
मुंडेश्वरी मंदिर से संबंधित दो पुरातात्विक साक्ष्य अब तक मिले हैं – वहां से प्राप्त प्राचीन शिलालेख और श्रीलंका के महाराजा दुत्तगामनी की राजकीय मुद्रा।
मुंडेश्वरी मंदिर के काल निर्धारण का मुख्य आधार वहां से प्राप्त शिलालेख ही है। अठारह पंक्तियों का यह शिलालेख किन्हीं महाराज उदयसेन का है, जो दो टुकड़ों में खंडित है। इसका एक टुकड़ा 1892 और दूसरा 1902 में मिला। दोनों टुकड़ों को जोड़कर उन्हें उसी साल कलकत्ता स्थित इंडियन म्यूजियम में भेज दिया गया। 2’8”x 1’1” का यह शिलालेख संस्कृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में है। लेख की भाषा में कुछ व्याकरणिक अशुद्धियां हैं और शिला टूट जाने के कारण जोड़ के बीच के कुछ शब्द गुम हो गए हैं। हालांकि विद्वानों ने अपने शोध के आधार पर उनकी पुनर्रचना की है। ब्राह्मी लिपि के उक्त शिलालेख का चित्र और बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद द्वारा किया गया उसका देवनागरी लिप्यंतरण और हिन्दी अनुवाद इस आलेख के साथ यहां प्रस्तुत किया गया है।
मुंडेश्वरी शिलालेख के आरंभ में ही उसके लिखने की तिथि (संवत्सर का तीसवां वर्ष) दी गयी है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यहां संवत्सर का तात्पर्य किस संवत् से है। इस संबंध में विद्वानों के मुख्य रूप से तीन तरह के मत हैं।

शिलालेख को पहली बार 1908 ई. में प्रो. आरडी बनर्जी द्वारा पढ़ा जा सका था, और उन्होंने संवत्सर का आशय हर्षवर्धन के काल से लगाते हुए इसके लिखने की तिथि 636 ई. सन् निर्धारित की। प्रो. बनर्जी द्वारा तैयार किया गया पाठ और उसका अनुवाद Epigraphia India Vol. IX में प्रकाशित हुआ।
विख्यात इतिहासकार एनजी मजुमदार ने शिलालेख का गहन अध्ययन करने के उपरांत संवत्सर का आशय गुप्तकाल से लगाते हुए शिलालेख की तिथि 349 ईस्वी निर्धारित की। उनका विश्लेषण Indian Antiquity, February, 1920 Edition में प्रकाशित हुआ। श्री मजुमदार का स्पष्ट मत है कि मुंडेश्वरी शिलालेख समकोणीय ब्राह्मी लिपि में है, जो 500 ईस्वी के बाद देश में कहीं भी देखने को नहीं मिलती। उनके मुताबिक हर्षवर्धन के काल में जिस ब्राह्मी लिपि का प्रयोग देखने को मिलता है वह न्यूनकोणीय है।
तीसरा मत उन विद्वानों का है जो मुंडेश्वरी शिलालेख को गुप्तकाल से भी प्राचीन मानते हैं। बताया जाता है कि एक जगह भारतीय अभिलेखों की चर्चा करते हुए विख्यात इतिहासकार डीआर भंडारकर ने भी इस तरह की संभावना की ओर संकेत किया है। हाल में हुए कुछ शोधों के आधार पर शिलालेख में उल्लेखित संवत्सर को शक संवत् मानते हुए इसे कुषाण युग में हुविष्क के शासनकाल में 108 ईस्वी सन् में उत्कीर्ण माना गया है। इस मान्यता के पक्ष में ठोस तर्क दिए गए हैं, जिनमें कुछ मुख्य निम्नलिखित हैं :
1. गुप्तकालीन अभिलेखों की शुरुआत शासकों की प्रशंसा से होती थी, जबकि कुषाणकालीन अभिलेखों की पहली पंक्ति में ही अभिलेख की तिथि मिलती है। मुंडेश्वरी शिलालेख में भी पहली पंक्ति में ही तिथि अंकित है।

2. अठारह पंक्तियों के मुंडेश्वरी शिलालेख में 11 व्याकरणिक अशुद्धियां हैं। इससे इस संभावना को बल मिलता है कि यह शिलालेख गुप्तकाल से पूर्व का है। गुप्तकाल से पूर्व के अधिकांश अभिलेखों पर प्राकृत भाषा का प्रभाव देखने को मिलता है तथा पाणिनी के व्याकरण का उस समय कड़ाई से पालन नहीं होता था। जबकि गुप्तकालीन अभिलेखों में पाणिनीय व्याकरण का बिना किसी त्रुटि के साथ पालन किया गया है तथा वे परिनिष्ठित संस्कृत के अच्छे उदाहरण हैं।
3. गुप्तकालीन अभिलेखों में मास और दिवस के साथ पक्ष (शुक्ल या कृष्ण) का भी उल्लेख रहता था, जबकि कुषाणकालीन अभिलेखों में पक्ष की चर्चा नहीं है। मुंडेश्वरी शिलालेख में भी मास और दिवस के साथ पक्ष की चर्चा नहीं है (कार्तिकदिवसेद्वाविंशतिमे)।
यह तो हुई शिलालेख की बात, अब मुंडेश्वरी मंदिर के समीप मिले श्रीलंका के शासक की राजकीय मुद्रा के बारे में भी कुछ चर्चा कर लें। श्रीलंका के जिस शासक दुत्तगामनी की मुद्रा (royal seal) मिली है, उनका शासनकाल ईसा पूर्व 101-77 बताया जाता है।
मुंडेश्वरी धाम में मिले पुरातात्विक साक्ष्य (शिलालेख और दुत्तगामनी की मुद्रा) जब इतने प्राचीन हैं तो जाहिर है कि मंदिर उससे पहले ही बना होगा। इस तरह से मंदिर का निर्माण ईस्वी सन् से पूर्व का भी हो सकता है। यदि ऐसा है तो यह मंदिर युनेस्को द्वारा विश्व धरोहर (World Heritage) घोषित किए जाने का हकदार है और इस दिशा में हो रही कोशिश को समर्थन दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही मंदिर में पर्यटक सुविधाओं का विस्तार कर हमारे गौरवशाली अतीत के इस स्मारक को विश्व मानचित्र पर लाया जाना चाहिए। सनद रहे कि यह प्राचीन मंदिर वाराणसी से गया जाने के रूट में हैं, जिन स्थलों के भ्रमण हेतु हर साल बड़ी संख्या में विदेशी पर्यटक आते हैं।