भारतीय गांवों का आत्मनिर्भर स्वरूप तेजी से समाप्त हो रहा है। गांवों की परंपरागत अर्थव्यवस्था और प्रौद्योगिकी को पिछले दो-ढाई दशकों में जो नुकसान पहुंचा है, वह अकल्पनीय है। देश की मौजूदा सरकारों की तथाकथित उदारीकरण की आर्थिक नीतियों के पैरोकार अब तो खुलेआम छह लाख गांवों को खत्म कर उनकी जगह छह सौ या छह हजार शहर बनाने की बात करने लगे हैं। इस संदर्भ में ब्लॉग पत्रिका निरंतर के लिए कुछ माह पहले मैंने एक आलेख लिखा था। उसे यहां साभार प्रस्तुत किया जा रहा है :
देश के छह लाख गांवों को कुछ सौ या हजार शहरों में तब्दील कर देना अव्यावहारिक ही नहीं, टेढ़ी खीर भी है। यह विडंबना ही है कि छह दशक तक गांवों को स्वर्ग बनाने की बात की जाये, और उसके बाद कहा जाये - नहीं, अब स्वर्ग के बदले शहर बसाये जायेंगे।
अनाज की रोज बढ़ रही कीमतों से लोग अभी ही इतने कष्ट में हैं। जब किसान शहरों में जा बसेंगे, तब क्या होगा? जाहिर है, तब खेत-खलिहान भी पूंजीपतियों के नियंत्रण में चले जायेंगे। जरूरी नहीं कि वे उन खेतों में अनाज ही उपजायें। वे उस जमीन पर फैक्टरियां भी लगा सकते हैं। जो खेती होगी भी, वह पूंजीवादी प्रणाली में ढली होगी। तब खाद्य पदार्थों की कीमतों का अपने बजट के साथ तालमेल बिठा पाना शहरी मध्य व निम्न वर्ग के बूते की बात नहीं रहेगी।
गांव के जो लोग शहर में जाकर रहेंगे, खासकर पुरानी पीढ़ी के लोग, खुद उनके लिए भी शहरी जीवन से सामंजस्य बिठा पाना उतना आसान नहीं होगा। कष्ट सहकर भी कृषि में मर्यादा देखनेवाला किसान शहर में मजदूर बनकर कभी खुश नहीं रहेगा।
सवाल यह भी उठता है कि देश के 70 - 80 करोड़ ग्रामीणों को बसाने लायक शहरों को बनायेगा कौन? जो राजनैतिक नेतृत्व आजादी के छह दशकों बाद भी ग्रामीणों को स्वच्छ पेयजल तक मुहैया नहीं करा सका, वह एक-दो दशकों में उनके लिए सुविधाओं से संपन्न चमचमाता शहर बना देगा? फिर, इसके लिए पैसा कहां से आयेगा? यदि यह जिम्मेवारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देने की सोच है, तो क्या जरूरत थी देश की आजादी की? ईस्ट इंडिया कंपनी हमारा 'भरण-पोषण' कर ही रही थी।
दुनिया की दूसरी सबसे विशाल आबादी पूरी की पूरी शहरों में रहने लगेगी, तो पर्यावरण प्रदूषण के खतरे भयावह हो जायेंगे। वर्तमान में मौजूद शहरों व कस्बों का प्लास्टिक कचरा आस-पास की जमीन को बंजर बना रहा है। शहरों के पड़ोस में स्थित नदियां गंदा नाला बनती जा रही हैं। अभी यह हाल है, तो 600 या 6000 नये शहर अस्तित्व में आयेंगे तब क्या होगा?
शहरीकरण के समर्थकों का तर्क रहता है कि दूर-दूर बिखरे गांवों की बनिस्बत शहरों को बिजली, पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, सुरक्षा आदि की सुविधाएं देने में आसानी होगी। तो क्या आप देश के गैर शहरी क्षेत्रों को इन सुविधाओं से वंचित कर देंगे? क्या उन इलाकों को एक बार फिर आदिम युग में ढकेल दिया जायेगा?
दरअसल, भारत के गांवों को शहर बनाने की बात बाजार की ताकतों के दबाव में की जा रही है। आर्थिक उदारीकरण के बाद देश में औद्योगिक प्रगति की रफ्तार तेज हुई है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सक्रियता भी बढ़ी है। उन कंपनियों को अपना माल खपाने के लिए बाजार चाहिए। लेकिन आत्मनिर्भर गांवों की सोच इस बाजारवाद के विस्तार में बाधक है। भारत की ग्रामीण आबादी जब शहरों में रहने लगेगी तो वह अपनी छोटी मोटी जरूरतों के लिए भी बाजार की बाट जोहने को विवश होगी। शहरी भारत ग्रामीण भारत की तुलना में बेहतर उपभोक्ता साबित होगा।