo.com तथा नेशनल ज्योग्राफिक न्यूज)
Monday, June 22, 2009
आपके दरवाजे पर दस्तक दे चुका है ग्लोबल वार्मिंग !
हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो जलवायु परिवर्तन को पश्चिमी दुनिया द्वारा खड़ा किया गया हौवा मानते हैं। लेकिन मैं इसे अपने घर की चौखट पर महसूस कर रहा हूं। मेरे खेत, मेरा गांव, मेरा परिवेश सब इसके भुक्तभोगी और गवाह हैं। जून के महीने में इतनी गर्मी मैंने पहले कभी महसूस नहीं की। दिन के दस बजे ही धूप में नंगे पैर चलने पर तलवे जलने लगे हैं। देर शाम तक लू चल रही है। ताल, तलैये सब सूख गए हैं, कहीं पानी नहीं। पिछले करीब आठ महीने से अभी तक एक बार भी हमारे इलाके में धरती तर होने भर बारिश नहीं हुई है। अब और कैसी होगी ग्लोबल वार्मिंग ? जलवायु परिवर्तन इसे नहीं तो किसे कहेंगे ? ग्लोबल वार्मिंग को दूर की कौड़ी समझनेवाले लोगों को अब समझ लेना चाहिए कि यह हमारी देहरी पर कदम रख चुका है।
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है ग्लोबल वार्मिंग या भूमंडलीय उष्मीकरण धरती के वातावरण के तापमान में लगातार हो रही बढ़ोतरी को कहते हैं, जिसके फलस्वरूप जलवायु में परिवर्तन हो रहा है। ऐसा धरती के वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों का घनत्व बढ़ने, ओजोन परत में छेद होने और वन व वृक्षों की कटाई की वजह से हो रहा है।
वायुमंडल में मौजूद कार्बन डायआक्साइड, मिथेन, नाइट्रोजन आक्साइड आदि जैसी ग्रीनहाउस गैसें धरती से परावर्तित होकर लौटनेवाली सूर्य की किरणों को रोक कर धरती का तापमान बढ़ाती हैं। वाहनों, हवाई जहाजों, बिजली उत्पादन संयंत्रों, उद्योगों इत्यादि से अंधाधुंध गैसीय उत्सर्जन के चलते वायुमंडल में कार्बन डायआक्साइड में वृद्धि हो रही है। पेड़-पौधे कार्बन डाइआक्साइड को अवशोषित करते हैं, लेकिन उनकी कटाई की वजह से समस्या गंभीर होती जा रही है। इसके अलावा जैसा कि वैज्ञानिक कहते हैं कि धरती के ऊपर बने ओजोन परत में एक बड़ा छिद्र हो चुका है जिससे पराबैंगनी किरणें (ultra violet rays) सीधे धरती पर पहुंच कर उसे लगातार गर्म बना रही हैं। ओजोन परत सूर्य से निकलने वाली घातक पराबैंगनी किरणों को धरती पर आने से रोकती है। यह सीएफसी की वजह से नष्ट हो रही है जिसका इस्तेमाल रेफ्रीजरेटर , अग्निशामक यंत्र इत्यादि में होता है।
बताया जाता है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से धरती पर मौजूद बर्फ और ग्लेशियर के पिघलने से समुद्री जल स्तर बढ़ जाएगा, जिससे तटीय क्षेत्र जलमग्न हो जाएंगे। जलवायु परिवर्तन की वजह से रेगिस्तान का विस्तार भी बढ़ेगा। हालांकि इसका सबसे त्वरित और तात्कालिक कुपरिणाम बढ़ते हुए तापमान के कारण महामारी, सूखा, बाढ़, दावानल, पेयजल संकट जैसी विपदाओं के रूप में सामने आनेवाला है। ज्यादा गर्म तापमान वाले विश्व में मलेरिया, यलो फीवर जैसी बीमारियां तेजी से फैलेगी, साथ ही कई नयी संक्रामक बीमारियां भी पैदा होंगी। बढ़ते तापमान के कारण हमारे उपजाऊ इलाके कृषि या पशुचारण के योग्य नही रहेंगे, इससे दुनिया की आहार आपूर्ति को खतरा हो सकता है।
भारत में तो जलवायु परिवर्तन की विभीषिका शुरू भी हो गयी है और मुझे इस बात में तनिक भी संदेह नहीं कि इसकी सबसे अधिक पीड़ा हम भारतीय ही भोगने जा रहे हैं। एक अरब से अधिक की आबादी वाले जिस देश में अधिकांश लोगों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान आज भी समस्या है, आग उगलती धरती के स्वाभाविक शिकार वही लोग होंगे। हमारी दृढ़ मान्यता है कि प्रकृति अपना न्याय जरूरी करती है। भारतवासियों को बगानों, वृक्षों व ताल-तलैयों को नष्ट करने की कीमत धरती की आग में जलकर चुकानी होगी। मानसून में विलंब होने भर से पेयजल और सिंचाई के लिए यहां किस तरह हाहाकार मच गया है, यह गौर करने की बात है।
यदि आपको अब भी अपनी चौखट पर जलवायु परिवर्तन की आहट सुनाई नहीं देती तो अपने वातानुकूलित घर से बाहर निकलें और नंगे पांव चार कदम शुष्क धरती पर चलें, या फिर इन खबरों का संदेश समझें :
>> मुंबई की झीलों में सप्लाई के लिए सिर्फ महीने भर का पानी, पेयजल आपूर्ति में 20 फीसदी कटौती की गयी
>> छत्तीसगढ़ सरकार ने गर्मी व पेयजल संकट से स्कूलों की छुट्टियां बढ़ायीं
>> इंदौर में बारिश के लिए जिंदा इंसान की शवयात्रा निकाली
>> वर्षा के लिए नागपुर में मेढ़कों का विवाह
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है ग्लोबल वार्मिंग या भूमंडलीय उष्मीकरण धरती के वातावरण के तापमान में लगातार हो रही बढ़ोतरी को कहते हैं, जिसके फलस्वरूप जलवायु में परिवर्तन हो रहा है। ऐसा धरती के वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों का घनत्व बढ़ने, ओजोन परत में छेद होने और वन व वृक्षों की कटाई की वजह से हो रहा है।
वायुमंडल में मौजूद कार्बन डायआक्साइड, मिथेन, नाइट्रोजन आक्साइड आदि जैसी ग्रीनहाउस गैसें धरती से परावर्तित होकर लौटनेवाली सूर्य की किरणों को रोक कर धरती का तापमान बढ़ाती हैं। वाहनों, हवाई जहाजों, बिजली उत्पादन संयंत्रों, उद्योगों इत्यादि से अंधाधुंध गैसीय उत्सर्जन के चलते वायुमंडल में कार्बन डायआक्साइड में वृद्धि हो रही है। पेड़-पौधे कार्बन डाइआक्साइड को अवशोषित करते हैं, लेकिन उनकी कटाई की वजह से समस्या गंभीर होती जा रही है। इसके अलावा जैसा कि वैज्ञानिक कहते हैं कि धरती के ऊपर बने ओजोन परत में एक बड़ा छिद्र हो चुका है जिससे पराबैंगनी किरणें (ultra violet rays) सीधे धरती पर पहुंच कर उसे लगातार गर्म बना रही हैं। ओजोन परत सूर्य से निकलने वाली घातक पराबैंगनी किरणों को धरती पर आने से रोकती है। यह सीएफसी की वजह से नष्ट हो रही है जिसका इस्तेमाल रेफ्रीजरेटर , अग्निशामक यंत्र इत्यादि में होता है।
बताया जाता है कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से धरती पर मौजूद बर्फ और ग्लेशियर के पिघलने से समुद्री जल स्तर बढ़ जाएगा, जिससे तटीय क्षेत्र जलमग्न हो जाएंगे। जलवायु परिवर्तन की वजह से रेगिस्तान का विस्तार भी बढ़ेगा। हालांकि इसका सबसे त्वरित और तात्कालिक कुपरिणाम बढ़ते हुए तापमान के कारण महामारी, सूखा, बाढ़, दावानल, पेयजल संकट जैसी विपदाओं के रूप में सामने आनेवाला है। ज्यादा गर्म तापमान वाले विश्व में मलेरिया, यलो फीवर जैसी बीमारियां तेजी से फैलेगी, साथ ही कई नयी संक्रामक बीमारियां भी पैदा होंगी। बढ़ते तापमान के कारण हमारे उपजाऊ इलाके कृषि या पशुचारण के योग्य नही रहेंगे, इससे दुनिया की आहार आपूर्ति को खतरा हो सकता है।
भारत में तो जलवायु परिवर्तन की विभीषिका शुरू भी हो गयी है और मुझे इस बात में तनिक भी संदेह नहीं कि इसकी सबसे अधिक पीड़ा हम भारतीय ही भोगने जा रहे हैं। एक अरब से अधिक की आबादी वाले जिस देश में अधिकांश लोगों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान आज भी समस्या है, आग उगलती धरती के स्वाभाविक शिकार वही लोग होंगे। हमारी दृढ़ मान्यता है कि प्रकृति अपना न्याय जरूरी करती है। भारतवासियों को बगानों, वृक्षों व ताल-तलैयों को नष्ट करने की कीमत धरती की आग में जलकर चुकानी होगी। मानसून में विलंब होने भर से पेयजल और सिंचाई के लिए यहां किस तरह हाहाकार मच गया है, यह गौर करने की बात है।
यदि आपको अब भी अपनी चौखट पर जलवायु परिवर्तन की आहट सुनाई नहीं देती तो अपने वातानुकूलित घर से बाहर निकलें और नंगे पांव चार कदम शुष्क धरती पर चलें, या फिर इन खबरों का संदेश समझें :
>> मुंबई की झीलों में सप्लाई के लिए सिर्फ महीने भर का पानी, पेयजल आपूर्ति में 20 फीसदी कटौती की गयी
>> छत्तीसगढ़ सरकार ने गर्मी व पेयजल संकट से स्कूलों की छुट्टियां बढ़ायीं
>> इंदौर में बारिश के लिए जिंदा इंसान की शवयात्रा निकाली
>> वर्षा के लिए नागपुर में मेढ़कों का विवाह
Saturday, June 13, 2009
बिहारी कंपनी समेत तीन भारतीय परियोजनाओं को ग्लोबल ग्रीन एनर्जी अवार्ड
बिहार की एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी सहित भारत में अपनी परियोजनाओं पर काम कर रहे तीन संगठनों को वर्ष 2009 के लिए अक्षय ऊर्जा के प्रतिष्ठित ऐशडेन अवार्ड (Ashden Awards) से सम्मानित किया गया है। स्थानीय समुदायों के बीच नवीकरण योग्य ऊर्जा के क्षेत्र में इनके योगदान के लिए गुरुवार की शाम लंदन में प्रिन्स चार्ल्स ने बिहार के सारन रिन्युएबल एनर्जी प्राइवेट लिमिटेड और फ्रांसीसी एनजीओ जीइआरइएस (GERES) को हरेक को बीस हजार पौंड, जबकि इंटरनेशनल डेवलपमेंट इंटरप्राइजेज इंडिया (IDEI) को पंद्रह हजार पौंड के पुरस्कार प्रदान किए।
ऐशडेन पुरस्कारों को ग्लोबल ग्रीन एनर्जी अवार्ड अथवा ग्रीन ऑस्कर भी कहा जाता है।
बिहार के सारन रिन्युएबल एनर्जी प्राइवेट लिमिटेड को प्रतिदिन 11 घंटे बिजली प्रदान करनेवाले गैसीफिकेशन संयत्र के लिए ऐशडेन रिन्यूएबल्स फॉर इकोनोमिक डेवलपमेंट अवार्ड दिया गया। स्थानीय नवीकरण योग्य स्रोतों से प्राप्त होनेवाले बायोमास से चलनेवाला यह संयत्र रह-रह कर धोखा देनेवाली ग्रिड की विद्युत आपूर्ति का एक सस्ता और टिकाउ विकल्प है। लिमिटेड कंपनी द्वारा बिहार के सारण जिले में स्थापित इस संयत्र से प्रति वर्ष 200 मेगावाट बिजली पैदा होती है, जिसे स्थानीय उद्यमियों, किसानों, अस्पताल और स्कूल को बेचा जाता है। इसके गैसीफायर प्लांट और उसमें इस्तेमाल होनेवाले जैविक ईंधन को बगल के चित्रों में देखा जा सकता है।
फ्रांसीसी स्वयंसेवी संस्था जीइआरइएस (GERES) को लद्दाख के हिमालय पर्वतीय क्षेत्र में ग्रामीणों के पोषण (nutrition) में सुधार और उनकी आमदनी में बढ़ोतरी लाने के लिए ऐशडेन अवार्ड फॉर इंप्रूव्ड न्यूट्रीशन दिया गया। संस्था ने स्थानीय संगठनों को सोलर ग्रीनहाउस के जरिए सालों भर ताजी सब्जियां उगाने में मदद की, जिससे यह उपलब्धि हासिल हो सकी।
इंटरनेशनल डेवलपमेंट इंटरप्राइजेज इंडिया (IDEI) को उसके द्वारा तैयार किए गए पांव-पंप (ट्रेडिल पंप / Treadle Pump) के लिए ऐशडेन आउटस्टैंडिंग अचीवमेंट अवार्ड से नवाजा गया। कहा जा रहा है कि इस विधि से खेतों की सिंचाई कर साढ़े सात लाख किसान अपनी गरीबी दूर भगाने में सक्षम हुए हैं। इस संगठन को 2006 में भी ऐशडेन पुरस्कार मिला था। तब से यह ड्रिप सिंचाई पद्धति के क्षेत्र में भी काम कर रहा है तथा दुनिया भर में अपने उत्पादों को बेच रहा है।
ऐशडेन पुरस्कारों को ग्लोबल ग्रीन एनर्जी अवार्ड अथवा ग्रीन ऑस्कर भी कहा जाता है।
बिहार के सारन रिन्युएबल एनर्जी प्राइवेट लिमिटेड को प्रतिदिन 11 घंटे बिजली प्रदान करनेवाले गैसीफिकेशन संयत्र के लिए ऐशडेन रिन्यूएबल्स फॉर इकोनोमिक डेवलपमेंट अवार्ड दिया गया। स्थानीय नवीकरण योग्य स्रोतों से प्राप्त होनेवाले बायोमास से चलनेवाला यह संयत्र रह-रह कर धोखा देनेवाली ग्रिड की विद्युत आपूर्ति का एक सस्ता और टिकाउ विकल्प है। लिमिटेड कंपनी द्वारा बिहार के सारण जिले में स्थापित इस संयत्र से प्रति वर्ष 200 मेगावाट बिजली पैदा होती है, जिसे स्थानीय उद्यमियों, किसानों, अस्पताल और स्कूल को बेचा जाता है। इसके गैसीफायर प्लांट और उसमें इस्तेमाल होनेवाले जैविक ईंधन को बगल के चित्रों में देखा जा सकता है।
फ्रांसीसी स्वयंसेवी संस्था जीइआरइएस (GERES) को लद्दाख के हिमालय पर्वतीय क्षेत्र में ग्रामीणों के पोषण (nutrition) में सुधार और उनकी आमदनी में बढ़ोतरी लाने के लिए ऐशडेन अवार्ड फॉर इंप्रूव्ड न्यूट्रीशन दिया गया। संस्था ने स्थानीय संगठनों को सोलर ग्रीनहाउस के जरिए सालों भर ताजी सब्जियां उगाने में मदद की, जिससे यह उपलब्धि हासिल हो सकी।
इंटरनेशनल डेवलपमेंट इंटरप्राइजेज इंडिया (IDEI) को उसके द्वारा तैयार किए गए पांव-पंप (ट्रेडिल पंप / Treadle Pump) के लिए ऐशडेन आउटस्टैंडिंग अचीवमेंट अवार्ड से नवाजा गया। कहा जा रहा है कि इस विधि से खेतों की सिंचाई कर साढ़े सात लाख किसान अपनी गरीबी दूर भगाने में सक्षम हुए हैं। इस संगठन को 2006 में भी ऐशडेन पुरस्कार मिला था। तब से यह ड्रिप सिंचाई पद्धति के क्षेत्र में भी काम कर रहा है तथा दुनिया भर में अपने उत्पादों को बेच रहा है।
Friday, June 12, 2009
जलसंकट का समाधान और नासिरा शर्मा की कुइयाँजान
भूगर्भीय और भूतल जल के दिन-प्रतिदिन गहराते संकट के मूल में हमारी सरकार की एकांगी नीतियां मुख्य रूप से हैं. देश की आजादी के बाद बड़े बांधों, नहरों व कृत्रिम यंत्रों जैसी नई सिंचाई प्रणालियों पर ध्यान तो दिया गया, लेकिन आहर, पइन, कुएं, तालाब आदि जैसी पुरानी प्रणालियों की पूर्णत: अनदेखी की गयी. परंपरागत भारतीय सामाजिक-आर्थिक जीवन के केन्द्रबिन्दु रहे कुएं और तालाबों के प्रति उदासीनता व उपेक्षा का ऐसा माहौल बना कि लालच में उन्हें पाटा जाता रहा और सरकारी महकमा मौन साधे रहा.
पहले के जमाने में राजा-महाराजा, जमींदार व धनवान लोग गांव-गांव में आहर बंधवाते और पोखर व कुएं खुदवाते थे. यह बहुत पुण्य का काम समझा जाता था. तब सिंचाई व पेयजल के स्रोतों के मामले में हर गांव आत्मनिर्भर रहता था. आहर, पइन, पोखर आदि जैसी पुरानी सिंचाई प्रणालियां भूगर्भीय जल को रिचार्ज भी करती थीं, जबकि आधुनिक बोरवेल से सिर्फ दोहन होता है. आधुनिक सिंचाई प्रणालियों के मोह में जल संबंधी पारंपरिक ज्ञान को नजरअंदाज करने से हमारा संकट और बढ़ा ही है.
जो लोग मौजूदा जल संकट से चिंतित हैं और जिनपर इसके समाधान की जिम्मेवारी है, पुरानी और नई सिंचाई प्रणालियों के तुलनात्मक अध्ययन से गुजरे बिना उन्हें सही मार्ग नहीं मिलनेवाला. इस मामले में जिसकी दिलचस्पी है, उसे हिन्दी की ख्यातिप्राप्त साहित्यकार नासिरा शर्मा का उपन्यास कुइयाँजान अवश्य पढ़ना चाहिए. इसकी कथा का पूरा ताना-बाना पानी के इर्द-गिर्द ही बुना गया है और आदि से अंत तक पानी की समस्या को लेकर गहरा विमर्श चलता है. कहानी का मुख्य पात्र है एक युवा डॉक्टर, जो अपनी पारिवारिक जिम्मेवारियों के निर्वहन के साथ-साथ जल संरक्षण तथा ऐसे ही अन्य मुद्दों पर आयोजित राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय परिचर्चाओं तथा सम्मेलनों में भी भाग लेता है.
कुइयाँजान के कुछ अंश यहां, यहां नेट पर उपलब्ध हैं। एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंश बीबीसी हिन्दी ने नई बनाम पुरानी सिंचाई प्रणाली शीर्षक से प्रस्तुत किया था, जिसे हम यहां उद्धृत कर रहे हैं :
कमाल जब ट्रेन पर बैठा तो उसका दिल बुझा-बुझा सा था. शायद समीना के जुमले का असर हो-यह सोचकर उसने अपना बिस्तर लगाया और आँख बंद कर लेट गया. मगर नींद का कोसों पता न था. सारी रात करवटें बदलता रहा. अजीब-सी बेचैनी उसे घेरे रही. आँखों के सामने पंखुड़ी और पराग के चेहरे बार-बार कौंधते और दिमाग में यह सवाल कि अब से पहले तो कभी समीना ने उसे रोका नहीं, फिर आज क्यों ? अब मेरी जिम्मेदारी बढ़ गई है. बाप बन गए हैं, यही सोचकर उसने कह दिया होगा. इस तर्क के ज़हन में आते ही उसकी पलकें मुंदने लगीं.
दिल्ली पहुँच सबसे पहले कमाल ने समीना से बात कर बच्चों की ख़ैरियत ली. उसे समीना की आवाज़ में थकान-सी महसूस हुई. शायद बच्चों ने रात-भर जगाया हो. उसे भी अब बच्चों की देखभाल में समीना का हाथ बंटाना चाहिए, ताकि वह पूरी रात चैन से सो सके. पूरी उड़ान-भर वह समीना और बच्चों के बारे में ही सोचता रहा. पटना हवाई अड्डे पर उसे रिसीव करने वाले आए हुए थे. सेमिनार के दोस्त थे. कल वैशाली की ओर एकरारा, अबीरपुर और सिरसा बीरन गाँव की ओर जाना था.
पटना में गंगा का फैला पाट देखकर कमाल को महसूस हुआ, जैसे वह समुद्र देख रहा हो. गाँधी सेतु के नीचे हाजीपुर की ओर केले के बागान मीलों तक फैले हुए थे. नीले फ़ीके आसमान और खिली धूप में हरे-हरे पत्तों वाले पेड़ बड़ी सुंदर अनोखी छटा बिखेर रहे थे. पुल भी शैतान की आँत की तरह लंबा था, जो ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था. कमाल बार-बार अपनी कलाईघड़ी को बढ़ती सुइयों को देखकर सोच रहा था कि सीधा सेमिनार हाल में जाना ही ठीक होगा, मगर तब तक कार होटल के गेट में दाखिल हो चुकी थी.
सेमिनार हाल में पहुँच वह सब कुछ भूल गया. वहाँ कुछ और समस्याएँ थीं जो दिल के मामले से कहीं ज़्यादा गहरी और गंभीर थीं. सेमिनार के पहले सत्र का शीर्षक था-मध्य बिहार में आहर-पइन सिंचाई प्रणाली. सत्र के प्रारंभ में पढ़े गए आलेख में बिहार की भौगोलिक बनावट पर छोटी सी टिप्पणी थी, जिसके हिसाब से बिहार को तीन भागों में बाँटा गया था-उत्तर बिहार का मैदानी इलाक़ा, दक्षिण बिहार का मैदानी भाग और छोटा नागपुर या पठारी क्षेत्र. पहला हिस्सा जो नदियों के साथ आई मिट्टी से बना है और नेपाल के तराई वाले इलाकों से लेकर गंगा के उत्तरी किनारे तक आता है. यहाँ की ज़मीन उर्वरा और घनी आबादी वाली है. दक्षिण का मैदानी इलाका गंगा के दक्षिणी तट से लेकर छोटा नागपुर के पठारों के बीच स्थित है. यहाँ सोन, पुनपुन, मोरहर, मुहाने, गामिनी नदियाँ है जो गंगा में जाकर मिलती हैं.
बरसात में सारी नदियाँ उफ़नने लगती हैं. गंगा के मैदानी इलाके दक्षिणी भाग में पुराना पटना, गया और शाहाबाद जिलों तथा दक्षिणी मुंगेर और दक्षिणी भागलपुर आता है, जहाँ की ज़मीन में नमी बनाए रखने की क्षमता कम है. यहाँ भूजल का स्तर बहुत कम है. गंगा के किनारे के इलाके को छोड़ कही भी कुआँ या नलकूप खोदना असंभव है. यह भू-भाग दक्षिण से उत्तर की ओर तेज़ ढलान वाला है, जिसके कारण धरती पर पानी का टिकना मोहाल है सो जलवायु खेती के अनुकूल नहीं; परंतु विचित्र तथ्य है कि यही इलाका ठीक नदियों के किनारे की तरह प्राचीन सभ्यता का केंद्र रहा है. आखिर क्यों और कैसे ? यह सवाल दिमागों में उठ सकता है तो इसका श्रेय हम आहर-पइन को देंगे जो न केवल हमारी भारतीय सिंचाई-प्रणाली थी बल्कि इलाके की आवश्यकता के अनुसार उसका निर्माण वजूद में आया था. वह हमारी ज़मीन की बनावट से निकाली गई इंसानी उपलब्धियाँ थीं.
लेख के साथ स्लाइडों द्वारा आहर-पइन के पुराने के चित्रों एवं नए रेखाचित्रों की भी एक श्रृंखला थी, जो विवरण के साथ दिखाई जा रही थी कि इस इलाके में ढलान चूंकि प्रति किलोमीटर एक मीटर पड़ती है, सो उसी बनावट को हमारे पूर्वजों ने इस्तेमाल कर एक या दो मीटर ऊँचे बाँधों के जरिए पोखर बनाए जिन्हें स्थानीय भाषा में आहर कहते हैं. बड़े बाँध के दोनों छोर से दो छोटे बाँध भी निकाले जाते थे जो ऊँचाई की तरफ होते थे. इस तरह से आहर जल तो तीन तरफ से घेरने की व्यवस्था बनाई जाती थी. तालाबों की तरह इनकी तलहटी की खुदाई संभव नहीं थी. यह पोखर कभी-कभी पइनो और स्रोतों के नीचे इस विचार से भी घेरे जाते थे, ताकि इनमें लगातार पानी इन दोनों स्रोतों से भी आकर भरा रहे. यह कितने कारामद होते थे, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि एक लंबे आहर से बड़े आराम से 400 हेक्टेयर से कुछ अधिक ज़मीन की सिंचाई हो जाती थी. तालाबों का यहाँ चलन था नहीं. छोटे आहरों की संख्या कुछ ज़्यादा रही.
इसी तरह पहाड़ी नदियों से खेतों तक पानी पहुँचाने के लिए पइनों का प्रयोग किया जाता था. यह पइन 20-20 किलोमीटर तक लंबे होते थे और प्रशाखों में बंटकर सौ से भी अधिक ज़्यादा गाँवों के खेतों की सिंचाई करते थे. दक्षिण की नदियाँ गर्मी में सूखी और बरसात में उफनती थीं सो उनका बढ़ा पानी बाढ़ की जगह ढाल से वह पइनों एवं आहारों में भर अपनी राह बना लेते था. आज हम विकल्पों की ओर भागते हैं और अपनी व्यवस्था से मुंह मोड़ लेते हैं.
आहर-पइन प्रणाली जातक युग से ही हमारी सिंचाई-व्यवस्था में शामिल रही है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में “आहरोदक सेतु” से सिंचाई-व्यवस्था का जिक्र है. मेगास्थनीज के यात्रा-विवरण में भी बिहार की बंद मुंह वाली नहरों से सिंचाई का उल्लेख मिलता है. हम नए से नए विकल्प ढूंढ़ने के स्थान पर अपनी पुरानी प्रणाली की तरफ ध्यान दें, क्योंकि वह हमारे इलाके की भोगोलिक बनावट के अनुकूल थी, वरना आप सब जानते हैं कि उन आहारों-पइनों से मुख मोड़कर हम कहाँ पहुँचे. इस बार मध्य बिहार में पहली धान की बुआई हुई नहीं. वर्षा भी कम हुई और जब दूसरा धान रोपा भी जाएगा, या फिर चुनाव की गहमागहमी में हम सब भूल जाएँगे और राजस्थान की तरह सूखे और भुखमरी की तरफ बढ़ेंगे!
पहले लेख की समाप्ति पर सवाल करने वाले बेचैन थे, मगर तय यही पाया कि दूसरा लेख भी चूंकि पोखर-नहर प्रणाली की बहाली पर है, इस कारण बेहतर होगा कि सवाल इकट्ठा सामने रखे जाएँ. दूसरा आलेख भी अनेक सूचनाओं से भरा हुआ था. उसमें भी सारा आरोप अपनी स्वयं की व्यवस्था से विमुख हो नित नए प्रयोगों की विफलता पर था. विमलजी का आलेख प्रारंभ हुआ.
“घोषजी ने जहाँ अपनी बात एक ज्वलंत प्रश्न पर समाप्त की है, वहीं से मैं उठाना चाहूँगा. गया जिले की बाढ़ सलाहकार कमेटी ने कई दशक पहले 1949 में अपनी रिपोर्ट में लिखा था. ‘कमेटी की राय है कि जिले में बाढ़ का असली कारण पारंपरिक सिंचाई-प्रणालियों में आई गिरावट है. ज़मीन ढलवाँ है और नदियाँ उत्तर की तरफ कमोबेश समांतर दिशा में बहती हैं. मिट्टी बहुत पानी सोखने लायक नहीं है. अभी तक चलने वाली सिंचाई-व्यवस्था पूरे जिले में शतरंज के मोहरों की तरह बिछी हुई थी और ये पानी के प्रवाह पर रोक-टोक लगाती थीं.’ मेरा अपना विचार है कि बाहर से दिखने में आहर-पइन व्यवस्था भले ही बदरूप और कच्ची लगे, पर यह एकदम मुश्किल प्राकृतिक स्थितियों में पानी की सर्वोतम उपयोग की अद्भुत देसी प्रणाली है.”
तीसरा आलेख कालियाजी का था. उनका समर्थन भी आहर और पइन के लिए था. अपने लेख का आरंभ “एन एकाउंट ऑफ द डिस्ट्रिक ऑफ भागलपुर” लिखने वाले ब्रिटिश पर्यवेक्षक एफ-बुकानन के इस कथन से शुरू किया “आहारों और पइनों में इतना पानी रहता है कि किसान सिर्फ़ धान की फसल ही नहीं लेते, बल्कि सर्दियों में गेहूँ और जौ उगाने के लिए भी उसका प्रयोग कर लेते हैं. पानी को ढेकुली और पनदौरी जैसी कई व्यवस्थाओं से ऊपर लाकर खेतों तक पहुँचाया जाता था.” कलियाजी लेख पढ़ते-पढ़ते रुके और बोले, “यह वही अंग्रेज सज्जन थे जो आहर-पइन प्रणाली को कमखर्च समझने के बावजूद सिंचाई के लिए तलाब को पसंद करते थे. मगर जैसे-जैसे वे भागलपुर से गया की तरफ बढ़े उनकी राय बदलती गई, क्योंकि उन्होंने यथार्थ को अपनी आँखों से जाकर देखा. आहर आम तौर पर गाँव के उत्तर में होते थे. पूरा का पूरा दक्षिण बिहार ही ऐसी ढलानवाला मैदान है. हर गाँव में धनहर और भीत खेत हैं.”
“आहर और पइन का उपयोग सामूहिक रूप से होता था और सभी किसानों को मिल-जुलकर खेती करनी होती थी. आहर-पइन व्यवस्था कितनी उपयोगी और विश्वसनीय थी, इसका पता इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पूरे देश का प्रायः हर इलाका निरंतर अकालों की चपेट में आता रहा, मगर गया जिला इससे अछूता रहा. इस सिंचाई-व्यवस्था में गिरावट के साथ मजबूती भी जाती रही. कहाँ तो उसे अकाल राहत की ज़रूरत 1886-97” में नहीं पड़ी थी और वहाँ 1966 में गया जिले पर भी सूखे व अकाल की मार पड़ी. इस व्यवस्था से बाढ़ के पानी पर भी रोक थी. मगर इधर देखने में आ रहा है कि वह संतुलन भी जाता रहा.
“अब इसी सिलसिले में ज़रा हम अपनी भव्य परियोजनाओं पर दृष्टि डालें. दक्षिण बिहार के ‘सुखाड़ क्षेत्र’ में सिंचाई-सुविधा के नाम पर चल रही है स्वर्ण-रेखा परियोजना. सिंहभूमि जिले में चल रही दो बड़े डैम, दो बराज एवं सात नहरों वाली इस परियोजना में विश्व बैंक आर्थिक मदद कर रहा है. 1977 में इसकी लागत 179 करोड़ रुपए थी. आज उसकी लागत बढ़कर करीब 1285 करोड़ रुपए हो गई है. इस परियोजना की बाबत सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए आँकड़ों एवं गैरसरकारी सर्वेक्षण के अनुसार इससे चांडिल और इंचा के इलाके में करीब 182 गाँवों में पानी भर जाएगा. इनमें से 44 गाँव तो पूर्णतया जलमग्न हो जाएंगे. कुल मिलाकर एक लाख लोग, जिनमें अधिकतर आदिवासी हैं, विस्थापित हो जाएंगे. उन्हें भी बसाने के पहले की तरह के वायदे किए गए. जैसे सरदार सरोवर डैम पैनल निर्माण के समय उनकी ज़मीन लेते हुए वायदे किए थे, मगर वे कहाँ बसेंगे-इसका पता न उजड़ने वालों को होगा न उजाड़ने वालों को. हमारी सरकारें हमारी नहीं, विदेशी हित की बातें सोचती हैं. मेधाजी को विकास-विरोधी बताकर नर्मदा बाँध से डूबने और विस्थापित होने वाले आदिवासियों की कोई चिंता नहीं की जाती इसलिए विदेशी चंगुल से छुटकारे का एक ही रास्ता है कि हम अपने जल, ज़मीन तक सीमित रहें और विकास अपने साधनों से करें, न कि विश्व बैंक से ऋण लेकर एक नई गुलामी स्वीकार करें.”
आलेख की समाप्ति पर कुछ पल खामोशी छाई रही, फिर प्रश्न आमंत्रित किए जाने की घोषणा हुई. प्रश्न तो शायद किसी के मन-मस्तिष्क में नहीं उभर रहे थे, मगर कई अन्य तरह के आक्रोश लोग पाले बैठे थे, सो एक सज्जन आवेश में उठे और बोले, “आप पुरानी सिंचाई-प्रणाली आहर व पइन के छिन-भिन्न होने पर दुखी हैं, मगर मेरे सामने अनेक प्रश्न पानी से भरे पोखरों को लेकर हैं! जैसे, स्वतंत्रता के पूर्व मछली, मखाना जैसी पोखर से पाई जाने वाली वस्तुएं किसी बाजार में खरीद-बिक्री के लिए प्रायः नहीं भेजी जाती थीं. जो पोखर में उपलब्ध होता, उसे गाँव वाले प्रयोग में लाते थे. पोखर हमारे रीति-रिवाज़ों में आज भी मौजूद है. ज़मींदारी प्रथा के उंमूलन के पश्चात बिहार सरकार द्वारा भू-सर्वेक्षण आरंभ कराया गया. सर्वेक्षण में पूर्व का गैरमजरुआ आम पोखर बिहार सरकार के पोखर के रूप में दर्ज किया गया. साथ ही मछली और मखाना का बाजार भी उपलब्ध हो गया. इस काम के लिए तालाब लीज़ पर दिया जाने लगा. गाँव के लिए पोखर के पानी पर पाबंदी लगी और सिंचाई के लिए पानी लेने पर भी रोक लग गई. सिंचाई के पानी लेने से पानी घटेगा, मछलियाँ मरेंगी और तालाब सरकारी लीज़ पर नहीं मिलेगा. आम आदमी का जो भावनात्मक संबंध देख-रेख और उपयोग को लेकर तालाब-पोखर से था, वह निराशा और उदासीनता में बदला. क्या इसमें सरकार और बाजार का बेजा हस्तक्षेप नहीं है, जिसने स्थानीय लोगों से उनका सहज जीवन और उसका प्रवाह छीन लिया?”
उनके बैठते ही दूसरे सज्जन उठे और उन्होंने श्रोताओं के सामने अपनी बात रखी- "संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कवि बाण अपनी कृति कादंबरी (सातवीं शताब्दी) में पोखर-सरोवर खुदवाने को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे. लोक-कल्याण हेतु इस प्रकार के खुदवाए गए जलकोष को चार वर्गों में विभाजित किया गया है- 1.कूप जिसका व्यास 7 फीट से 75 फीट हो सकता है और जिससे पानी डोल-डोरी से निकाला जाए, 2. वापी, छोटा चौकोर पोखर, लंबाई 75 से 150 फीट हो और जिसमें जलस्तर तक पाँव के सहारे पहुँचा जा सके, 3.पुष्करणी, छोटा पोखर, गोलाकार, जिसका व्यास 150 से 300 फीट तक हो, 4.तड़ाग पोखर, चौकोर, जिसकी लंबाई 300 से 450 फीट तक हो. कहने का अर्थ केवल यह है कि हमारे भारतीय समाज में पोखर केवल भौगोलिक मजबूरी नहीं, बल्कि परंपरा रही है. हमारी सोच का हिस्सा रही है. पोखर की चर्चा ऋग्वेद में भी है. जब से गृह्मसूत्र और धर्मसूत्र की रचना-संकलन प्रारंभ हुआ(800 से 300 ई.पू. की अवधि में) तब से इसे धार्मिक मान्यता और संरक्षण प्राप्त है. इन सूत्रों के अनुसार, किसी भी वर्ग या जाति का कोई भी व्यक्ति, पुरूष या स्त्री पोखर खुदवा सकता है और यज्ञ करवाकर समाज के सभी प्राणियों के कल्याण-हेतु उसका उत्सर्ग कर सकता है. आज भी यह काम पुण्य कमाने का समझा जाता है! मगर जो इस तरह के काम करने के लायक हैं वे अब धन इन जन-कल्याणकारी कार्यों में नहीं खर्च करते हैं... ऐसी मानसिकता के समय में मध्य बिहार की पपड़ियाई ज़मीन क्या कुछ नहीं झेल रही है, इसको शब्दों में बयान करना मेरे लिए कठिन है.”
उनकी बात ख़त्म होते ही एक और सज्जन खड़े हुए.
“आपके लिए कठिन होगा, क्योंकि शोर मचाने से भी क्या लाभ? हम अपनी मछलियों के रहते आंध्र की मछली खाते हैं. यहाँ तो हाल यह है कि मुहाने नदी का मुंह बंद कर सुखाड़ की स्थिति पैदा कर गई है. आदमी बैठा है फाल्गू की रेत पर और औरतें बैठी हैं पटना की सड़कों पर. याद होगा कि सिंचाई योजना बनाई गई थी उसको लोहे के शटर से हमेशा के लिए बंद कर दिया गया. उससे जो थोड़ी बहुत सिंचाई होती थी वह भी हाथ से गई. उसके चलते इस्लामपुर के 105 गाँव, एंकगरसराय के 119 गाँव, हिलसा के 133 गाँव, परवलपुर के 136 गाँव, चंडी के 103 गाँव, थरथरी के 139 गाँव, नगरनासा के 104 गाँव, नहरनौसा के 104 गाँव, जहानाबाद-घोसी के 153 गाँव आदी प्रखंडों की लाखों हेक्टेयर भूमि पूरी तरह सूख गई. जब यह शटर बंद नहीं था तो 365 पइन थे. पैंतीस वर्ष से वह योजना यूँ ही बंद पड़ी है. आखिर क्यों? जिस परियोजना के चलते मुहाने नदी बंद की गई, उसका क्या हुआ? हाँ, इससे लाखों किसान प्रभावित हुए और दूसरी ओर, बंद पानी से बाढ़ की स्थिति बन गई. बिहार के बंटवारे के बाद इधर के लोग केवल खेती पर निर्भर होकर रह गई है. वे सब गरीबी रेखा के नीचे वाले लोग हैं. आखिर यह परियोजना कब तक ठप रखी जाएगी ? मुहाने नदी को लेकर 11 अक्तूबर 2002 से संघर्ष चल रहा है. लोग सत्याग्रह पर बैठे हैं. यह कोई दो-चार एकड़ की बात नहीं है. किसी एक जिले की बात भी नहीं है, बल्कि गया, नालंदा, जहानाबाद, पटना जिलों की है, जहाँ भूमि सुखाड़ की चपेट में है और किसान भूखे मर रहे हैं.”
बात समाप्त होते ही कई लोगों ने जोर से मेज़ थपथपाकर अपने आक्रोश का इज़हार किया. संयोजक घड़ी देख रहे थे. तीन बजने वाले थे. लंच का समय तेज़ी से शाम की चाय की ओर बढ़ रहा था. बीच में टोकने का मौका ही नहीं था. एक अजीब तरह की गरमाहट हाल में फैल गई थी. इस बार सज्जन बोलने खड़े हुए उनका चेहरा भावना एवं क्रोध से तमतमाया हुआ था.
पहले के जमाने में राजा-महाराजा, जमींदार व धनवान लोग गांव-गांव में आहर बंधवाते और पोखर व कुएं खुदवाते थे. यह बहुत पुण्य का काम समझा जाता था. तब सिंचाई व पेयजल के स्रोतों के मामले में हर गांव आत्मनिर्भर रहता था. आहर, पइन, पोखर आदि जैसी पुरानी सिंचाई प्रणालियां भूगर्भीय जल को रिचार्ज भी करती थीं, जबकि आधुनिक बोरवेल से सिर्फ दोहन होता है. आधुनिक सिंचाई प्रणालियों के मोह में जल संबंधी पारंपरिक ज्ञान को नजरअंदाज करने से हमारा संकट और बढ़ा ही है.
जो लोग मौजूदा जल संकट से चिंतित हैं और जिनपर इसके समाधान की जिम्मेवारी है, पुरानी और नई सिंचाई प्रणालियों के तुलनात्मक अध्ययन से गुजरे बिना उन्हें सही मार्ग नहीं मिलनेवाला. इस मामले में जिसकी दिलचस्पी है, उसे हिन्दी की ख्यातिप्राप्त साहित्यकार नासिरा शर्मा का उपन्यास कुइयाँजान अवश्य पढ़ना चाहिए. इसकी कथा का पूरा ताना-बाना पानी के इर्द-गिर्द ही बुना गया है और आदि से अंत तक पानी की समस्या को लेकर गहरा विमर्श चलता है. कहानी का मुख्य पात्र है एक युवा डॉक्टर, जो अपनी पारिवारिक जिम्मेवारियों के निर्वहन के साथ-साथ जल संरक्षण तथा ऐसे ही अन्य मुद्दों पर आयोजित राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय परिचर्चाओं तथा सम्मेलनों में भी भाग लेता है.
कुइयाँजान के कुछ अंश यहां, यहां नेट पर उपलब्ध हैं। एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंश बीबीसी हिन्दी ने नई बनाम पुरानी सिंचाई प्रणाली शीर्षक से प्रस्तुत किया था, जिसे हम यहां उद्धृत कर रहे हैं :
कमाल जब ट्रेन पर बैठा तो उसका दिल बुझा-बुझा सा था. शायद समीना के जुमले का असर हो-यह सोचकर उसने अपना बिस्तर लगाया और आँख बंद कर लेट गया. मगर नींद का कोसों पता न था. सारी रात करवटें बदलता रहा. अजीब-सी बेचैनी उसे घेरे रही. आँखों के सामने पंखुड़ी और पराग के चेहरे बार-बार कौंधते और दिमाग में यह सवाल कि अब से पहले तो कभी समीना ने उसे रोका नहीं, फिर आज क्यों ? अब मेरी जिम्मेदारी बढ़ गई है. बाप बन गए हैं, यही सोचकर उसने कह दिया होगा. इस तर्क के ज़हन में आते ही उसकी पलकें मुंदने लगीं.
दिल्ली पहुँच सबसे पहले कमाल ने समीना से बात कर बच्चों की ख़ैरियत ली. उसे समीना की आवाज़ में थकान-सी महसूस हुई. शायद बच्चों ने रात-भर जगाया हो. उसे भी अब बच्चों की देखभाल में समीना का हाथ बंटाना चाहिए, ताकि वह पूरी रात चैन से सो सके. पूरी उड़ान-भर वह समीना और बच्चों के बारे में ही सोचता रहा. पटना हवाई अड्डे पर उसे रिसीव करने वाले आए हुए थे. सेमिनार के दोस्त थे. कल वैशाली की ओर एकरारा, अबीरपुर और सिरसा बीरन गाँव की ओर जाना था.
पटना में गंगा का फैला पाट देखकर कमाल को महसूस हुआ, जैसे वह समुद्र देख रहा हो. गाँधी सेतु के नीचे हाजीपुर की ओर केले के बागान मीलों तक फैले हुए थे. नीले फ़ीके आसमान और खिली धूप में हरे-हरे पत्तों वाले पेड़ बड़ी सुंदर अनोखी छटा बिखेर रहे थे. पुल भी शैतान की आँत की तरह लंबा था, जो ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था. कमाल बार-बार अपनी कलाईघड़ी को बढ़ती सुइयों को देखकर सोच रहा था कि सीधा सेमिनार हाल में जाना ही ठीक होगा, मगर तब तक कार होटल के गेट में दाखिल हो चुकी थी.
सेमिनार हाल में पहुँच वह सब कुछ भूल गया. वहाँ कुछ और समस्याएँ थीं जो दिल के मामले से कहीं ज़्यादा गहरी और गंभीर थीं. सेमिनार के पहले सत्र का शीर्षक था-मध्य बिहार में आहर-पइन सिंचाई प्रणाली. सत्र के प्रारंभ में पढ़े गए आलेख में बिहार की भौगोलिक बनावट पर छोटी सी टिप्पणी थी, जिसके हिसाब से बिहार को तीन भागों में बाँटा गया था-उत्तर बिहार का मैदानी इलाक़ा, दक्षिण बिहार का मैदानी भाग और छोटा नागपुर या पठारी क्षेत्र. पहला हिस्सा जो नदियों के साथ आई मिट्टी से बना है और नेपाल के तराई वाले इलाकों से लेकर गंगा के उत्तरी किनारे तक आता है. यहाँ की ज़मीन उर्वरा और घनी आबादी वाली है. दक्षिण का मैदानी इलाका गंगा के दक्षिणी तट से लेकर छोटा नागपुर के पठारों के बीच स्थित है. यहाँ सोन, पुनपुन, मोरहर, मुहाने, गामिनी नदियाँ है जो गंगा में जाकर मिलती हैं.
बरसात में सारी नदियाँ उफ़नने लगती हैं. गंगा के मैदानी इलाके दक्षिणी भाग में पुराना पटना, गया और शाहाबाद जिलों तथा दक्षिणी मुंगेर और दक्षिणी भागलपुर आता है, जहाँ की ज़मीन में नमी बनाए रखने की क्षमता कम है. यहाँ भूजल का स्तर बहुत कम है. गंगा के किनारे के इलाके को छोड़ कही भी कुआँ या नलकूप खोदना असंभव है. यह भू-भाग दक्षिण से उत्तर की ओर तेज़ ढलान वाला है, जिसके कारण धरती पर पानी का टिकना मोहाल है सो जलवायु खेती के अनुकूल नहीं; परंतु विचित्र तथ्य है कि यही इलाका ठीक नदियों के किनारे की तरह प्राचीन सभ्यता का केंद्र रहा है. आखिर क्यों और कैसे ? यह सवाल दिमागों में उठ सकता है तो इसका श्रेय हम आहर-पइन को देंगे जो न केवल हमारी भारतीय सिंचाई-प्रणाली थी बल्कि इलाके की आवश्यकता के अनुसार उसका निर्माण वजूद में आया था. वह हमारी ज़मीन की बनावट से निकाली गई इंसानी उपलब्धियाँ थीं.
लेख के साथ स्लाइडों द्वारा आहर-पइन के पुराने के चित्रों एवं नए रेखाचित्रों की भी एक श्रृंखला थी, जो विवरण के साथ दिखाई जा रही थी कि इस इलाके में ढलान चूंकि प्रति किलोमीटर एक मीटर पड़ती है, सो उसी बनावट को हमारे पूर्वजों ने इस्तेमाल कर एक या दो मीटर ऊँचे बाँधों के जरिए पोखर बनाए जिन्हें स्थानीय भाषा में आहर कहते हैं. बड़े बाँध के दोनों छोर से दो छोटे बाँध भी निकाले जाते थे जो ऊँचाई की तरफ होते थे. इस तरह से आहर जल तो तीन तरफ से घेरने की व्यवस्था बनाई जाती थी. तालाबों की तरह इनकी तलहटी की खुदाई संभव नहीं थी. यह पोखर कभी-कभी पइनो और स्रोतों के नीचे इस विचार से भी घेरे जाते थे, ताकि इनमें लगातार पानी इन दोनों स्रोतों से भी आकर भरा रहे. यह कितने कारामद होते थे, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि एक लंबे आहर से बड़े आराम से 400 हेक्टेयर से कुछ अधिक ज़मीन की सिंचाई हो जाती थी. तालाबों का यहाँ चलन था नहीं. छोटे आहरों की संख्या कुछ ज़्यादा रही.
इसी तरह पहाड़ी नदियों से खेतों तक पानी पहुँचाने के लिए पइनों का प्रयोग किया जाता था. यह पइन 20-20 किलोमीटर तक लंबे होते थे और प्रशाखों में बंटकर सौ से भी अधिक ज़्यादा गाँवों के खेतों की सिंचाई करते थे. दक्षिण की नदियाँ गर्मी में सूखी और बरसात में उफनती थीं सो उनका बढ़ा पानी बाढ़ की जगह ढाल से वह पइनों एवं आहारों में भर अपनी राह बना लेते था. आज हम विकल्पों की ओर भागते हैं और अपनी व्यवस्था से मुंह मोड़ लेते हैं.
आहर-पइन प्रणाली जातक युग से ही हमारी सिंचाई-व्यवस्था में शामिल रही है. कौटिल्य के अर्थशास्त्र में “आहरोदक सेतु” से सिंचाई-व्यवस्था का जिक्र है. मेगास्थनीज के यात्रा-विवरण में भी बिहार की बंद मुंह वाली नहरों से सिंचाई का उल्लेख मिलता है. हम नए से नए विकल्प ढूंढ़ने के स्थान पर अपनी पुरानी प्रणाली की तरफ ध्यान दें, क्योंकि वह हमारे इलाके की भोगोलिक बनावट के अनुकूल थी, वरना आप सब जानते हैं कि उन आहारों-पइनों से मुख मोड़कर हम कहाँ पहुँचे. इस बार मध्य बिहार में पहली धान की बुआई हुई नहीं. वर्षा भी कम हुई और जब दूसरा धान रोपा भी जाएगा, या फिर चुनाव की गहमागहमी में हम सब भूल जाएँगे और राजस्थान की तरह सूखे और भुखमरी की तरफ बढ़ेंगे!
पहले लेख की समाप्ति पर सवाल करने वाले बेचैन थे, मगर तय यही पाया कि दूसरा लेख भी चूंकि पोखर-नहर प्रणाली की बहाली पर है, इस कारण बेहतर होगा कि सवाल इकट्ठा सामने रखे जाएँ. दूसरा आलेख भी अनेक सूचनाओं से भरा हुआ था. उसमें भी सारा आरोप अपनी स्वयं की व्यवस्था से विमुख हो नित नए प्रयोगों की विफलता पर था. विमलजी का आलेख प्रारंभ हुआ.
“घोषजी ने जहाँ अपनी बात एक ज्वलंत प्रश्न पर समाप्त की है, वहीं से मैं उठाना चाहूँगा. गया जिले की बाढ़ सलाहकार कमेटी ने कई दशक पहले 1949 में अपनी रिपोर्ट में लिखा था. ‘कमेटी की राय है कि जिले में बाढ़ का असली कारण पारंपरिक सिंचाई-प्रणालियों में आई गिरावट है. ज़मीन ढलवाँ है और नदियाँ उत्तर की तरफ कमोबेश समांतर दिशा में बहती हैं. मिट्टी बहुत पानी सोखने लायक नहीं है. अभी तक चलने वाली सिंचाई-व्यवस्था पूरे जिले में शतरंज के मोहरों की तरह बिछी हुई थी और ये पानी के प्रवाह पर रोक-टोक लगाती थीं.’ मेरा अपना विचार है कि बाहर से दिखने में आहर-पइन व्यवस्था भले ही बदरूप और कच्ची लगे, पर यह एकदम मुश्किल प्राकृतिक स्थितियों में पानी की सर्वोतम उपयोग की अद्भुत देसी प्रणाली है.”
तीसरा आलेख कालियाजी का था. उनका समर्थन भी आहर और पइन के लिए था. अपने लेख का आरंभ “एन एकाउंट ऑफ द डिस्ट्रिक ऑफ भागलपुर” लिखने वाले ब्रिटिश पर्यवेक्षक एफ-बुकानन के इस कथन से शुरू किया “आहारों और पइनों में इतना पानी रहता है कि किसान सिर्फ़ धान की फसल ही नहीं लेते, बल्कि सर्दियों में गेहूँ और जौ उगाने के लिए भी उसका प्रयोग कर लेते हैं. पानी को ढेकुली और पनदौरी जैसी कई व्यवस्थाओं से ऊपर लाकर खेतों तक पहुँचाया जाता था.” कलियाजी लेख पढ़ते-पढ़ते रुके और बोले, “यह वही अंग्रेज सज्जन थे जो आहर-पइन प्रणाली को कमखर्च समझने के बावजूद सिंचाई के लिए तलाब को पसंद करते थे. मगर जैसे-जैसे वे भागलपुर से गया की तरफ बढ़े उनकी राय बदलती गई, क्योंकि उन्होंने यथार्थ को अपनी आँखों से जाकर देखा. आहर आम तौर पर गाँव के उत्तर में होते थे. पूरा का पूरा दक्षिण बिहार ही ऐसी ढलानवाला मैदान है. हर गाँव में धनहर और भीत खेत हैं.”
“आहर और पइन का उपयोग सामूहिक रूप से होता था और सभी किसानों को मिल-जुलकर खेती करनी होती थी. आहर-पइन व्यवस्था कितनी उपयोगी और विश्वसनीय थी, इसका पता इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पूरे देश का प्रायः हर इलाका निरंतर अकालों की चपेट में आता रहा, मगर गया जिला इससे अछूता रहा. इस सिंचाई-व्यवस्था में गिरावट के साथ मजबूती भी जाती रही. कहाँ तो उसे अकाल राहत की ज़रूरत 1886-97” में नहीं पड़ी थी और वहाँ 1966 में गया जिले पर भी सूखे व अकाल की मार पड़ी. इस व्यवस्था से बाढ़ के पानी पर भी रोक थी. मगर इधर देखने में आ रहा है कि वह संतुलन भी जाता रहा.
“अब इसी सिलसिले में ज़रा हम अपनी भव्य परियोजनाओं पर दृष्टि डालें. दक्षिण बिहार के ‘सुखाड़ क्षेत्र’ में सिंचाई-सुविधा के नाम पर चल रही है स्वर्ण-रेखा परियोजना. सिंहभूमि जिले में चल रही दो बड़े डैम, दो बराज एवं सात नहरों वाली इस परियोजना में विश्व बैंक आर्थिक मदद कर रहा है. 1977 में इसकी लागत 179 करोड़ रुपए थी. आज उसकी लागत बढ़कर करीब 1285 करोड़ रुपए हो गई है. इस परियोजना की बाबत सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए आँकड़ों एवं गैरसरकारी सर्वेक्षण के अनुसार इससे चांडिल और इंचा के इलाके में करीब 182 गाँवों में पानी भर जाएगा. इनमें से 44 गाँव तो पूर्णतया जलमग्न हो जाएंगे. कुल मिलाकर एक लाख लोग, जिनमें अधिकतर आदिवासी हैं, विस्थापित हो जाएंगे. उन्हें भी बसाने के पहले की तरह के वायदे किए गए. जैसे सरदार सरोवर डैम पैनल निर्माण के समय उनकी ज़मीन लेते हुए वायदे किए थे, मगर वे कहाँ बसेंगे-इसका पता न उजड़ने वालों को होगा न उजाड़ने वालों को. हमारी सरकारें हमारी नहीं, विदेशी हित की बातें सोचती हैं. मेधाजी को विकास-विरोधी बताकर नर्मदा बाँध से डूबने और विस्थापित होने वाले आदिवासियों की कोई चिंता नहीं की जाती इसलिए विदेशी चंगुल से छुटकारे का एक ही रास्ता है कि हम अपने जल, ज़मीन तक सीमित रहें और विकास अपने साधनों से करें, न कि विश्व बैंक से ऋण लेकर एक नई गुलामी स्वीकार करें.”
आलेख की समाप्ति पर कुछ पल खामोशी छाई रही, फिर प्रश्न आमंत्रित किए जाने की घोषणा हुई. प्रश्न तो शायद किसी के मन-मस्तिष्क में नहीं उभर रहे थे, मगर कई अन्य तरह के आक्रोश लोग पाले बैठे थे, सो एक सज्जन आवेश में उठे और बोले, “आप पुरानी सिंचाई-प्रणाली आहर व पइन के छिन-भिन्न होने पर दुखी हैं, मगर मेरे सामने अनेक प्रश्न पानी से भरे पोखरों को लेकर हैं! जैसे, स्वतंत्रता के पूर्व मछली, मखाना जैसी पोखर से पाई जाने वाली वस्तुएं किसी बाजार में खरीद-बिक्री के लिए प्रायः नहीं भेजी जाती थीं. जो पोखर में उपलब्ध होता, उसे गाँव वाले प्रयोग में लाते थे. पोखर हमारे रीति-रिवाज़ों में आज भी मौजूद है. ज़मींदारी प्रथा के उंमूलन के पश्चात बिहार सरकार द्वारा भू-सर्वेक्षण आरंभ कराया गया. सर्वेक्षण में पूर्व का गैरमजरुआ आम पोखर बिहार सरकार के पोखर के रूप में दर्ज किया गया. साथ ही मछली और मखाना का बाजार भी उपलब्ध हो गया. इस काम के लिए तालाब लीज़ पर दिया जाने लगा. गाँव के लिए पोखर के पानी पर पाबंदी लगी और सिंचाई के लिए पानी लेने पर भी रोक लग गई. सिंचाई के पानी लेने से पानी घटेगा, मछलियाँ मरेंगी और तालाब सरकारी लीज़ पर नहीं मिलेगा. आम आदमी का जो भावनात्मक संबंध देख-रेख और उपयोग को लेकर तालाब-पोखर से था, वह निराशा और उदासीनता में बदला. क्या इसमें सरकार और बाजार का बेजा हस्तक्षेप नहीं है, जिसने स्थानीय लोगों से उनका सहज जीवन और उसका प्रवाह छीन लिया?”
उनके बैठते ही दूसरे सज्जन उठे और उन्होंने श्रोताओं के सामने अपनी बात रखी- "संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कवि बाण अपनी कृति कादंबरी (सातवीं शताब्दी) में पोखर-सरोवर खुदवाने को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे. लोक-कल्याण हेतु इस प्रकार के खुदवाए गए जलकोष को चार वर्गों में विभाजित किया गया है- 1.कूप जिसका व्यास 7 फीट से 75 फीट हो सकता है और जिससे पानी डोल-डोरी से निकाला जाए, 2. वापी, छोटा चौकोर पोखर, लंबाई 75 से 150 फीट हो और जिसमें जलस्तर तक पाँव के सहारे पहुँचा जा सके, 3.पुष्करणी, छोटा पोखर, गोलाकार, जिसका व्यास 150 से 300 फीट तक हो, 4.तड़ाग पोखर, चौकोर, जिसकी लंबाई 300 से 450 फीट तक हो. कहने का अर्थ केवल यह है कि हमारे भारतीय समाज में पोखर केवल भौगोलिक मजबूरी नहीं, बल्कि परंपरा रही है. हमारी सोच का हिस्सा रही है. पोखर की चर्चा ऋग्वेद में भी है. जब से गृह्मसूत्र और धर्मसूत्र की रचना-संकलन प्रारंभ हुआ(800 से 300 ई.पू. की अवधि में) तब से इसे धार्मिक मान्यता और संरक्षण प्राप्त है. इन सूत्रों के अनुसार, किसी भी वर्ग या जाति का कोई भी व्यक्ति, पुरूष या स्त्री पोखर खुदवा सकता है और यज्ञ करवाकर समाज के सभी प्राणियों के कल्याण-हेतु उसका उत्सर्ग कर सकता है. आज भी यह काम पुण्य कमाने का समझा जाता है! मगर जो इस तरह के काम करने के लायक हैं वे अब धन इन जन-कल्याणकारी कार्यों में नहीं खर्च करते हैं... ऐसी मानसिकता के समय में मध्य बिहार की पपड़ियाई ज़मीन क्या कुछ नहीं झेल रही है, इसको शब्दों में बयान करना मेरे लिए कठिन है.”
उनकी बात ख़त्म होते ही एक और सज्जन खड़े हुए.
“आपके लिए कठिन होगा, क्योंकि शोर मचाने से भी क्या लाभ? हम अपनी मछलियों के रहते आंध्र की मछली खाते हैं. यहाँ तो हाल यह है कि मुहाने नदी का मुंह बंद कर सुखाड़ की स्थिति पैदा कर गई है. आदमी बैठा है फाल्गू की रेत पर और औरतें बैठी हैं पटना की सड़कों पर. याद होगा कि सिंचाई योजना बनाई गई थी उसको लोहे के शटर से हमेशा के लिए बंद कर दिया गया. उससे जो थोड़ी बहुत सिंचाई होती थी वह भी हाथ से गई. उसके चलते इस्लामपुर के 105 गाँव, एंकगरसराय के 119 गाँव, हिलसा के 133 गाँव, परवलपुर के 136 गाँव, चंडी के 103 गाँव, थरथरी के 139 गाँव, नगरनासा के 104 गाँव, नहरनौसा के 104 गाँव, जहानाबाद-घोसी के 153 गाँव आदी प्रखंडों की लाखों हेक्टेयर भूमि पूरी तरह सूख गई. जब यह शटर बंद नहीं था तो 365 पइन थे. पैंतीस वर्ष से वह योजना यूँ ही बंद पड़ी है. आखिर क्यों? जिस परियोजना के चलते मुहाने नदी बंद की गई, उसका क्या हुआ? हाँ, इससे लाखों किसान प्रभावित हुए और दूसरी ओर, बंद पानी से बाढ़ की स्थिति बन गई. बिहार के बंटवारे के बाद इधर के लोग केवल खेती पर निर्भर होकर रह गई है. वे सब गरीबी रेखा के नीचे वाले लोग हैं. आखिर यह परियोजना कब तक ठप रखी जाएगी ? मुहाने नदी को लेकर 11 अक्तूबर 2002 से संघर्ष चल रहा है. लोग सत्याग्रह पर बैठे हैं. यह कोई दो-चार एकड़ की बात नहीं है. किसी एक जिले की बात भी नहीं है, बल्कि गया, नालंदा, जहानाबाद, पटना जिलों की है, जहाँ भूमि सुखाड़ की चपेट में है और किसान भूखे मर रहे हैं.”
बात समाप्त होते ही कई लोगों ने जोर से मेज़ थपथपाकर अपने आक्रोश का इज़हार किया. संयोजक घड़ी देख रहे थे. तीन बजने वाले थे. लंच का समय तेज़ी से शाम की चाय की ओर बढ़ रहा था. बीच में टोकने का मौका ही नहीं था. एक अजीब तरह की गरमाहट हाल में फैल गई थी. इस बार सज्जन बोलने खड़े हुए उनका चेहरा भावना एवं क्रोध से तमतमाया हुआ था.
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