लोग-बाग बसने लगे।
फिर भी चलते रहे।
गुफाओं से घर उठाये।
उंचे से नीचे उतरे।
भेड़ों से गायें रखीं।
जंगल से बाग और उपवन तैयार किये।
खुली जबां बंधने लगी।
वैदिक से संवर दी भाषा संस्कृत हुई।
नियम बने, शुद्ध रूप लाये गये,
अथवा जंगली सभ्य हुए वेशवास से।
कड़े कोस ऐसे कटे।
खोज हुई, सुख के साधन बढ़े-
जैसे उबटन से साबुन।
वेदों के बाद जाति चार भागों में बंटी,
यही रामराज है।
वाल्मीकि ने पहले वेदों की लीक छोड़ी,
छन्दों में गीत रचे, मंत्रों को छोड़कर,
मानव को मान दिया,
धरती की प्यारी लड़की सीता के गाने गाये।
कली ज्योति में खिली
मिट्टी से चढ़ती हुई।
''वर्जिन स्वैल'', ''गुड अर्थ'', अब के परिणाम हैं।
कृष्ण ने भी जमीं पकड़ी,
इन्द्र की पूजा की जगह
गोवर्धन को पुजाया,
मानव को, गायों और बैलों को मान दिया।
हल को बलदेव ने हथियार बनाया,
कन्धे पर डाले फिरे।
खेती हरी-भरी हुई।
यहां तक पहुंचते अभी दुनियां को देर है।
(कविता राग-विराग तथा चित्र विकिपीडिया से साभार)