विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि होमियोपैथी कारगर इलाज पद्धति नहीं है। उसने कहा है कि टीबी और मलेरिया जैसी बीमारियों के लिए होमियोपैथी के इलाज पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। मानव स्वास्थ्य संबंधी इस शीर्ष अंतर्राष्ट्रीय संगठन ने अपने इस नजरिए का इजहार 'वॉयस ऑफ़ यंग साइंस नेटवर्क' नामक संगठन से जुड़े शोधकर्ताओं की आपत्तियों के जवाब में किया है।
गौरतलब है कि होमियोपैथी के बारे में अंग्रेज़ी चिकित्सा का इस्तेमाल करने वाले डॉक्टर पहले से ही आपत्तियां जताते रहे हैं। 'वॉयस ऑफ़ यंग साइंस नेटवर्क' के ब्रितानी और अफ़्रीकी शोधकर्ताओं ने इस साल जून महीने में विश्व स्वास्थ्य संगठन को पत्र लिखकर कहा था, "हम विश्व स्वास्थ्य संगठन से मांग करते हैं कि वह टीबी, बच्चों के अतिसार, इंफ़्लुऐन्ज़ा, मलेरिया और ऐचआईवी के लिए होमियोपैथी के इलाज के प्रोत्साहन की भर्त्सना करे।" उनका कहना था कि उनके जो साथी विश्व के देहाती और ग़रीब लोगों के साथ काम करते हैं, वे उन तक बड़ी मुश्किल से चिकित्सा सहायता पहुँचा पाते हैं। ऐसे में जब प्रभावी इलाज की जगह होमियोपैथी आ जाती है तो अनेक लोगों की जान चली जाती है। उनके मुताबिक होमियोपैथी इन बीमारियों का इलाज नहीं कर सकती। 'वॉयस ऑफ़ यंग साइंस नेटवर्क' के सदस्य और सेंट ऐन्ड्रयू विश्वविद्यालय में जैव आण्विक विज्ञान के शोधकर्ता डॉक्टर रॉबर्ट हेगन के शब्दों में - "हम चाहते हैं कि दुनिया भर की सरकारें ऐसी ख़तरनाक बीमारियों के उपचार के लिए होमियोपैथिक इलाज के ख़तरों को समझें।" डॉक्टरों ने यह शिकायत भी की कि बच्चों में अतिसार के इलाज के लिए होमियोपैथी के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा रहा है। रॉयल लिवरपूल यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल में छूत की बीमारियों के विशेषज्ञ डॉक्टर निक बीचिंग कहते हैं, "मलेरिया, ऐचआईवी और टीबी जैसे संक्रमणों से भारी संख्या में लोग मरते हैं लेकिन इनका कई तरह से इलाज किया जा सकता है। जबकि ऐसे कोई तटस्थ प्रमाण नहीं हैं कि होमियोपैथी इन संक्रमणों में कारगर सिद्ध होती है। इसलिए स्वास्थ्यकर्मियों द्वारा ऐसी जानलेवा बीमारियों के इलाज के लिए होमियोपैथी का प्रचार करना बहुत ग़ैर ज़िम्मेदारी का काम है।"
इस तरह की दलीलों का जवाब देते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी माना है कि होमियोपैथी प्रभावी नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के स्टॉप टीबी विभाग की निदेशक डॉक्टर मारियो रेविग्लियॉं ने कहा, "टीबी के इलाज के लिए हमारे निर्देश और इंटरनेशनल स्टैंडर्स ऑफ़ ट्यूबरकोलॉसिस केयर - दोनों ही होमियोपैथी के इस्तेमाल की सिफ़ारिश नहीं करते।" विश्व स्वास्थ्य संगठन के बाल और किशोर स्वास्थ्य और विकास के एक प्रवक्ता ने कहा, "हमें अभी तक ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं कि अतिसार जैसी बीमारियों में होमियोपैथी के इलाज से कोई लाभ होता है।" उन्होने कहा, "होमियोपैथी निर्जलन की रोकथाम और इलाज पर ध्यान केंद्रित नहीं करती, जो कि अतिसार के उपचार के वैज्ञानिक आधार और हमारी सिफ़ारिश के बिल्कुल विपरीत है।"
होमियोपैथी चिकित्सा पद्धति का जनक जर्मन फिजिशियन फ्रेडरिक सैमुएल हैनिमैन (10 अप्रैल, 1755 ई.-2 जुलाई, 1843 ई.) को माना जाता है। उनके द्वारा विकसित लॉ ऑफ सिमिलर्स को होमियोपैथ का आधारभूत सिद्धांत माना जाता है। भारत में होमियोपैथी चिकित्सा का आरंभ 19वीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक से (बंगाल से) हो गया था। आजादी के बाद 1952 में भारत सरकार ने होमियोपैथिक एडवाइजरी कमेटी का गठन किया, जिसकी सिफारिशों के आधार पर 1973 में ऐक्ट बनाकर इस चिकित्सा पद्धति को मान्यता प्रदान की गयी। होमियोपैथी में रिसर्च के लिए 1978 में स्वतंत्र सेंट्रल काउंसिल की स्थापना की गयी।
होमियोपैथी को बढ़ावा देने के लिए निश्चित तौर पर इसी तरह की कोशिशें अन्य देशों में भी हुई होंगी और शायद अधिकांश लोगों का मानना होगा कि इस चिकित्सा पद्धति से काफी लाभ हो रहा है। उल्लेखनीय है कि पूरी दुनिया भर में प्रचलित एलोपैथी, आयुर्वेद, यूनानी आदि जैसी इलाज की कई पद्धतियों के बीच होमियोपैथी तेजी से लोकप्रिय हो रही है। माना जाता है कि होमियोपैथिक दवाइयां रोग को जड़ से समाप्त कर देती हैं। खास बात यह है कि एलोपैथी आदि में जहां कभी-कभी दवा के साइड इफेक्ट या सूट न करने का खतरा होता है, वहीं होमियोपैथी में ऐसा कुछ नहीं होता। अपने देश में कुछ दिनों पूर्व जारी एक अध्ययन रिपोर्ट में एसोसिएटेड चेंबर्स ऑफ कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री (एसोचेम) ने होमियोपैथी को बड़ी तेजी से लोकप्रिय होती चिकित्सा पद्धति बताया था। इसका कारण बताते हुए एसोचेम के प्रेसिडेंट वेणुगोपाल एन. धूत ने कहा, यह श्वांस संबंधी बीमारियों, आर्थराइटिस, डायबिटीज, थायरॉयड और अन्य तमाम गंभीर मानी जानी वाली बीमारियों की प्रभावी इलाज पद्धति है, और वह भी बिना किसी साइड इफेक्ट के।
होमियोपैथी के खिलाफ दी जा रही दलीलों के संदर्भ में सोसाइटी ऑफ़ होमियोपैथ्स की मुख्य कार्यकारी पाओला रॉस का कहना है, "ये होमियोपैथी के बारे में दुष्प्रचार करने की एक और नाकाम कोशिश है। होमियोपैथी के इलाज़ के बारे में अब बहुत ही पुख़्ता सबूत सामने आ रहे हैं जो बढ़ते जा रहे हैं। इसमें बच्चों में अतिसार इत्यादी भी शामिल है।" मुझे सोसाइटी ऑफ होमियोपैथ्स की बात सही लग रही है। वैसे भी चिकित्सा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में किसी भी एकाधिकारवादी तानाशाहीपूर्ण फतवे को उचित नहीं ठहराया जा सकता। इस मामले में मैं विश्व स्वास्थ्य संगठन के खिलाफ और होमियोपैथी के साथ हूं। आप क्या सोचते हैं?
Friday, August 21, 2009
Wednesday, August 19, 2009
सम्मान उस क्रांति का जो शौचालयों के जरिए आयी!
भारत में अनेक बड़े राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक व आर्थिक परिवर्तनों का सूत्रपात बिहार से हुआ है। लेकिन मौजूदा बिहार में वैसे नवाचारों की कल्पना नहीं की जाती। इसलिए बिहारी मिट्टी से जन्मा कोई शख्स शौचालय जैसी तुच्छ चीज के जरिए संभावनाओं का सूर्योदय करा डाले तो बात गौर करने की जरूर है। जी हां, हम बात कर रहे हैं बिन्देश्वर पाठक की, जिन्होंने भारत में सुलभ शौचालय के जरिए एक ऐसी क्रांति लायी, जिसने बहुतों की जिंदगी बदल दी। उनके बनाए सुलभ शौचालयों में जहां भंगियों को रोजगार मिला और सिर पर मैला ढोने के अमानवीय यंत्रणा से उन्हें मुक्ति मिली, वहीं ये शौचालय स्वच्छता के साथ गैर पारंपरिक उर्जा उत्पादन के भी स्रोत बने।
इन दिनों स्टॉकहोम में विश्व जल सप्ताह मनाया जा रहा है, जहां भारत के बिन्देश्वर पाठक को विश्व जल पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है। निश्चित तौर पर यह सम्मान उस क्रांति का भी है, जो शौचालयों के जरिए आयी। बिन्देश्वर पाठक को भारत में शौचालय क्रांति का जनक माना जाता है। उनकी यह टिप्पणी सोचने लायक ही है, ‘’टॉयलेट सोचने की जगह है। हम वहां बैठ सकते हैं और अपने सवालों के जवाब सोच सकते हैं। बैठते हुए हम नीचे की ओर देखते हैं, सोचने के लिए यह सबसे अच्छी पॉज़िशन है। टॉयलेटों में कितनी समस्याओं के समाधान मिल जाते हैं।"
बिन्देश्वर पाठक का जन्म 1943 में बिहार में हुआ था। उन्होंने पटना विश्वद्यालय से 1964 में समाजशास्त्र में ग्रेजुएशन किया। अपने काम की शुरुआत उन्होंने 1970 में की और फिर उनके संगठन ने सस्ते और सुलभ शौचालय बनाना शुरू किया। आज सुलभ इंटरनैशनल के सौजन्य से 12 लाख घरों में रह रहे लोग स्वच्छ जीवन का आनंद ले रहे हैं और 7 हज़ार से ज्यादा सार्वजनिक शौचालयों के जरिए चलते-फिरते लोगों की परेशानी भी दूर की जा सकी है। नई दिल्ली में एक ख़ास टॉयलेट संग्रहालय भी खोला गया है। इसमें पाठक का बनाया पहला शौचालय भी देखा जा सकता है।
बिन्देश्वर पाठक कहते हैं, "जो टॉयलेट मैंने सबसे पहले बनाया था, वह मेरे लिए सबसे दिलचस्प है। क्योंकि मैंने इससे पहले फ़्लश वाले टॉयलेट का इस्तेमाल नहीं किया था। जब मैं गांव में रहता था, तब हम खेतों में जाते थे। और फिर शहर में साधारण लैट्रीन में। जब मैंने पहली बार सुलभ टॉयलेट बनाया और उसे खुद इस्तेमाल किया, तो मुझे बड़ी ख़ुशी हुई।"
उनके संगठन ने न केवल दस्त जैसी बीमारियों की रोकथाम करने में मदद की है, बल्कि सामाजिक रूप से मैला ढोने के लिए मजबूर कई लोगों की ज़िंदगियों को बदल डाला। विश्व जल सप्ताह की निर्देशक सीसीलिया मार्टिनसेन का कहना है कि बिंदेश्वर पाठक की वजह से मानवीय मल को किस तरह संभाला जा सकता है, यह सवाल विश्व एजेंडे में शामिल हुआ।
इन दिनों स्टॉकहोम में विश्व जल सप्ताह मनाया जा रहा है, जहां भारत के बिन्देश्वर पाठक को विश्व जल पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है। निश्चित तौर पर यह सम्मान उस क्रांति का भी है, जो शौचालयों के जरिए आयी। बिन्देश्वर पाठक को भारत में शौचालय क्रांति का जनक माना जाता है। उनकी यह टिप्पणी सोचने लायक ही है, ‘’टॉयलेट सोचने की जगह है। हम वहां बैठ सकते हैं और अपने सवालों के जवाब सोच सकते हैं। बैठते हुए हम नीचे की ओर देखते हैं, सोचने के लिए यह सबसे अच्छी पॉज़िशन है। टॉयलेटों में कितनी समस्याओं के समाधान मिल जाते हैं।"
बिन्देश्वर पाठक का जन्म 1943 में बिहार में हुआ था। उन्होंने पटना विश्वद्यालय से 1964 में समाजशास्त्र में ग्रेजुएशन किया। अपने काम की शुरुआत उन्होंने 1970 में की और फिर उनके संगठन ने सस्ते और सुलभ शौचालय बनाना शुरू किया। आज सुलभ इंटरनैशनल के सौजन्य से 12 लाख घरों में रह रहे लोग स्वच्छ जीवन का आनंद ले रहे हैं और 7 हज़ार से ज्यादा सार्वजनिक शौचालयों के जरिए चलते-फिरते लोगों की परेशानी भी दूर की जा सकी है। नई दिल्ली में एक ख़ास टॉयलेट संग्रहालय भी खोला गया है। इसमें पाठक का बनाया पहला शौचालय भी देखा जा सकता है।
बिन्देश्वर पाठक कहते हैं, "जो टॉयलेट मैंने सबसे पहले बनाया था, वह मेरे लिए सबसे दिलचस्प है। क्योंकि मैंने इससे पहले फ़्लश वाले टॉयलेट का इस्तेमाल नहीं किया था। जब मैं गांव में रहता था, तब हम खेतों में जाते थे। और फिर शहर में साधारण लैट्रीन में। जब मैंने पहली बार सुलभ टॉयलेट बनाया और उसे खुद इस्तेमाल किया, तो मुझे बड़ी ख़ुशी हुई।"
उनके संगठन ने न केवल दस्त जैसी बीमारियों की रोकथाम करने में मदद की है, बल्कि सामाजिक रूप से मैला ढोने के लिए मजबूर कई लोगों की ज़िंदगियों को बदल डाला। विश्व जल सप्ताह की निर्देशक सीसीलिया मार्टिनसेन का कहना है कि बिंदेश्वर पाठक की वजह से मानवीय मल को किस तरह संभाला जा सकता है, यह सवाल विश्व एजेंडे में शामिल हुआ।
Monday, August 17, 2009
रेडियो डॉयचे वेले हिंदी सेवा के 45 साल : पत्रकारों के अनुभव की कहानी, उनकी ही जुबानी
हमारे गांवों में बिजली की चमक कभी-कभी ही कौंधती है। इसलिए प्रसारण माध्यमों में ग्रामीणों की आज भी सबसे अधिक निर्भरता रेडियो पर ही है। हिन्दी में खबरों के लिए रेडियो पर बीबीसी की तरह सुपरिचित नाम रेडियो डॉयचे वेले का भी है। इस 15 अगस्त को उसकी हिंदी सेवा को शुरू हुए पैंतालीस साल हो गए हैं। राइन नदी पर बसे कार्निवाल के शहर कोलोन से 15 अगस्त के ही दिन 1964 में इसके हिंदी कार्यक्रमों का प्रसारण शुरू हुआ था। इससे जुड़े पत्रकार इस मौके पर बता रहे हैं इसके सफरनामा और अपने अनुभवों को।
45 साल पहले शॉर्टवेव रेडियो डॉयचे वेले की ख़बरों को सुनने का एकमात्र माध्यम हुआ करता था। लेकिन आज बग़ैर किसी परेशानी के घर बैठे कंप्यूटर पर जब मर्ज़ी चाहे कार्यक्रम सुने जा सकते हैं। इससे जुड़ी पत्रकार मानसी गोपालकृष्णन इस तकनीकी प्रगति को रेखांकित करते हुए कहती हैं, ‘’ इस बात से तो शायद ही कोई इंकार करेगा कि पिछले पांच वर्षों में इंटरनेट और मोबाइल ने हमारी जिंदगी को पूरी तरह बदल दिया है। और यह बात डॉयचे वेले की हिंदी सेवा के लिए भी सही है।‘’
डॉयचे वेले की हिंदी सेवा के लिए नई दिल्ली से इसके पहले डेली रिपोर्टर कुलदीप कुमार अपने अनुभव बताते हैं, ‘’ 2004 के लोकसभा चुनाव के दौरान मैं लखनऊ से अमेठी जा रहा था। रास्ते में क़स्बा पड़ता है – मुसाफिरखाना। वहां एक केमिस्ट की दूकान देखकर मैंने टैक्सी रुकवाई और केमिस्ट से कहा कि टेप रिकार्डर का हेड साफ़ करने के लिए कार्बन टेट्रा क्लोराइड चाहिए। उसने कहा कि यह काम तो वह स्पिरिट से ही कर देगा बिना पैसा लिए। टेप रिकार्डर देखकर उसने पूछा कि क्या मैं रेडियो पत्रकार हूं? मेरे हां कहने पर उसने संस्था का नाम पूछा। जब मैंने कहा डॉयचे वेले तो उसने तुंरत सवाल किया - तो क्या आप कुलदीप कुमार हैं? मुझे भौंचक्का होते देख उसने बताया कि हर शाम वह रोज़ डॉयचे वेले का हिन्दी प्रसारण सुनता है।
आमजन का भरोसा और उससे मिलनेवाला स्नेह और अपनापन पत्रकारों की सबसे बड़ी पूंजी होती है। जो पत्रकार इस पूंजी की अहमियत समझते हैं, उनके लिए यह पेशा मिशन से कम नहीं। तो आइए देखते हैं इन पैंतालीस वर्षों में आए बदलावों को किस तरह आंकते हैं डॉयचे वेले हिन्दी सेवा से जुड़े पत्रकार। पत्रकारिता के मिशन के उनके अनुभवों की कहानी उनकी ही जुबानी।
45 साल पहले शॉर्टवेव रेडियो डॉयचे वेले की ख़बरों को सुनने का एकमात्र माध्यम हुआ करता था। लेकिन आज बग़ैर किसी परेशानी के घर बैठे कंप्यूटर पर जब मर्ज़ी चाहे कार्यक्रम सुने जा सकते हैं। इससे जुड़ी पत्रकार मानसी गोपालकृष्णन इस तकनीकी प्रगति को रेखांकित करते हुए कहती हैं, ‘’ इस बात से तो शायद ही कोई इंकार करेगा कि पिछले पांच वर्षों में इंटरनेट और मोबाइल ने हमारी जिंदगी को पूरी तरह बदल दिया है। और यह बात डॉयचे वेले की हिंदी सेवा के लिए भी सही है।‘’
डॉयचे वेले की हिंदी सेवा के लिए नई दिल्ली से इसके पहले डेली रिपोर्टर कुलदीप कुमार अपने अनुभव बताते हैं, ‘’ 2004 के लोकसभा चुनाव के दौरान मैं लखनऊ से अमेठी जा रहा था। रास्ते में क़स्बा पड़ता है – मुसाफिरखाना। वहां एक केमिस्ट की दूकान देखकर मैंने टैक्सी रुकवाई और केमिस्ट से कहा कि टेप रिकार्डर का हेड साफ़ करने के लिए कार्बन टेट्रा क्लोराइड चाहिए। उसने कहा कि यह काम तो वह स्पिरिट से ही कर देगा बिना पैसा लिए। टेप रिकार्डर देखकर उसने पूछा कि क्या मैं रेडियो पत्रकार हूं? मेरे हां कहने पर उसने संस्था का नाम पूछा। जब मैंने कहा डॉयचे वेले तो उसने तुंरत सवाल किया - तो क्या आप कुलदीप कुमार हैं? मुझे भौंचक्का होते देख उसने बताया कि हर शाम वह रोज़ डॉयचे वेले का हिन्दी प्रसारण सुनता है।
आमजन का भरोसा और उससे मिलनेवाला स्नेह और अपनापन पत्रकारों की सबसे बड़ी पूंजी होती है। जो पत्रकार इस पूंजी की अहमियत समझते हैं, उनके लिए यह पेशा मिशन से कम नहीं। तो आइए देखते हैं इन पैंतालीस वर्षों में आए बदलावों को किस तरह आंकते हैं डॉयचे वेले हिन्दी सेवा से जुड़े पत्रकार। पत्रकारिता के मिशन के उनके अनुभवों की कहानी उनकी ही जुबानी।
Sunday, August 16, 2009
केरल के कोडिन्ही गांव के जुड़वां बच्चों को तो आपने देखा ही होगा !
एक बच्चे को देखकर ही तबियत खुश हो जाती है, जुड़वां बच्चे हों तो क्या कहने। लेकिन यदि जुड़वां बच्चों की गोद में भी जुड़वां बच्चे ही बैठे हों, तब तो मुर्दे आदमी में भी जान आ जाएगी। केरल के कोडिन्ही गांव के बारे में आपने पहले जरूर पढ़ा-सुना होगा... जी हां, वही जुड़वां लोगों का गांव। अब इसे ट्विन टाउन भी कहा जाने लगा है। दो हजार लोगों की आबादीवाला यह गांव चिकित्सकों व शोधकर्ताओं के लिए रहस्य तथा दुनिया भर में मीडिया के लिए खबर बना हुआ है। गांव में 250 जोड़े जुड़वां बच्चों का निबंधन हो चुका है, जबकि समझा जाता है कि उनकी वास्तविक संख्या इससे भी अधिक है।
जुड़वां बच्चों के होने के फायदे भी हैं और नुकसान भी, लेकिन हम यहां उसकी तह में नहीं जाना चाहते। हम तो कटोरे पर कटोरा की तरह एक दूसरे की गोद में बैठे इन जुड़वां बच्चों के चित्र देखकर खुश हैं, और आपके साथ इस खुशी को बांटना चाहते हैं। कोडिन्ही गांव के जुड़वां बच्चों की कुछ और तस्वीरें आप यहां जाकर भी देख सकते हैं।
जुड़वां बच्चों के होने के फायदे भी हैं और नुकसान भी, लेकिन हम यहां उसकी तह में नहीं जाना चाहते। हम तो कटोरे पर कटोरा की तरह एक दूसरे की गोद में बैठे इन जुड़वां बच्चों के चित्र देखकर खुश हैं, और आपके साथ इस खुशी को बांटना चाहते हैं। कोडिन्ही गांव के जुड़वां बच्चों की कुछ और तस्वीरें आप यहां जाकर भी देख सकते हैं।
Tuesday, August 11, 2009
अब आप ही बताएं ... मैं चीन की निंदा करूं या धन्यवाद दूं!
भारतीय कृषि के बारे में कहा जाता है कि वह मानसून के साथ जुआ है। यह दुर्भाग्य है कि आजादी के छह दशकों बाद भी इसकी इस दु:स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। सच तो यह है कि आजाद भारत के भाग्य विधाताओं ने भारतीय किसानों को मानसून के साथ जुआ खेलने की स्थिति में भी नहीं छोड़ा। पहले हमारे गांवों में ताल, पोखर, आहर जैसे वर्षा जल संचयन साधनों की भरमार थी, जिनकी बदौलत हमारी खेती मानसून की बेरूखी से टक्कर ले सकती थी। आज वे सभी समाप्तप्राय हैं। पर्यावरण के शत्रु बन चुके अतिक्रमणकारियों ने पुआल और मिट्टी से पाटकर उन्हें खेत बना डाला अथवा उनकी जमीन पर मकान बना डाले। हमारी सरकार वर्षा जल संचयन के उन प्राकृतिक स्रोतों की हिफाजत में पूरी तरह विफल रही।
बिहार के जिस कैमूर जिले में मैं रहता हूं, वह भीषण सूखे की चपेट में है। जीवन को प्रवाहमान रखने के लिए हम किसानों के सामने मानसून के साथ जुआ खेलने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। लेकिन यह जुआ खेलते भी तो किस बूते। हमारे गांव के आहर-तालाब अतिक्रमणकारियों के लालच और सरकार की बेरूखी की भेंट चढ़ चुके हैं। नहर में पानी का टोटा पड़ा हुआ है। बिजली सिर्फ दर्शन भर के लिए आती है। डीजल पर अनुदान जैसी राहत की सरकारी घोषणाएं सिर्फ कागजों पर हैं। इस मुश्किल समय में यदि हमारे इलाके के किसान मानसून के साथ जुआ खेलने में समर्थ हो पाए हैं तो चाइनीज डीजल इंजन पंपिंग सेटों के बूते। सरकार जिन स्वदेशी डीजल इंजन पंपिंग सेटों की खरीद पर अनुदान देती है, वे भारी और महंगे होते हैं और एक घंटे में एक लीटर डीजल खा जाते हैं। जबकि चाइनीज डीजल इंजन पंपिंग सेट अपेक्षाकृत सस्ते हैं और हल्के भी। इतने हल्के कि दो आदमी आसानी से इन्हें कहीं भी लेकर जा सकते हैं। सबसे बड़ी बात है कि ये आधे लीटर डीजल में ही एक घंटे चल जाते हैं। बगल के चित्र में जिस डीजल इंजन पंपिंग सेट के जरिए किसान सूखे खेतों तक पानी पहुंचाने का उद्यम कर रहे हैं, वह चाइनीज ही है।
इंटरनेट पर मैं खबर पढ़ रहा हूं कि चीन की दवा कंपनियों ने ''मेड इन इंडिया'' के लेबल के साथ नकली दवाइयां बनाकर उन्हें अफ़्रीकी देश नाइजीरिया भेजा। दो महीने पहले नाइजीरिया में ऐसी नकली दवाओं की एक बड़ी खेप पकड़ी गयी थी। कहा जा रहा है कि खुद चीनी अधिकारियों ने भी मान लिया है (कि चीनी कंपिनयां इस कांड में शामिल थीं)। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि चीन की निंदा करूं या उसे धन्यवाद दूं। आखिर यह भी तो सच है कि हमारे इलाके के असंख्य किसान चीन निर्मित डीजल इंजन पंपिंग सेटों की ताकत पर ही तो मानसून के साथ जुआ खेलने में समर्थ हो पाए हैं।
बिहार के जिस कैमूर जिले में मैं रहता हूं, वह भीषण सूखे की चपेट में है। जीवन को प्रवाहमान रखने के लिए हम किसानों के सामने मानसून के साथ जुआ खेलने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। लेकिन यह जुआ खेलते भी तो किस बूते। हमारे गांव के आहर-तालाब अतिक्रमणकारियों के लालच और सरकार की बेरूखी की भेंट चढ़ चुके हैं। नहर में पानी का टोटा पड़ा हुआ है। बिजली सिर्फ दर्शन भर के लिए आती है। डीजल पर अनुदान जैसी राहत की सरकारी घोषणाएं सिर्फ कागजों पर हैं। इस मुश्किल समय में यदि हमारे इलाके के किसान मानसून के साथ जुआ खेलने में समर्थ हो पाए हैं तो चाइनीज डीजल इंजन पंपिंग सेटों के बूते। सरकार जिन स्वदेशी डीजल इंजन पंपिंग सेटों की खरीद पर अनुदान देती है, वे भारी और महंगे होते हैं और एक घंटे में एक लीटर डीजल खा जाते हैं। जबकि चाइनीज डीजल इंजन पंपिंग सेट अपेक्षाकृत सस्ते हैं और हल्के भी। इतने हल्के कि दो आदमी आसानी से इन्हें कहीं भी लेकर जा सकते हैं। सबसे बड़ी बात है कि ये आधे लीटर डीजल में ही एक घंटे चल जाते हैं। बगल के चित्र में जिस डीजल इंजन पंपिंग सेट के जरिए किसान सूखे खेतों तक पानी पहुंचाने का उद्यम कर रहे हैं, वह चाइनीज ही है।
इंटरनेट पर मैं खबर पढ़ रहा हूं कि चीन की दवा कंपनियों ने ''मेड इन इंडिया'' के लेबल के साथ नकली दवाइयां बनाकर उन्हें अफ़्रीकी देश नाइजीरिया भेजा। दो महीने पहले नाइजीरिया में ऐसी नकली दवाओं की एक बड़ी खेप पकड़ी गयी थी। कहा जा रहा है कि खुद चीनी अधिकारियों ने भी मान लिया है (कि चीनी कंपिनयां इस कांड में शामिल थीं)। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि चीन की निंदा करूं या उसे धन्यवाद दूं। आखिर यह भी तो सच है कि हमारे इलाके के असंख्य किसान चीन निर्मित डीजल इंजन पंपिंग सेटों की ताकत पर ही तो मानसून के साथ जुआ खेलने में समर्थ हो पाए हैं।
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11 अप्रैल को हिन्दी के प्रख्यात कथाशिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की पुण्यतिथि थी। उस दिन चाहता था कि उनकी स्मृति से जुड़ी कुछ बातें खेती-...