Saturday, May 31, 2008

अब कौन सा छू-मंतर कर देंगे वित्तमंत्री जी?


क्या सचमुच सरकार गरीबी मिटा रही है? वह शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, पेयजल आदि पर जो खर्च कर रही उसका लाभ सही में लक्षित लोगों को मिल रहा है? यदि गरीबी सबसे अधिक प्रदूषण फैलाती है तो उस गरीबी का जिम्मेवार कौन है? ये सवाल मैं तहलका में प्रकाशित वित्तमंत्री पी चिदंबरम की शोमा चौधरी व शांतनु गुहा रे के साथ बातचीत के सन्दर्भ में कर रहा हूँ, जिसपर अभय तिवारी जी ने अपने चिट्ठे में शानदार लेख लिखा है।

सच तो यह यह है कि वित्तमंत्री ने इस बातचीत में कई बातें ऐसी कही हैं, जो कांग्रेस की घोषित नीतियों व कार्यक्रम तथा बापू की गाँव सम्बन्धी अवधारणा के विरूद्ध है। गांव, गरीब, कृषि व किसान के प्रति सरकार की सोच तो ये बातें जाहिर कर ही देती हैं।

पी चिदंबरम का दावा है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल व स्वच्छता पर जितनी राशि इस समय खर्च हो रही है, उतनी भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुई। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या सही में इसका फायदा उनलोगों तक पंहुच रहा है, जिन तक पहुंचना चाहिए। शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल व स्वच्छता की मौजूदा स्थिति क्या है, समाचारपत्रों में रोज छपता है और हर कोई उससे दो-चार होता रहता है।

श्री चिदंबरम कहते हैं, "गरीबी प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक है। गरीब सबसे गंदी दुनिया में रहते हैं। उनकी दुनिया में सफाई, पेयजल, आवास, हवा...जैसी चीजें नारकीय अवस्था में होती हैं। हर चीज प्रदूषणयुक्त होती है। इसलिए मैंने कहा कि सबसे ज्यादा प्रदूषण गरीबी फैलाती है। ये हमारा अधिकार और कर्तव्य है कि पहले गरीबी को हटाया जाए। इस प्रक्रिया में हम उन चिंताओं के प्रति संवेदनशील रहेंगे जो दूसरे देशों द्वारा व्यक्त की गई हैं।" इससे तो यही लगता है कि उनकी नजर में गरीबों और कीडे-मकोडों में कोई अन्तर नहीं। हम भी मान लेते हैं उनकी बात। लेकिन इस गरीबी के लिए जिम्मेवार कौन है। आजादी के बाद अधिकांश समय तो इस देश में कांग्रेस पार्टी की सरकार ही रही है। फिर हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी और वित्तमंत्री जी कोई पहली बार तो देश के मंत्री बने नही हैं। क्या किया इतने दिनों तक। इतने दिनों तक गरीबी नहीं हटा सके तो अब कौन सा छू-मंतर कर देंगे?

हमारे इलाके में मुसहर जाती सबसे गरीब मानी जाती है। सरकार ने स्वच्छता अभियान के तहत उनके उपयोग के लिए जो शौचालय बनवाये हैं, उसका नमूना इस फोटो में देखा जा सकता है। हमारी सरकार में बैठे लोग कर लेंगे वैसे शौचालय में शौच? अब ये गरीब खुले में शौच करते हैं तो उसके लिए कौन दोषी है? सरकार ने हमारा ही पैसा हमारे नाम पर खर्च तो कर दिया लेकिन लाभ तो हमें नहीं मिला।

वित्तमंत्री का कहना है कि गरीबी इस देश में ५००० सालों से है। यह बात ऐतिहासिकता से परे है। जब हम गरीब ही थे तो वास्को दी गामा को क्या पड़ी थी भारत का जलमार्ग खोजने की? वित्तमंत्री जी हमारी विरासत को तो गाली मत दो। आपको हमारे जन-गन-मन पर गर्व न हो, हमें तो है। क्या हो गया है इस कांग्रेस पार्टी को? एक तरफ़ वह स्वर्गीय राजीव गाँधी के पंचायती राज के सपने को पूरा करने की बात करती है, दूसरी तरफ़ उसकी सरकार के मंत्री गांवों को मिटाने की बात करते हैं। वित्तमंत्री जी कहते हैं कि गरीबी-मुक्त भारत को लेकर उनका जो विचार है, उसमें तकरीबन ८५ फीसदी लोग शहरों में रहेंगे।

भाई हमें तो ये विरोधाभास समझ में नही आ रहा। किसी को आ रहा तो बताये, मेहरबानी होगी।

Tuesday, May 27, 2008

'ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत' से किसानों का भला नहीं

"यावत जीवेत सुखं जीवेत,
ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत।
"

यानी, जब तक जीयो सुख से जीयो, कर्ज लेकर घी पीयो। लगता है हमारी सरकार और बैंकों ने किसानों को इस 'चार्वाक दर्शन' का पाठ पढाने की ठान ली है। तभी तो पहले केन्द्र सरकार की कर्ज-माफ़ी की घोषणा, और अब भारतीय स्टेट बैंक की तरफ़ से किसानों को डबल कर्ज। नई फसल बोने के समय किसानों को आर्थिक मदद मिले तो सबका भला होगा। लेकिन बाद में मिला कर्ज साहूकारों की उधारी चुकाने और अन्य अनुत्पादक मदों पर ही खर्च होगा। दुःख की बात है कि ऐसा ही होने जा रहा है। किसानों के लिए केन्द्र सरकार और भारतीय स्टेट बैंक की घोषणाएं 'पोस्ट डेटेड' चेक की तरह हैं। उनका लाभ देश के किसानों को तब मिलेगा जब खरीफ फसल बोने का समय जाता रहेगा। जाहिर है, उस समय तक कई किसान महाजनों के चंगुल में जा चुके होंगे, या महामहिम राष्ट्रपति के भतीजे की भांति आत्महत्या कर चुके होंगे। ऐसे में कृषि या किसानों का कोई भला तो नहीं होगा, साहूकारों व साबुन, लिपस्टिक बनाने वाली कंपनियों की जरूर बन आएगी। मीडिया की खबरों को सही मानें तो कर्ज माफ़ी की घोषणा से वे कंपनियाँ कम खुश नहीं हैं।

कुछ रोज पहले तक किसानों को कर्ज देने से मना करनेवाले भारतीय स्टेट बैंक ने अब उनकी फसल ऋण सीमा दोगुनी कर दी है। इन फैसलों से देश में कृषि और किसानों की स्थिति में कितना सुधार होगा, यह तो बाद की बात है लेकिन बेरुखी से दरियादिली में तब्दीली के 'कभी हाँ, कभी ना' के इस ड्रामे ने देश की वित्तीय संस्थाओं की पोल खोल दी है। इस घटनाक्रम ने एक बार फिर या दिखा दिया है कि किसानों के मसलों को लेकर सरकार की वित्तीय संस्थाएं कितनी गंभीर व ईमानदार हैं। निश्चय ही उनके पास किसानों के लिए कोई सुस्पष्ट नीति या कार्यक्रम का अभाव है।

करीब हफ्ता भर पहले देश के सबसे बड़े इस बैंक ने अपनी शाखाओं को सर्कुलर जारी कर निर्देश दिया था कि वे अगले आदेश तक किसानों को ट्रैक्टर या अन्य कृषि उपकरणों के लिए लोन न दे। स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के इस फैसले का उद्योग जगत ने भी विरोध किया तथा चौतरफा निंदा के बीच उसे एक दिन बाद ही अपना फैसला वापस लेना पडा था। ताजा निर्णय के तहत स्टेट बैंक ने किसानों को दिए जाने वाले फसल लोन की सीमा पचास हजार रुपये से बढाकर एक लाख रुपये कर दी है।

देश में आजादी के बाद के ६० साल के औद्योगिक विकास के सफर के बावजूद आज भी भारत के ६५ से ७० फीसदी लोग रोजी-रोटी के लिए कृषि और कृषि आधारित कामों पर ही निर्भर हैं। ऐसे में केन्द्र सरकार को यह समझना होगा कि इनलोगों को सिर्फ वोट बैंक मानकर चलने से देश का काफी नुकसान होगा, साथ ही वोट भी नहीं मिलेगा। देश के किसानों को समय पर खाद, बीज और सिंचाई चाहिए। उपज का सही दाम चाहिए।

भारत के किसान अपनी मेहनत से अपने खेतों में अनाज उगाकर खाएँगे, अपनी गायों का दुहा दूध-घी पीयेंगे, ये चीजें अन्य देशवासियों को भी मिलेंगी। जब किसान ही कर्ज लेकर घी पीयेगा, तो बाकी का क्या होगा? कौन उपजायेगा अनाज, कौन निकालेगा घी-दूध?


Sunday, May 25, 2008

बहुत कुछ बयान करती है कर्ज में डूबे राष्ट्रपति के किसान भतीजे की खुदकुशी

जब देश के प्रथम नागरिक का किसान भतीजा ही कर्ज के बोझ से खुदकुशी को विवश हो जाये तो अन्य किसानों के हालात आसानी से समझे जा सकते हैं। यह खबर दिनांक 2५.०५.२००८ को 'राष्ट्रीय सहारा' हिन्दी दैनिक के इंटरनेट संस्करण में 'कर्ज में डूबे राष्ट्रपति के किसान भतीजे ने की खुदकुशी' शीर्षक से प्रकाशित हुई है।

खबर में कहा गया है कि राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के रिश्तेदार एक किसान ने कर्ज के बोझ से दबे होने के कारण कीटनाशक पीकर आत्महत्या कर ली। बुलढाणा जिले के खामगांव तालुका के हिंगना कारेगांव के राजेन्द्र सिंह पाटिल ने 20 मई, 2008 की रात कीटनाशक पी ली। उन्हें अकोला के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया जहां शनिवार तड़के उनकी मौत हो गई। 45 वर्षीय राजेन्द्र सिंह पर सरकारी बैंकों का करीब 60 हजार रूपए कर्ज था। इसके अलावा कहा जाता है कि उन्होंने साहूकार से भी ऋण ले रखा था। ऋण वापस करने में असमर्थ होने के कारण उन्होंने यह कदम उठाया। उनके परिवार में पत्नी और तीन बेटियां हैं। एक बेटी की शादी हो गई है तथा दो की अभी करनी थी। कर्ज और बेटियों की शादी को लेकर वह परेशान रहते थे। राजेन्द्र सिंह राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के चचेरे भाई के बेटे थे। वह मूलत: राष्ट्रपति के मायके जलगांव जिला के वडोना गांव के निवासी थे पर पिछले 12 साल से बुलढाणा जिले के हिंगना कारेगांव में रहते थे।

दिलचस्प बात है कि केन्द्र सरकार ने बैंकों से लिया गया किसानों का कर्ज माफ़ करने की घोषणा कर रखी है। हाल ही में मीडिया में ख़बर चली है की केन्द्र सरकार ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की प्रमुख सोनिया गाँधी के सुपुत्र राहुल गाँधी की बात मानते हुए कर्ज माफ़ी योजना में बड़े किसानों को भी शामिल कर लिया है।

दरअसल सरकार की घोषणा और महामहिम राष्ट्रपति के किसान भतीजे की खुदकुशी इस सच्चाई को फिर साबित कर रही हैं कि इस देश के किसान अत्यन्त कष्ट में हैं। सरकार की लोकलुभावन घोषणाओं से उन्हें राहत मिलने के बजाय उनकी परेशानी और बढ़ गई है। कर्ज से राहत पर अभी अमल हुआ नहीं और बैंकों ने उन्हें नया ऋण देना भी बंद कर दिया। ऐसे समय में वे कैसे अपने बेटियों की शादी करें, कैसे बेटों को पढाएँ और कैसे खरीफ की फसल बोयें, यह दर्द वे धरतीपुत्र ही समझ सकते हैं।

गौर करने की बात यह भी है कि राष्ट्रपति के किसान भतीजे की खुदकुशी और कर्णाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय की खबरें लगभग एक ही समय आई हैं। समझने वालों के लिए ये खबरें बहुत बहुत कुछ बयान करती हैं।

Sunday, May 18, 2008

लोहे की बढ़ी कीमतें हैं महंगाई का रक्तबीज

खच्चर बोझ भी ढोता है और गाली भी सुनता है। हमारे देश में किसानों की स्थिति उस निरीह जानवर से बेहतर नहीं है। पहले से ही आत्महत्या कर रहे किसानों के लिए हाल की महंगाई प्राणलेवा है, इसके बावजूद उन्हें इसका बोझ उठाने को विवश किया जा रहा है। महंगाई रोक पाने में सरकार की नाकामी का मुख्य कारण उसकी नीतिऔर नियत में यह खोट ही है।

केन्द्र सरकार के बयानों व मीडिया में छाई खबरों से यह आभास होता है कि खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ने से महंगाई बढ़ी है। हमारे कई पत्रकार भाइयों के लिए महंगाई का मतलब 'थाली' की महंगाई है। 'महंगी हुई थाली, जेब हो रही खाली'- इस तरह के जुमले उछालना उनका प्रिय शगल है। यहाँ उनका मतलब थाली में परोसे जाने वाले अनाज व सब्जियों से होता है। मारवाड़ी ढाबों व उनकी तर्ज पर चलने वाले होटलों व रेस्तराओं में भी थाली का मतलब यही होता है। यह सही आकलन नहीं है। हालिया महंगाई का सम्बन्ध थाली से ही है। लेकिन यहाँ थाली का मतलब सिर्फ़ थाली है- स्टील निर्मित थाली, उसमें परोसी गई चीजें नहीं।

देश में महंगाई लोहे की कीमत बढ़ने से बढ़ी हैं। कृषि ऋण माफ़ी की घोषणा और छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद बने चुनावी माहौल में लोहे की कीमतों में एकाएक उछाल आया, और यही महंगाई के लिए रक्तबीज का काम कर रहा है। कल-कारखाने, मोटर-वाहन, कंप्यूटर, साइकिल, बर्तन, कृषि उपकरण, चापाकल, स्टोव, सिलेंडर व बनावटी गहनों से लेकर रिक्शा, टमटम और ठेले तक सब लोहे से बनते हैं। भवन निर्माण, सड़क निर्माण, विद्युत संयंत्र, पेयजल आपूर्ति- लोहे के बिना कुछ भी संभव नहीं। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में गंगा के मैदानी इलाकों में कृषि, नगरों तथा जैन व बौद्ध सरीखे नए धार्मिक पंथों के विकास में लोहे की कितनी अहम् भूमिका रही, यह वामपंथी इतिहासकारों की पुस्तकों व एनसीईआरटी की कीताबों में दर्ज है। जिस लोहे ने ढाई हजार साल पहले काशी, कौशाम्बी, राजगृह, वैशाली, चंपा, श्रावस्ती, पाटलिपुत्र जैसे शहरों का उद्भव सम्भव बनाया, वह आधुनिक युग में बाजार की कीमतों को प्रभावित नहीं करेगा?

आश्चर्य है कि इतनी सामान्य बात हमारे विद्वान् अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री व वित्तमंत्री नहीं समझते। हो सकता है वे समझना ही नहीं चाहते हों, उनकी कुछ राजनैतिक मजबूरियां हों।

मर्ज का इलाज किए बिना फल और सब्जी खिलाकर मरीज को चंगा करना मुमकिन नहीं। महंगाई को नियंत्रित करना है तो लोहे की कीमतों को पिछले साल के दिसम्बर माह के स्तर पर ले जाना होगा। दूसरा कोई विकल्प नहीं।

बाजार का खुदरा दूकानदार ग्राहक से कीमत सेंसेक्स के उतार-चढाव देख नहीं, क्रय-मूल्य देख वसूल करता है। लोहे की कीमतें किस कदर बढ़ी हैं, उसका दर्द बाजार में लोहे के सामान खरीदने वालों को ही पता चल रहा है। लोहे का जो सरिया (छड़) दिसम्बर 2007 में 27 रूपए प्रति किलो मिलता था, वह माल 2008 में 52 रूपए की दर से बिक रहा है. मतलब पिछले साल की तुलना में करीब दोगुनी कीमत पर। फैक्टरी-निर्मित अन्य चीजों की कीमतें भी बड़ी चालाकी से बढ़ा दी गयी हैं। सस्ते वाशिंग पाउडर के 10 रूपए के पैकेट में पिछले साल 500 ग्राम माल होता था, अब करीब 350 ग्राम माल ही रह रहा है।

देश में अनाजों व सब्जियों के दाम पर इतनी हाय-तौबा की जा रही है, लेकिन हकीकत यह है की लोहे की महंगाई की तुलना में इनकी कीमतों में बढोतरी नगण्य है। हरी सब्जियां गर्मियों में कम निकलती हैं, इसलिए इस समय उनकी कीमत हर साल अधिक रहती है। फिर आलू जैसी कुछ सब्जियां तो इतनी सस्ती है की किसानों की लागत तक नहीं निकल पा रही है। हमारे यहाँ आज की तारीख में किसानों से ढाई रूपए किलो की दर से आलू खरीदने को भी कोई व्यापारी तैयार नहीं। अधिकांश अनाजें आज भी दिसम्बर 2007 वाली कीमतों पर ही बिक रही हैं।

यदि किसी मंडी में अनाज महंगा है तो वह महंगाई नहीं, जमाखोरी, मुनाफाखोरी व कालाबाजारी के कारन है। मुनाफाखोरी व जमाखोरी को महंगाई नाम दे देना उन आर्थिक अपराधियों का बचाव करना है। सरसों तेल की कीमत जमाखोरी के कारण ही बढ़ी थी, किसानों ने नहीं बढ़ाई थी। और फिर अनाज की कीमतें अधिक हैं, तो सरकार ने किसानों को भी उन अधिक कीमतों का लाभ क्यों नहीं दिया? केन्द्र सरकार इस साल भी किसानों से गेहूँ की खरीद पिछले साल के समर्थन मूल्य 1000 रूपए प्रति क्विंटल की दर से ही कर रही है।

सच तो यह है की महंगाई की सबसे अधिक मार किसानों पर ही पड़ी है। उनके जीवन-यापन का व्यय बढ़ गया, कृषि लागत बढ़ गयी, लेकिन अनाज का समर्थन मूल्य पिछले साल वाला ही रहा। इस वर्ष के आरंभ में कृषि व किसानों के संकट पर खूब आंसू बहाए जा रहे थे। खाद्यान्न संकट का रोना रोया जा रहा था। कहा जा रहा था की देश के किसान अनाज की खेती से विमुख हो रहे हैं। किसानों से हमदर्दी दिखाने में कोई भी राजनैतिक दल पीछे नहीं था। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता सीताराम येचुरी ने जनवरी 2008 में कृषि पर एसोचैम की अध्ययन रिपोर्ट जारी करते हुए गेहूं का समर्थन मूल्य 1250 रूपए और धान का समर्थन मूल्य 1000 रूपए करने की मांग की थी। किसानों की माली हालत सुधारने के लिए उनहोंने उस समय ऐसा जरुरी माना था। ये आंसू कहाँ चले गए? क्या महंगाई ने किसानों की माली हालत सुधार दी? क्या अब उद्योगपति और सेठ-साहूकार अपने जायज-नाजायज मुनाफे में से राजनैतिक पार्टियों के बजाय किसानों को चन्दा देने लगे हैं?

धन्य हैं भारत भाग्य विधाता। समर्थन मूल्य पाई भर भी नहीं बढाया, फिर भी कह रहे हैं कि अनाज मंहगे हैं। लोहे की कीमत डबल हो गई, फिर भी फरमाते हैं कि कीमतें कम हो रही है।