स्वाद वाली चीजों से सड़कों पर दौड़नेवाला वाहन तैयार किया जाए, यह सुनने में विचित्र लगता है। शायद इसीलिए आलू-गाजर से रेस कार बनाए जाने की खबर देखकर पहली बात जो मेरे मन में आयी वह यह कि यह कार है या स्वादिष्ट भोजन। लेकिन बात इतनी ही नहीं है। यह खबर हमें टिकाऊ विकास (sustainable development) के पर्यावरण-अनुकूल उपायों के प्रति आशावान बनाती है।
इंग्लैण्ड की वारविक युनिवर्सिटी की वर्ल्डफर्स्ट टीम ने एक ऐसी ही ईको-फ्रेंडली रेस कार तैयार की है, जो चॉकलेट और वेजिटेबल ऑयल से चलेगी। दुनिया की इस पहली वेजिटेबल कार का नाम ईको एफ 3 (ecoF3) रखा गया है। इसका स्टियरिंग व्हील गाजर से बना है, जबकि बॉडी आलू की है। सीट सोयाबीन से बनी है। इंजन भी बायोडीजल है। फलों, साग-सब्जियों व पौधों से निकाले गए वेजिटेबल फाइबर को रेजिन के साथ मिलाकर इस कार के अनेक पार्ट-पुर्जे बनाए गए हैं। जबकि चॉकलेट और अन्य पौधा आधारित चीजों से निकाले गए तेल को रिफाइन कर ईंधन और लुब्रिकेन्ट तैयार किए गए हैं। यह कार 140-45 मील प्रति घंटे की रफ्तार तक चल सकती है।
इस कार को मई में लांच किए जाने की योजना है। वर्ल्डफर्स्ट टीम चाहती है कि कार दौड़ का आयोजन करनेवाले अपने नियमों में संशोधन करें और अगले सत्र से गैरपरंपरागत नवीकरण योग्य ईंधन से चलनेवाली उनकी इस कार को रेस में शामिल कर लें।
वर्तमान में यह फार्मूला 3 कार, रेस के लिए वैध नहीं है क्योंकि चॉकलेट आधारित ईंधन उनकी स्वीकृत ईंधन सूची में शामिल नहीं है। जबकि वर्ल्डफस्ट टीम यह साबित करना चाहती है कि ईको-फ्रेंडली कार का मतलब धीमी रफ्तार वाली उबाऊ कार नहीं है। उसके प्रवक्ता का कहना है, ‘हमें उम्मीद है कि भविष्य में फार्मूला वन कारों में नई सामग्री का उपयोग किया जाएगा।‘
Tuesday, April 28, 2009
Friday, April 24, 2009
कृषि मंत्रालय संबंधी फर्जी वेबसाइट का भंडाफोड़
ठगों ने अब फर्जी वेबसाइट बनाकर भी ठगने का धंधा शुरू कर दिया है। कृषि मंत्रालय के अधीन काम करनेवाले एक विभाग की फर्जी वेबसाइट बनाकर सरकारी रिक्तियों का इश्तेहार दिया गया तथा प्रवेश परीक्षा आयोजित कर परिणाम भी घोषित किए गए। इस वेबसाइट की गतिविधियों पर जब भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की नजर पड़ी तो इसका भांडा फूटा और इसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई शुरू की गई। पूरी रपट दैनिक जागरण से उद्धृत की जा रही है। इस खबर को यहां भी देखा जा सकता है।
साइबर क्राइम से जुड़ा सनसनीखेज मामला सामने आया है। हाल ही में कृषि मंत्रालय के अधीन काम करने वाले एक विभाग की फर्जी वेबसाइट का भंडाफोड़ किया गया है। इस फर्जी वेबसाइट पर कृषि मंत्री शरद पवार की तस्वीर भी चस्पा है।
वेबसाइट पर खुद को कृषि मंत्रालय की शोध इकाई बताते हुए हरियाणा में सेंट्रल एग्रीकल्चर रिसर्च सेंटर (सीएआरसी) नामक संस्था ने पिछले साल बाकायदा सरकारी पदों के लिए विज्ञापन भी दिया। यही नहीं, 1 मार्च को एक प्रवेश परीक्षा आयोजित कराई गई और वेबसाइट पर उसके नतीजे भी घोषित किए गए हैं।
लेकिन अब इस वेबसाइट की गतिविधियों पर कृषि मंत्रालय की वास्तविक शोध शाखा इंडियन काउंसिल आफ एग्रीकल्चर रिसर्च (आईसीएआर) की नजर है। आईसीएआर का कहना है कि किसी सरकारी एजेंसी की वेबसाइट की तरह दिखने वाली यह फर्जी वेबसाइट निश्चित ही लोगों को ठगने के लिए बनाई गई है।
सीएआरसी की वेबसाइट का न केवल यूआरएल एड्रेस (सीएआरसी डाट ओआरजी डाट इन) आईसीएआर की वेबसाइट से मिलता-जुलता है बल्कि फर्जी वेबसाइट में बहुत सी सामग्री भी आईसीएआर की वेबसाइट से कॉपी की गई है। नकली वेबसाइट में कृषि भवन को अपना मुख्यालय बताया गया है। आईसीएआर जहां कृषि भवन में स्थित है, वहीं सीएआरसी ने वेबसाइट में अपना पता हरियाणा के फरीदाबाद जिले स्थित पलवल में बताया है।
आईसीएआर के सचिव एके उपाध्याय ने कहा कि यह वेबसाइट लोगों को ठगने के लिए बनाई गई है। आईसीएआर इस मामले में कानूनी कार्रवाई कर रहा है। संगठन से जुड़े सभी लोगों को इस बारे में सूचित कर दिया गया है कि कृषि मंत्रालय या आईसीएआर का हिस्सा मानकर नकली एजेंसी के साथ कोई संबंध न रखा जाए।
फर्जी वेबसाइट में सीएआरसी के लिए अक्टूबर 2008 में 272 पदों के लिए रिक्तियां भी निकाली गई थीं। विज्ञापन में कहा गया था कि 85 क्लर्क, 75 आफिस इंचार्ज, 56 अकाउंटेंट और 55 पीआरओ की जरूरत है। मनीश सिंह के नाम से पंजीकृत इस वेबसाइट पर 1 मार्च को आयोजित परीक्षा के चयनित उम्मीदवारों की सूची भी प्रकाशित की गई है। अभी यह साफ नहीं हो सका है कि इस वेबसाइट के जरिए कितने लोग ठगी के शिकार हुए।
साइबर क्राइम से जुड़ा सनसनीखेज मामला सामने आया है। हाल ही में कृषि मंत्रालय के अधीन काम करने वाले एक विभाग की फर्जी वेबसाइट का भंडाफोड़ किया गया है। इस फर्जी वेबसाइट पर कृषि मंत्री शरद पवार की तस्वीर भी चस्पा है।
वेबसाइट पर खुद को कृषि मंत्रालय की शोध इकाई बताते हुए हरियाणा में सेंट्रल एग्रीकल्चर रिसर्च सेंटर (सीएआरसी) नामक संस्था ने पिछले साल बाकायदा सरकारी पदों के लिए विज्ञापन भी दिया। यही नहीं, 1 मार्च को एक प्रवेश परीक्षा आयोजित कराई गई और वेबसाइट पर उसके नतीजे भी घोषित किए गए हैं।
लेकिन अब इस वेबसाइट की गतिविधियों पर कृषि मंत्रालय की वास्तविक शोध शाखा इंडियन काउंसिल आफ एग्रीकल्चर रिसर्च (आईसीएआर) की नजर है। आईसीएआर का कहना है कि किसी सरकारी एजेंसी की वेबसाइट की तरह दिखने वाली यह फर्जी वेबसाइट निश्चित ही लोगों को ठगने के लिए बनाई गई है।
सीएआरसी की वेबसाइट का न केवल यूआरएल एड्रेस (सीएआरसी डाट ओआरजी डाट इन) आईसीएआर की वेबसाइट से मिलता-जुलता है बल्कि फर्जी वेबसाइट में बहुत सी सामग्री भी आईसीएआर की वेबसाइट से कॉपी की गई है। नकली वेबसाइट में कृषि भवन को अपना मुख्यालय बताया गया है। आईसीएआर जहां कृषि भवन में स्थित है, वहीं सीएआरसी ने वेबसाइट में अपना पता हरियाणा के फरीदाबाद जिले स्थित पलवल में बताया है।
आईसीएआर के सचिव एके उपाध्याय ने कहा कि यह वेबसाइट लोगों को ठगने के लिए बनाई गई है। आईसीएआर इस मामले में कानूनी कार्रवाई कर रहा है। संगठन से जुड़े सभी लोगों को इस बारे में सूचित कर दिया गया है कि कृषि मंत्रालय या आईसीएआर का हिस्सा मानकर नकली एजेंसी के साथ कोई संबंध न रखा जाए।
फर्जी वेबसाइट में सीएआरसी के लिए अक्टूबर 2008 में 272 पदों के लिए रिक्तियां भी निकाली गई थीं। विज्ञापन में कहा गया था कि 85 क्लर्क, 75 आफिस इंचार्ज, 56 अकाउंटेंट और 55 पीआरओ की जरूरत है। मनीश सिंह के नाम से पंजीकृत इस वेबसाइट पर 1 मार्च को आयोजित परीक्षा के चयनित उम्मीदवारों की सूची भी प्रकाशित की गई है। अभी यह साफ नहीं हो सका है कि इस वेबसाइट के जरिए कितने लोग ठगी के शिकार हुए।
Tuesday, April 21, 2009
जहरीला प्रोटीन पैदा करनेवाला जीन ही बीटी बैगन में !
आप यह बात जानते होंगे कि भारत का पहला जीन संवर्धित खाद्य पदार्थ बीटी बैगन सरकार की सर्वोच्च प्रौद्योगिकी नियामक संस्था जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी (GEAC) की स्वीकृति पाने के अंतिम चरण में है। उम्मीद है कि वर्ष 2009 के अंत तक वाणिज्यिक उत्पादन के लिए इसके बीज बाजार में आ जाएंगे। लेकिन क्या आप यह भी जानते हैं कि बीटी का मतलब क्या है ?
बीटी मतलब बैसिलस थ्युरिंगियेंसिस (Bacillus thuringiensis)। जी हां, यह मिट्टी में पाया जानेवाला वही बैक्टीरिया है जिसके जीन को मोंसैंटो के जीएम मक्का मोन 810 में मिलाया गया है, जिसकी खेती जर्मनी में प्रतिबंधित कर दी गयी।
कहने का तात्पर्य है कि बीटी बैगन में भी उसी तरह का जीन डाला गया है, जिसकी वजह से मोंसैंटो के जीन संवर्धित बीटी मक्का मोन 810 की खेती पर जर्मनी, फ्रांस सहित छह यूरोपीय देशों में रोक लगी हुई है। रोक संबंधी पूरी खबर आप हमारे पूर्व के लेख में देख सकते हैं। बैसिलस थ्युरिंगियेंसिस बैक्टीरिया का जीन मक्का में एक ऐसा जहरीला प्रोटीन पैदा करता है, जिससे मक्के को नुकसान पहुंचानेवाली कॉर्नबोरर तितली का लार्वा मर जाता है। बीटी बैगन में इस जीन के मिलावट के पीछे भी पौधे में नुकसानदेह कीटों को मारने की क्षमता विकसित करने की ही सोच है। संभव है इस जीन प्रोद्यौगिकी की मदद से कीटनाशकों पर होनेवाला किसानों का व्यय बचे तथा उपज में वृद्धि हो। लेकिन मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण पर इसका कितना दुष्प्रभाव पड़ेगा, इसका समूचा आकलन अभी शेष है।
मोंसैंटो कंपनी द्वारा तैयार किए गए जीन परिवर्तित (gnentically engineered) मक्के की किस्मों के बारे में पर्यावरणवादियों का कहना है कि ये पर्यावरण, मिट्टी, मानव स्वास्थ्य व वन्य प्राणियों के लिए नुकसानदेह हैं। उनका कहना है कि इनकी वजह से अन्य फसलें भी प्रदूषित हो जाएंगी, जिससे पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। कुछ रिपोर्टों में कहा गया है कि चूहों पर किए गए परीक्षणों में इस मक्का के खाने से उनकी रक्त-सरंचना में परिवर्तन, जनन क्षमता में ह्रास और लीवर व किडनी जैसे आंतरिक अंगों को क्षति पहुंचने की बात सामने आयी है। कहा जा रहा है कि खुद जर्मन कृषि मंत्रालय के सामने ऐसे कई वैज्ञानिक अध्ययन हैं, जो कहते है कि इस मक्के की खेती से तितलियों और गुबरैलों को ही नहीं, मिट्टी और पानी में रहने वाले कुछ दूसरे जीवधारियों को भी ख़तरा है।
गौर करने की बात है कि बीटी मक्का की खेती यूरोप में खाने के लिए नहीं, जानवरों को खिलाने के लिए होती है। लेकिन बीटी बैगन तो भारत में हमारे आप के जैसे इंसान खाएंगे। जब पशु चारा के रूप में जीएम फूड की खेती का इतना खतरा है तो आदमी के खाद्य पदार्थ के रूप में इसके उत्पादन का क्या दुष्प्रभाव होगा आप खुद ही आंक लीजिए।
बीटी मतलब बैसिलस थ्युरिंगियेंसिस (Bacillus thuringiensis)। जी हां, यह मिट्टी में पाया जानेवाला वही बैक्टीरिया है जिसके जीन को मोंसैंटो के जीएम मक्का मोन 810 में मिलाया गया है, जिसकी खेती जर्मनी में प्रतिबंधित कर दी गयी।
कहने का तात्पर्य है कि बीटी बैगन में भी उसी तरह का जीन डाला गया है, जिसकी वजह से मोंसैंटो के जीन संवर्धित बीटी मक्का मोन 810 की खेती पर जर्मनी, फ्रांस सहित छह यूरोपीय देशों में रोक लगी हुई है। रोक संबंधी पूरी खबर आप हमारे पूर्व के लेख में देख सकते हैं। बैसिलस थ्युरिंगियेंसिस बैक्टीरिया का जीन मक्का में एक ऐसा जहरीला प्रोटीन पैदा करता है, जिससे मक्के को नुकसान पहुंचानेवाली कॉर्नबोरर तितली का लार्वा मर जाता है। बीटी बैगन में इस जीन के मिलावट के पीछे भी पौधे में नुकसानदेह कीटों को मारने की क्षमता विकसित करने की ही सोच है। संभव है इस जीन प्रोद्यौगिकी की मदद से कीटनाशकों पर होनेवाला किसानों का व्यय बचे तथा उपज में वृद्धि हो। लेकिन मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण पर इसका कितना दुष्प्रभाव पड़ेगा, इसका समूचा आकलन अभी शेष है।
मोंसैंटो कंपनी द्वारा तैयार किए गए जीन परिवर्तित (gnentically engineered) मक्के की किस्मों के बारे में पर्यावरणवादियों का कहना है कि ये पर्यावरण, मिट्टी, मानव स्वास्थ्य व वन्य प्राणियों के लिए नुकसानदेह हैं। उनका कहना है कि इनकी वजह से अन्य फसलें भी प्रदूषित हो जाएंगी, जिससे पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। कुछ रिपोर्टों में कहा गया है कि चूहों पर किए गए परीक्षणों में इस मक्का के खाने से उनकी रक्त-सरंचना में परिवर्तन, जनन क्षमता में ह्रास और लीवर व किडनी जैसे आंतरिक अंगों को क्षति पहुंचने की बात सामने आयी है। कहा जा रहा है कि खुद जर्मन कृषि मंत्रालय के सामने ऐसे कई वैज्ञानिक अध्ययन हैं, जो कहते है कि इस मक्के की खेती से तितलियों और गुबरैलों को ही नहीं, मिट्टी और पानी में रहने वाले कुछ दूसरे जीवधारियों को भी ख़तरा है।
गौर करने की बात है कि बीटी मक्का की खेती यूरोप में खाने के लिए नहीं, जानवरों को खिलाने के लिए होती है। लेकिन बीटी बैगन तो भारत में हमारे आप के जैसे इंसान खाएंगे। जब पशु चारा के रूप में जीएम फूड की खेती का इतना खतरा है तो आदमी के खाद्य पदार्थ के रूप में इसके उत्पादन का क्या दुष्प्रभाव होगा आप खुद ही आंक लीजिए।
Sunday, April 19, 2009
जीन संवर्धित फसल : किसानों के लिए टेंशन लेने का नहीं, देने का !
इस शीर्षक में तल्खी है, इस बात से हमें इंकार नहीं। लेकिन जीएम फसलों की वजह से क्षुब्ध किसानों को तसल्ली देने के लिए इससे बेहतर शब्दावली शायद नहीं है। वैसे यह बात गलत भी नहीं है। भारत में जीएम फसलों के प्रति बढ़ते रूझान से अब समय ही ऐसा आ रहा है कि देश के किसान आपके खाने के लिए जहरीला खाद्यान्न उपजाएंगे। सृष्टि का चक्र शायद कुछ इसी तरह घूमता है। अब तक उपेक्षा सह रहे किसानों को संभवत: इसी रूप में न्याय मिलनेवाला है।
जहां यूरोपीय देशों की सरकारें प्राणियों व पर्यावरण पर जीन संवर्धित फसलों के दुष्प्रभाव को लेकर उन पर रोक लगा रही हैं, भारत की सरकारी संस्थाएं उनके प्रचार में जुटी हैं। चिंता की बात यह है कि भारत के आम शहरी भी इस मामले में उदासीन बने हुए हैं, मानो उनके लिए यह कोई मुद्दा ही नहीं है। वे सोचते होंगे कि जीएम फसल से उन्हें क्या मतलब, इसके बारे में किसान जानें, पर्यावरणवादी जानें या सरकार। हालांकि उनकी यह उदासीनता उनके लिए बहुत बड़ा संकट उत्पन्न करनेवाली है, जिससे बचने का बाद में शायद कोई विकल्प न हो। वे यदि उदासीन न रहते तो सरकार पर इस मामले में गंभीर रहने का दबाव पड़ता।
देश में कृषि संबंधी सारी समस्याओं का खामियाजा अब तक सिर्फ किसान भुगतते आए हैं, लेकिन जीन संवर्धित फसलों के मामले में ऐसा नहीं होनेवाला। इनका सबसे अधिक नुकसान इन्हें उपजानेवालों को नहीं, बल्कि इन्हें खानेवालों को उठाना होगा। किसान को तो जीएम फसलों की वजह से पैदावार बढ़ने या कीटनाशकों पर लागत कम आने का शायद फायदा भी हो जाए, लेकिन गैर किसानों को तो सिर्फ क्षति ही क्षति है। किसान तो शायद अपने खाने के लिए थोड़ी मात्रा में परंपरागत फसल उपजा ले, लेकिन गैर किसानों के लिए तो बाजार सिर्फ और सिर्फ जीएम फसलों से ही पटा होगा।
हाल ही में जीन संवर्धित मक्के की खेती पर जर्मनी में रोक लगा दी गयी है। मोन 810 (MON810) नामक मोंसैंटो (Monsanto) कंपनी के जिस मक्के पर यह कार्रवाई हुई, उसकी खेती पर यूरोपीय संघ के पांच अन्य देशों फ्रांस, आस्ट्रिया, हंगरी, ग्रीस और लक्जेमबर्ग पर पहले से ही रोक लगी हुई थी। यूरोप में पशु चारे के लिए इस मक्के की खेती होती थी। आस्ट्रिया में मोंसैंटो के ही एक अन्य जीन संवर्धित मक्के मोन 863 (MON863) के आयात पर भी प्रतिबंध लगा हुआ है। जीएम मक्के की इस किस्म की अमेरिका व कनाडा में खेती होती है।
हालांकि भारत की सरकार और उसकी संस्थाएं जीन संवर्धित फसलों के प्रति सहिष्णु रवैया अपनाए हुए हैं। भारत में मोंसैंटो के आंशिक स्वामित्व वाली कंपनी माहीको (Mahyco) के जीन संवर्धित बीटी कपास का बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक उत्पादन हो रहा है तथा बीटी बैगन के वाणिज्यिक उत्पादन की तैयारी भी अंतिम चरण में है। जिन फसलों से जीव व पर्यावरण को होनेवाली क्षति को देखेते हुए यूरोप में प्रतिबंधित किया जा रहा है, उनके प्रति भारत के रवैये का एक नमूना तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय के अधिकृत बयान में देखा जा सकता है। संस्था के रजिस्ट्रार ने जीन संवर्धित मक्का को परंपरागत मक्का की किस्मों की तुलना में वरदान मानते हुए कहा है कि यह नुकसानदेह नहीं है। देश में जैव प्रौद्योगिकी का नियमन करनेवाली शीर्ष संस्था जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी (GEAC) है जो केन्द्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय के अधीन काम करती है। लेकिन वह जीन संवर्धित फसलों से पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य को होनेवाली क्षति वाले पहलू पर गंभीरता से विचार करते नहीं जान पड़ती। खुद तत्कालीन केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदास ने कुछ माह पूर्व जीन संवर्धित फसलों का विरोध करते हुए कहा था कि बीटी बैगन को इसकी सुरक्षा पर बिना पर्याप्त शोध किए भारत में लाया गया है।
जाहिर है हमारी सरकारी संस्थाएं जीन संवर्धित फसलों के प्रति सहिष्णु बनी हुई हैं। बहरहाल हम जर्मन कृषि मंत्री सुश्री इल्जे आइगनर को जीएम मक्के की खेती पर प्रतिबंध के उनके साहसिक निर्णय के लिए धन्यवाद देते हुए यह सोचकर हैरान-परेशान हैं कि हमारे मंत्री इस तरह का फैसला क्यों नहीं कर पाते!
जहां यूरोपीय देशों की सरकारें प्राणियों व पर्यावरण पर जीन संवर्धित फसलों के दुष्प्रभाव को लेकर उन पर रोक लगा रही हैं, भारत की सरकारी संस्थाएं उनके प्रचार में जुटी हैं। चिंता की बात यह है कि भारत के आम शहरी भी इस मामले में उदासीन बने हुए हैं, मानो उनके लिए यह कोई मुद्दा ही नहीं है। वे सोचते होंगे कि जीएम फसल से उन्हें क्या मतलब, इसके बारे में किसान जानें, पर्यावरणवादी जानें या सरकार। हालांकि उनकी यह उदासीनता उनके लिए बहुत बड़ा संकट उत्पन्न करनेवाली है, जिससे बचने का बाद में शायद कोई विकल्प न हो। वे यदि उदासीन न रहते तो सरकार पर इस मामले में गंभीर रहने का दबाव पड़ता।
देश में कृषि संबंधी सारी समस्याओं का खामियाजा अब तक सिर्फ किसान भुगतते आए हैं, लेकिन जीन संवर्धित फसलों के मामले में ऐसा नहीं होनेवाला। इनका सबसे अधिक नुकसान इन्हें उपजानेवालों को नहीं, बल्कि इन्हें खानेवालों को उठाना होगा। किसान को तो जीएम फसलों की वजह से पैदावार बढ़ने या कीटनाशकों पर लागत कम आने का शायद फायदा भी हो जाए, लेकिन गैर किसानों को तो सिर्फ क्षति ही क्षति है। किसान तो शायद अपने खाने के लिए थोड़ी मात्रा में परंपरागत फसल उपजा ले, लेकिन गैर किसानों के लिए तो बाजार सिर्फ और सिर्फ जीएम फसलों से ही पटा होगा।
हाल ही में जीन संवर्धित मक्के की खेती पर जर्मनी में रोक लगा दी गयी है। मोन 810 (MON810) नामक मोंसैंटो (Monsanto) कंपनी के जिस मक्के पर यह कार्रवाई हुई, उसकी खेती पर यूरोपीय संघ के पांच अन्य देशों फ्रांस, आस्ट्रिया, हंगरी, ग्रीस और लक्जेमबर्ग पर पहले से ही रोक लगी हुई थी। यूरोप में पशु चारे के लिए इस मक्के की खेती होती थी। आस्ट्रिया में मोंसैंटो के ही एक अन्य जीन संवर्धित मक्के मोन 863 (MON863) के आयात पर भी प्रतिबंध लगा हुआ है। जीएम मक्के की इस किस्म की अमेरिका व कनाडा में खेती होती है।
हालांकि भारत की सरकार और उसकी संस्थाएं जीन संवर्धित फसलों के प्रति सहिष्णु रवैया अपनाए हुए हैं। भारत में मोंसैंटो के आंशिक स्वामित्व वाली कंपनी माहीको (Mahyco) के जीन संवर्धित बीटी कपास का बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक उत्पादन हो रहा है तथा बीटी बैगन के वाणिज्यिक उत्पादन की तैयारी भी अंतिम चरण में है। जिन फसलों से जीव व पर्यावरण को होनेवाली क्षति को देखेते हुए यूरोप में प्रतिबंधित किया जा रहा है, उनके प्रति भारत के रवैये का एक नमूना तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय के अधिकृत बयान में देखा जा सकता है। संस्था के रजिस्ट्रार ने जीन संवर्धित मक्का को परंपरागत मक्का की किस्मों की तुलना में वरदान मानते हुए कहा है कि यह नुकसानदेह नहीं है। देश में जैव प्रौद्योगिकी का नियमन करनेवाली शीर्ष संस्था जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी (GEAC) है जो केन्द्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय के अधीन काम करती है। लेकिन वह जीन संवर्धित फसलों से पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य को होनेवाली क्षति वाले पहलू पर गंभीरता से विचार करते नहीं जान पड़ती। खुद तत्कालीन केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदास ने कुछ माह पूर्व जीन संवर्धित फसलों का विरोध करते हुए कहा था कि बीटी बैगन को इसकी सुरक्षा पर बिना पर्याप्त शोध किए भारत में लाया गया है।
जाहिर है हमारी सरकारी संस्थाएं जीन संवर्धित फसलों के प्रति सहिष्णु बनी हुई हैं। बहरहाल हम जर्मन कृषि मंत्री सुश्री इल्जे आइगनर को जीएम मक्के की खेती पर प्रतिबंध के उनके साहसिक निर्णय के लिए धन्यवाद देते हुए यह सोचकर हैरान-परेशान हैं कि हमारे मंत्री इस तरह का फैसला क्यों नहीं कर पाते!
Wednesday, April 15, 2009
जीन संवर्धित मक्के की खेती पर जर्मनी में लगी रोक
पर्यावरण पर खतरे से चिंतित लोगों को यह जानकर खुशी हो सकती है कि जर्मनी में जीन संवर्धित मक्के की खेती पर रोक लगा दी गयी है। यह रोक विख्यात अमेरिकी बायोटेक कंपनी मोंसैंटो (Monsanto) के जीन संवर्धित मक्के मोन 810 (MON810) की खेती पर लगायी गयी है। बताया जाता है कि मोन 810 में इस तरह का जीन डाला गया है जो पौधे को नुकसान पहुंचानेवाले कीड़े कॉर्नबोरर को मारने के लिए विष का काम कर सके।
मोन 810 की खेती पर रोक लगानेवाला जर्मनी यूरोपीय संघ का छठा देश है। फ़्रांस, ऑस्ट्रिया, हंगरी, ग्रीस और लक्ज़ेमबर्ग में पहले से ही इसकी खेती पर रोक लगी हुई है। इसके अलावा ऑस्ट्रिया में मोंसैंटो के ही जीन संवर्धित मक्का मोन 863 (MON863) के आयात पर भी प्रतिबंध लगा हुआ है। इस फैसले का महत्व इसलिए और अधिक बढ़ जाता है क्योंकि मोन 810 ऐसी एकमात्र जीन संवर्धित फसल है, जिसकी यूरापीय संघ में वाणिज्यिक तौर पर खेती हो रही है। वहां पर इसकी खेती मुख्य रूप से पशु चारे के लिए की जाती है। यूरोपीय संघ में इसकी खेती का दस सालों का लाइसेंस समाप्त होनेवाला है और अब उसके नवीकरण की जरूरत पड़ेगी।
जर्मन कृषिमंत्री इल्जे आइगनर ने मोन 810 की खेती पर प्रतिबंध के अपने फ़ैसले की वजह बताते हुए कहा है कि इस बात का संदेह है कि जीन परिवर्तित मक्का दूसरे प्राणियों को नुकसान पहुंचा सकता है। हालांकि उन्होंने दावा किया कि उनका फैसला विज्ञान पर आधारित है और इसका अभिप्राय सभी तरह के जीन संवर्धित फसलों पर प्रतिबंध नहीं है। सुश्री आइगनर ने कहा कि जीन अभियांत्रिकी में मनुष्य, जानवर, पौधों व पर्यावरण की सुरक्षा की संपूर्ण गारंटी समावेशित होना जरूरी है।
मोंसैंटो कंपनी द्वारा तैयार किए गए इन जीन परिवर्तित (gnentically engineered) मक्के की किस्मों के बारे में पर्यावरणवादियों का कहना है कि ये पर्यावरण, मिट्टी, मानव स्वास्थ्य व वन्य प्राणियों के लिए नुकसानदेह हैं। उनका कहना है कि इनकी वजह से अन्य फसलें भी प्रदूषित हो जाएंगी, जिससे पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा उत्पन्न हो जाएगा। कुछ रिपोर्टों में कहा गया है कि चूहों पर किए गए परीक्षणों में इस मक्का के खाने से उनकी रक्त-सरंचना में परिवर्तन, जनन क्षमता में ह्रास और लीवर व किडनी जैसे आंतरिक अंगों को क्षति पहुंचने की बात सामने आयी है। कहा जा रहा है कि मोंसैंटो के जीएम मक्के की इन किस्मों में डाले गए जीन की वजह से जो कीटनाशी विष तैयार होता है, वह मिट्टी में रिसकर केंचुआ जैसे मृदा स्वास्थ्य के लिए उपयोगी जीवों को हानि पहुंचाता है। इसके अतिरिक्त उसकी वजह से तितली, मकड़ी, चींटी आदि वन्य जीवों को भी नुकसान होता है।
ग्रीनपीस जैसे कई पर्यावरणवादी संगठन जीन परिवर्धित मक्के की इन किस्मों की खेती और इनके आयात पर प्रतिबंध की अरसे से यूरोप में मांग करते रहे हैं।
Thursday, April 2, 2009
वैज्ञानिक करें सिक्यूरिटी गार्ड का काम, तो कैसे हो कृषि अनुसंधान !
मीडिया में पिछले दिनों प्रोफेसर विजय भोसेकर की खबर आयी थी, जिसे शायद आपने देखा हो। गोल्ड मेडल से सम्मानित भारत का यह कृषि वैज्ञानिक इन दिनों कनाडा के टोरंटो शहर में सिक्यूरिटी गार्ड का काम कर रहा है। मजेदार तथ्य यह है कि प्रो. भोसेकर को गोल्ड मेडल किसी ऐरू-गैरू संस्था ने नहीं बल्कि देश में कृषि अनुसंधान के अग्रणी संगठन भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने दिया है। और ये हालात तब हैं जबकि आईसीएआर की विभिन्न संस्थाओं में कृषि वैज्ञानिकों के करीब 2500 पद खाली हैं।
घोषित तौर पर कृषि क्षेत्र सरकार के एजेंडा में भले ही सबसे ऊपर हो लेकिन जमीनी सच्चाई हमेशा इसके विपरीत ही नजर आती है। जिस देश में कृषि वैज्ञानिकों की कमी की बात कही जा रही हो, वहां के कृषि वैज्ञानिक का दूसरे देश में जाकर असम्मानजनक काम करना देश में कृषि विज्ञान की उपेक्षापूर्ण स्थिति का ही परिचायक है।
कृषि विज्ञान में पीएचडी हासिल कर चुके भोसेकर पूर्व में आंध्रप्रदेश की राजधानी हैदराबाद में यूनिवर्सिटी प्रोफेसर थे। उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उन्हें सुरक्षा प्रहरी की पोशाक पहन भवनों की पहरेदारी करनी पड़ेगी। हालांकि अप्रैल, 2005 में कनाडा जाने के बाद से इस 49-वर्षीय शख्स को यही करना पड़ रहा है। कनाडा जाने के बाद उन्हें पता चला कि वहां भारतीय डिगरियों की मान्यता नहीं है। मजबूरन परिवार का खर्च चलाने के लिए उन्हें 10 डॉलर प्रति घंटे के हिसाब से सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी करनी पड़ रही है।
इधर अपने देश में कृषि अनुसंधान का हाल यह है कि इस क्षेत्र में वैज्ञानिकों की घोर कमी है, जिसके चलते कई परियोजनाओं के ठप पड़े होने की बात कही जाती है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के विभिन्न संस्थानों के कृषि वैज्ञानिकों के करीब 38 फीसदी अर्थात 2500 पद खाली हैं। आईसीएआर कृषि अनुसंधान और विकास के लिए कार्य करनेवाला देश का सर्वोच्च संगठन है, जिसके अधीन पूरे देश में 47 संस्थान हैं। इन संस्थानों में कृषि, मवेशीपालन, मछलीपालन आदि क्षेत्रों में अनुसंधान का काम होता है। आईसीएआर के विभिन्न अनुसंधान संस्थानों में कृषि वैज्ञानिकों के कुल 6500 पद हैं, जिनमें करीब 38 फीसदी रिक्त पड़े हैं। खबरों के मुताबिक आईसीएआर के अंतर्गत काम करनेवाले भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) में वैज्ञानिकों के कुल करीब 680 पद हैं, जिनमें 280 रिक्त पड़े हैं। बताया जाता है कि देश के उत्तर-पूर्व के संस्थानों में तो और भी बुरा हाल है, जहां कृषि वैज्ञानिकों के लगभग 50 फीसदी पद खाली हैं। इसी प्रकार विभिन्न प्रांतों के अधिकारक्षेत्र में आनेवाले कृषि विश्वविद्यालयों में भी स्थिति रूचिकर नहीं है।
जिस देश की अधिकांश जनता जीविकोपार्जन के लिए कृषि पर आश्रित हो, वहां कृषि वैज्ञानिकों के पदों का रिक्त रहना यही साबित करता है कि कृषि शिक्षा और अनुसंधान सरकार की प्राथमिकता में शामिल नहीं है। इससे अधिक दुर्भाग्य की बात कुछ भी नहीं हो सकती कि जिस देश में कृषि वैज्ञानिकों की इतनी कमी हो, प्रो. भोसेकर जैसे वैज्ञानिक विदेश जाकर मकानों की पहरेदारी करें।
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