Saturday, September 27, 2008
जीएम फूड : दाने दाने पर लिखा होगा बनानेवाले का नाम
दाने दाने पर लिखा है, खानेवाले का नाम। यह कहावत आपने जरूर सुनी होगी। लेकिन अब हमें उस समय के लिए तैयार रहना चाहिए, जब कहना पड़े, 'दाने दाने पर लिखा है, बनानेवाले का नाम।' हाल के वर्षों में मोंसैंटो, सिनजेंटा, बीएएसएफ आदि जैसी बहुराष्ट्रीय निजी कंपिनयों द्वारा तैयार जीन संवर्धित (Genetically Modified) बीजों का दबदबा जितनी तेजी से बढ़ रहा है, उसका यही निहितार्थ है।
जीएम पौधों का उत्पादन जेनेटिक इंजीनियरिंग विधि से किया जाता है। इसमें आनुवांशिक सामग्री मिलाकर फसल के गुण बदलते हैं। जींस के हस्तांतरण का यह कार्य प्रयोगशाला में होता है। उसके बाद उस फसल की प्रायोगिक खेती (Field Trials) कर उसे परखा जाता है। तत्पश्चात व्यापारिक रूप से फसल का उत्पादन किया जाता है।
जीएम फूड की स्वीकार्यता को लेकर दुनिया भर में विवाद रहा है। जीन का हस्तांतरण प्रकृति के विधान के विरुद्ध कार्य है तथा जरूरी नहीं कि इसके परिणाम अच्छे ही हों। इसको लेकर अनेक लोगों की नैतिक और धार्मिक आपत्तियां रहती हैं। खासकर शाकाहारियों को आशंका रहती है कि इस भोजन में मानव व पशु जीन न हों। पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) पर जीएम फसलों के साइड इफेक्ट होने की खबरें भी आती रहती हैं। वैसे भी निजी कंपनियों का मुख्य उद्देश्य मुनाफा होता है तथा इसके लिए वे बहुत सी अनुचित बातों को नजरअंदाज कर सकती हैं। इन कंपनियों पर भारत जैसे गरीब देशों में चोरी-चुपके फील्ड ट्रायल करने के आरोप भी लगते रहे हैं।
अभी तो एशियाई देशों खासकर भारत में पारंपरिक फसलों का महत्व बरकरार है। लेकिन भारत में भी मोनसेंटो और महीको (महाराष्ट्र हाइब्रिड सीड कंपनी) कंपनियों के बीटी (बैसिलस थ्यूरेनजिएन्सिस) कपास बीज तमाम विरोध के बावजूद देश के कई हिस्सों में उगाए जा चुके हैं और उनके रकबे में लगातार विस्तार हो रहा है। यही नहीं, बीटी बैगन जैसे कई अन्य जीन संवर्धित फसलों की प्रायोगिक खेती शुरू हो चुकी है और अगले वर्ष से उन्हें बाजार में व्यावसायिक तौर पर उपलब्ध कराए जाने की योजना है।
जीएम सीड के बढ़ते हुए दबदबे का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके कारोबार में लगी अमरीकी कंपनी मोनसेंटो, यूरोपीय कंपनी सिनजेंटा तथा जर्मन कंपनी बीएएसएफ ने पिछले वर्ष अरबों रुपये डॉलर का मुनाफा बटोरा। कुछ साल पहले तक विश्वव्यापी विरोध के कारण मोंसैंटो को जहां वर्ष 2003 में 2 करोड़ 30 लाख डालर का घाटा उठाना पड़ा था, उसीने वर्ष 2007 में एक अरब डॉलर का मुनाफा कमाया। यूरोप की जिनसेटा ने बीते वर्ष एक अरब 10 करोड़ डॉलर का शुद्ध लाभ अर्जित किया, जो पिछले वर्ष की इसी अवधि की तुलना में 75 फीसदी अधिक रहा। इन कंपनियों के बीज आज पराग्वे से लेकर चीन तक और भारत से लेकन अर्जेंटीना तक धड़ल्ले से बिक रहे हैं।
भारत में घाटे का सौदा हो चुकी खेती के भंवरजाल में फंसे किसानों को जीन संवर्धित हाइब्रिड बीज काफी लुभा रहे हैं। कृषि विशेषज्ञों द्वारा भी कहा जा रहा है कि कृषि उपज वृद्धि में आ चुके ठहराव को हाइब्रिड बीज ही गति दे सकते हैं। विश्वव्यापी खाद्य संकट ने भी जीन संवर्धित फसलों की स्वीकार्यता की राह आसान बनायी है।
जीएम फसल जब अधिक उपज देंगे तो कोई भी किसान गैर-जीएम पारंपरिक फसल नहीं उगाना चाहेगा। भविष्य में यह भी हो सकता है कि जीएम फसलों के अपमिश्रण से पारंपरिक फसल दूषित होकर विलुप्त हो जाएं। चूंकि जीएम बीजों के उत्पादन का करीब सारा कारोबार निजी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नियंत्रण में है, इसलिए वह दिन दूर नहीं जब हमारे भोजन के हरेक दाने पर किसी न किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का नाम लिखा हो। यह भी संभव है कि तब हम फसलों को धान, गेहूं, अरहर, आलू, बैंगन, कपास जैसे उनके पारंपरिक नामों के बजाय ब्रांडनेम (पेप्सी व कोकाकोला की तरह) से जानें।
(फोटो बीबीसी हिन्दी से साभार)
Monday, September 22, 2008
झारखंड से निकली भोजपुरी पत्रिका 'परास'
झारखंड प्रदेश से भोजपुरी की नयी त्रैमासिक पत्रिका परास का प्रकाशन आरंभ हुआ है। तेनुघाट साहित्य परिषद (बोकारो) द्वारा निकाली जा रही इस पत्रिका के संपादक आसिफ रोहतासवी के हिन्दी और भोजपुरी के कई कविता व गजल संग्रह आ चुके हैं। पटना विश्वविद्यालय के सायंस कॉलेज में हिन्दी के व्याख्याता डॉ. रोहतासवी की रचनाओं में कृषि संस्कृति और ग्राम जीवन की अमिट छाप देखने को मिलती है। आशा है उनके कुशल संपादन में यह पत्रिका भी गांव की मिट्टी से जुड़ी इन संवेदनाओं की वाहक बनेगी।
परास के समहुत-अंक से उद्धृत है लोकप्रिय कवि व गीतकार स्व. कैलाश गौतम का एक भोजपुरी गीत :
चला चलीं कहीं बनवा के पार हिरना
एही बनवा में बरसै अंगार हिरना।
रेत भइलीं नदिया, पठार भइलीं धरती
जरि गइलीं बगिया, उपर भइलीं परती
एही अगिया में दहकै कछार हिरना।
निंदिया क महंगी सपनवा क चोरी
एही पार धनिया, त ओहि पार होरी
बिचवां में उठलीं दीवार हिरना।
बड़ी-बड़ी बखरी क बड़ी-बड़ी कहनी
केहू धोवै सोरिया, त केहू तौरै टहनी
केहू बीछै हरी-हरी डार हिरना।
गीतिया ना महकी, ना फुलिहैं कजरवा
लुटि जइहैं लजिया, न अंटिहैं अंचरवा
बिकि जइहैं सोरहो सिंगार हिरना।
Friday, September 19, 2008
विदर्भ के आत्महत्या कर रहे किसानों को 4825 करोड़ रुपए में मिली सिर्फ दो फीसदी रकम
लोग समझते हैं कि सरकार किसानों को राहत पहुंचा रही है, और माल चला जाता है कुछ लोगों की जेब में। आप के द्वारा दिया गया जो टैक्स देश के विकास व खुशहाली पर खर्च होना चाहिए, वह घोटालों की भेंट चढ़ जाता है। आतंकवादियों व अपराधियों से भी निष्ठुर हैं ये घोटालेबाज। आत्महत्या कर रहे विदर्भ के किसानों का निवाला छिनने में भी इनकी आत्मा नहीं डोली। प्रस्तुत है करोड़ों रुपये का गाय भैंस घोटाला शीर्षक से बिजनेस स्टैंडर्ड में मुंबई डेटलाइन से प्रकाशित यह खबर :
देश में किसानों की बढ़ती आत्महत्या की घटनाओं को रोकने के लिए केन्द्र और राज्य सरकार ने राहत पैकेज की घोषणा तो कर दी है लेकिन यह राहत पैकेज किसानों के पेट की आग न बुझाकर नेताओं और उनके चेलों की जेब में समा गया।
यह बात सूचना अधिकार के द्वारा मांगी गई जानकारी के जरिए प्रकाश में आई है। सरकारी खजाने से किसानों के लिए दिए गए 4825 करोड़ रुपए में से किसानों को मिली सिर्फ दो फीसदी रकम, बाकी की रकम बैंक, नेताओं और सरकारी बाबुओं की तिकड़ी डकार गयी।
देश में सबसे ज्यादा विदर्भ के अन्नदातों ने गरीबी और तंगहाली से परेशान होकर मौत को गले लगाना बेहतर समझा। देश-विदेश में भूख से मरने की खबरों से शर्मसार होकर महाराष्ट्र और केन्द्र सरकार ने विदर्भ के किसानों को विशेष राहत पैकेज दिया।
विदर्भ में किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने दिसंबर 2005 में 1075 करोड़ रुपए का राहत देने की घोषणा की। इसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जुलाई 2006 में अपने विदर्भ दौरे के दौरान इस क्षेत्र के अन्नदाताओं के विकास के लिए 3750 करोड़ रुपये देने की बात कही।
सरकारी खजाने से दिए गए पैसों के लिए योजना के तहत किसानों के बीच दुग्ध कारोबार को बढ़ावा दिया जाना था। इस पैकेज के मूल उद्देश्य किसानों को दुग्ध व्यसाय से जोड़ने के तहत 4 करोड़ 95 लाख 35 हजार रुपये जानवारों की खरीददारी में खर्च किए गए। इन पशुओं के लिए चारे और अन्य पोशक तत्वों में 63 लाख 64 हजार रुपये और गाय-भैसों पर 35 लाख 35 हजार रुपये खर्च कर दिए गए।
इसके अलावा, यवतमाल जिला दुध उत्पादक सहकारी संस्था के माध्यम से 53 लाख रुपये खर्च करने का बजट बनाया गया, जिसमें से 40.95 लाख रुपये खर्च भी कर दिए गए और 14.05 लाख रुपये खर्च किये जाने वाले है।
पहली नजर में देखने या कहें कि एसी दफ्तरों में बैठ कर इस योजना को देखने पर किसानों का लाभ ही लाभ दिखाई दे रहा है लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं हैं, क्योंकि सूचना अधिकार के तहत मिली लाभांवित किसानों की सूची बोगस है।
विदर्भ किसानों के लिए सबसे ज्यादा संघर्ष करने वाले किशोर तिवारी कहते हैं कि हमारे नेताओं को शर्म नहीं आती है कि वे भूखे किसानों के पेट की रोटी खुद खा रहे है। इस खुलासे के बाद महाराष्ट्र सरकार जांच करने की बात कह कर मामला टालने में लग गयी है,क्योंकि महाराष्ट्र और केन्द्र की सत्ता में बैठी कांग्रेस और एनसीपी दोनों के नेता इसमें शामिल है।
किसानों के संघटन का नेतृत्व कर रहे किशोर तिवारी ने इन नेताओं के ऊपर आपराधिक मुकदमा चलाए जाने की मांग करते हुए कहा कि आजाद भारत का यह सबसे शर्मसार कर देने वाला गाय-भैंस घोटला है। उनके अनुसार सरकारी खजाने से किसानों के लिए राहत पैकेज के नाम से निकाली गयी राशि में से सिर्फ दो फीसदी की रकम किसानों तक पहुंची है, बाकि की राशि बैंकों, नेताओं और सरकारी अधिकारियों की तिजोरियों में जमा हो गयी है।
देश में किसानों की बढ़ती आत्महत्या की घटनाओं को रोकने के लिए केन्द्र और राज्य सरकार ने राहत पैकेज की घोषणा तो कर दी है लेकिन यह राहत पैकेज किसानों के पेट की आग न बुझाकर नेताओं और उनके चेलों की जेब में समा गया।
यह बात सूचना अधिकार के द्वारा मांगी गई जानकारी के जरिए प्रकाश में आई है। सरकारी खजाने से किसानों के लिए दिए गए 4825 करोड़ रुपए में से किसानों को मिली सिर्फ दो फीसदी रकम, बाकी की रकम बैंक, नेताओं और सरकारी बाबुओं की तिकड़ी डकार गयी।
देश में सबसे ज्यादा विदर्भ के अन्नदातों ने गरीबी और तंगहाली से परेशान होकर मौत को गले लगाना बेहतर समझा। देश-विदेश में भूख से मरने की खबरों से शर्मसार होकर महाराष्ट्र और केन्द्र सरकार ने विदर्भ के किसानों को विशेष राहत पैकेज दिया।
विदर्भ में किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने दिसंबर 2005 में 1075 करोड़ रुपए का राहत देने की घोषणा की। इसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जुलाई 2006 में अपने विदर्भ दौरे के दौरान इस क्षेत्र के अन्नदाताओं के विकास के लिए 3750 करोड़ रुपये देने की बात कही।
सरकारी खजाने से दिए गए पैसों के लिए योजना के तहत किसानों के बीच दुग्ध कारोबार को बढ़ावा दिया जाना था। इस पैकेज के मूल उद्देश्य किसानों को दुग्ध व्यसाय से जोड़ने के तहत 4 करोड़ 95 लाख 35 हजार रुपये जानवारों की खरीददारी में खर्च किए गए। इन पशुओं के लिए चारे और अन्य पोशक तत्वों में 63 लाख 64 हजार रुपये और गाय-भैसों पर 35 लाख 35 हजार रुपये खर्च कर दिए गए।
इसके अलावा, यवतमाल जिला दुध उत्पादक सहकारी संस्था के माध्यम से 53 लाख रुपये खर्च करने का बजट बनाया गया, जिसमें से 40.95 लाख रुपये खर्च भी कर दिए गए और 14.05 लाख रुपये खर्च किये जाने वाले है।
पहली नजर में देखने या कहें कि एसी दफ्तरों में बैठ कर इस योजना को देखने पर किसानों का लाभ ही लाभ दिखाई दे रहा है लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं हैं, क्योंकि सूचना अधिकार के तहत मिली लाभांवित किसानों की सूची बोगस है।
विदर्भ किसानों के लिए सबसे ज्यादा संघर्ष करने वाले किशोर तिवारी कहते हैं कि हमारे नेताओं को शर्म नहीं आती है कि वे भूखे किसानों के पेट की रोटी खुद खा रहे है। इस खुलासे के बाद महाराष्ट्र सरकार जांच करने की बात कह कर मामला टालने में लग गयी है,क्योंकि महाराष्ट्र और केन्द्र की सत्ता में बैठी कांग्रेस और एनसीपी दोनों के नेता इसमें शामिल है।
किसानों के संघटन का नेतृत्व कर रहे किशोर तिवारी ने इन नेताओं के ऊपर आपराधिक मुकदमा चलाए जाने की मांग करते हुए कहा कि आजाद भारत का यह सबसे शर्मसार कर देने वाला गाय-भैंस घोटला है। उनके अनुसार सरकारी खजाने से किसानों के लिए राहत पैकेज के नाम से निकाली गयी राशि में से सिर्फ दो फीसदी की रकम किसानों तक पहुंची है, बाकि की राशि बैंकों, नेताओं और सरकारी अधिकारियों की तिजोरियों में जमा हो गयी है।
Sunday, September 7, 2008
कोसी की बाढ़ और भारत गांव की लघुकथा
पिछले कुछ दिनों से कोसी नदी की बाढ़ से उत्तरी बिहार में मची तबाही की खबरों को पढ़-देख कर कर मन में उमड़ रहे भावों ने कब एक लघुकथा का शक्ल ले लिया पता ही नहीं चला। वह अच्छी या बुरी जैसी भी है, आपके समक्ष प्रस्तुत है :
भारत नामक गांव के दस भाइयों के उसे बड़े परिवार में वैसे तो सभी हिन्दीभाषी थे, लेकिन दो भाई अंगरेजी भी जानते थे।
जमींदार की गुलामी से आजाद होने के बाद सभी भाइयों ने मिलकर नया घर बनाया और नए तरीके से गृहस्थी बसाई।
हिन्दी जाननेवाले आठ भाई खुद कृषि, दस्तकारी आदि पेशे में लग गए और घर चलाने की जिम्मेवारी अंगरेजी जाननेवाले भाइयों को सौंप दी।
पहले परिवार के सारे निर्णय सबकी सहमति से होते थे। लेकिन अब अंगरेजी जाननेवाले दोनों भाई एक-दूसरे से ही विमर्श कर घर के सभी फैसले करने लगे।
धीरे-धीरे उन्होंने परिवार की अधिकांश जायदाद अपने कब्जे में कर ली और शहर में जाकर रहने लगे। शहर में अपने मकान में उन्होंने लाखों रुपये के टाइल्स लगवाए, लेकिन गांव में मौजूद हिन्दीभाषी भाइयों के मिट्टी के मकान की मरम्मत तक नहीं कराई।
एक दिन इतनी तेज बारिश हुई कि गांव के उनके और अन्य सारे लोगों के मकान ढह गए और अधिकांश लोग मलबे में दब कर मर गए। अब गांव में चारों ओर या तो मलबे और लाशें थीं, या जख्मी अधमरे लोगों की करुण चित्कार।
बारिश में मरे लोगों के जीवन का दर्द अब आंसू की शक्ल में अंगरेजी जाननेवाले भाइयों की कलम से अबाध गति से झर रहा है। कभी वे इस दर्द को अपने मुंह से बयां करते हैं, कभी उनकी लेखनी कमाल दिखाती है। अक्सर वे इस विपदा के लिए प्रकृति या सरकार को कोसते हैं। अब वे दुनिया भर के लोगों के धन्यवादपात्र हैं, क्योंकि उन्हीं के माध्यम से दुनिया को भारत गांव के लोगों की बदनसीबी व बदहाली की जानकारी मिली। अगर वे नहीं होते तो शायद लोगों को यह सब पता ही नहीं चलता।
भारत नामक गांव के दस भाइयों के उसे बड़े परिवार में वैसे तो सभी हिन्दीभाषी थे, लेकिन दो भाई अंगरेजी भी जानते थे।
जमींदार की गुलामी से आजाद होने के बाद सभी भाइयों ने मिलकर नया घर बनाया और नए तरीके से गृहस्थी बसाई।
हिन्दी जाननेवाले आठ भाई खुद कृषि, दस्तकारी आदि पेशे में लग गए और घर चलाने की जिम्मेवारी अंगरेजी जाननेवाले भाइयों को सौंप दी।
पहले परिवार के सारे निर्णय सबकी सहमति से होते थे। लेकिन अब अंगरेजी जाननेवाले दोनों भाई एक-दूसरे से ही विमर्श कर घर के सभी फैसले करने लगे।
धीरे-धीरे उन्होंने परिवार की अधिकांश जायदाद अपने कब्जे में कर ली और शहर में जाकर रहने लगे। शहर में अपने मकान में उन्होंने लाखों रुपये के टाइल्स लगवाए, लेकिन गांव में मौजूद हिन्दीभाषी भाइयों के मिट्टी के मकान की मरम्मत तक नहीं कराई।
एक दिन इतनी तेज बारिश हुई कि गांव के उनके और अन्य सारे लोगों के मकान ढह गए और अधिकांश लोग मलबे में दब कर मर गए। अब गांव में चारों ओर या तो मलबे और लाशें थीं, या जख्मी अधमरे लोगों की करुण चित्कार।
बारिश में मरे लोगों के जीवन का दर्द अब आंसू की शक्ल में अंगरेजी जाननेवाले भाइयों की कलम से अबाध गति से झर रहा है। कभी वे इस दर्द को अपने मुंह से बयां करते हैं, कभी उनकी लेखनी कमाल दिखाती है। अक्सर वे इस विपदा के लिए प्रकृति या सरकार को कोसते हैं। अब वे दुनिया भर के लोगों के धन्यवादपात्र हैं, क्योंकि उन्हीं के माध्यम से दुनिया को भारत गांव के लोगों की बदनसीबी व बदहाली की जानकारी मिली। अगर वे नहीं होते तो शायद लोगों को यह सब पता ही नहीं चलता।
(फोटो बीबीसी हिन्दी से साभार)
Wednesday, September 3, 2008
खेती-बाड़ी की समीक्षा : रंजना भाटिया की कलम से
18 मई, 2008 को जब मैंने अपनी पहली पोस्ट लिखी थी, उस समय मैं ब्लॉगजगत के लिए अजनबी था। न कोई दोस्त, न कोई परिचित। किसी नए ब्लॉगर के इष्ट मित्रों द्वारा लिखित उसके स्वागत वाली पोस्टें पढ़ता तो सोचता- ''काश, यहां मेरा भी कोई करीबी होता।''
लेकिन इन साढ़े तीन महीनों में ब्लॉगजगत के लोगों से इतना स्नेह और प्रोत्साहन मिला कि एकाकीपन कब और कहां चला गया पता ही नहीं चला। आज पूरा हिन्दी ब्लॉगजगत परिवार सा लगता है, और मैं अपने को सौभाग्यशाली समझता हूं कि मैं इस परिवार का सदस्य हूं।
साथी चिट्ठाकारों के प्रोत्साहन की ताजा कड़ी कई महत्वपूर्ण चिट्ठों का लेखन कर रही लोकप्रिय चिट्ठाकार रंजना भाटिया जी द्वारा मेरे चिट्ठे खेती-बाड़ी की हिन्दी मीडिया पर समीक्षा है। इसे इस लिंक पर जाकर देखा जा सकता है। रंजना जी ने इस देहाती किसान के ब्लॉग को इस लायक समझा, उनका हार्दिक आभार।
इसके साथ ही मैं तस्लीम के महामंत्री जाकिर अली 'रजनीश' जी को भी धन्यवाद देता हूं जिन्होंने विज्ञान ब्लॉग चर्चा के तहत आज अपनी पोस्ट में खेती-बाड़ी को भी इज्जत बख्शी है।
एक विनम्र निवेदन : कोसी नदी की प्रलयंकारी बाढ़ से बिहार के कम-से-कम 8 जिलों के 417 से भी अधिक गांवों के करीब 40 लाख लोग बेघर और दाने-दाने के मोहताज हो गए हैं। हो सकता है, इनमें से कुछ अपनी रोजी-रोटी के लिए थोड़े समय के लिए आपके-हमारे शहर-गांव में भी शरण लें। हमारी थोड़ी सी संवेदना व समझदारी इनके जीवन-संघर्ष को कुछ आसान बना सकती है।
लेकिन इन साढ़े तीन महीनों में ब्लॉगजगत के लोगों से इतना स्नेह और प्रोत्साहन मिला कि एकाकीपन कब और कहां चला गया पता ही नहीं चला। आज पूरा हिन्दी ब्लॉगजगत परिवार सा लगता है, और मैं अपने को सौभाग्यशाली समझता हूं कि मैं इस परिवार का सदस्य हूं।
साथी चिट्ठाकारों के प्रोत्साहन की ताजा कड़ी कई महत्वपूर्ण चिट्ठों का लेखन कर रही लोकप्रिय चिट्ठाकार रंजना भाटिया जी द्वारा मेरे चिट्ठे खेती-बाड़ी की हिन्दी मीडिया पर समीक्षा है। इसे इस लिंक पर जाकर देखा जा सकता है। रंजना जी ने इस देहाती किसान के ब्लॉग को इस लायक समझा, उनका हार्दिक आभार।
इसके साथ ही मैं तस्लीम के महामंत्री जाकिर अली 'रजनीश' जी को भी धन्यवाद देता हूं जिन्होंने विज्ञान ब्लॉग चर्चा के तहत आज अपनी पोस्ट में खेती-बाड़ी को भी इज्जत बख्शी है।
एक विनम्र निवेदन : कोसी नदी की प्रलयंकारी बाढ़ से बिहार के कम-से-कम 8 जिलों के 417 से भी अधिक गांवों के करीब 40 लाख लोग बेघर और दाने-दाने के मोहताज हो गए हैं। हो सकता है, इनमें से कुछ अपनी रोजी-रोटी के लिए थोड़े समय के लिए आपके-हमारे शहर-गांव में भी शरण लें। हमारी थोड़ी सी संवेदना व समझदारी इनके जीवन-संघर्ष को कुछ आसान बना सकती है।
Subscribe to:
Posts (Atom)
-
भाषा का न सांप्रदायिक आधार होता है, न ही वह शास्त्रीयता के बंधन को मानती है। अपने इस सहज रूप में उसकी संप्रेषणयीता और सौन्दर्य को देखना हो...
-
आज पहली बार हमारे गांव के मैनेजर बाबू को यह दुनिया अच्छे लोगों और अच्छाइयों से भरी-पूरी लग रही है। जिन पढ़े-लिखे शहरी लोगों को वे जेठ की द...
-
आज के समय में टीवी व रेडियो पर मौसम संबंधी जानकारी मिल जाती है। लेकिन सदियों पहले न टीवी-रेडियो थे, न सरकारी मौसम विभाग। ऐसे समय में महान कि...
-
इस शीर्षक में तल्खी है, इस बात से हमें इंकार नहीं। लेकिन जीएम फसलों की वजह से क्षुब्ध किसानों को तसल्ली देने के लिए इससे बेहतर शब्दावली ...
-
भूगर्भीय और भूतल जल के दिन-प्रतिदिन गहराते संकट के मूल में हमारी सरकार की एकांगी नीतियां मुख्य रूप से हैं. देश की आजादी के बाद बड़े बांधों,...
-
पिछले आलेख में मुंडेश्वरी मंदिर के बारे में सामान्य जानकारी दी गयी थी, लेकिन आज हम विशेष रूप से उन पुरातात्विक साक्ष्यों के बारे में बात...