की-पैड की एक क्लीक पर मौजूद होगा आपकी जिंदगी का नक्शा। आपके डॉक्टर को एक मिनट में पता चल जाएगा आपका मर्ज, और पल भर में वो आपको बता देंगे कि भविष्य में आपको क्या बीमारी हो सकती है। जो बीमारी आपको बीस साल बाद होने वाली है उसके लिए अभी से तैयार होगी दवा। जी नहीं ये कोई चमत्कार नहीं, ये विज्ञान है। भारत उन चुनिंदा देशों में शामिल हो गया है जिन्होनें मानव जीनोम को डीकोड कर लिया है। और अब वो दिन दूर नहीं जब जीनोम का नक्शा आपकी बीमारी के जंजाल को कम कर देगा।
शरीर का सारा राज जीन में छुपा है। जीन के भंडार को जीनोम कहते हैं। जैसे पानी का एक अणु हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को मिलाकर बनता है। उसका फॉर्मूला होता है एचटूओ। ठीक वैसे ही हमारा जीनोम 31 लाख अलग अलग फॉर्मूलों से बना है। सोचिए आपके शरीर में एक साथ 31 लाख अलग अलग फॉर्मूले। इन्हीं फॉर्मूलों में छुपा है सारा राज।
दुनिया के कई विकसित देशो ने ये राज समझा। लेकिन अब भारत भी छठां ऐसा देश बन चुका है जिसके पास है पूरे इंसानी जीनोम का नक्शा। यानि पूरे 31 लाख फॉर्मूले की जानकारी।
दरअसल वैज्ञानिकों ने अपना प्रयोग शुरू किया झारखंड के 52 साल के एक शख्स पर। वक्त बीतता रहा और इस शख्स के शरीर के सारे राज खुलते गए। जैसे ही सारे राज खुले एक दुखद सच सामने आया। वैज्ञानिकों के मुताबिक इस इंसान के जीनोम को डीकोड करने पर ये पता चला कि इसे कैंसर होने का खतरा है।
वैज्ञानिकों ने इस इंसान का भविष्य बता दिया। ये बता दिया कि आने वाले दिनों में इस शख्स को कैंसर होने वाला है। यकीन मानिए ये कोई चमत्कार नहीं था। सबकुछ वैज्ञानिक तथ्य पर आधारित था। इस शख्स के जीनोम ऐसी भविष्यवाणी कर रहे थे। साफ है किसी भी इंसान के जीनोम को डिकोड करके उसे ये बताया जा सकता है कि आने वाले दिनों में वो किस तरह की बीमारी का शिकार होगा। सोचिए जब मर्ज पहले से ही पता हो तो इलाज कितना आसान हो जाएगा। पहले से ही उस खास शख्स के लिए दवाई भी तैयार करके रखी जा सकती है।
दरअसल मानव जीनोम प्रोजेक्ट चिकित्सा विज्ञान में क्रांति ला सकता है। अगर हर नागरिक के जीन्स की मैपिंग कर ली गई तो डॉक्टरों के पास अपने मरीज़ों का पूरा डेटाबेस होगा। फोन करने के बाद आप डॉक्टर के पास पहुंचें उससे पहले ही डॉक्टर आपकी मर्ज की पहचान कर चुका होगा।
मालूम हो कि भारतीय वैज्ञानिकों ने ये करिश्मा सिर्फ साढ़े 13 लाख की खर्च पर 9 हफ्तों में कर दिखाया है। जबकि पहला ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट पूरा करने में 6 देशों को हज़ारों करोड़ों रुपए खर्च करने पड़े थे और प्रोजेक्ट पूरा होने में 13 साल का वक्त लगा था। वैसे भारतीय वैज्ञानिकों ने पिछले साल पूरे देश का जीन प्रोफाइल तैयार करने का प्रोजेक्ट भी पूरा कर लिया है। ये प्रोफाइल भी हैरान करने वाली है। अगर आप कश्मीर के रहने वाले है तो आपको बाकी देशवासियों के मुकाबले एचआईवी एड्स होने का खतरा कम है।
जीन का कमाल ये है कि उसने उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के लोगों को मलेरिया से लड़ने की क्षमता दे दी है। यानि उनका शरीर इस बीमारी से बेहतर तरीके से लड़ सकता है।
भारतीय वैज्ञानिकों ने न सिर्फ एक इंसान के जीनोम का पूरा खाका तैयार कर लिया बल्कि उन्होंने पूरे देश का जीन प्रोफाइल भी तैयार कर लिया है। जानते हैं इससे फाय़दा क्या होगा। हम आसानी से ये जान लेगें कि आखिर किस इलाके के लोगों पर कौन सी बीमारी से कितना खतरा है। कौन सी बीमारी उन्हें जल्द हो सकती है। जाहिर है अलग अलग इलाकों के लोगों के लिए एक ही दवाई कारगर नहीं हो सकती है। हो सकता है जो दवाई जम्मू कश्मीर के लोगों पर असर कर रही हो वो दवाई राजस्थान के लोगों पर बेअसर साबित हो। वैज्ञानिकों के मुताबिक वो अब ये भी जानते हैं कि अस्थमा की एक दवा राजस्थान के लोगों पर कम असर करती है। लेकिन तमिलनाडू के लोगों पर इसका खासा असर होता है।
देश भर का जीन मैप तैयार करने के लिए वैज्ञानिकों ने देश को भाषा के आधार पर चार भागों में बांटा। नीला- यानी यूरोपीय भारतीय जिन्हे आर्य भी कहते हैं। भूरा- यानी द्रवि़ड़, हरा- यानी आस्ट्रेलेशियाई और पीला- यानी तिब्बती बर्मन। इस आधार पर शोध के लिए देश भर के अलग अलग 55 जनसंख्या समुदायों को चुना गया। वैज्ञानिकों ने सभी जनसंख्याओं की जीनों को पढ़ा, परखा और उनके राज खोल कर रख दिए।
वैज्ञानिकों के मुताबिक जेनेटिक मैप का इस्तेमाल सरकारी योजनाओं को असरदार तरीके से लागू करने के लिए भी किया जा सकता है। सरकार के पास पहले से ये जानकारी होगी कि किन योजनाओं का फायदा किन इलाकों के लोगों को होगा। विज्ञान के चमत्कार को अभिशाप बनते देर नहीं लगती। यही वजह है कि जीनोम प्रोजेक्ट पर कई सवाल खड़े होते रहे हैं। सवाल ये कि कहीं इंसान भगवान बनने की कोशिश तो नहीं कर रहा। क्या प्रकृति के साथ छेड़छाड़ मानवता के लिए खतरा तो पैदा नहीं कर रही। जेनेटिक मैपिंग के तमाम फायदों के बावजूद जेनेटिक हैकिंग और जेनेटिक क्राइम के खतरों को भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता।
क्रेग वेंटर जो कि सेलेरा जीनोमिक्स कंपनी के मालिक हैं। इससे पहले वो अमेरिका के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑप हेल्थ के वैज्ञानिक रह चुके हैं। 1998 में क्रेग वेंटर ने अपने प्राइवेट लैब में जीन सीक्वेंसिंग शुरू की। वो हर हाल में सरकारी संस्थाओं से पहले मानव जीनोम का राज़ जानना चाहता था।
प्रोजेक्ट पूरा होते ही क्रेग वेंटर ने मानव जीनोम की प्रापर्टीज को पटेंट करवाने के लिए आवेदन दिया। इसका मतलब ये था कि क्रेग मानव जीनोम पर एकाधिकार हासिल करना चाहता था। इसको लेकर अमेरिका में बवाल मच गया। और महीनों के हंगामें के बाद आखिरकार तत्कालिक अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को संसद में ये बयान देना पड़ा कि मानव जीनोम को पेटेंट नहीं करवाया जा सकता।
कई बार ये सवाल खड़े हो चुके हैं कि जेनेटिक इंजीनियरिंग प्रकृति के साथ छेड़छाड़ है और इसकी इजाज़त नहीं दी जानी चाहिए। सवाल ये है कि विज्ञान के नाम पर कहीं हम भगवान बनने की कोशिश तो नहीं कर रहे। जेनेटिक मैपिंग का इस्तेमाल डिज़ाईनर बेबी पैदा करने के लिए भी किया जा सकता है। यानी हम ऐसे बच्चे पैदा करने की कोशिश में जुट जाएं जिसमें कोई कमी न हो। ये लालच खतरनाक प्रतिस्पर्धा को जन्म दे सकता है। यही वजह है कि भारत में भी पहले जेनेटिक मैपिंग की खबर ने धार्मिक नेताओं के बीच बहस छेड़ दी है।
वहीं कई विशेषज्ञ ये भी मानते हैं कि 21 वीं सदी विज्ञान के साथ साथ हाईटेक क्राइम की भी सदी है। ऐसे में किसी भी टेक्नॉलजी के आतंकवादियों तक पहुंचने में देर नहीं लगती। इसलिए हमें ह्यूमन जीनोम के मामले में बेहद सतर्क रहना चाहिए। अगर इस विज्ञान का तोड़ आतंकवादियों ने निकाल लिया तो पूरी मानवता के लिए खतरा पैदा हो जाएगा।
(आलेख आईबीएन खबर और ग्राफिक्स जोश 18 से साभार)
Thursday, December 10, 2009
Monday, December 7, 2009
अंतरिक्ष के जौ की ‘स्पेस बीयर’, जापान में मची धूम, सिर्फ खुशकिस्मतों को मिलेगी
शराब के शौकीन लोगों के लिए यकीनन यह एक रोचक खबर है। वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष में जौ उपजाकर बीयर तैयार की है और इसका नाम 'स्पेस बार्ली' रखा है। जापान में इन दिनों इसकी धूम मची है, और अंतरिक्ष में उपजाए गए जौ से बने होने के कारण इसे ‘स्पेस बीयर’ कहा जा रहा है।
गौरतलब है कि इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (आईएसएस) पर रूसी लैबोरेटरी में पहली बार जौ उपजाया गया है। पांच माह तक चले इस मिशन में रशियन एकेडेमी ऑफ साइंस, जापान की ओकायामा यूनिवर्सिटी और शराब तैयार करने वाली कंपनी सपोरो बेवरीज शामिल रहे। बताते चलें कि अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में जौ गेहूं, चना, मटर आदि जैसी खाद्य फसलों को उपजाने की एक योजना के तहत जौ उपजाया गया। योजना के तहत भविष्य में अंतरिक्ष में आलू की खेती भी की जा सकती है।
सपोरो ब्रेवरीज लिमिटेड के अधिकारियों ने सोमवार को बताया कि 'स्पेस बीयर' के 250 बोतलों के स्पेशल एडिशन की जबर्दस्त मांग है। कंपनी का कहना है कि यह बीयर उस जौ से बनेगा, जिसका बीज अंतरिक्ष के स्पेस स्टेशन की रूसी प्रयोगशाला में पांच महीने तक रहा।
कंपनी के प्रवक्ता यूकी हत्तोरी ने कहा कि हमें कल तक 2000 लोगों से आर्डर मिल गए थे। इसके दाम को देखते हुए हमें लगता है लोगों की इस बीयर में बेहद रूचि है। स्पेस बीयर के एक बोतल की कीमत 20 डालर के लगभग है।
सपोरो ब्रेवरीज लिमिटेड ने कहा कि इस बीयर का आर्डर वह क्रिसमस तक लेगी और फिर लकी ड्रा के द्वारा खुशकिस्मत विजेता और ग्राहकों का चयन किया जाएगा। बीयर की बिक्री से मिले पैसों को शोधकार्यो के लिए दान दे दिया जाएगा।
गौरतलब है कि इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (आईएसएस) पर रूसी लैबोरेटरी में पहली बार जौ उपजाया गया है। पांच माह तक चले इस मिशन में रशियन एकेडेमी ऑफ साइंस, जापान की ओकायामा यूनिवर्सिटी और शराब तैयार करने वाली कंपनी सपोरो बेवरीज शामिल रहे। बताते चलें कि अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में जौ गेहूं, चना, मटर आदि जैसी खाद्य फसलों को उपजाने की एक योजना के तहत जौ उपजाया गया। योजना के तहत भविष्य में अंतरिक्ष में आलू की खेती भी की जा सकती है।
सपोरो ब्रेवरीज लिमिटेड के अधिकारियों ने सोमवार को बताया कि 'स्पेस बीयर' के 250 बोतलों के स्पेशल एडिशन की जबर्दस्त मांग है। कंपनी का कहना है कि यह बीयर उस जौ से बनेगा, जिसका बीज अंतरिक्ष के स्पेस स्टेशन की रूसी प्रयोगशाला में पांच महीने तक रहा।
कंपनी के प्रवक्ता यूकी हत्तोरी ने कहा कि हमें कल तक 2000 लोगों से आर्डर मिल गए थे। इसके दाम को देखते हुए हमें लगता है लोगों की इस बीयर में बेहद रूचि है। स्पेस बीयर के एक बोतल की कीमत 20 डालर के लगभग है।
सपोरो ब्रेवरीज लिमिटेड ने कहा कि इस बीयर का आर्डर वह क्रिसमस तक लेगी और फिर लकी ड्रा के द्वारा खुशकिस्मत विजेता और ग्राहकों का चयन किया जाएगा। बीयर की बिक्री से मिले पैसों को शोधकार्यो के लिए दान दे दिया जाएगा।
Sunday, December 6, 2009
आलू-टमाटर मांसाहारी, खान-पान पर संकट भारी
निकट भविष्य में आचार-विचार के पुराने मानदंडों से काम नहीं चलनेवाला। आनेवाले वर्षों में शाकाहार-मांसाहार के बीच की रेखा भी उतनी स्पष्ट नहीं रहेगी, जितनी अब तक रहते आयी है। यह बात प्रयोगशाला में कृत्रिम मांस से संबंधित पिछले आलेख में कही गयी थी। उन शब्दों के लिखे जाने के एक सप्ताह के अंदर ही यह खबर दुनिया भर में सुर्खियों में रही है कि ब्रिटिश वनस्पति विज्ञानियों ने नए शोध में यह निष्कर्ष निकाला है कि आलू व टमाटर मांसाहारी हैं, क्योंकि ये पौधे कीड़ों को मारकर अपने लिए खाद बनाते हैं।
रॉयल बॉटेनिकल गार्डन, कियू और लंदन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने बताया है कि दोनों सब्जियों के पौधों के तनों में मौजूद बालों में एक चिपचिपा पदार्थ बहता रहता है। यह पदार्थ आसपास उड़ने वाले कीट-पतंगों को तने से चिपका देता है। कुछ दिन बाद कीटों के बेजान शरीर सूखकर जमीन में गिर जाते हैं। तब पौधों की जड़ें कीटों के शरीर के पोषक तत्वों को सोख लेती हैं। शोधकर्ता मार्क चेज ने बताया, ‘टमाटर और आलू की फसल कटने के बाद भी पौधों में बाल साफ नजर आते हैं। ये नियमित तौर पर कीड़ों को पकड़कर मार देते हैं।’
जीव विज्ञान के पितामह चार्ल्स डार्विन की दूसरी जन्म शताब्दी मना रहे वैज्ञानिक नए-नए शोध कर रहे हैं। इसी क्रम में ये नतीजे भी सामने आए हैं। इस शोध से जुड़े डा. माइक फे के अनुसार अब तक हम मानते थे कि पेड़-पौधों की करीब 650 प्रजातियां मांसाहारी हैं, जो कीट-पतंगों और जीवों का रक्त चूस कर पोषण पाती हैं लेकिन इस श्रेणी में 325 और पेड़-पौधे जुड़ गए हैं।
नए शोध में जिन पौधों को मांसाहारी बताया गया है, उनमें आलू और टमाटर के साथ तंबाकू भी शामिल है। हालांकि ये मुख्य रूप से कीट-पतंगों पर निर्भर नहीं होते, लेकिन पोषण पाने के लिए इनका शिकार करते हैं।
इससे पहले यह माना जाता था कि बंजर स्थानों व जंगलों में पाए जाने वाले पौधे ही पोषक तत्वों की प्रतिपूर्ति के लिए कीड़ों को मारते हैं। लेकिन नए शोध से ज्ञात हुआ है कि घरेलू किचन गार्डन में लगे पौधों में भी यह हिंसक आचरण मौजूद रहा है।
रॉयल बॉटेनिकल गार्डन, कियू और लंदन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने बताया है कि दोनों सब्जियों के पौधों के तनों में मौजूद बालों में एक चिपचिपा पदार्थ बहता रहता है। यह पदार्थ आसपास उड़ने वाले कीट-पतंगों को तने से चिपका देता है। कुछ दिन बाद कीटों के बेजान शरीर सूखकर जमीन में गिर जाते हैं। तब पौधों की जड़ें कीटों के शरीर के पोषक तत्वों को सोख लेती हैं। शोधकर्ता मार्क चेज ने बताया, ‘टमाटर और आलू की फसल कटने के बाद भी पौधों में बाल साफ नजर आते हैं। ये नियमित तौर पर कीड़ों को पकड़कर मार देते हैं।’
जीव विज्ञान के पितामह चार्ल्स डार्विन की दूसरी जन्म शताब्दी मना रहे वैज्ञानिक नए-नए शोध कर रहे हैं। इसी क्रम में ये नतीजे भी सामने आए हैं। इस शोध से जुड़े डा. माइक फे के अनुसार अब तक हम मानते थे कि पेड़-पौधों की करीब 650 प्रजातियां मांसाहारी हैं, जो कीट-पतंगों और जीवों का रक्त चूस कर पोषण पाती हैं लेकिन इस श्रेणी में 325 और पेड़-पौधे जुड़ गए हैं।
नए शोध में जिन पौधों को मांसाहारी बताया गया है, उनमें आलू और टमाटर के साथ तंबाकू भी शामिल है। हालांकि ये मुख्य रूप से कीट-पतंगों पर निर्भर नहीं होते, लेकिन पोषण पाने के लिए इनका शिकार करते हैं।
इससे पहले यह माना जाता था कि बंजर स्थानों व जंगलों में पाए जाने वाले पौधे ही पोषक तत्वों की प्रतिपूर्ति के लिए कीड़ों को मारते हैं। लेकिन नए शोध से ज्ञात हुआ है कि घरेलू किचन गार्डन में लगे पौधों में भी यह हिंसक आचरण मौजूद रहा है।
Friday, December 4, 2009
सिकंदर व ह्वेनसांग ने गर्मियों में चखा... लेकिन आप सर्दियों में भी ले सकेंगे स्वाद !
आम यानी मेग्नीफेरा इंडिका का रसदार फल। फलों का राजा। भारत का राष्ट्रीय फल। महाकवि कालीदास ने इसकी प्रशंसा में गीत लिखे। यूनान के प्रतापी शासक सिकंदर व चीनी धर्मयात्री ह्वेनसांग जैसों ने इसका स्वाद चखा। मुगल बादशाह अकबर ने दरभंगा में इसके एक लाख पौधे लगाए, जिसे अब लाखी बाग के नाम से जाना जाता है। हाल-फिलहाल की खबर यह है कि ग्रीष्म ऋतु के इस फल का स्वाद अब सर्दियों में भी लिया जा सकेगा। पश्चिम बंगाल के किसान अब आम की ऐसी किस्मों को लगा रहे हैं, जिनमें जाड़े में भी फल लगेंगे।
आम की उपज के लिए विख्यात मालदा जिले के अधिकारियों के हवाले से दी गयी खबर में बताया गया है कि प. बंगाल के हूगली जिले के आदिसप्तग्राम व बंदेल के किसानों ने पिछली सर्दियों में अच्छी उपज प्राप्त की थी। उसके बाद अब मालदा जिले में भी बारामासिया, दोफला, तोफला, वस्तारा व चाइना वस्तारा आदि जैसी किस्मों को बढ़ावा दिया जा रहा है। आम की इन किस्मों में जून-जुलाई में मंजर लगते हैं और सर्दियों में फल पक कर तैयार हो जाते हैं। अधिकारियों के मुताबिक इन प्रभेदों में किसान खासी दिलचस्पी दिखा रहे हैं। प्रशासन द्वारा इनके मुफ्त पौधे भी कुछ नर्सरियों में उपलब्ध कराए जा रहे हैं।
संस्कृतियों के प्रतीक हैं फल
कुछ लोगों का कहना है कि फल भी अलग-अलग संस्कृतियों के प्रतीक हैं। सभी फलों का अपना-अपना सामाजिक व सांस्कृतिक संदर्भ है। पश्चिमी देशों में सेब, अरब जगत में अंगूर और भारतीय उपमाहद्वीप में आम – ये सभी अलग-अलग संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सेब को आदम के जन्नत से निकाले जाने से जोड़ कर देखा जाता है और बहुधा इसे काम का प्रतीक माना जाता है। अंगूर उमर खय्याम की नज्मों में ढल कर अब औरत, शराब और गीत की निशानी माना जाने लगा है। जबकि आम को समृद्धि, सौभाग्य व वैभव का प्रतीक माना जाता है और शायद इसीलिए फलों का राजा भी कहा जाता है।
आम का तो कहना ही क्या
भारत में ग्रीष्म ऋतु का आगमन होने के साथ ही आम का इंतजार आरंभ हो जाता है। भारत का सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन आम के बिना अधूरा है। आम की टहनी, पल्लव और फल के बिना भारत के पारंपरिक अनुष्ठान पूर्ण नहीं हो सकते। इसीलिए भारत के गांवों में आम से जुड़े अनेक लोगगीत भी गाए जाते हैं। आम का फल अपने सभी रूपों में लोगों को काफी भाता है। चाहे टिकोरा हो, कच्चा आम हो या पका फल, सभी का अलग-अलग स्वाद है। आम का इस्तेमाल पना व गुरमा बनाने में, अचार में, मुरब्बे में और जैम बनाने में किया जाता है। अमचूर यानी आम की खटाई का चटपटापन तो कोई भूल ही नहीं सकता। गांवों में बच्चे आम के अमोला का बाजा बनाकर मुंह से बजाते हैं।
भारत में विभिन्न आकारों, मापों और रंगों के आम की 100 से अधिक किस्में पायी जाती हैं। आम की मुख्य किस्मों में लंगड़ा, दशहरी, मलदहिया, अलफांसो और चौसा तो सब जानते ही हैं, कई नवाबों और राजाओं के नामों पर भी इसका नामकरण हुआ। मसलन कृष्ण भोग, शम्सुल अस्मर, ख़ासा, प्रिंस, तैमूर लंग, आबे हयात, इमामुद्दीन ख़ान आदि।
उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र का सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह फल भारत में अनंत काल से उगाया जाता रहा है। पका आम बहुत स्वास्थ्यवर्धक, पोषक, शक्तिवर्धक और चरबी बढ़ाने वाला होता है। आम का मुख्य घटक शर्करा है, जो विभिन्न फलों में 11 से 20 प्रतिशत तक विद्यमान रहती है। आम विटामिन ए, सी तथा डी का एक समृद्ध स्रोत है।
आम की उपज के लिए विख्यात मालदा जिले के अधिकारियों के हवाले से दी गयी खबर में बताया गया है कि प. बंगाल के हूगली जिले के आदिसप्तग्राम व बंदेल के किसानों ने पिछली सर्दियों में अच्छी उपज प्राप्त की थी। उसके बाद अब मालदा जिले में भी बारामासिया, दोफला, तोफला, वस्तारा व चाइना वस्तारा आदि जैसी किस्मों को बढ़ावा दिया जा रहा है। आम की इन किस्मों में जून-जुलाई में मंजर लगते हैं और सर्दियों में फल पक कर तैयार हो जाते हैं। अधिकारियों के मुताबिक इन प्रभेदों में किसान खासी दिलचस्पी दिखा रहे हैं। प्रशासन द्वारा इनके मुफ्त पौधे भी कुछ नर्सरियों में उपलब्ध कराए जा रहे हैं।
संस्कृतियों के प्रतीक हैं फल
कुछ लोगों का कहना है कि फल भी अलग-अलग संस्कृतियों के प्रतीक हैं। सभी फलों का अपना-अपना सामाजिक व सांस्कृतिक संदर्भ है। पश्चिमी देशों में सेब, अरब जगत में अंगूर और भारतीय उपमाहद्वीप में आम – ये सभी अलग-अलग संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सेब को आदम के जन्नत से निकाले जाने से जोड़ कर देखा जाता है और बहुधा इसे काम का प्रतीक माना जाता है। अंगूर उमर खय्याम की नज्मों में ढल कर अब औरत, शराब और गीत की निशानी माना जाने लगा है। जबकि आम को समृद्धि, सौभाग्य व वैभव का प्रतीक माना जाता है और शायद इसीलिए फलों का राजा भी कहा जाता है।
आम का तो कहना ही क्या
भारत में ग्रीष्म ऋतु का आगमन होने के साथ ही आम का इंतजार आरंभ हो जाता है। भारत का सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन आम के बिना अधूरा है। आम की टहनी, पल्लव और फल के बिना भारत के पारंपरिक अनुष्ठान पूर्ण नहीं हो सकते। इसीलिए भारत के गांवों में आम से जुड़े अनेक लोगगीत भी गाए जाते हैं। आम का फल अपने सभी रूपों में लोगों को काफी भाता है। चाहे टिकोरा हो, कच्चा आम हो या पका फल, सभी का अलग-अलग स्वाद है। आम का इस्तेमाल पना व गुरमा बनाने में, अचार में, मुरब्बे में और जैम बनाने में किया जाता है। अमचूर यानी आम की खटाई का चटपटापन तो कोई भूल ही नहीं सकता। गांवों में बच्चे आम के अमोला का बाजा बनाकर मुंह से बजाते हैं।
भारत में विभिन्न आकारों, मापों और रंगों के आम की 100 से अधिक किस्में पायी जाती हैं। आम की मुख्य किस्मों में लंगड़ा, दशहरी, मलदहिया, अलफांसो और चौसा तो सब जानते ही हैं, कई नवाबों और राजाओं के नामों पर भी इसका नामकरण हुआ। मसलन कृष्ण भोग, शम्सुल अस्मर, ख़ासा, प्रिंस, तैमूर लंग, आबे हयात, इमामुद्दीन ख़ान आदि।
उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र का सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह फल भारत में अनंत काल से उगाया जाता रहा है। पका आम बहुत स्वास्थ्यवर्धक, पोषक, शक्तिवर्धक और चरबी बढ़ाने वाला होता है। आम का मुख्य घटक शर्करा है, जो विभिन्न फलों में 11 से 20 प्रतिशत तक विद्यमान रहती है। आम विटामिन ए, सी तथा डी का एक समृद्ध स्रोत है।
Thursday, December 3, 2009
भोपाल गैस हादसा : कुछ शब्द, कुछ चित्र
2-3 दिसंबर 1984 की काली रात को हुआ भोपाल गैस कांड एक ऐसा सबक है, जिसे हमें हमेशा याद रखना चाहिए। इसलिए नहीं कि यह विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना है, बल्कि यह न भूलने के लिए कि विकास के पहिए पर मुनाफे की भूख हावी हुई तो विनाश के सिवाय कुछ भी हासिल नहीं होगा। यह सबक यह न भूलने के लिए भी याद रखना जरूरी है कि भारत की सरकार इस लायक नहीं है कि देशवासी अपने जीवन और स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए उस पर भरोसा कर सकें। घटना की 25-वीं बरसी पर जब देश भर में उस भयानक मंजर को याद किया जा रहा है, हरेक चित्र और हरेक शब्द दिल दहलानेवाले हैं। उनमें से हम कुछेक को यहां सहेजने की कोशिश कर रहे हैं ताकि हमारी संवेदनाएं जिंदा रहें...
क्या हुआ था उस रात भोपाल में
25 साल पहले 2 और 3 दिसम्बर की रात। दिन भर की थकान के बाद भोपाल शहर सोया हुआ है। आधी रात के बाद शहर से 5 किलोमीटर दूर अमेरिका की यूनियन कार्बाइड कंपनी के प्लांट का स्टोरेज टैंक दबाव को नहीं झेल पाता और फट जाता है।
प्लांट से ज़हरीली गैस का रिसाव शुरू होता है। मिथाइल आइसोसायनाएट गैस फैक्ट्री से होते हुए 9 लाख की आबादी वाले भोपाल शहर पर अपना कहर बरपाना शुरू करती है। सैकडों लोग तो सीधे नींद के आगोश से मौत के आगोश में समा जाते हैं। लोग हड़बड़ा कर नींद से उठते हैं तो उन्हें सांस लेने में दिक्कत और आंखों में जलन महसूस होने लगती है।
पूरे शहर में हड़कंप मच जाता है लोग सुरक्षित स्थान और साफ़ हवा की तलाश में भागने लगते हैं। लेकिन जहरीली गैस के फैलने की रफ्तार ज्यादा तेज साबित होती है। इंसान ही नहीं बल्कि परिंदे और जानवर भी काल का ग्रास बन जाते हैं।
सुबह होने पर इस हादसे की भीषणता का एहसास होता है जब कई स्थानों पर लोगों की लाशें बिखरी नजर आती हैं। शहर के मुर्दाघर भर जाते हैं पर लाशों की संख्या बढ़ती चली जाती है। भोपाल के अस्पताल भी इतने बड़े पैमाने पर हुए इस हादसे से निपटने को तैयार नहीं दिखते।
गैस के रिसाव के कुछ ही घंटों के भीतर 3,500 लोगों की मौत हो गई थी। इसके बाद के हफ़्तों में मृतकों का आंकड़ा बढ़ कर 15 हज़ार से ज्यादा हो गया। हालांकि कई ग़ैर सरकारी संगठन इस त्रासदी में मारे गए लोगों की संख्या 25 हजार से ज्यादा बताते हैं।
भोपाल गैस त्रासदी को अब तक की सबसे बुरी औद्योगिक दुर्घटनाओं में माना जाता है। माना जाता है कि 5 लाख से ज्यादा लोगों पर इस हादसे के स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभाव पड़े और हादसे के सालों बाद पैदा हुए बच्चे कई बीमारियों से ग्रस्त नज़र आते हैं। यूनियन कार्बाइड प्लांट से 30 से 40 टन के बीच जहरीली गैस का रिसाव हुआ था।
भोपाल गैस त्रासदी से सबसे ज्यादा प्रभावित ग़रीब परिवारों के लोग थे जो झुग्गियों में रहते थे। इस हादसे में जिंदा बचे लोग तो उस रात को शायद कभी नहीं भूल पाएंगे लेकिन हादसे के बाद पैदा हुई पीढ़ी भी उस रात को याद कर सिहर उठती है।
तस्वीर जो हादसे की प्रतीक बन गयी
विख्यात फोटोग्राफर रघु राय की खिंची यह तस्वीर आपके आंखों के सामने से जरूर गुजरी होगी। यह तस्वीर भोपाल गैस त्रासदी की एक तरह से प्रतीक बन गयी। भोले-से चेहरे और खुली आंखों वाले इस बच्चे की तस्वीर उन्होंने तब ली थी जब उसके शव पर मिट्टी डाली जा रही थी। यदि यह बच्च जिंदा होता तो आज 30 साल का सुंदर नौजवान होता। हादसे में इसी तरह अनगिनत मासूम जानें गयी थीं। यदि आपके अंदर साहस हो तो उस विभीषिका को बयां करनेवाली कुछ और तस्वीरें यहां यहां देख सकते हैं।
ऐश कर रहा कसूरवार, निर्दोष आज भी मर रहे
भोपाल की त्रासदी आज भी थमी नहीं है। उस समय सौभाग्य से शरीर में कम गैस जाने के कारण जो बचे रह गए थे, वे आज तिल-तिल कर मरने का दुर्भाग्य झेल रहे हैं। जहरीली गैस से उनके हृदय व फेफड़े क्षतिग्रस्त हो गए, जिसके लिए आज तक न तो यूनियन कार्बाइड ने दवा बतायी और न ही भारत सरकार ने शोध करके गैस पीडि़तों को राहत पहुंचाने के लिए कोई काम किया। इतनी बड़ी त्रासदी के कसूरवार को कोई सजा तक नहीं हुई। यूनियन कार्बाइड कंपनी के प्रमुख वॉरेन एंडरसन को इस हादसे के तत्काल बाद गिरफ़्तार कर लिया गया था लेकिन तुरंत जमानत भी दे दिया गया और उसके बाद ही एंडरसन ने देश छोड़ दिया और तब से वह कानून की पहुंच से दूर अमेरिका में ऐशो-आराम की जिंदगी गुजार रहे हैं। एंडरसन पर आरोप है कि उन्होंने ख़र्च में कटौती के लिए सुरक्षा मानकों के साथ समझौता किया। एंडरसन पर लोगों की मौत का ज़िम्मेदार होने का भी आरोप है। अब यूनियन कार्बाइड को एक दूसरी अमरीकी कम्पनी डाऊ केमिकल्स खरीद चुकी है और वह पूरे मामले से पल्ला झाड़ रही है।
किसी को तो सजा मिले, सो फरियादी ही चढ़ा फांसी
अंधेर नगरी में किसी को तो सजा काटनी है, सो पीडि़तों की लड़ाई लड़ रहा एक पीडि़त खुद चढ़ गया फांसी। भोपाल गैस त्रासदी का दंश झेल चुके और पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करने वाले 34 वर्षीय सुनील कुमार की लाश भोपाल में उनके घर में पंखे से लटकी हुई मिली। उस समय उन्होंने अपना पसंदीदा टी-शर्ट पहना था, जिस पर लिखा था, ‘और भोपाल नहीं।’ सुनील ने जहां फांसी लगाई, वहां एक नोट भी मिला, जिसमें लिखा था, ‘मैं मानसिक बीमारी के कारण खु़दकुशी नहीं कर रहा हूं, बल्कि पूरे होशोहवास में ऐसा कर रहा हूं।‘
(सूचनाओं व चित्रों के स्रोत : बीबीसी हिन्दी, डॉयचवेले, ग्रीनपीस)
क्या हुआ था उस रात भोपाल में
25 साल पहले 2 और 3 दिसम्बर की रात। दिन भर की थकान के बाद भोपाल शहर सोया हुआ है। आधी रात के बाद शहर से 5 किलोमीटर दूर अमेरिका की यूनियन कार्बाइड कंपनी के प्लांट का स्टोरेज टैंक दबाव को नहीं झेल पाता और फट जाता है।
प्लांट से ज़हरीली गैस का रिसाव शुरू होता है। मिथाइल आइसोसायनाएट गैस फैक्ट्री से होते हुए 9 लाख की आबादी वाले भोपाल शहर पर अपना कहर बरपाना शुरू करती है। सैकडों लोग तो सीधे नींद के आगोश से मौत के आगोश में समा जाते हैं। लोग हड़बड़ा कर नींद से उठते हैं तो उन्हें सांस लेने में दिक्कत और आंखों में जलन महसूस होने लगती है।
पूरे शहर में हड़कंप मच जाता है लोग सुरक्षित स्थान और साफ़ हवा की तलाश में भागने लगते हैं। लेकिन जहरीली गैस के फैलने की रफ्तार ज्यादा तेज साबित होती है। इंसान ही नहीं बल्कि परिंदे और जानवर भी काल का ग्रास बन जाते हैं।
सुबह होने पर इस हादसे की भीषणता का एहसास होता है जब कई स्थानों पर लोगों की लाशें बिखरी नजर आती हैं। शहर के मुर्दाघर भर जाते हैं पर लाशों की संख्या बढ़ती चली जाती है। भोपाल के अस्पताल भी इतने बड़े पैमाने पर हुए इस हादसे से निपटने को तैयार नहीं दिखते।
गैस के रिसाव के कुछ ही घंटों के भीतर 3,500 लोगों की मौत हो गई थी। इसके बाद के हफ़्तों में मृतकों का आंकड़ा बढ़ कर 15 हज़ार से ज्यादा हो गया। हालांकि कई ग़ैर सरकारी संगठन इस त्रासदी में मारे गए लोगों की संख्या 25 हजार से ज्यादा बताते हैं।
भोपाल गैस त्रासदी को अब तक की सबसे बुरी औद्योगिक दुर्घटनाओं में माना जाता है। माना जाता है कि 5 लाख से ज्यादा लोगों पर इस हादसे के स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभाव पड़े और हादसे के सालों बाद पैदा हुए बच्चे कई बीमारियों से ग्रस्त नज़र आते हैं। यूनियन कार्बाइड प्लांट से 30 से 40 टन के बीच जहरीली गैस का रिसाव हुआ था।
भोपाल गैस त्रासदी से सबसे ज्यादा प्रभावित ग़रीब परिवारों के लोग थे जो झुग्गियों में रहते थे। इस हादसे में जिंदा बचे लोग तो उस रात को शायद कभी नहीं भूल पाएंगे लेकिन हादसे के बाद पैदा हुई पीढ़ी भी उस रात को याद कर सिहर उठती है।
तस्वीर जो हादसे की प्रतीक बन गयी
विख्यात फोटोग्राफर रघु राय की खिंची यह तस्वीर आपके आंखों के सामने से जरूर गुजरी होगी। यह तस्वीर भोपाल गैस त्रासदी की एक तरह से प्रतीक बन गयी। भोले-से चेहरे और खुली आंखों वाले इस बच्चे की तस्वीर उन्होंने तब ली थी जब उसके शव पर मिट्टी डाली जा रही थी। यदि यह बच्च जिंदा होता तो आज 30 साल का सुंदर नौजवान होता। हादसे में इसी तरह अनगिनत मासूम जानें गयी थीं। यदि आपके अंदर साहस हो तो उस विभीषिका को बयां करनेवाली कुछ और तस्वीरें यहां यहां देख सकते हैं।
ऐश कर रहा कसूरवार, निर्दोष आज भी मर रहे
भोपाल की त्रासदी आज भी थमी नहीं है। उस समय सौभाग्य से शरीर में कम गैस जाने के कारण जो बचे रह गए थे, वे आज तिल-तिल कर मरने का दुर्भाग्य झेल रहे हैं। जहरीली गैस से उनके हृदय व फेफड़े क्षतिग्रस्त हो गए, जिसके लिए आज तक न तो यूनियन कार्बाइड ने दवा बतायी और न ही भारत सरकार ने शोध करके गैस पीडि़तों को राहत पहुंचाने के लिए कोई काम किया। इतनी बड़ी त्रासदी के कसूरवार को कोई सजा तक नहीं हुई। यूनियन कार्बाइड कंपनी के प्रमुख वॉरेन एंडरसन को इस हादसे के तत्काल बाद गिरफ़्तार कर लिया गया था लेकिन तुरंत जमानत भी दे दिया गया और उसके बाद ही एंडरसन ने देश छोड़ दिया और तब से वह कानून की पहुंच से दूर अमेरिका में ऐशो-आराम की जिंदगी गुजार रहे हैं। एंडरसन पर आरोप है कि उन्होंने ख़र्च में कटौती के लिए सुरक्षा मानकों के साथ समझौता किया। एंडरसन पर लोगों की मौत का ज़िम्मेदार होने का भी आरोप है। अब यूनियन कार्बाइड को एक दूसरी अमरीकी कम्पनी डाऊ केमिकल्स खरीद चुकी है और वह पूरे मामले से पल्ला झाड़ रही है।
किसी को तो सजा मिले, सो फरियादी ही चढ़ा फांसी
अंधेर नगरी में किसी को तो सजा काटनी है, सो पीडि़तों की लड़ाई लड़ रहा एक पीडि़त खुद चढ़ गया फांसी। भोपाल गैस त्रासदी का दंश झेल चुके और पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष करने वाले 34 वर्षीय सुनील कुमार की लाश भोपाल में उनके घर में पंखे से लटकी हुई मिली। उस समय उन्होंने अपना पसंदीदा टी-शर्ट पहना था, जिस पर लिखा था, ‘और भोपाल नहीं।’ सुनील ने जहां फांसी लगाई, वहां एक नोट भी मिला, जिसमें लिखा था, ‘मैं मानसिक बीमारी के कारण खु़दकुशी नहीं कर रहा हूं, बल्कि पूरे होशोहवास में ऐसा कर रहा हूं।‘
(सूचनाओं व चित्रों के स्रोत : बीबीसी हिन्दी, डॉयचवेले, ग्रीनपीस)
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