बिहार के अररिया जिले के औराही हिंगना गांव में 4 मार्च 1921 को जन्मे इस सुप्रसिद्ध साहित्यकार की रचनाओं में ग्रामीण समाज का जितनी बारीकी से और जिस आंचलिक भाषा में चित्रण हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। जैसा कंटेट, बिलकुल वैसी ही भाषा। दोनों एकरूप। गांव की कथा, गांव की भाषा, गांव का परिवेश, गांव के पात्र...पूरा का पूरा देहात जीवंत हो उठता है रेणु की रचनाओं में। उनके उपन्यास या कहानियों को पढ़ना, तब के उत्तर भारतीय गांव की यात्रा करने जैसा है। ऐसी यात्रा जिसका कोई अंत नहीं। यात्रा समाप्त हो चुकने के बाद भी मानसिक यात्रा जारी ही रहती है। इस यात्रा के क्रम में महुआ घटवारिन जैसे कई पात्र हमारे इतने करीब आ जाते हैं कि अक्सर उनकी परछाईं में हम अपनी छाया तलाशते रह जाते हैं।
जिन्होंने रेणु को पढ़ा है, वे महुआ घटवारिन को शायद ही भूल पाएं। उनकी लोकप्रिय कहानी मारे गए गुलफाम में महुआ का प्रसंग आता है। सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र ने इस कहानी पर तीसरी कसम नामक फिल्म बनायी थी, जिसके संवाद खुद रेणु ने लिखे थे। बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में 1966 में बनी यह फिल्म उस समय फ्लॉप हो गयी थी और बताते हैं कि शैलेन्द्र इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सके थे। फिल्म की नाकामयाबी उनकी मौत का कारण बनी। लेकिन आनेवाले समय के लिए यह फिल्म यादगार बन गयी। इसके गाने यादगार बन गए, इसके दृश्य यादगार बन गए, इसके किस्से यादगार बन गए।
बहरहाल, हम बात कर रहे थे महुआ घटवारिन की। कथा में बैलगाड़ीवान हीरामन नौटंकी वाली हीराबाई को रास्ते में उसके बारे में बताता है, ‘’इसी मुलुक की थी महुआ। थी तो घटवारिन, लेकिन सौ सतवंती में एक थी। उसका बाप दारू-ताड़ी पीकर दिन-रात बेहोश पड़ा रहता। उसकी सौतेली मां साच्छात राकसनी। बहुत बड़ी नजर-चालक। रात में गांजा-दारू-अफीम चुराकर बेचनेवाले से लेकर तरह-तरह के लोगों से उसकी जान-पहचान थी। सबसे घुट्टा-भर हेल-मेल। महुआ कुमारी थी। लेकिन काम कराते-कराते उसकी हड्डी निकाल दी थी राकसनी ने। जवान हो गई, कहीं शादी-ब्याह की बात भी नहीं चलाई।‘’ एक रात सौतेली मां महुआ को सौदागर के हाथ बेच देती है। सावन-भादो की उमड़ी हुई नदी, भयावनी रात, आकाश में बिजली की कड़कड़ाहट.. लेकिन सौतेली मां को बारी-क्वारी नन्ही बच्ची पर तनिक भी दया नहीं आती। वह किवाड़ बंद कर लेती है और महुआ को छोड़ देती है अकेली घाट पर जाने के लिए। आसमान में मेघ हड़बड़ा उठते हैं और हरहराकर बरखा होने लगती है। महुआ रोने लगती है अपनी मां को याद करके। आज उसकी मां होती तो ऐसे दुर्दिन में कलेजे से सटाकर रखती अपनी महुआ बेटी को। महुआ को मां पर गुस्सा भी आता है, यही दिन दिखाने के लिए कोख में रखा था.. जनमते ही नमक चटाकर मार क्यों नहीं डाला था :
''हूं-ऊं-ऊं-रे डाइनियां मैयो मोरी-ई-ई,
नोनवा चटाई काहे नाही मारलि सौरी-घर-अ-अ।
एहि दिनवाँ खातिर छिनरो धिया
तेंहु पोसलि कि तेनू-दूध उगटन।‘’
तीसरी कसम फिल्म में भी महुआ घटवारिन की कथा बहुत सुंदर व मार्मिक तरीके से सुनायी गयी है। वैसे तो इस फिल्म का हर गाना बेजोड़ है, लेकिन यह गीत मन को अंदर तक बेध डालता है :