Friday, December 19, 2008

गांव को स्‍वर्ग तो बना चुके, अब शहर बसाएंगे!


भारतीय गांवों का आत्‍मनिर्भर स्‍वरूप तेजी से समाप्‍त हो रहा है। गांवों की परंपरागत अर्थव्‍यवस्‍था और प्रौद्योगिकी को पिछले दो-ढाई दशकों में जो नुकसान पहुंचा है, वह अकल्‍पनीय है। देश की मौजूदा सरकारों की तथाकथित उदारीकरण की आर्थिक नीतियों के पैरोकार अब तो खुलेआम छह लाख गांवों को खत्‍म कर उनकी जगह छह सौ या छह हजार शहर बनाने की बात करने लगे हैं। इस संदर्भ में ब्‍लॉग पत्रिका निरंतर के लिए कुछ माह पहले मैंने एक आलेख लिखा था। उसे यहां साभार प्रस्‍तुत किया जा रहा है :


देश के छह लाख गांवों को कुछ सौ या हजार शहरों में तब्दील कर देना अव्यावहारिक ही नहीं, टेढ़ी खीर भी है। यह विडंबना ही है कि छह दशक तक गांवों को स्वर्ग बनाने की बात की जाये, और उसके बाद कहा जाये - नहीं, अब स्वर्ग के बदले शहर बसाये जायेंगे।

अनाज की रोज बढ़ रही कीमतों से लोग अभी ही इतने कष्ट में हैं। जब किसान शहरों में जा बसेंगे, तब क्या होगा? जाहिर है, तब खेत-खलिहान भी पूंजीपतियों के नियंत्रण में चले जायेंगे। जरूरी नहीं कि वे उन खेतों में अनाज ही उपजायें। वे उस जमीन पर फैक्टरियां भी लगा सकते हैं। जो खेती होगी भी, वह पूंजीवादी प्रणाली में ढली होगी। तब खाद्य पदार्थों की कीमतों का अपने बजट के साथ तालमेल बिठा पाना शहरी मध्य व निम्न वर्ग के बूते की बात नहीं रहेगी।

गांव के जो लोग शहर में जाकर रहेंगे, खासकर पुरानी पीढ़ी के लोग, खुद उनके लिए भी शहरी जीवन से सामंजस्य बिठा पाना उतना आसान नहीं होगा। कष्ट सहकर भी कृषि में मर्यादा देखनेवाला किसान शहर में मजदूर बनकर कभी खुश नहीं रहेगा।

सवाल यह भी उठता है कि देश के 70 - 80 करोड़ ग्रामीणों को बसाने लायक शहरों को बनायेगा कौन? जो राजनैतिक नेतृत्व आजादी के छह दशकों बाद भी ग्रामीणों को स्वच्छ पेयजल तक मुहैया नहीं करा सका, वह एक-दो दशकों में उनके लिए सुविधाओं से संपन्न चमचमाता शहर बना देगा? फिर, इसके लिए पैसा कहां से आयेगा? यदि यह जिम्मेवारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देने की सोच है, तो क्या जरूरत थी देश की आजादी की? ईस्ट इंडिया कंपनी हमारा 'भरण-पोषण' कर ही रही थी।

दुनिया की दूसरी सबसे विशाल आबादी पूरी की पूरी शहरों में रहने लगेगी, तो पर्यावरण प्रदूषण के खतरे भयावह हो जायेंगे। वर्तमान में मौजूद शहरों व कस्बों का प्लास्टिक कचरा आस-पास की जमीन को बंजर बना रहा है। शहरों के पड़ोस में स्थित नदियां गंदा नाला बनती जा रही हैं। अभी यह हाल है, तो 600 या 6000 नये शहर अस्तित्व में आयेंगे तब क्या होगा?

शहरीकरण के समर्थकों का तर्क रहता है कि दूर-दूर बिखरे गांवों की बनिस्बत शहरों को बिजली, पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, सुरक्षा आदि की सुविधाएं देने में आसानी होगी। तो क्या आप देश के गैर शहरी क्षेत्रों को इन सुविधाओं से वंचित कर देंगे? क्या उन इलाकों को एक बार फिर आदिम युग में ढकेल दिया जायेगा?

दरअसल, भारत के गांवों को शहर बनाने की बात बाजार की ताकतों के दबाव में की जा रही है। आर्थिक उदारीकरण के बाद देश में औद्योगिक प्रगति की रफ्तार तेज हुई है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सक्रियता भी बढ़ी है। उन कंपनियों को अपना माल खपाने के लिए बाजार चाहिए। लेकिन आत्मनिर्भर गांवों की सोच इस बाजारवाद के विस्तार में बाधक है। भारत की ग्रामीण आबादी जब शहरों में रहने लगेगी तो वह अपनी छोटी मोटी जरूरतों के लिए भी बाजार की बाट जोहने को विवश होगी। शहरी भारत ग्रामीण भारत की तुलना में बेहतर उपभोक्ता साबित होगा।

Thursday, December 4, 2008

कोल्‍हू, पनघट, कौओं का उचरना और धोती


मेरे प्रिय कवि केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता है :

गांव की सड़क
शहर को जाती है,
शहर छोड़कर
जब गांव
वापस आती है
तब भी
गांव रहता है वही गांव,
कांव-कांव करते कौओं का गांव।


1980 ईस्‍वी में जब उन्‍होंने यह कविता लिखी होगी, कतई नहीं सोचा होगा कि दो दशक बाद गांवों में इतना बदलाव आ जाएगा कि वे गांव नहीं रह जाएंगे।

इन्‍हें अभी भी गांव ही कहा जाता है, लेकिन पहले वाली बात नहीं रही। रून-ढुन, रून-ढुन घंटी बजाते बैलों का जोड़ा, कोल्‍हू, पनघट, वटवृक्ष, पीपल, अमराई, तालाब, कौओं का उचरना – भारतीय गांव की यह परंपरागत छवि अब स्‍मृतियों में सिमटती जा रही है। न पहले जैसा लोकजीवन में रंग व रस रहा, न ही फसलों में वैविध्‍य। भूमंडलीकरण और बढ़ते भ्रष्‍टाचार ने गांवों का समूचा ताना-बाना ही नष्‍ट-भ्रष्‍ट कर दिया। आचार-विचार, रहन-सहन सब कुछ बदलते जा रहा है।

लोगों के पहनावा पर भी खासा असर देखने को मिल रहा है। इकॅनामिक टाइम्‍स में छपे एक आलेख में भारत सरकार की टेक्‍सटाइल समिति के एक रिपोर्ट के हवाले से बताया गया है कि ग्रामीण इलाकों में धोती की मांग में तेजी से गिरावट आ रही है। सामान्‍य पर्यवेक्षण में भी यह देखने में आता है कि धोती की जगह पतलून और पाजामा अब ग्रामीण युवाओं की पसंद बनते जा रहे हैं।

आलेख में कहा गया है, ‘’ ग्रामीण इलाकों में धोती को पसंद करने वालों की संख्या में भारी कमी आयी है। साल 2006 में धोती का कुल बाजार 12.8 करोड़ पीस का था, जबकि 2007 में यह घटकर 11.7 करोड़ पीस रह गया है। इस तरह से देखें तो 2007 में धोती की मांग में 8.59 फीसदी की गिरावट आयी है। धोती के बाजार में शहरी भारत की हिस्सेदारी 21.37 फीसदी रही, वहीं ग्रामीण भारत की हिस्सेदारी 78.63 फीसदी रही। .... लोगों के कपड़े में आए बदलाव से धोती आकर्षक नहीं रह गया है। दक्षिण और पूर्वी भारत के राज्यों में धोती की मांग में भारी कमी आयी है।‘’

आलेख में रेडीमेड वस्‍त्र विक्रेताओं का रुख अब गांवों की ओर होने की बात बताते हुए कहा गया है, ‘’ग्रामीण इलाकों में रेडीमेड कपड़ों की मांग में अच्छी तेजी आयी है और 2007 में इसमें 7.53 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। रेडीमेड गारमेंट खपत के मामले में साल 2006 के 29.2 करोड़ पीस की तुलना में 2007 में 31.4 करोड़ पीस की खपत हुई। इस कैटेगरी में ग्रामीण भारत ने 55.73 फीसदी बाजार हिस्सेदारी हासिल की, वहीं शहरी भारत 44.27 फीसदी बाजार ही हासिल कर सका।‘’